क्या ये संभव है कि आप प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम ना लें । आप चाहें तो उनके मंत्रियो का नाम ले लीजिये । सरकार की पॉलिसी में जो भी गड़बड़ी दिखाना चाहते है, दिखा सकते हैं। मंत्रालय के हिसाब के मंत्री का नाम लीजिए पर प्रधानमंभी मोदी का जिक्र कहीं ना कीजिए। लेकिन जब प्रधानमंत्री मोदी खुद ही हर योजना का एलान करते हैं, हर मंत्रालय के कामकाज से खुद को जोड़े हुए हैं और हर मंत्री भी जब प्रधानमंत्री मोदी का ही नाम लेकर योजना या सरकारी पॉलिसी का जिक्र कर रहा है , तो आप कैसे मोदी का नाम ही नहीं लेंगे।
अरे छोड़ दीजिए। कुछ दिनो तक देखते हैं क्या होता है । वैसे आप कर ठीक रहे हैं। पर अभी छोड़ दीजिए।
भारत के आनंद बजार पत्रिका समूह के राष्ट्रीय न्यूज चैनल एबीपी न्यूज के प्रोपराइटर जो एडिटर-इन चीफ भी है, उनके साथ ये संवाद 14 जुलाई को हुआ। यूं इस निर्देश को देने से पहले खासी लंबी बातचीत खबरों को दिखाने, उसके असर और चैनल को लेकर बदलती धारणाओं के साथ हो रहे लाभ पर भी हुआ। एडिटर-इन -चीफ ने माना कि मास्टरस्ट्रोक प्रोगाम ने चैनल की साख बढ़ा दी है। खुद उनके शब्दो में कहें तो, "मास्टरस्ट्रोक में जिस तरह का रिसर्च होता है। जिस तरह खबरों को लेकर ग्रउंड जीरो से रिपोर्टिंग होती है। रिपोर्ट के जरिए सरकार की नीतियों का पूरा खाका रखा जाता है। ग्राफिक्स और स्किप्ट जिस तरह लिखी जाती है, वह चैनल के इतिहास में पहली बार देखा है।"
तो चैनल के बदलते स्वरुप या खबरों को परोसने के अंदाज ने प्रोपराइटर व एडिटर -इन -चीफ को उत्साहित तो किया। पर खबरों को दिखाने-बताने के अंदाज की तारीफ करते हुये भी लगातार वह ये कह भी रहे थे और बता भी रहे थे कि क्या सबकुछ चलता रहे और प्रधानमंत्री मोदी का नाम ना हो तो कैसा रहेगा। खैर एक लंबी चर्चा के बाद सामने निर्देश यही आया कि प्रधानमंत्री मोदी का नाम अब चैनल की स्क्रीन पर लेना ही नहीं है।
तमाम राजनीतिक खबरों के बीच या कहें सरकार की हर योजना के मद्देनजर ये बेहद मुश्किल काम था कि भारत की बेरोजगारी का जिक्र करते हुये कोई रिपोर्ट तैयार की जा रही हो और उसमें सरकार के रोजगार पैदा करने के दावे जो कौशल विकास योजना या मुद्रा योजना से जुड़ी हों, उन योजनाओ की जमीनी हकीकत को बताने के बावजूद ये ना लिख पाये कि प्रधानमंत्री मोदी ने योजनाओं की सफलता को लेकर जो दावा किया वह है क्या। यानी एक तरफ प्रधानमंत्री कहते हैं कि कौशल विकास के जरीये जो स्किल डेवलेंपमेंट शुरु किया गया, उसमें 2022 तक का टारगेट तो 40 करोड युवाओं को ट्रेनिंग देने का रखा गया है पर 2018 में इनकी तादाद दो करोड़ भी छू नहीं पायी है। और ग्राउंड रिपोर्ट बताती है कि जितनी जगहों पर कौशल विकास योजना के तहत सेंटर खोले गये उनमें से हर दस सेंटरों में से 8 सेंटर पर कुछ नहीं होता या कहें 8 सेंटर अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर पाए। लेकिन ग्राउंड रिपोर्ट दिखाते हुये कहीं प्रधानमंत्री का नाम आना ही नहीं चाहिए। तो सवाल था मास्टरस्ट्रोक की पूरी टीम की कलम पर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी शब्द गायब हो जाना चाहिए।
पर अगला सवाल तो ये भी था कि मामला किसी अखबार का नहीं बल्कि न्यूज चैनल का था । यानी स्क्रिप्ट लिखते वक्त कलम चाहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ना लिखे। लेकिन जब सरकार का मतलब ही बीते चार बरस में सिर्फ नरेन्द्र मोदी है तो फिर सरकार का जिक्र करते हुये एडिटिंग मशीन ही नहीं बल्कि लाइब्ररी में भी सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी के ही वीडियो होंगे। और 26 मई 2014 से लेकर 26 जुलाई 2018 तक किसी भी एडिटिंग मशीन पर मोदी सरकार ही नहीं बल्कि मोदी सरकार की किसी भी योजना को लिखते ही जो वीडियो या तस्वीरो का कच्चा चिट्ठा उभरता, उसमें 80 फीसदी में प्रधानमंत्री मोदी ही थे ।
यानी किसी भी एडिटर के सामने जो तस्वीर स्क्रिप्ट के अनुरुप लगाने की जरुरत होती उसमें बिना मोदी का कोई वीडियो या कोई तस्वीर उभरती ही नहीं । और हर मिनट जब काम एडिटर कर रहा है तो उसके सामने स्क्रिप्ट में लिखे , मौजूदा सरकार शब्द आते ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ही तस्वीर उभरती और आन एयर "मास्टरस्ट्रोक" में चाहे कहीं ना भी प्रधानमंत्री मोदी शब्द बोला-सुना ना जा रहा हो पर स्क्रीन पर प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर आ ही जाती।
तो 'मास्टरस्ट्रोक ' में प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर भी नहीं जानी चाहिये, उसका फरमान भी 100 घंटे बीतने से पहले आ जायेगा ये सोचा तो नहीं गया पर सामने आ ही गया। और इस बार एडिटर-इन चीफ के साथ जो चर्चा शुरु हुई वह इस बात से हुई कि क्या वाकई सरकार का मतलब प्रधानमंत्री मोदी ही हैं। यानी हम कैसे प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर दिखाये बिना कोई भी रिपोर्ट दिखा सकते है। उस पर हमारा सवाल था कि मोदी सरकार ने चार बरस के दौर में 106 योजनाओं का एलान किया है। संयोग से हर योजना का एलान खुद प्रधानमंत्री ने ही किया है। हर योजना के प्रचार प्रसार की जिम्मेदारी चाहे अलग अलग मंत्रालय पर हो । अलग अलग मंत्री पर हो । लेकिन जब हर योजना के प्रचार प्रसार में हर तरफ से जिक्र प्रधानमंत्री मोदी का ही हो रहा है तो योजना की सफलता-असफलता पर ग्राउंड रिपोर्ट में भी जिक्र प्रधानमंत्री का चाहे रिपोर्टर - एंकर ना ले लेकिन योजना से प्रभावित लोगों की जुबां पर नाम तो प्रधानमंत्री मोदी का ही होगा और लगातार है भी । चाहे किसान हो या गर्भवती महिला। बेरोजगार हो या व्यापारी। जब उनसे फसल बीमा पर सवाल पूछें या मातृत्व वंदना योजना या जीएसटी पर पूछें या मुद्रा योजना पर पूछें या तो योजनाओं के दायरे में आने वाले हर कोई प्रधानमंत्री मोदी का नाम जरुर लेते। अधिकांश कहते कि कोई लाभ नहीं मिल रहा है तो उनकी बातो को कैसे एडिट किया जाए। तो जवाब यही मिला कि कुछ भी हो पर 'प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर-वीडियो भी मास्टरस्ट्रोक में दिखायी नहीं देनी चाहिये।" वैसे ये सवाल अब भी अनसुलझा सा था कि आखिर प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर या उनका नाम भी जुबां पर ना आये तो उससे होगा क्या ? क्योंकि जब 2014 में सत्ता में आई बीजेपी के लिये सरकार का मतलब नरेन्द्र मोदी है।
बीजेपी के स्टार प्रचारक के तौर पर प्रधानमंत्री मोदी ही है। संघ के चेहरे के तौर पर भी प्रचारक रहे नरेन्द्र मोदी हैं। दुनिया भर में भारत के विदेश नीति के ब्रांड एंबेसडर नरेन्द्र मोदी हैं। देश की हर नीति हर पॉलिसी के केन्द्र में नरेन्द्र मोदी हैं तो फिर दर्जन भर हिन्दी राष्ट्रीय न्यूज चैनलों की भीड़ में पांचवे नंबर के ऱाष्ट्रीय न्यूज चैनल एबीपी के प्राइम टाइम में सिर्फ घंटेभर के कार्यक्रम " मास्टरस्ट्रोक " को लेकर सरकार के भीतर इतने सवाल क्यों हैं। या कहें वह कौन सी मुश्किल है जिसे लेकर एपीपी न्यूज चैनलों के मालिको पर दवाब बनाया जा रहा है कि वह प्रधानमंत्री मोदी का नाम ना लें या फिर तस्वीर भी ना दिखायें ।
दरअसल मोदी सरकार में चार बरस तक जिस तरह सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी को ही केन्द्र में रखा गया और भारत जैसे देश में टीवी न्यूज चैनलों ने जिस तरह सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी को ही दिखाया और धीरे धीरे प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर, उनका वीडियो और उनका भाषण किसी नशे की तरह न्यूज चैनलों को देखने वाले के भीतर समाते गया, उसका असर ये हुआ कि प्रधानमंत्री मोदी ही चैनलों की टीआरपी की जरुरत बन गये। और प्रधानमंत्री के चेहरे का साथ सबकुछ अच्छा है या कहें अच्छे दिन की ही दिशा में देश बढ़ रहा है, ये बताया जाने लगा तो चैनलों के लिये भी यह नशा बन गया और ये नशा ना उतरे, इसके लिये बकायदा मोदी सरकार के सूचना मंत्रालय ने 200 लोगों की एक मॉनिटरिंग टीम को लगा दिया।
बकायदा पूरा काम सूचना मंत्रालय के एडिशनल डायरेक्टर जनरल के मातहत होने लगा, जो सीधी रिपोर्ट सूचना प्रसारण मंत्री को देते। और जो दो सौ लोग देश के तमाम राष्ट्रीय न्यूज चैनलों की मॉनिटरिंग करते, वह तीन स्तर पर होता है। 150 लोगों की टीम सिर्फ मॉनिटरिंग करती । 25 मानेटरिंग की गई रिपोर्ट को सरकार अनुकूल एक शक्ल देते। और बाकि 25 फाइनल मॉनिटरिंग के कंटेंट की समीक्षा करते । उनकी इस रिपोर्ट पर सूचना मंत्रालय के तीन डिप्टी सचिव स्तर के अधिकारी रिपोर्ट तैयार करते । और फाइनल रिपोर्ट सूचना मंत्री के पास भेजी जाती। जिनके जरिए पीएमओ यानी प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारी सक्रिय होते और न्यूज चैनलों के संपादको को दिशा निर्देश देते रहते कि क्या करना है कैसे करना है।
और कोई संपादक जब सिर्फ खबरों के लिहाज से चैनल को चलाने की बात कहता तो चैनल के प्रोपराइटर से सूचना मंत्रालय या पीएमओ के अधिकारी संवाद बनाते । दवाब बनाने के लिये मॉनिटरिंग की रिपोर्ट को नत्ती कर फाइल भेजते। और फाइल में इसका जिक्र होता कि आखिर कैसे प्रधानमंत्री मोदी की 2014 में किये गये चुनावी वादे से लेकर नोटबंदी या सर्जिकल स्ट्राइक या जीएसटी को लागू करते वक्त दावो भरे बयानो को दुबारा दिखाया जा सकता है। या फिर कैसे मौजूदा दौर की किसी योजना पर होने वाली रिपोर्ट में प्रधानमंत्री के पुराने दावे का जिक्र किया जा सकता है। दरअसल मोदी सत्ता की सफलता का नजरिया ही हर तरीके से रखा जाता रहा जाये इसके लिये खासतौर से सूचना प्रसारण मंत्रालय से लेकर पीएमओ के दर्जन भर अधिकारी पहले स्तर पर काम करते है । और दूसरे स्तर पर सूचना प्रसारण मंत्री का सुझाव होता है। जो एक तरह का निर्देश होता है । और तीसरे स्तर पर बीजेपी का लहजा। जो कई स्तर पर काम करता है। मसलन अगर कोई चैनल सिर्फ मोदी सत्ता की सकारात्मकता को नहीं दिखाता है। या कभी कभी नकारात्मक खबर करता है। या फिर तथ्यों के आसरे मोदी सरकार के सच को झूठ करार देता है तो फिर बीजेपी के प्रवक्तताओ को चैनल में भेजने पर पांबदी लग जाती है। यानी न्यूज चैनल पर होने वाली राजनीतिक चर्चाओ में बीजेपी के प्रवक्ता नहीं आते हैं। एवीपी पर ये शुरुआत जून के आखिरी हफ्ते से ही शुरु हो गई।
यानी बीजेपी प्रवक्ताओं ने चर्चा में आना बंद किया। दो दिन बाद से बीजेपी नेताओ ने बाइट देना बंद कर दिया। और जिस दिन प्रधानमंत्री मोदी के मन की बात का सच मास्टरस्ट्रोक में दिखाया गया उसके बाद से बीजेपी के साथ साथ आरएसएस से जुड़े उनके विचारको को भी एवीपी चैनल पर आने से रोक दिया गया। तो मन की बात के सच और उसके बाद के घटनाक्रम को समझ उससे पहले ये भी जान लें कि मोदी सत्ता पर कैसे बीजेपी का पेरेंट संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ [ आरएसएस } भी निर्भर हो चला है , उसका सबसे बडा उदाहरण 9 जुलाई 2018 को तब नजर आया जब शाम चार बजे की चर्चा के एक कार्यक्रम के बीच में ही संघ के विचारक के तौर पर बैठे एक प्रोफेसर को मोबाइल पर फोन आया और कहा गया कि तुरंत स्टुडियो से बाहर निकलें। और वह शख्स आन एयर कार्यक्रम के बीच ही उठ कर चल पड़ा।
फोन आने के बाद उसके चेहरे का हावभाव ऐसा था, मानो उसके कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया है या कहें बेहद डरे हुये शख्स का जो चेहरा हो सकता है, वह सेकेंड में नजर आ गया। पर बात इससे भी बनी नहीं। क्योंकि इससे पहले जो लगातार खबरे चैनल पर दिखायी जा रही थी, उसका असर देखने वालों पर क्या हो रहा है और बीजेपी के प्रवक्ता चाहे चैनल पर ना आ रहा हो पर खबरों को लेकर चैनल की टीआरपी बढ़ने लगी। और इस दौर में टीआरपी की जो रिपोर्ट 5 और 12 जुलाई को आई उसमें एबीपी देश के दूसरे नंबर का चैनल बन गया। और खास बात तो ये भी है कि इस दौर में "मास्टरस्ट्रोक" में एक्सक्लूसिव रिपोर्ट झारखंड के गोड्डा में लगने वाले थर्मल पावर प्रोजेक्ट पर की गई। चूकि ये थर्मल पावर तमाम नियम कायदो को ताक पर रखकर ही नहीं बन रहा है बल्कि ये अडानी ग्रुप का है और पहली बार उन किसानों का दर्द इस रिपोर्ट के जरीये उभरा कि अडानी कैसे प्रधानमंत्री मोदी के करीब हैं तो झारखंड सरकार ने नियम बदल दिये और किसानो को धमकी दी जाने लगी कि अगर उन्होंने अपनी जमीन थर्मल पावर के लिये दी तो उनकी हत्या कर दी जाएगी । बकायदा एक किसान ने कैमरे पर कहा, ' अडानी ग्रुप के अधिकारी ने धमकी दी है जमीन नहीं दिये तो जमीन में गाड़ देंगे। पुलिस को शिकायत किए तो पुलिस बोली बेकार है शिकायत करना । ये बड़े लोग हैं। प्रधानमंत्री के करीबी हैं "। और फिर खून के आंसू रोते किसान उनकी पत्नी।
और इस दिन के कार्यक्रम की टीआरपी बाकी के औसत मास्टरस्ट्रोक से चार-पांच प्वाइंट ज्यादा थी । यानी एबीपी के प्राइम टाइम [ रात 9-10 बजे ] में चलने वाले मास्ट्रस्ट्रोक की औसत टीआरपी जो 12 थी, उस अडानी वाले कार्यक्रम वाले दिन 17 हो गई । यानी 3 अगस्त को जब संसद में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खडगे ने मीडिया पर बंदिश और एवीपी चैनल को धमकाने- और पत्रकारो को नौकरी से निकलवाने का जिक्र किया तो सूचना प्रसारण मंत्री ने कह दिया कि , " चैनल की टीआरपी ही मास्टरस्ट्रोक कार्यक्रम से नहीं आ रही थी और उसे कोई देखना ही नहीं चाहता था तो चैनल ने उसे बंद कर दिया"। तो असल हालात यहीं से निकलते है क्योंकि एबीपी की टीआरपी अगर बढ़ रही थी । उसका कार्यक्रम मास्टरस्ट्रोक धीरे धीरे लोकप्रिय भी हो रहा था और पहले की तुलना में टीआरपी भी अच्छी-खासी शुरुआती चार महीनो में ही देने लगा था [ 'मास्टरस्ट्रोक' से पहले 'जन मन ' कार्यक्रम चला करता था, जिसकी औसत टीआरपी 7 थी।
मास्ट्रस्ट्रोक की औसत टीआरपी 12 हो गई। } यानी मास्टर स्ट्रोक की खबरों का मिजाज मोदी सरकार की उन योजनाओं या कहें दावो को ही परखने वाला था, जो देश के अलग अलग क्षेत्रो से निकल कर रिपोर्टरो के जरीये आती थी। और लगातार मास्टरस्ट्रोक के जरीये ये भी साफ हो रहा था कि सरकार के दावों के भीतर कितना खोखलापन है। और इसके लिये बकायदा सरकारी आंकडों के अंतर्विरोध को ही अधार बनाया जाता था। तो सरकार के सामने ये संकट भी उभरा कि जब उनके दावो को परखते हुये उनके खिलाफ हो रही रिपोर्ट को भी जनता पसंद करने लगी है और चैनल की टीआरपी भी बढ़ रही है तो फिर आने वाले वक्त में दूसरे चैनल क्या करेंगे। क्योंकि भारत में न्यूज चैनलो के बिजनेस का सबसे बडा आधार विज्ञापन है। और विज्ञापन को मांपने के लिये संस्था बार्क की टीआरपी रिपोर्ट है। और अगर टीआरपी ये दिखलाने लगे कि मोदी सरकार की सफलता को खारिज करती रिपोर्ट जनता पंसद कर रही है तो फिर वह न्यूजचैनल जो मोदी सरकार के गुणगान में खोये हुये हैं, उनके सामने साख और बिजनेस यानी विज्ञापन दोनो का संकट होगा। तो बेहद समझदारी के साथ चैनल पर दवाब बढ़ाने के लिये दो कदम सत्ताधारी बीजेपी के तरफ से उठे। पहला देशभर में एबीपी न्यूज चैनल का बायकॉट हुआ। और दूसरा एबीपी का जो भी सालाना कार्यक्रम होता है, जिससे चैनल की साख भी बढ़ती है और विज्ञापन के जरीये कमाई भी होती है।
मसलन एबीपी न्यूज चैनल के शिखर सम्मेलन कार्यक्रम में सत्ता विपक्ष के नेता मंत्री पहुंचते और जनता के सवालों का जवाब देते तो उस कार्यक्रम से बीजेपी और मोदी सरकार दोनों ने हाथ पीछ कर लिये । यानी कार्यक्रम में कोई मंत्री नहीं जायेगा। जाहिर है जब सत्ता ही नहीं होगी तो सिर्फ विपक्ष के आसरे कोई कार्यक्रम कैसे हो सकता है। यानी हर न्यूज चैनल को साफ मैसेज दे दिया गया कि विरोध करेंगे तो चैनल के बिजनेस पर प्रभाव पड़ेगा। यानी चाहे अनचाहे मोदी सरकार ने साफ संकेत दिये की सत्ता अपने आप में बिजनेस है। और चैनल भी बिना बिजनेस ज्यादा चल नहीं पायेगा। कुछ संपादक कह सकते हैं कि उन पर कहीं कोई दबाव रहता नहीं तो फिर सच ये भी है कि अगर वे पहले से सत्तानकूल हैं या आलोचना करने भर के लिए आलोचना करते दिखते हैं तो सरकार को क्या दिक्कत।
पर पहली बार एबीपी न्यूज चैनल पर असर डालने के लिये या कहें कहीं सारे चैनल मोदी सरकार के गुणगान को छोड कर ग्राउंड जीरो से खबरे दिखाने की दिशा में बढ़ ना जाये, उसके लिये शायद दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र का मित्र बनकर लोकतंत्र का ही गला घोंटने की कार्यवाही सत्ता ने शुरु की। यानी इमरजेन्सी थी तब मीडिया को एहसास था कि संवैधानिक अधिकार समाप्त है । पर यहां तो लोकतंत्र का राग है और 20 जून को प्रधानमंत्री मोदी ने वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरीये किसान लाभार्थियों से की। उस बातचीत में सबसे आगे छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले के कन्हारपुरी गांव में रहने वाली चंद्रमणि कौषी थीं। उनसे जब प्रधानमंत्री ने कमाई के बारे में पूछा तो बेहद सरल तरीके से चद्रमणि ने बताया कि उसकी आय कैसे दुगुनी हो गई। तो आय दुगुनी हो जाने की बात सुन कर प्रधानमंत्री खुश हो गये, खिलखिलाने लगे।
क्योंकि किसानो की आय दुगुनी होने का टारगेट प्रधानमंत्री मोदी ने 2022 का रखा है। और लाइव टेलीकास्ट में कोई किसान कहे कि उसकी आय दुगुनी हो गई तो प्रधानमंत्री का खुश होना तो बनता है। पर रिपोर्टर-संपादक के दृष्टिकोण से हमे ये सच पचा नहीं। क्योंकि छत्तीसगढ़ यूं भी देश के सबसे पिछड़े इलाको में से एक है और फिर कांकेर जिला, जिसके बारे में सरकारी रिपोर्ट ही कहती है और जो अब भी काकंरे के बारे में सरकारी बेबसाइट पर दर्ज है कि ये दुनिया के सबसे पिछड़े इलाके यानी अफ्रीका या अफगानिस्तान की तरह है । तो फिर यहां की कोई महिला किसान आय दोगुनी होने की बात कह रही है तो रिपोर्टर को खासकर इसी रिपोर्ट के लिये भेजा।
और 14 दिन बाद 6 जुलाई को जब ये रिपोर्ट दिखायी गई कि कैसे महिला को दिल्ली से गये अधिकारियों ने ट्रेनिंग दी कि उसे प्रधानमंत्री के सामने क्या बोलना है। कैसे बोलना है। धान के बजाय पल्प के धंधे से होने वाली आय की बात को कैसे गड्डमड्ड कर अपनी आय दुगुनी होने की बात कहनी है । तो झटके में रिपोर्ट दिखाये जाने के बाद छत्तीसगढ में ही ये सवाल होने लगे कि कैसे चुनाव जीतने के लिये छत्तीसगढ की महिला को ट्रेनिंग दी गई । [ छत्तीसगढ में 5 महीने बाद विधानसभा चुनाव है ] यानी इस रिपोर्ट ने तीन सवालों को जन्म दे दिया। पहला , क्या अधिकारी प्रधानमंत्री को खुश करने के लिये ये सब करते है। दूसरा , क्या प्रधानमंत्री चाहते हैं कि सिर्फ उनकी वाहवाही हो तो झूठ बोलने की ट्रेनिंग भी दी जाती है। तीसरा, क्या प्रचार प्रसार का तंत्र ही है जो चुनाव जिता सकता है।
हो जो भी पर इस रिपोर्ट से आहत मोदी सरकार ने एबीपी न्यूज चैनल पर सीधा हमला ये कहकर शुरु किया कि जानबूझकर गलत और झूठी रिपोर्ट दिखायी गई। और बाकायदा सूचना प्रसारण मंत्री समेत तीन केन्द्रीय मंत्रियों ने एक सरीखे ट्वीट किये । और चैनल की साख पर ही सवाल उठा दिये। जाहिर है ये दबाव था । सब समझ रहे थे । तो ऐसे में तथ्यो के साथ दुबारा रिपोर्ट फाइल करने के लिये जब रिपोर्टर ज्ञानेन्द्र तिवारी को भेजा गया तो गांव का नजारा ही कुछ अलग हो गया। मसलन गांव में पुलिस पहुंच चुकी थी। राज्य सरकार के बड़े अधिकारी इस भरोसे के साथ भेजे गये थे कि रिपोर्टर दोबारा उस महिला तक पहुंच ना सके। पर रिपोर्टर की सक्रियता और भ्रष्टाचार को छुपाने पहुंचे अधिकारी या पुलिसकर्मियो में इतना नैतिक बल ना था या वह इतने अनुशासन में रहने वाले नहीं थे कि रात तक डटे रहते।
दिन के उजाले में खानापूर्ति कर लौट आये। तो शाम ढलने से पहले ही गांव के लोगों ने और दुगुनी आय कहने वाली महिला समेत महिला के साथ काम करने वाली 12 महिलाओ के ग्रुप ने चुप्पी तोड़कर सच बता दिया तो हालत और खस्ता हो गई है । और 9 जुलाई को इस रिपोर्ट के ' सच " शीर्षक के प्रसारण के बाद सत्ता - सरकार की खामोशी ने संकेत तो दिये कि वह कुछ करेगी। और उसी रात सूचना प्रसारण मंत्रालय के अधीन काम करने वाले न्यू चैनल मॉनिटरिंग की टीम में से एक शख्स ने फोन से जानकारी दी कि आपके मास्टरस्ट्रोक चलने के बाद से सरकार में हडकंप मचा हुआ है। बाकायदा एडीजी को सूचना प्रसारण मंत्री ने हड़काया है कि क्या आपको अंदेशा नहीं था कि एवीपी हमारे ट्वीट के बाद भी रिपोर्ट फाइल कर सकता है।
अगर ऐसा हो सकता है तो हम पहले ही नोटिस भेज देते । जिससे रिपोर्ट के प्रसारण से पहले उन्हें हमें दिखाना पड़ता। जाहिर है जब ये सारी जानकारी 9 जुलाई को सरकारी मॉनिटरिंग करने वाले सीनियर मॉनिटरिंग के पद को संभाले शख्स ने दी । तो मुझे पूछना पड़ा कि क्या आपको कोई नौकरी का खतरा नहीं है जो आप हमें सारी जानकरी दे रहे हैं । तो उस शख्स ने साफ तौर पर कहा कि दो सौ लोगों की टीम है। जिसकी भर्ती ब्रॉडकास्ट इंजीनियरिंग कारपोरेशन इंडिया लिं. करती है । छह महीने के कान्ट्रेक्ट पर ऱखती है चाहे आपको कितने भी बरस काम करते हुये हो जाये। छुट्टी की कोई सुविधा है नहीं। मॉनिटिरंग करने वालों को 28635 रुपये मिलते हैं तो सीनियर मानेटरिंग करने वालों को 37,350 रुपये और कन्टेट पर नजर रखने वालो को 49,500 रुपये। तो इतने वेतन की नौकरी जाये या रहे फर्क क्या पडता है। पर सच तो यही है कि प्राइम टाइम के बुलेटिन पर नजर रखने वालो को यही रिपोर्ट तैयार करनी होती है कितना वक्त आपने प्रधानमंत्री मोदी को दिखाया। जो चैनल मोदी को सबसे ज्यादा दिखाता है उसे सबसे ज्यादा अच्छा माना जाता है । तो हम मास्टरस्ट्रोक में प्रदानमंत्री मोदी को तो खूब देखते हैं। लगभग हंसते हुये उस शख्स ने कहा आपके कंटेन्ट पर एक अलग से रिपोर्ट तैयार होती है। और आज जो आपने दिखाया है उसके बाद तो कुछ भी हो सकता है। बस सचेत रहियेगा।
यह कहकर उसने तो फोन काट दिया। वैसे, मॉनिटरिंग करने वाले की शैक्षिक योग्यता है ग्रेजुएशन और एक अदद डिप्लोमा। पर मैं भी सोचने लगा होगा । इसकी चर्चा चैनल के भीतर हुई भी पर ये किसी ने नहीं, सोचा था कि हमला तीन स्तर पर होगा। और ऐसा हमला होगा कि लोकतंत्र टुकुर टुकुर देखता रह जायेगा । क्योंकि लोकतंत्र के नाम ही लोकतंत्र का गला घोंटा जायेगा। तो अगले ही दिन से जैसे ही रात के नौ बजे एबीपी न्यूज चैनल का सैटेलाइट लिंक अटकने लगता। और फिर रोज नौ बजे से लेकर रात दस बजे तक कुछ इस तरह से सिग्नल की डिस्टरबेंस रहती कि कोई भी मास्टरस्ट्रोक देख ही ना पाये । या देखने वाला चैनल बदल ही ले। और दस बजते ही चैनल फिर ठीक हो जाता।
जाहिर है ये चैनल चलाने वालों के लिये किसी झटके से कम नहीं था । तो ऐसे में चैनल के प्रोपराइटर व एडिटर-इन चीफ ने तमाम टैक्नीशियन्स को लगाया। ये क्यों हो रहा है। पर सेकेंड भर के लिये किसी टेलीपोर्ट से एबीपी सैटेलाईट लिंक पर फायर होता और जब तक एबीपी के टेकनिश्न्यन्स एबीपी का टेलीपोर्ट बंद कर पता करते कि कहां से फायर हो रहा है, तब तक उस टेलीपोर्ट के मूवमेंट होते और वह फिर चंद मिनट में सेकेंड भर के लिये दुबारा टेलीपोर्ट से फायर करता। यानी औसत तीस से चालीस बार एबीपी के सैटेलाइट सिग्नल को ही प्रभावित कर विघ्न पैदा किया जाता । और तीसरे दिन सहमति यही बनी की दर्शको को जानकारी दी जाये। तो 19 जुलाई को सुबह से ही चैनल पर जरुरी सूचना कहकर चलाना शुरु किया गया , " पिछले कुछ दिनो से आपने हमारे प्राइम टाइम प्रसारण के दौरान सिग्नल को लेकर कुछ रुकावटे देखी होगी । हम अचानक आई इन दिक्कतों का पता लगा रहे है और उन्हे दूर करने की कोशिश में लगे है । तब तक आप एबीपी न्यूज से जुड़े रहें। " ये सूचना प्रबंधन के मशविरे से आन एयर हुआ । पर इसे आन एयर करने के दो घंटे बाद ही यानी सुबह 11 बजते बजते हटा लिया गया और हटाने का निर्णय भी प्रबंधन का ही रहा।
यानी दवाब सिर्फ ये नहीं कि चैनल डिस्टर्ब होगा । बल्कि इसकी जानकारी भी बाहर जानी नहीं चाहिये। यानी मैनेजमेंट कहीं खड़े ना हो। और इसी के सामानांतर कुछ विज्ञापनदाताओ ने विज्ञापन हटा लिये या कहें रोक लिये। मसलन सबसे बड़ा विज्ञापनदाता जो विदेशी ताकतों से स्वदेशी ब्रांड के नाम पर लड़ता है और अपने सामान को बेचता है, उसका विज्ञापन झटके में चैनल के स्क्रीन से गायब हो गया । फिर अगली जानकारी ये भी आने लगी कि विज्ञापनदाताओ को भी अदृश्य शक्तियां धमका रही हैं कि वह विज्ञापन बंद कर दें। यानी लगातार 15 दिन तक सैटेलाइट लिंक में दखल । और सैटेलाइट लिंक में डिस्टरबेंस का मतलब सिर्फ एबीपी का राष्ट्रीय हिन्दी न्यूज चैनल भर ही नहीं बल्कि चार क्षेत्रीय भाषा के चैनल भी डिस्टर्ब होने लगे। और रात नौ से दस बजे कोई आपका चैनल ना देख पाये तो मतलब है जिस वक्त सबसे ज्यादा लोग देखते हैं, उसी वक्त आपको कोई नही देखेगा।
यानी टीआरपी कम होगी ही। यानी मोदी सरकार के गुणगान करने वाले चैनलों के लिये राहत कि अगर वह सत्तानुकूल खबरों में खोये हुये हैं तो उनकी टीआरपी बनी रहेगी। और जनता के लिये सत्ता ये मैसेज दे देगी कि लोग तो मोदी को मोदी के अंदाज में सफल देखना चाहते है। जो सवाल खड़ा करते है उसे जनता देखना ही नहीं चाहती। यानी सूचना प्रसारण मंत्री को भी पता है कि खेल क्या है तभी तो संसद में जवाब देते वक्त वह टीआरपी का जिक्र करने से चूके। पर स्क्रीन ब्लैक होने से पहले टीआरपी क्यों बढ़ रही थी, इसपर कुछ नहीं बोले । खैर ये पूरी प्रक्रिया है जो चलती रही। और इस दौर में कई बार ये सवाल भी उठे कि एवीपी को ये तमाम मुद्दे उठाने चाहिये।
मास्टर स्ट्रोक के वक्त अगर सेटेलाइट लिंक खराब किया जाता है तो कार्यक्रम को सुबह या रात में ही रिपीट टेलिकास्ट करना चाहिये। पर हर रास्ता उसी दिशा में जा रहा था जहां सत्ता से टकराना है या नहीं। और खामोशी हर सवाल का जवाब खुद ब खुद दे रही थी। तो पूरी लंबी प्रक्रिया का अंत भी कम दिलचस्प नहीं है। क्योंकि एडिटर-इन -चीफ यानी प्रोपराइटर या कहें प्रबंधन जब आपके सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जाये कि बताइये करें क्या? और इन हालातों में आप खुद क्या कर सकते है छुट्टी पर जा सकते हैं। इस्तीफा दे सकते है। और कमाल तो ये है कि इस्तीफा देकर निकले नहीं कि पतंजलि का विज्ञापन लौट आया। मास्टरस्ट्रोक में भी विज्ञापन बढ़ गया। 15 मिनट का विज्ञापन जो घटते घटते तीन मिनट पर आ गया था वह बढ़कर 20 मिनट हो गया। 2 अगस्त को इस्तीफा हुआ और 2 अगस्त की रात सैटेलाइट सिग्नल भी संभल गया। और काम करने के दौर में जिस दिन संसद के सेन्ट्रल हाल में कुछ पत्रकारो के बीच एबीपी चैनल को मजा सिखाने की धमकी देते हुये 'पुण्य प्रसून खुद को क्या समझता है' कहा गया। उससे दो दिन पहले का सच और एक दिन बाद का सच ये भी है कि रांची और पटना में बीजेपी का सोशल मीडिया संभालने वालों को बीजेपी अध्यक्ष निर्देश देकर आये थे ...." पुण्य प्रसून को बख्शना नही है। सोशल मीडिया से निशाने पर रखें।
और यही बात जयपुर में भी सोशल मीडिया संभालने वालो को गई। पर सत्ता की मुश्किल यह है कि धमकी, पैसे और ताकत की बदौलत सत्ता से लोग जुड़ तो जाते है पर सत्ताधारी के इस अंदाज में खुद को ढाल नहीं पाते। तो रांची-पटना-जयपुर से बीजेपी के सोशल मीडियावाले ही जानकारी देते रहे आपके खिलाफ अभी और जोऱ शोर से हमला होगा। तो फिर आखिरी सवाल जब खुले तौर पर सत्ता का खेल हो रहा है तो फिर किस एडिटर गिल्ड को लिखकर दें या किस पत्रकार संगठन से कहें संभल जाओ। सत्तानुकूल होकर मत कहो शिकायत तो करो फिर लडेंगे। जैसे एडिटर गिल्ड नहीं बल्कि सचिवालय है और संभालने वाले पत्रकार नहीं सरकारी बाबू है। तो गुहार यही है लड़ो मत पर दिखायी देते हुये सच को देखते वक्त आंखों पर पट्टी तो ना बांधो।
(नोटः ये लेख द वायर हिंदी पर पहले प्रकाशित किया जा चुका है। वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने एबीपी न्यूज को इस्तीफा सौंपने के बाद अपना यह पहला लेख लिखा है।)
अरे छोड़ दीजिए। कुछ दिनो तक देखते हैं क्या होता है । वैसे आप कर ठीक रहे हैं। पर अभी छोड़ दीजिए।
भारत के आनंद बजार पत्रिका समूह के राष्ट्रीय न्यूज चैनल एबीपी न्यूज के प्रोपराइटर जो एडिटर-इन चीफ भी है, उनके साथ ये संवाद 14 जुलाई को हुआ। यूं इस निर्देश को देने से पहले खासी लंबी बातचीत खबरों को दिखाने, उसके असर और चैनल को लेकर बदलती धारणाओं के साथ हो रहे लाभ पर भी हुआ। एडिटर-इन -चीफ ने माना कि मास्टरस्ट्रोक प्रोगाम ने चैनल की साख बढ़ा दी है। खुद उनके शब्दो में कहें तो, "मास्टरस्ट्रोक में जिस तरह का रिसर्च होता है। जिस तरह खबरों को लेकर ग्रउंड जीरो से रिपोर्टिंग होती है। रिपोर्ट के जरिए सरकार की नीतियों का पूरा खाका रखा जाता है। ग्राफिक्स और स्किप्ट जिस तरह लिखी जाती है, वह चैनल के इतिहास में पहली बार देखा है।"
तो चैनल के बदलते स्वरुप या खबरों को परोसने के अंदाज ने प्रोपराइटर व एडिटर -इन -चीफ को उत्साहित तो किया। पर खबरों को दिखाने-बताने के अंदाज की तारीफ करते हुये भी लगातार वह ये कह भी रहे थे और बता भी रहे थे कि क्या सबकुछ चलता रहे और प्रधानमंत्री मोदी का नाम ना हो तो कैसा रहेगा। खैर एक लंबी चर्चा के बाद सामने निर्देश यही आया कि प्रधानमंत्री मोदी का नाम अब चैनल की स्क्रीन पर लेना ही नहीं है।
तमाम राजनीतिक खबरों के बीच या कहें सरकार की हर योजना के मद्देनजर ये बेहद मुश्किल काम था कि भारत की बेरोजगारी का जिक्र करते हुये कोई रिपोर्ट तैयार की जा रही हो और उसमें सरकार के रोजगार पैदा करने के दावे जो कौशल विकास योजना या मुद्रा योजना से जुड़ी हों, उन योजनाओ की जमीनी हकीकत को बताने के बावजूद ये ना लिख पाये कि प्रधानमंत्री मोदी ने योजनाओं की सफलता को लेकर जो दावा किया वह है क्या। यानी एक तरफ प्रधानमंत्री कहते हैं कि कौशल विकास के जरीये जो स्किल डेवलेंपमेंट शुरु किया गया, उसमें 2022 तक का टारगेट तो 40 करोड युवाओं को ट्रेनिंग देने का रखा गया है पर 2018 में इनकी तादाद दो करोड़ भी छू नहीं पायी है। और ग्राउंड रिपोर्ट बताती है कि जितनी जगहों पर कौशल विकास योजना के तहत सेंटर खोले गये उनमें से हर दस सेंटरों में से 8 सेंटर पर कुछ नहीं होता या कहें 8 सेंटर अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर पाए। लेकिन ग्राउंड रिपोर्ट दिखाते हुये कहीं प्रधानमंत्री का नाम आना ही नहीं चाहिए। तो सवाल था मास्टरस्ट्रोक की पूरी टीम की कलम पर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी शब्द गायब हो जाना चाहिए।
पर अगला सवाल तो ये भी था कि मामला किसी अखबार का नहीं बल्कि न्यूज चैनल का था । यानी स्क्रिप्ट लिखते वक्त कलम चाहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ना लिखे। लेकिन जब सरकार का मतलब ही बीते चार बरस में सिर्फ नरेन्द्र मोदी है तो फिर सरकार का जिक्र करते हुये एडिटिंग मशीन ही नहीं बल्कि लाइब्ररी में भी सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी के ही वीडियो होंगे। और 26 मई 2014 से लेकर 26 जुलाई 2018 तक किसी भी एडिटिंग मशीन पर मोदी सरकार ही नहीं बल्कि मोदी सरकार की किसी भी योजना को लिखते ही जो वीडियो या तस्वीरो का कच्चा चिट्ठा उभरता, उसमें 80 फीसदी में प्रधानमंत्री मोदी ही थे ।
यानी किसी भी एडिटर के सामने जो तस्वीर स्क्रिप्ट के अनुरुप लगाने की जरुरत होती उसमें बिना मोदी का कोई वीडियो या कोई तस्वीर उभरती ही नहीं । और हर मिनट जब काम एडिटर कर रहा है तो उसके सामने स्क्रिप्ट में लिखे , मौजूदा सरकार शब्द आते ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ही तस्वीर उभरती और आन एयर "मास्टरस्ट्रोक" में चाहे कहीं ना भी प्रधानमंत्री मोदी शब्द बोला-सुना ना जा रहा हो पर स्क्रीन पर प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर आ ही जाती।
तो 'मास्टरस्ट्रोक ' में प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर भी नहीं जानी चाहिये, उसका फरमान भी 100 घंटे बीतने से पहले आ जायेगा ये सोचा तो नहीं गया पर सामने आ ही गया। और इस बार एडिटर-इन चीफ के साथ जो चर्चा शुरु हुई वह इस बात से हुई कि क्या वाकई सरकार का मतलब प्रधानमंत्री मोदी ही हैं। यानी हम कैसे प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर दिखाये बिना कोई भी रिपोर्ट दिखा सकते है। उस पर हमारा सवाल था कि मोदी सरकार ने चार बरस के दौर में 106 योजनाओं का एलान किया है। संयोग से हर योजना का एलान खुद प्रधानमंत्री ने ही किया है। हर योजना के प्रचार प्रसार की जिम्मेदारी चाहे अलग अलग मंत्रालय पर हो । अलग अलग मंत्री पर हो । लेकिन जब हर योजना के प्रचार प्रसार में हर तरफ से जिक्र प्रधानमंत्री मोदी का ही हो रहा है तो योजना की सफलता-असफलता पर ग्राउंड रिपोर्ट में भी जिक्र प्रधानमंत्री का चाहे रिपोर्टर - एंकर ना ले लेकिन योजना से प्रभावित लोगों की जुबां पर नाम तो प्रधानमंत्री मोदी का ही होगा और लगातार है भी । चाहे किसान हो या गर्भवती महिला। बेरोजगार हो या व्यापारी। जब उनसे फसल बीमा पर सवाल पूछें या मातृत्व वंदना योजना या जीएसटी पर पूछें या मुद्रा योजना पर पूछें या तो योजनाओं के दायरे में आने वाले हर कोई प्रधानमंत्री मोदी का नाम जरुर लेते। अधिकांश कहते कि कोई लाभ नहीं मिल रहा है तो उनकी बातो को कैसे एडिट किया जाए। तो जवाब यही मिला कि कुछ भी हो पर 'प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर-वीडियो भी मास्टरस्ट्रोक में दिखायी नहीं देनी चाहिये।" वैसे ये सवाल अब भी अनसुलझा सा था कि आखिर प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर या उनका नाम भी जुबां पर ना आये तो उससे होगा क्या ? क्योंकि जब 2014 में सत्ता में आई बीजेपी के लिये सरकार का मतलब नरेन्द्र मोदी है।
बीजेपी के स्टार प्रचारक के तौर पर प्रधानमंत्री मोदी ही है। संघ के चेहरे के तौर पर भी प्रचारक रहे नरेन्द्र मोदी हैं। दुनिया भर में भारत के विदेश नीति के ब्रांड एंबेसडर नरेन्द्र मोदी हैं। देश की हर नीति हर पॉलिसी के केन्द्र में नरेन्द्र मोदी हैं तो फिर दर्जन भर हिन्दी राष्ट्रीय न्यूज चैनलों की भीड़ में पांचवे नंबर के ऱाष्ट्रीय न्यूज चैनल एबीपी के प्राइम टाइम में सिर्फ घंटेभर के कार्यक्रम " मास्टरस्ट्रोक " को लेकर सरकार के भीतर इतने सवाल क्यों हैं। या कहें वह कौन सी मुश्किल है जिसे लेकर एपीपी न्यूज चैनलों के मालिको पर दवाब बनाया जा रहा है कि वह प्रधानमंत्री मोदी का नाम ना लें या फिर तस्वीर भी ना दिखायें ।
दरअसल मोदी सरकार में चार बरस तक जिस तरह सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी को ही केन्द्र में रखा गया और भारत जैसे देश में टीवी न्यूज चैनलों ने जिस तरह सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी को ही दिखाया और धीरे धीरे प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर, उनका वीडियो और उनका भाषण किसी नशे की तरह न्यूज चैनलों को देखने वाले के भीतर समाते गया, उसका असर ये हुआ कि प्रधानमंत्री मोदी ही चैनलों की टीआरपी की जरुरत बन गये। और प्रधानमंत्री के चेहरे का साथ सबकुछ अच्छा है या कहें अच्छे दिन की ही दिशा में देश बढ़ रहा है, ये बताया जाने लगा तो चैनलों के लिये भी यह नशा बन गया और ये नशा ना उतरे, इसके लिये बकायदा मोदी सरकार के सूचना मंत्रालय ने 200 लोगों की एक मॉनिटरिंग टीम को लगा दिया।
बकायदा पूरा काम सूचना मंत्रालय के एडिशनल डायरेक्टर जनरल के मातहत होने लगा, जो सीधी रिपोर्ट सूचना प्रसारण मंत्री को देते। और जो दो सौ लोग देश के तमाम राष्ट्रीय न्यूज चैनलों की मॉनिटरिंग करते, वह तीन स्तर पर होता है। 150 लोगों की टीम सिर्फ मॉनिटरिंग करती । 25 मानेटरिंग की गई रिपोर्ट को सरकार अनुकूल एक शक्ल देते। और बाकि 25 फाइनल मॉनिटरिंग के कंटेंट की समीक्षा करते । उनकी इस रिपोर्ट पर सूचना मंत्रालय के तीन डिप्टी सचिव स्तर के अधिकारी रिपोर्ट तैयार करते । और फाइनल रिपोर्ट सूचना मंत्री के पास भेजी जाती। जिनके जरिए पीएमओ यानी प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारी सक्रिय होते और न्यूज चैनलों के संपादको को दिशा निर्देश देते रहते कि क्या करना है कैसे करना है।
और कोई संपादक जब सिर्फ खबरों के लिहाज से चैनल को चलाने की बात कहता तो चैनल के प्रोपराइटर से सूचना मंत्रालय या पीएमओ के अधिकारी संवाद बनाते । दवाब बनाने के लिये मॉनिटरिंग की रिपोर्ट को नत्ती कर फाइल भेजते। और फाइल में इसका जिक्र होता कि आखिर कैसे प्रधानमंत्री मोदी की 2014 में किये गये चुनावी वादे से लेकर नोटबंदी या सर्जिकल स्ट्राइक या जीएसटी को लागू करते वक्त दावो भरे बयानो को दुबारा दिखाया जा सकता है। या फिर कैसे मौजूदा दौर की किसी योजना पर होने वाली रिपोर्ट में प्रधानमंत्री के पुराने दावे का जिक्र किया जा सकता है। दरअसल मोदी सत्ता की सफलता का नजरिया ही हर तरीके से रखा जाता रहा जाये इसके लिये खासतौर से सूचना प्रसारण मंत्रालय से लेकर पीएमओ के दर्जन भर अधिकारी पहले स्तर पर काम करते है । और दूसरे स्तर पर सूचना प्रसारण मंत्री का सुझाव होता है। जो एक तरह का निर्देश होता है । और तीसरे स्तर पर बीजेपी का लहजा। जो कई स्तर पर काम करता है। मसलन अगर कोई चैनल सिर्फ मोदी सत्ता की सकारात्मकता को नहीं दिखाता है। या कभी कभी नकारात्मक खबर करता है। या फिर तथ्यों के आसरे मोदी सरकार के सच को झूठ करार देता है तो फिर बीजेपी के प्रवक्तताओ को चैनल में भेजने पर पांबदी लग जाती है। यानी न्यूज चैनल पर होने वाली राजनीतिक चर्चाओ में बीजेपी के प्रवक्ता नहीं आते हैं। एवीपी पर ये शुरुआत जून के आखिरी हफ्ते से ही शुरु हो गई।
यानी बीजेपी प्रवक्ताओं ने चर्चा में आना बंद किया। दो दिन बाद से बीजेपी नेताओ ने बाइट देना बंद कर दिया। और जिस दिन प्रधानमंत्री मोदी के मन की बात का सच मास्टरस्ट्रोक में दिखाया गया उसके बाद से बीजेपी के साथ साथ आरएसएस से जुड़े उनके विचारको को भी एवीपी चैनल पर आने से रोक दिया गया। तो मन की बात के सच और उसके बाद के घटनाक्रम को समझ उससे पहले ये भी जान लें कि मोदी सत्ता पर कैसे बीजेपी का पेरेंट संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ [ आरएसएस } भी निर्भर हो चला है , उसका सबसे बडा उदाहरण 9 जुलाई 2018 को तब नजर आया जब शाम चार बजे की चर्चा के एक कार्यक्रम के बीच में ही संघ के विचारक के तौर पर बैठे एक प्रोफेसर को मोबाइल पर फोन आया और कहा गया कि तुरंत स्टुडियो से बाहर निकलें। और वह शख्स आन एयर कार्यक्रम के बीच ही उठ कर चल पड़ा।
फोन आने के बाद उसके चेहरे का हावभाव ऐसा था, मानो उसके कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया है या कहें बेहद डरे हुये शख्स का जो चेहरा हो सकता है, वह सेकेंड में नजर आ गया। पर बात इससे भी बनी नहीं। क्योंकि इससे पहले जो लगातार खबरे चैनल पर दिखायी जा रही थी, उसका असर देखने वालों पर क्या हो रहा है और बीजेपी के प्रवक्ता चाहे चैनल पर ना आ रहा हो पर खबरों को लेकर चैनल की टीआरपी बढ़ने लगी। और इस दौर में टीआरपी की जो रिपोर्ट 5 और 12 जुलाई को आई उसमें एबीपी देश के दूसरे नंबर का चैनल बन गया। और खास बात तो ये भी है कि इस दौर में "मास्टरस्ट्रोक" में एक्सक्लूसिव रिपोर्ट झारखंड के गोड्डा में लगने वाले थर्मल पावर प्रोजेक्ट पर की गई। चूकि ये थर्मल पावर तमाम नियम कायदो को ताक पर रखकर ही नहीं बन रहा है बल्कि ये अडानी ग्रुप का है और पहली बार उन किसानों का दर्द इस रिपोर्ट के जरीये उभरा कि अडानी कैसे प्रधानमंत्री मोदी के करीब हैं तो झारखंड सरकार ने नियम बदल दिये और किसानो को धमकी दी जाने लगी कि अगर उन्होंने अपनी जमीन थर्मल पावर के लिये दी तो उनकी हत्या कर दी जाएगी । बकायदा एक किसान ने कैमरे पर कहा, ' अडानी ग्रुप के अधिकारी ने धमकी दी है जमीन नहीं दिये तो जमीन में गाड़ देंगे। पुलिस को शिकायत किए तो पुलिस बोली बेकार है शिकायत करना । ये बड़े लोग हैं। प्रधानमंत्री के करीबी हैं "। और फिर खून के आंसू रोते किसान उनकी पत्नी।
और इस दिन के कार्यक्रम की टीआरपी बाकी के औसत मास्टरस्ट्रोक से चार-पांच प्वाइंट ज्यादा थी । यानी एबीपी के प्राइम टाइम [ रात 9-10 बजे ] में चलने वाले मास्ट्रस्ट्रोक की औसत टीआरपी जो 12 थी, उस अडानी वाले कार्यक्रम वाले दिन 17 हो गई । यानी 3 अगस्त को जब संसद में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खडगे ने मीडिया पर बंदिश और एवीपी चैनल को धमकाने- और पत्रकारो को नौकरी से निकलवाने का जिक्र किया तो सूचना प्रसारण मंत्री ने कह दिया कि , " चैनल की टीआरपी ही मास्टरस्ट्रोक कार्यक्रम से नहीं आ रही थी और उसे कोई देखना ही नहीं चाहता था तो चैनल ने उसे बंद कर दिया"। तो असल हालात यहीं से निकलते है क्योंकि एबीपी की टीआरपी अगर बढ़ रही थी । उसका कार्यक्रम मास्टरस्ट्रोक धीरे धीरे लोकप्रिय भी हो रहा था और पहले की तुलना में टीआरपी भी अच्छी-खासी शुरुआती चार महीनो में ही देने लगा था [ 'मास्टरस्ट्रोक' से पहले 'जन मन ' कार्यक्रम चला करता था, जिसकी औसत टीआरपी 7 थी।
मास्ट्रस्ट्रोक की औसत टीआरपी 12 हो गई। } यानी मास्टर स्ट्रोक की खबरों का मिजाज मोदी सरकार की उन योजनाओं या कहें दावो को ही परखने वाला था, जो देश के अलग अलग क्षेत्रो से निकल कर रिपोर्टरो के जरीये आती थी। और लगातार मास्टरस्ट्रोक के जरीये ये भी साफ हो रहा था कि सरकार के दावों के भीतर कितना खोखलापन है। और इसके लिये बकायदा सरकारी आंकडों के अंतर्विरोध को ही अधार बनाया जाता था। तो सरकार के सामने ये संकट भी उभरा कि जब उनके दावो को परखते हुये उनके खिलाफ हो रही रिपोर्ट को भी जनता पसंद करने लगी है और चैनल की टीआरपी भी बढ़ रही है तो फिर आने वाले वक्त में दूसरे चैनल क्या करेंगे। क्योंकि भारत में न्यूज चैनलो के बिजनेस का सबसे बडा आधार विज्ञापन है। और विज्ञापन को मांपने के लिये संस्था बार्क की टीआरपी रिपोर्ट है। और अगर टीआरपी ये दिखलाने लगे कि मोदी सरकार की सफलता को खारिज करती रिपोर्ट जनता पंसद कर रही है तो फिर वह न्यूजचैनल जो मोदी सरकार के गुणगान में खोये हुये हैं, उनके सामने साख और बिजनेस यानी विज्ञापन दोनो का संकट होगा। तो बेहद समझदारी के साथ चैनल पर दवाब बढ़ाने के लिये दो कदम सत्ताधारी बीजेपी के तरफ से उठे। पहला देशभर में एबीपी न्यूज चैनल का बायकॉट हुआ। और दूसरा एबीपी का जो भी सालाना कार्यक्रम होता है, जिससे चैनल की साख भी बढ़ती है और विज्ञापन के जरीये कमाई भी होती है।
मसलन एबीपी न्यूज चैनल के शिखर सम्मेलन कार्यक्रम में सत्ता विपक्ष के नेता मंत्री पहुंचते और जनता के सवालों का जवाब देते तो उस कार्यक्रम से बीजेपी और मोदी सरकार दोनों ने हाथ पीछ कर लिये । यानी कार्यक्रम में कोई मंत्री नहीं जायेगा। जाहिर है जब सत्ता ही नहीं होगी तो सिर्फ विपक्ष के आसरे कोई कार्यक्रम कैसे हो सकता है। यानी हर न्यूज चैनल को साफ मैसेज दे दिया गया कि विरोध करेंगे तो चैनल के बिजनेस पर प्रभाव पड़ेगा। यानी चाहे अनचाहे मोदी सरकार ने साफ संकेत दिये की सत्ता अपने आप में बिजनेस है। और चैनल भी बिना बिजनेस ज्यादा चल नहीं पायेगा। कुछ संपादक कह सकते हैं कि उन पर कहीं कोई दबाव रहता नहीं तो फिर सच ये भी है कि अगर वे पहले से सत्तानकूल हैं या आलोचना करने भर के लिए आलोचना करते दिखते हैं तो सरकार को क्या दिक्कत।
पर पहली बार एबीपी न्यूज चैनल पर असर डालने के लिये या कहें कहीं सारे चैनल मोदी सरकार के गुणगान को छोड कर ग्राउंड जीरो से खबरे दिखाने की दिशा में बढ़ ना जाये, उसके लिये शायद दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र का मित्र बनकर लोकतंत्र का ही गला घोंटने की कार्यवाही सत्ता ने शुरु की। यानी इमरजेन्सी थी तब मीडिया को एहसास था कि संवैधानिक अधिकार समाप्त है । पर यहां तो लोकतंत्र का राग है और 20 जून को प्रधानमंत्री मोदी ने वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरीये किसान लाभार्थियों से की। उस बातचीत में सबसे आगे छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले के कन्हारपुरी गांव में रहने वाली चंद्रमणि कौषी थीं। उनसे जब प्रधानमंत्री ने कमाई के बारे में पूछा तो बेहद सरल तरीके से चद्रमणि ने बताया कि उसकी आय कैसे दुगुनी हो गई। तो आय दुगुनी हो जाने की बात सुन कर प्रधानमंत्री खुश हो गये, खिलखिलाने लगे।
क्योंकि किसानो की आय दुगुनी होने का टारगेट प्रधानमंत्री मोदी ने 2022 का रखा है। और लाइव टेलीकास्ट में कोई किसान कहे कि उसकी आय दुगुनी हो गई तो प्रधानमंत्री का खुश होना तो बनता है। पर रिपोर्टर-संपादक के दृष्टिकोण से हमे ये सच पचा नहीं। क्योंकि छत्तीसगढ़ यूं भी देश के सबसे पिछड़े इलाको में से एक है और फिर कांकेर जिला, जिसके बारे में सरकारी रिपोर्ट ही कहती है और जो अब भी काकंरे के बारे में सरकारी बेबसाइट पर दर्ज है कि ये दुनिया के सबसे पिछड़े इलाके यानी अफ्रीका या अफगानिस्तान की तरह है । तो फिर यहां की कोई महिला किसान आय दोगुनी होने की बात कह रही है तो रिपोर्टर को खासकर इसी रिपोर्ट के लिये भेजा।
और 14 दिन बाद 6 जुलाई को जब ये रिपोर्ट दिखायी गई कि कैसे महिला को दिल्ली से गये अधिकारियों ने ट्रेनिंग दी कि उसे प्रधानमंत्री के सामने क्या बोलना है। कैसे बोलना है। धान के बजाय पल्प के धंधे से होने वाली आय की बात को कैसे गड्डमड्ड कर अपनी आय दुगुनी होने की बात कहनी है । तो झटके में रिपोर्ट दिखाये जाने के बाद छत्तीसगढ में ही ये सवाल होने लगे कि कैसे चुनाव जीतने के लिये छत्तीसगढ की महिला को ट्रेनिंग दी गई । [ छत्तीसगढ में 5 महीने बाद विधानसभा चुनाव है ] यानी इस रिपोर्ट ने तीन सवालों को जन्म दे दिया। पहला , क्या अधिकारी प्रधानमंत्री को खुश करने के लिये ये सब करते है। दूसरा , क्या प्रधानमंत्री चाहते हैं कि सिर्फ उनकी वाहवाही हो तो झूठ बोलने की ट्रेनिंग भी दी जाती है। तीसरा, क्या प्रचार प्रसार का तंत्र ही है जो चुनाव जिता सकता है।
हो जो भी पर इस रिपोर्ट से आहत मोदी सरकार ने एबीपी न्यूज चैनल पर सीधा हमला ये कहकर शुरु किया कि जानबूझकर गलत और झूठी रिपोर्ट दिखायी गई। और बाकायदा सूचना प्रसारण मंत्री समेत तीन केन्द्रीय मंत्रियों ने एक सरीखे ट्वीट किये । और चैनल की साख पर ही सवाल उठा दिये। जाहिर है ये दबाव था । सब समझ रहे थे । तो ऐसे में तथ्यो के साथ दुबारा रिपोर्ट फाइल करने के लिये जब रिपोर्टर ज्ञानेन्द्र तिवारी को भेजा गया तो गांव का नजारा ही कुछ अलग हो गया। मसलन गांव में पुलिस पहुंच चुकी थी। राज्य सरकार के बड़े अधिकारी इस भरोसे के साथ भेजे गये थे कि रिपोर्टर दोबारा उस महिला तक पहुंच ना सके। पर रिपोर्टर की सक्रियता और भ्रष्टाचार को छुपाने पहुंचे अधिकारी या पुलिसकर्मियो में इतना नैतिक बल ना था या वह इतने अनुशासन में रहने वाले नहीं थे कि रात तक डटे रहते।
दिन के उजाले में खानापूर्ति कर लौट आये। तो शाम ढलने से पहले ही गांव के लोगों ने और दुगुनी आय कहने वाली महिला समेत महिला के साथ काम करने वाली 12 महिलाओ के ग्रुप ने चुप्पी तोड़कर सच बता दिया तो हालत और खस्ता हो गई है । और 9 जुलाई को इस रिपोर्ट के ' सच " शीर्षक के प्रसारण के बाद सत्ता - सरकार की खामोशी ने संकेत तो दिये कि वह कुछ करेगी। और उसी रात सूचना प्रसारण मंत्रालय के अधीन काम करने वाले न्यू चैनल मॉनिटरिंग की टीम में से एक शख्स ने फोन से जानकारी दी कि आपके मास्टरस्ट्रोक चलने के बाद से सरकार में हडकंप मचा हुआ है। बाकायदा एडीजी को सूचना प्रसारण मंत्री ने हड़काया है कि क्या आपको अंदेशा नहीं था कि एवीपी हमारे ट्वीट के बाद भी रिपोर्ट फाइल कर सकता है।
अगर ऐसा हो सकता है तो हम पहले ही नोटिस भेज देते । जिससे रिपोर्ट के प्रसारण से पहले उन्हें हमें दिखाना पड़ता। जाहिर है जब ये सारी जानकारी 9 जुलाई को सरकारी मॉनिटरिंग करने वाले सीनियर मॉनिटरिंग के पद को संभाले शख्स ने दी । तो मुझे पूछना पड़ा कि क्या आपको कोई नौकरी का खतरा नहीं है जो आप हमें सारी जानकरी दे रहे हैं । तो उस शख्स ने साफ तौर पर कहा कि दो सौ लोगों की टीम है। जिसकी भर्ती ब्रॉडकास्ट इंजीनियरिंग कारपोरेशन इंडिया लिं. करती है । छह महीने के कान्ट्रेक्ट पर ऱखती है चाहे आपको कितने भी बरस काम करते हुये हो जाये। छुट्टी की कोई सुविधा है नहीं। मॉनिटिरंग करने वालों को 28635 रुपये मिलते हैं तो सीनियर मानेटरिंग करने वालों को 37,350 रुपये और कन्टेट पर नजर रखने वालो को 49,500 रुपये। तो इतने वेतन की नौकरी जाये या रहे फर्क क्या पडता है। पर सच तो यही है कि प्राइम टाइम के बुलेटिन पर नजर रखने वालो को यही रिपोर्ट तैयार करनी होती है कितना वक्त आपने प्रधानमंत्री मोदी को दिखाया। जो चैनल मोदी को सबसे ज्यादा दिखाता है उसे सबसे ज्यादा अच्छा माना जाता है । तो हम मास्टरस्ट्रोक में प्रदानमंत्री मोदी को तो खूब देखते हैं। लगभग हंसते हुये उस शख्स ने कहा आपके कंटेन्ट पर एक अलग से रिपोर्ट तैयार होती है। और आज जो आपने दिखाया है उसके बाद तो कुछ भी हो सकता है। बस सचेत रहियेगा।
यह कहकर उसने तो फोन काट दिया। वैसे, मॉनिटरिंग करने वाले की शैक्षिक योग्यता है ग्रेजुएशन और एक अदद डिप्लोमा। पर मैं भी सोचने लगा होगा । इसकी चर्चा चैनल के भीतर हुई भी पर ये किसी ने नहीं, सोचा था कि हमला तीन स्तर पर होगा। और ऐसा हमला होगा कि लोकतंत्र टुकुर टुकुर देखता रह जायेगा । क्योंकि लोकतंत्र के नाम ही लोकतंत्र का गला घोंटा जायेगा। तो अगले ही दिन से जैसे ही रात के नौ बजे एबीपी न्यूज चैनल का सैटेलाइट लिंक अटकने लगता। और फिर रोज नौ बजे से लेकर रात दस बजे तक कुछ इस तरह से सिग्नल की डिस्टरबेंस रहती कि कोई भी मास्टरस्ट्रोक देख ही ना पाये । या देखने वाला चैनल बदल ही ले। और दस बजते ही चैनल फिर ठीक हो जाता।
जाहिर है ये चैनल चलाने वालों के लिये किसी झटके से कम नहीं था । तो ऐसे में चैनल के प्रोपराइटर व एडिटर-इन चीफ ने तमाम टैक्नीशियन्स को लगाया। ये क्यों हो रहा है। पर सेकेंड भर के लिये किसी टेलीपोर्ट से एबीपी सैटेलाईट लिंक पर फायर होता और जब तक एबीपी के टेकनिश्न्यन्स एबीपी का टेलीपोर्ट बंद कर पता करते कि कहां से फायर हो रहा है, तब तक उस टेलीपोर्ट के मूवमेंट होते और वह फिर चंद मिनट में सेकेंड भर के लिये दुबारा टेलीपोर्ट से फायर करता। यानी औसत तीस से चालीस बार एबीपी के सैटेलाइट सिग्नल को ही प्रभावित कर विघ्न पैदा किया जाता । और तीसरे दिन सहमति यही बनी की दर्शको को जानकारी दी जाये। तो 19 जुलाई को सुबह से ही चैनल पर जरुरी सूचना कहकर चलाना शुरु किया गया , " पिछले कुछ दिनो से आपने हमारे प्राइम टाइम प्रसारण के दौरान सिग्नल को लेकर कुछ रुकावटे देखी होगी । हम अचानक आई इन दिक्कतों का पता लगा रहे है और उन्हे दूर करने की कोशिश में लगे है । तब तक आप एबीपी न्यूज से जुड़े रहें। " ये सूचना प्रबंधन के मशविरे से आन एयर हुआ । पर इसे आन एयर करने के दो घंटे बाद ही यानी सुबह 11 बजते बजते हटा लिया गया और हटाने का निर्णय भी प्रबंधन का ही रहा।
यानी दवाब सिर्फ ये नहीं कि चैनल डिस्टर्ब होगा । बल्कि इसकी जानकारी भी बाहर जानी नहीं चाहिये। यानी मैनेजमेंट कहीं खड़े ना हो। और इसी के सामानांतर कुछ विज्ञापनदाताओ ने विज्ञापन हटा लिये या कहें रोक लिये। मसलन सबसे बड़ा विज्ञापनदाता जो विदेशी ताकतों से स्वदेशी ब्रांड के नाम पर लड़ता है और अपने सामान को बेचता है, उसका विज्ञापन झटके में चैनल के स्क्रीन से गायब हो गया । फिर अगली जानकारी ये भी आने लगी कि विज्ञापनदाताओ को भी अदृश्य शक्तियां धमका रही हैं कि वह विज्ञापन बंद कर दें। यानी लगातार 15 दिन तक सैटेलाइट लिंक में दखल । और सैटेलाइट लिंक में डिस्टरबेंस का मतलब सिर्फ एबीपी का राष्ट्रीय हिन्दी न्यूज चैनल भर ही नहीं बल्कि चार क्षेत्रीय भाषा के चैनल भी डिस्टर्ब होने लगे। और रात नौ से दस बजे कोई आपका चैनल ना देख पाये तो मतलब है जिस वक्त सबसे ज्यादा लोग देखते हैं, उसी वक्त आपको कोई नही देखेगा।
यानी टीआरपी कम होगी ही। यानी मोदी सरकार के गुणगान करने वाले चैनलों के लिये राहत कि अगर वह सत्तानुकूल खबरों में खोये हुये हैं तो उनकी टीआरपी बनी रहेगी। और जनता के लिये सत्ता ये मैसेज दे देगी कि लोग तो मोदी को मोदी के अंदाज में सफल देखना चाहते है। जो सवाल खड़ा करते है उसे जनता देखना ही नहीं चाहती। यानी सूचना प्रसारण मंत्री को भी पता है कि खेल क्या है तभी तो संसद में जवाब देते वक्त वह टीआरपी का जिक्र करने से चूके। पर स्क्रीन ब्लैक होने से पहले टीआरपी क्यों बढ़ रही थी, इसपर कुछ नहीं बोले । खैर ये पूरी प्रक्रिया है जो चलती रही। और इस दौर में कई बार ये सवाल भी उठे कि एवीपी को ये तमाम मुद्दे उठाने चाहिये।
मास्टर स्ट्रोक के वक्त अगर सेटेलाइट लिंक खराब किया जाता है तो कार्यक्रम को सुबह या रात में ही रिपीट टेलिकास्ट करना चाहिये। पर हर रास्ता उसी दिशा में जा रहा था जहां सत्ता से टकराना है या नहीं। और खामोशी हर सवाल का जवाब खुद ब खुद दे रही थी। तो पूरी लंबी प्रक्रिया का अंत भी कम दिलचस्प नहीं है। क्योंकि एडिटर-इन -चीफ यानी प्रोपराइटर या कहें प्रबंधन जब आपके सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जाये कि बताइये करें क्या? और इन हालातों में आप खुद क्या कर सकते है छुट्टी पर जा सकते हैं। इस्तीफा दे सकते है। और कमाल तो ये है कि इस्तीफा देकर निकले नहीं कि पतंजलि का विज्ञापन लौट आया। मास्टरस्ट्रोक में भी विज्ञापन बढ़ गया। 15 मिनट का विज्ञापन जो घटते घटते तीन मिनट पर आ गया था वह बढ़कर 20 मिनट हो गया। 2 अगस्त को इस्तीफा हुआ और 2 अगस्त की रात सैटेलाइट सिग्नल भी संभल गया। और काम करने के दौर में जिस दिन संसद के सेन्ट्रल हाल में कुछ पत्रकारो के बीच एबीपी चैनल को मजा सिखाने की धमकी देते हुये 'पुण्य प्रसून खुद को क्या समझता है' कहा गया। उससे दो दिन पहले का सच और एक दिन बाद का सच ये भी है कि रांची और पटना में बीजेपी का सोशल मीडिया संभालने वालों को बीजेपी अध्यक्ष निर्देश देकर आये थे ...." पुण्य प्रसून को बख्शना नही है। सोशल मीडिया से निशाने पर रखें।
और यही बात जयपुर में भी सोशल मीडिया संभालने वालो को गई। पर सत्ता की मुश्किल यह है कि धमकी, पैसे और ताकत की बदौलत सत्ता से लोग जुड़ तो जाते है पर सत्ताधारी के इस अंदाज में खुद को ढाल नहीं पाते। तो रांची-पटना-जयपुर से बीजेपी के सोशल मीडियावाले ही जानकारी देते रहे आपके खिलाफ अभी और जोऱ शोर से हमला होगा। तो फिर आखिरी सवाल जब खुले तौर पर सत्ता का खेल हो रहा है तो फिर किस एडिटर गिल्ड को लिखकर दें या किस पत्रकार संगठन से कहें संभल जाओ। सत्तानुकूल होकर मत कहो शिकायत तो करो फिर लडेंगे। जैसे एडिटर गिल्ड नहीं बल्कि सचिवालय है और संभालने वाले पत्रकार नहीं सरकारी बाबू है। तो गुहार यही है लड़ो मत पर दिखायी देते हुये सच को देखते वक्त आंखों पर पट्टी तो ना बांधो।
(नोटः ये लेख द वायर हिंदी पर पहले प्रकाशित किया जा चुका है। वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने एबीपी न्यूज को इस्तीफा सौंपने के बाद अपना यह पहला लेख लिखा है।)