क्या रईसों के भ्रष्ट मुनाफे पर टिका है लोकतंत्र ?

Written by Puny Prasun Bajpai | Published on: November 2, 2018
याद कीजिये सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति को लेकर जब कोलेजियम का सवाल उठा तो सरकार ने जनहित का हवाला दिया। सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा को जब छुट्टी पर भेजा गया तो भी सरकार ने जनहित का हवाला दिया। और अब रिजर्व बैक पर सेक्शन -7 लागू करने की बात है तो भी जनहित का ही हवाला दिया जा रहा है। और तीनों ही मामलों में ये भी याद कीजिये सरकार की तरफ से कब कब क्या क्या कहा गया। कोलेजियम का जिक्र कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने ये कहकर किया कि जजों की नियुक्ति में सरकार की दखल क्यो नहीं हो सकती। सरकार को तो जनता ने ही चुना है। 



सीबीआई के मामले में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि चुनी हुई सरकार से बडा दूसरा कोई कैसे हो सकता है। संस्थानों में ठीक से काम हो ये सरकार नहीं तो और कौन देखेगा। और रिजर्व बैक के मामले में तो वित्त मंत्री ये कहने से नहीं चूके कि 2008 से 2014 तक जब रिजर्व बैक लोन बांट रहा था जब उसे फिक्र नहीं थी। यानी स्वायत्त संस्था या संवैधानिक संस्था खुद कितने निर्णय ले सकती है या फिर सत्ता-सरकार चाहे तो कैसे संवैधानिक संस्थाओ को मिलने वाले हकों की धज्जियां खुले तौर पर उडाई जा सकती है, उसका खुला नजारा ही मौजूदा वक्त में देश के सामने है। 

फिर भी सरकार जब ये सवाल लगातार कर रही है कि किसी भी संस्था के भीतर जब कुछ गड़बड़ी है तो सरकार नहीं तो और कौन देखेगा। क्योंकि आखिर जनता के प्रति तो सरकार ही जिम्मेदार है। जाहिर है ये तर्क सही लग सकता है। लेकिन संस्थान किस तरह से कौन से मुद्दों को उठा रहे थे या कौन से मुद्दे संस्था-सरकार के टकराव के कारण बने, गौर इस पर भी करना जरुरी है।

क्योंकि संवैधानिक या स्वायत्त संस्था अगर सरकार की ही गड़बड़ियों की जांच कर रहा हो या फिर सत्ता-सरकार कैसे दखल दे सकती है या सत्ता सरकार अगर दखल देती है तो फिर वह खुद को बचाने के लिये जनता से चुन कर आये हैं ये कहने से चूकती नहीं है। यानी जनता ने पांच बरस के लिये चुना है तो पांच बरस तक मनमानी की छूट दी नहीं जा सकती है। इसीलिये तो संवैधानिक संस्थाओं को बनाया गया। यानी सुप्रीम कोर्ट में एक वक्त चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ चार जस्टिस सार्वजनिक तौर पर प्रेस कान्फ्रेंस करने इसलिये निकल पड़े क्योकि जो भी मुख्य मुकदमे सरकार से जुडे थे, उनकी सुनवाई चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा अपनी अदालत में ही कर रहे थे। 

यानी रोस्टर ऐसा बनता कि सारी मुख्य मुकदमें चीफ जस्टिस के नंबर एक अदालत में ही जाते। और मौजूदा चीफ जस्टिस गगोई उस वक्त ये कहने से नहीं चूके थे कि "लोकतंत्र खतरे में है"। फिर सीबीआई में जो हो रहा था और कैसे राफेल मामले के लिये छुट्टी पर भेजे गये सीबीआई डायरेक्टर फाइल खोलने जा रहे थे। और कैसे स्पेशल डायरेक्टर की नियुक्ति ही सत्ता की तरफ से अलग से कर दी गई। यानी कटघरे में सरकार ही थी। पर उसने फिक्र दिखायी संस्थाओं से ज्यादा बड़े चुनी हुई सरकार की साख को लेकर। और कुछ इसी तर्ज पर रिजर्व बैक की राह चल पड़ी है। जिस तरह एनपीए की रकम लगातार बढ़ रही है, जिस तरह बैंकों का विलय भी हो रहा है और बैंकों में फ्रॉड की घटना भी लगातार बढ़ रही है, उसमें सरकार की कैसे भूमिका हो सकती है। या नोटबंदी के बाद ही जिस भूमिका में रिजर्व बैकं ने खुद को पेश किया उसमें उभरा यही कि सत्ता जो चाहती है वह रिजर्व बैक अपने निर्देशों के जरिये करने को मजबूर है।

और आजाद भारत के इतिहास में ऐसा मौका कभी आया नहीं है कि सेक्शन-7 के तहत सत्ता - सरकार ही रिजर्व बैक को भी निर्देश देने लगे। यानी एक तरफ रिज़र्व बैंक अपने आप में एक स्वायत्त निकाय है और सरकार से अलग अपने फ़ैसले लेने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन कुछ तय स्थितियों में इसे सरकार के निर्देश सुनने पड़ते हैं। इस कडी में आगे की स्थिति ये है कि सेक्शन-7 लागू कर दिया जाये। इस सेक्शन के तहत ना सिर्फ सरकार निर्देश देती है है बल्कि रिजर्व बैक के गवर्नर की ताकत भी खत्म हो जाती है क्योंकि सेक्शन-7 लागू होने के बाद बैंक के कारोबार से जुड़े फ़ैसले आरबीआई गवर्नर के बजाय रिज़र्व बैंक के 'बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स' लेंते हैं। 

ऐसा भी नहीं है कि रिजर्व बैक के गवर्नर या उनके द्वारा नियुक्त किये गये डेप्युटी गवर्नर की ग़ैरमौजूदगी में भी 'सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स' सरकार के दिए निर्देशों का पालन करने का अधिकार होता है। आपका अगला सवाल ये भी होगा कि आखिर बोर्ड आफ डायरेक्टर में होते कौन हैं। सारे नामों पर ना भी जायें तो भी स्वामीनाथन गुरुमूर्त्ति का जिक्र तो किया ही जा सकता है। क्योंकि पिछले दिनो इन्हें रिजर्व बैक में डायरेक्टर के तौर पर नियुक्त किया गया। संघ के बेहद करीब गुरुमूर्ति ने डायरेक्टर बनते ही मिनिस्ट्री आफ माइक्रो स्माल, एंड मिडियम एटरप्रईजेज यानी एमएसएमई को कर्ज देने की शर्तो को आसान करने को कहा। कर्ज की रकम बढाने को कहा। कुछ बैंकों को रिजर्व बैक के प्राम्पट करेक्टिव एक्शन में छूट देने को कहा ।

इसी तरह को कुछ नये नियमों को बनाने को भी कहा। जिसपर रिजर्व बैक के डिप्टी डायरेक्टर विरल आचार्य अपने भाषण में ये कहने से नहीं चूके कि, ' जो सरकारें केंद्रीय बैंकों की स्वतंत्रता का सम्मान नहीं करती, वहां के बाजार तत्काल या बाद में संकट में फंसते हैं। अर्थव्यवस्था सुलगने लगती है। अहम संस्थाओं की भूमिका खोखली हो जाती है।' 

यानी सत्ता सरकार की भूमिका स्वायत्त संस्थाओ को किस दिशा में ले जा रही है ये कोई ऐसा सवाल नहीं है जिसे राजनीतिक कहकर टाल दिया जाये। बल्कि सवाल तो ये है कि इस भाषण के अक्स में बैंकिंग सेवा के हालात को समझने की जरुरत है। मसलन, 2015 में सबसे ज्यादा 3243 बैंक फ्रॉड हुये। तो 2016 में 2789 बैंक फ्रॉड। 2017 में 2716 बैंक फ्रॉड। पर सवाल सिर्फ बैंक फ्रॉड भर का नहीं है। सवाल तो ये है कि बैंक से नीरव मोदी मेहूल चौकसी और माल्या की तर्ज पर कर्ज लेकर ना लौटाने वालों की तादाद की है। और अरबों रुपया बैंक का बैलेंस शीट से हटाने का है। सरकार का बैंको को कर्ज का अरबो रुपया राइट
आफ करने के लिये सहयोग देने का है। 

सरकार बैंकिंग प्रणाली के उस चेहरे को स्वीकार चुकी है, जिसमें अरबो रुपये का कर्जदार पैसे ना लौटाये। क्योंकि क्रेडिट इनफारमेशन ब्यूरो आफ इंडिया लिमिटेड यानी सिबिल के मुताबिक इससे 1,11,738 करोड का चूना बैंकों को लग चुका है। और 9339 कर्जदार ऐसे है जो कर्ज लौटा सकते है पर इंकार कर दिया। पिछले बरस सुप्रीम कोर्ट ने जब इन डिफाल्टरों का नाम पूछा तो रिजर्व बैंक की तरफ से कहा गया कि जिन्होने 500 करोड से ज्यादा का कर्ज लिया है और नहीं लौटा रहे है उनके नाम सार्वजनिक करना ठीक नहीं होगा। 

यानी जो कर्ज लेकर ना लौटाये उनके खिलाफ कोई कार्रवाई हुई नहीं, उल्टे सरकार बैंकों को मदद कर रही हैं कि वह अपनी बैलेस शीट से अरबो रुपये की कर्जदारी को ही हटा दें। ये सिलसिला कोई नया नहीं है। मनमोहन सरकार के दौर में भी ये होता रहा। पर मौजूदा दौर की सत्ता के वक्त इसमें खासी तेजी आ गई है। मसलन, 2007-08 से 2015-16 तक यानी 9 बरस में 2,28,253 करोड रुपए राइट आफ किये गये।

तो 2016 से सितबंर 2017 तक यानी 18 महीने में 1,32,659 करोड़ रुपए राइट आफ कर दिये गये। यानी इक्नामी का रास्ता ही कैसे डि-रेल है या कहें बैंक से कर्ज लेकर ही कैसे बाजार में चमक दमक दिखाने वाले प्रोडक्ट बेचे जा रहे हैं ये उन कर्जदारों के भी समझा जा सकता हैं, जिन्होंने कर्ज लिये है। कर्ज लौटा भी सकते है पर कर्ज लौटा नहीं रहे हैं। और बाजार में अपने ब्रांड के डायमंड से लेकर कपड़े, फ्रीज से लेकर दवाई तक बेच रहे हैं। 

तो ऐसे में अगला सवाल यही है कि देश में लोकतंत्र भी क्या रईसों के भ्रष्ट मुनाफे पर टिका है। और दुनिया तो रईसी नापती है, रईस कैसे हुये इसे नहीं समझना चाहती। तभी तो अब जब बैंको से कर्ज लेकर अरबों के वारे न्यारे करने वाले कारपोरेट-उघोगपतियों की वह कतार सामने आ रही है और जो बैंक कर्ज नहीं लौटाते पर फोर्ब्स की लिस्ट में अरबपति होते है। 

नीरव मोदी का नाम भी 2017 की फोर्ब्स लिस्ट में थे। तो अगला सवाल यही है कि एक तरफ अर्थव्यवस्था का चेहरा इसी नींव पर टिका है जहा सिस्टम ही रईसों के लिये हो। और दूसरी तरफ लोकतंत्र का मतलब है पांच बरस के लिये सत्ता पर किसी भी तरह काबिज होना और उसके बाद अपनी मुठ्ठी में सारे स्वयत्त- संवैधानिक संस्थानों को कैद कर लेना। और कोई सवाल खडा करें तो ठसक से कह देना जनता ने चुना है। पांच साल तक कोई ना बोले।

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