प्रधानमंत्री ने जैसे ही एलान किया कि अब छोटे व मझौले उघोगों [ एमएसएमई ] को 59 मिनट में एक करोड़ तक का कर्ज मिल जायेगा। वैसे ही एक सवाल तुरंत जहन में आया कि देश में एक घंटे से कम में क्या क्या हो जाता है। सरकारी आंकडों को ही देखने लगा तो सामने आया कि हर आंधे घंटे में एक किसान खुदकुशी कर लेता । हर 15 मिनट में एक बलात्कार हो जाता है। हर सात मिनट में एक मौत सड़क हादसे में हो जाती है।
हर मिनट प्रदूषण से 4 से ज्यादा मौत हो जाती है। दूषित पानी पीने से हर दो मिनट में एक मौत होती है। इलाज ना मिल पाने की वजह से हर पांच मिनट में एक मौत हो जाती है। हर बीस में किसी एक के डूबने से मौत हो जाती है। आग लगने से हर तीस मिनट में एक मौत हो जाती है। हर बीस मिनट में तो जहर से भी एक मौत होती है। हर 12 वें मिनट दलित उत्पीड़न की एक धटना होती है। हर तीसरे सेंकेंड महिला से छेड़छाड़ होती है।
यानी एक घंटे से कम 59 मिनट में एक करोड़ का लोन आकर्षित करने से ज्यादा त्रासदीदायक इसलिये लगता है क्योंकि पटरी से उतरे देश में कौन सा रास्ता देश को पटरी पर लाने के लिये होना चाहिये उस दिशा में ना कोई सोचने को तैयार है ना ही किसी के पास पालिटिकल विजन है। यानी सत्ता चौंकाती है। सत्ता अपनी तरफ ध्यान आकर्षित करना चाहती है। सत्ताअपने होने के एहसास को जनता पर लादना चाहती है। जनता कभी इस हाथ कभी उस हाथ लुटे के सियासी रास्ते बनाने में ही पांच बरस गुजार देती है। और ये बरसों बरस से हो रहा है। तो निराशा होगी। ऐसे में मौजूदा सत्ता ने निराशा और आशा के बीच उस कील को ठोंकना शुरु किया है जिसमें राजनीतिक सत्ता पाने के तौर तरीके पारंपरिक ही रहे। लेकिन सत्ता के तौर तरीके अपने तंत्र को ही राष्ट्रीय तंत्र बना दे।
यानी सवाल ये नहीं है कि कि 59 मिनट में एक करोड़ का लोन मिल जाये। कानून बनाकर भीड तंत्र पर नकेल कसने की बात की जाये। रिजर्व बैक को राजनीतिक तौर पर अमल में लाने के लिये पुरानी विश्व बैंक या आईएमएफ की धारा को बदलने की जरुरत बताने की कोशिश की जाये। पुलिस-जांच एंजेसी की अराजकता को उभार कर सत्ता नकेल कसने के लोकप्रिय अंदाज को अपना लें।
ध्यान दीजिये तो सत्ता अपनी मौजूदगी देश के हर उस छेद को बंद कर दिया जाये या रफू करने के नाम पर ये कहकर कर रही है। लेकिन सत्ता की मौजूदगी हर छेद को और बड़ा कर दे रही है। तो क्या ये रास्ता उस संघर्ष की दिशा में जा रहा है, जहां जनता को राहत के लिये राजनीतिक सत्ता की तरफ ही देखना पड़े और सत्ता पहले की तुलना में कहीं ज्यादा ताकतवर हो जाये। यानी चुनावी लोकतंत्र ही हिन्दुत्व हो । वही समाजवाद हो। वही विकास का प्रतीक हो। वही सेक्यूलर हो। वही सबका साथ सबका विकास का जिक्र करें। पहली सोच में ये असंभव सा लग सकता है लेकिन सत्ता के तौर तरीकों से ही समझे तो इस धारा को समझने में मुश्किल नहीं होगी।
याद कीजिये मोदी सरकार का पहला बजट। कारपोरेट/उद्योगों के लिये रास्ता खोलता बजट। भाषण देते वक्त वित मंत्री ये कहने से नहीं चूकते कारपोरेट और इंडस्ट्री के पास धंधा करने का अनुकुल रास्ता बनेगा तो ही किसान- मजदूरों के लिये उनके जरीये पूंजी निकलेगी। फिर दूसरा बजट जिसमें उघोग और खेती में बैलेंस बनाने की बात होती है। लेकिन खेती को फिर भी कल्याण योजनाओ से ही जोड़ा जाता है। और तीसरे बजट में अचानक किसानों की याद कुछ ऐसी आती है कि कारपोरेट और इंडस्ट्री से इतर एनपीए का घड़ा यूपीए सरकार के माथे फोड कर मुश्किल हालात बताये जाते है। और चौथे बजट में मोदी सरकार किसानों की मुरीद हो जाती है और लगता है कि देश में चीन की तरफ कृषि क्रांति की तैयारी मोदी सरकार कर रही है। लेकिन बजट के बाद सभी को समझ में आ जाता है कि सरकार का खजाना खाली हो चुका है। इक्नामी डावाडोल है। और पांचवे बरस सिर्फ बात बनाकर ही जनता को मई 2019 तक ले जाना है।
यानी बजट भाषण और बजट में अलग अलग मद में दिये गये रुपयों को ही कोई पढ़ लें तो समझ जायेगा कि 2014 में जो सोचा जा रहा था वह 2018 में कैसे बिलकुल उलट गया। तो ऐसे में फिर लौटिये 59 मिनट में एक करोड तक के लोन पर। संघ के करीबी गुरुमुर्त्ती ने रिजर्व बैंक का डायरेक्टर बनने के बाद बैंकों की कर्ज देने की पूर्व और पारंपरिक नीति को सिर्फ इस आधार पर बदल दिया कि कारोपरेट और उघोगपति अगर कर्ज लेकर नहीं लौटाते हैं तो फिर छोटे और मझौले इंडस्ट्री को भी ये हक मिलना चाहिये। यानी देश में उत्पादन ठप पडा है।
नोटबंदी के बाद 50 लाख से ज्यादा छोटे-मझोले उघोग बंद हो गया। अंसगठित क्षेत्र के 25 करोड लोगों पर सीधा तो 22 करोड़ लोगों पर अप्रत्यक्ष तौर पर कुप्रभाव पडा। यानी एक करोड के कर्ज को इसलिये बांटने का प्रवधान बनाया जा रहा है जिससे देश की लूट में हिस्सेदारी हर किसी को हो। ये हिस्सेदारी जनधन से शुरु होकर स्टार्ट-अप तक जाती है। यानी बैंकों से मोदी नीति के नाम पर रुपया निकल रहा है लेकिन वह रुपया ना तो वापस लौटेगा और ना ही उस रुपये से कोई इंडस्ट्री, कोई उघोग, कोई स्टार्ट-अप शुरु हो पायेगा। बल्कि बेरोजगारी और ठप इक्नामी में राहत के लिये बैंकों को बताया जा रहा है कि सभी को रुपया बांटो।
क्योकि जनता में गुस्सा ना हो। और जिसमें गुस्सा हो उसे दबाने के लिये मोदी नीति से राहत पाया शख्स ही बोले। यानी आर्थिक नीति कौन सी है? स्वायत्त संस्थाओ का काम क्या है। क्योकि कानून के दायरे में काम होता नहीं और जहा कानून है वहा भीडतंत्र काम करते हुये नजर आता है। ऐसा नहीं है कि सारी गडबडी मोदी सत्ता के वक्त ही हुई। लेकिन पारंपरिक गडबडियो के आसरे ही सत्ता अगर देश चलाने लगेगी तो फिर गड़बडियां या अराजक हालात ही गवर्नेंस कहलायेगी। ध्यान दीजिये हो यही रहा है। सीबीआई के लिये कोई कानून है ही नही। कांग्रेस ने सीबीआई के जरिये काम कराये। तो मोदी सत्ता खुद ही सीबीआई बन गई।
रिजर्व बैंक की नीति को मंनमोहन सिंह के दौर में आवारा पूंजी के साथ खड़े होने की खुली छूट दी गई। कारोपरेट की लूट को हवा मनमोहन सिंह के दौर में बाखूबी मिली। लेकिन मोदी सत्ता के दौर में सत्ता ही कारपोरेट हो गई। यानी कल तक जिन माध्यम के आसरे सत्ता निरकुंश या मनमानी करती था वह आज खुद ही हर माध्यम बन रही है । य़े ठीक वैसे ही है जैसे कभी करप्ट और अपराधियों के आसरे सत्ता में आया जाता था। पर धीरे धीरे करप्ट और आपराधिक तत्व चुनाव लड जितने लगे और खुद ही सत्ता बन गये। तभी तो देश में कानून या नीतियां बनती कैसे हैं, उसका एक नजारा ये भी है कि दिल्ली की निर्भया रेप कांड के बाद कड़ा कानून बना लेकिन बरस दर बरस रेप बढ़ते गये। 2013 में [ निर्भया कांड का बरस ] 33,707 रेप हुये तो 2017 में बढते बढते चालिस हजार पार कर गये।
इसी तरह शिक्षा के अधिकार पर कानून। भोजन के अधिकार पर कानून , दलित अत्याचार रोकने पर कानून से लेकर 34 क्षेत्र के लिये बीते 10 बरस यानी 2009 के बाद कानून बना। लेकिन कानून बनने के बाद घटनाओ में तेजी आ गई। ज्यादा बच्चों स्कूल छोडने लगे। आलम ये है कि स्कूलो में दाखिला लेने वाले 18 करोड बच्चों में से सिर्फ 1 करोड 44 लाख बच्चे ही बारहवीं की परीक्षा दे पाते है। दो जून की रोटी के लाले ज्यादा पडे।
हालात ये है कि 20 करोड लोगों तक 2013 में बना भोजन का अधिकार पहुंच ही नहीं पाया है। यहा तक की मनरेगा का काम भी गायब होने लगा। तो फिर इस कडी में कोई भी ये सवाल भी कर सकता है कि जब गवर्नेंस गायब है। पॉलिसी पैरालाइसिस है। या सबकुछ है और सबकुछ का मतलब ही सत्ता है तो फिर? तो फिर का मतलब यही है कि सत्ता पर निगरानी के लिये लोकपाल और लोकायुक्त कानून भी 16 जनवरी 2014 को बना था और उसके बाद सत्ता तो नहीं लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अलग अलग तरीके से पांच बार सत्ता से पूछा, लोकपाल का क्या हुआ । और सुप्रीम कोर्ट के तेवर और सत्ता की मस्ती देखिये । सुप्रीम कोर्ट 23 नवंबर 2016
को कहता है लोकपाल की नियुक्ति में देरी क्या ? फिर 7 दिसबंर 2016 को पूछता है लोकपाल की नियुक्ति के लिये अब तक क्या हुआ ? फिर 27 अप्रैल 2017 को निर्देश देता है , लोकपाल की नियुक्ति की प्रक्रिया को अटकाया ना जाये। उसके बाद 17 अप्रैल 2018 को कहता है, लोकपाल की नियुक्ति जल्द से जल्द हो। और 2 जुलाई 2018 को तो सीधे कहता है, 10 दिन में बताए कबतक बनेगा लोकपाल? और 2 जुलाई के बाद देश में स्वायत्त संस्था से लेकर सुप्रीम कोर्ट में क्या क्या हुआ ये किसी से छिपा नहीं है। यानी संकेत साफ है जब सत्ता संविधान की व्याख्या करने वाले सुप्रीम कोर्ट को टरका सकती है और खुद को ही सीबीआई, सीवीसी, रिजर्व बैक से लेकर चुनाव आयोग में तब्दील कर सकती है तो उसमें आपकी क्या बिसात?
हर मिनट प्रदूषण से 4 से ज्यादा मौत हो जाती है। दूषित पानी पीने से हर दो मिनट में एक मौत होती है। इलाज ना मिल पाने की वजह से हर पांच मिनट में एक मौत हो जाती है। हर बीस में किसी एक के डूबने से मौत हो जाती है। आग लगने से हर तीस मिनट में एक मौत हो जाती है। हर बीस मिनट में तो जहर से भी एक मौत होती है। हर 12 वें मिनट दलित उत्पीड़न की एक धटना होती है। हर तीसरे सेंकेंड महिला से छेड़छाड़ होती है।
यानी एक घंटे से कम 59 मिनट में एक करोड़ का लोन आकर्षित करने से ज्यादा त्रासदीदायक इसलिये लगता है क्योंकि पटरी से उतरे देश में कौन सा रास्ता देश को पटरी पर लाने के लिये होना चाहिये उस दिशा में ना कोई सोचने को तैयार है ना ही किसी के पास पालिटिकल विजन है। यानी सत्ता चौंकाती है। सत्ता अपनी तरफ ध्यान आकर्षित करना चाहती है। सत्ताअपने होने के एहसास को जनता पर लादना चाहती है। जनता कभी इस हाथ कभी उस हाथ लुटे के सियासी रास्ते बनाने में ही पांच बरस गुजार देती है। और ये बरसों बरस से हो रहा है। तो निराशा होगी। ऐसे में मौजूदा सत्ता ने निराशा और आशा के बीच उस कील को ठोंकना शुरु किया है जिसमें राजनीतिक सत्ता पाने के तौर तरीके पारंपरिक ही रहे। लेकिन सत्ता के तौर तरीके अपने तंत्र को ही राष्ट्रीय तंत्र बना दे।
यानी सवाल ये नहीं है कि कि 59 मिनट में एक करोड़ का लोन मिल जाये। कानून बनाकर भीड तंत्र पर नकेल कसने की बात की जाये। रिजर्व बैक को राजनीतिक तौर पर अमल में लाने के लिये पुरानी विश्व बैंक या आईएमएफ की धारा को बदलने की जरुरत बताने की कोशिश की जाये। पुलिस-जांच एंजेसी की अराजकता को उभार कर सत्ता नकेल कसने के लोकप्रिय अंदाज को अपना लें।
ध्यान दीजिये तो सत्ता अपनी मौजूदगी देश के हर उस छेद को बंद कर दिया जाये या रफू करने के नाम पर ये कहकर कर रही है। लेकिन सत्ता की मौजूदगी हर छेद को और बड़ा कर दे रही है। तो क्या ये रास्ता उस संघर्ष की दिशा में जा रहा है, जहां जनता को राहत के लिये राजनीतिक सत्ता की तरफ ही देखना पड़े और सत्ता पहले की तुलना में कहीं ज्यादा ताकतवर हो जाये। यानी चुनावी लोकतंत्र ही हिन्दुत्व हो । वही समाजवाद हो। वही विकास का प्रतीक हो। वही सेक्यूलर हो। वही सबका साथ सबका विकास का जिक्र करें। पहली सोच में ये असंभव सा लग सकता है लेकिन सत्ता के तौर तरीकों से ही समझे तो इस धारा को समझने में मुश्किल नहीं होगी।
याद कीजिये मोदी सरकार का पहला बजट। कारपोरेट/उद्योगों के लिये रास्ता खोलता बजट। भाषण देते वक्त वित मंत्री ये कहने से नहीं चूकते कारपोरेट और इंडस्ट्री के पास धंधा करने का अनुकुल रास्ता बनेगा तो ही किसान- मजदूरों के लिये उनके जरीये पूंजी निकलेगी। फिर दूसरा बजट जिसमें उघोग और खेती में बैलेंस बनाने की बात होती है। लेकिन खेती को फिर भी कल्याण योजनाओ से ही जोड़ा जाता है। और तीसरे बजट में अचानक किसानों की याद कुछ ऐसी आती है कि कारपोरेट और इंडस्ट्री से इतर एनपीए का घड़ा यूपीए सरकार के माथे फोड कर मुश्किल हालात बताये जाते है। और चौथे बजट में मोदी सरकार किसानों की मुरीद हो जाती है और लगता है कि देश में चीन की तरफ कृषि क्रांति की तैयारी मोदी सरकार कर रही है। लेकिन बजट के बाद सभी को समझ में आ जाता है कि सरकार का खजाना खाली हो चुका है। इक्नामी डावाडोल है। और पांचवे बरस सिर्फ बात बनाकर ही जनता को मई 2019 तक ले जाना है।
यानी बजट भाषण और बजट में अलग अलग मद में दिये गये रुपयों को ही कोई पढ़ लें तो समझ जायेगा कि 2014 में जो सोचा जा रहा था वह 2018 में कैसे बिलकुल उलट गया। तो ऐसे में फिर लौटिये 59 मिनट में एक करोड तक के लोन पर। संघ के करीबी गुरुमुर्त्ती ने रिजर्व बैंक का डायरेक्टर बनने के बाद बैंकों की कर्ज देने की पूर्व और पारंपरिक नीति को सिर्फ इस आधार पर बदल दिया कि कारोपरेट और उघोगपति अगर कर्ज लेकर नहीं लौटाते हैं तो फिर छोटे और मझौले इंडस्ट्री को भी ये हक मिलना चाहिये। यानी देश में उत्पादन ठप पडा है।
नोटबंदी के बाद 50 लाख से ज्यादा छोटे-मझोले उघोग बंद हो गया। अंसगठित क्षेत्र के 25 करोड लोगों पर सीधा तो 22 करोड़ लोगों पर अप्रत्यक्ष तौर पर कुप्रभाव पडा। यानी एक करोड के कर्ज को इसलिये बांटने का प्रवधान बनाया जा रहा है जिससे देश की लूट में हिस्सेदारी हर किसी को हो। ये हिस्सेदारी जनधन से शुरु होकर स्टार्ट-अप तक जाती है। यानी बैंकों से मोदी नीति के नाम पर रुपया निकल रहा है लेकिन वह रुपया ना तो वापस लौटेगा और ना ही उस रुपये से कोई इंडस्ट्री, कोई उघोग, कोई स्टार्ट-अप शुरु हो पायेगा। बल्कि बेरोजगारी और ठप इक्नामी में राहत के लिये बैंकों को बताया जा रहा है कि सभी को रुपया बांटो।
क्योकि जनता में गुस्सा ना हो। और जिसमें गुस्सा हो उसे दबाने के लिये मोदी नीति से राहत पाया शख्स ही बोले। यानी आर्थिक नीति कौन सी है? स्वायत्त संस्थाओ का काम क्या है। क्योकि कानून के दायरे में काम होता नहीं और जहा कानून है वहा भीडतंत्र काम करते हुये नजर आता है। ऐसा नहीं है कि सारी गडबडी मोदी सत्ता के वक्त ही हुई। लेकिन पारंपरिक गडबडियो के आसरे ही सत्ता अगर देश चलाने लगेगी तो फिर गड़बडियां या अराजक हालात ही गवर्नेंस कहलायेगी। ध्यान दीजिये हो यही रहा है। सीबीआई के लिये कोई कानून है ही नही। कांग्रेस ने सीबीआई के जरिये काम कराये। तो मोदी सत्ता खुद ही सीबीआई बन गई।
रिजर्व बैंक की नीति को मंनमोहन सिंह के दौर में आवारा पूंजी के साथ खड़े होने की खुली छूट दी गई। कारोपरेट की लूट को हवा मनमोहन सिंह के दौर में बाखूबी मिली। लेकिन मोदी सत्ता के दौर में सत्ता ही कारपोरेट हो गई। यानी कल तक जिन माध्यम के आसरे सत्ता निरकुंश या मनमानी करती था वह आज खुद ही हर माध्यम बन रही है । य़े ठीक वैसे ही है जैसे कभी करप्ट और अपराधियों के आसरे सत्ता में आया जाता था। पर धीरे धीरे करप्ट और आपराधिक तत्व चुनाव लड जितने लगे और खुद ही सत्ता बन गये। तभी तो देश में कानून या नीतियां बनती कैसे हैं, उसका एक नजारा ये भी है कि दिल्ली की निर्भया रेप कांड के बाद कड़ा कानून बना लेकिन बरस दर बरस रेप बढ़ते गये। 2013 में [ निर्भया कांड का बरस ] 33,707 रेप हुये तो 2017 में बढते बढते चालिस हजार पार कर गये।
इसी तरह शिक्षा के अधिकार पर कानून। भोजन के अधिकार पर कानून , दलित अत्याचार रोकने पर कानून से लेकर 34 क्षेत्र के लिये बीते 10 बरस यानी 2009 के बाद कानून बना। लेकिन कानून बनने के बाद घटनाओ में तेजी आ गई। ज्यादा बच्चों स्कूल छोडने लगे। आलम ये है कि स्कूलो में दाखिला लेने वाले 18 करोड बच्चों में से सिर्फ 1 करोड 44 लाख बच्चे ही बारहवीं की परीक्षा दे पाते है। दो जून की रोटी के लाले ज्यादा पडे।
हालात ये है कि 20 करोड लोगों तक 2013 में बना भोजन का अधिकार पहुंच ही नहीं पाया है। यहा तक की मनरेगा का काम भी गायब होने लगा। तो फिर इस कडी में कोई भी ये सवाल भी कर सकता है कि जब गवर्नेंस गायब है। पॉलिसी पैरालाइसिस है। या सबकुछ है और सबकुछ का मतलब ही सत्ता है तो फिर? तो फिर का मतलब यही है कि सत्ता पर निगरानी के लिये लोकपाल और लोकायुक्त कानून भी 16 जनवरी 2014 को बना था और उसके बाद सत्ता तो नहीं लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अलग अलग तरीके से पांच बार सत्ता से पूछा, लोकपाल का क्या हुआ । और सुप्रीम कोर्ट के तेवर और सत्ता की मस्ती देखिये । सुप्रीम कोर्ट 23 नवंबर 2016
को कहता है लोकपाल की नियुक्ति में देरी क्या ? फिर 7 दिसबंर 2016 को पूछता है लोकपाल की नियुक्ति के लिये अब तक क्या हुआ ? फिर 27 अप्रैल 2017 को निर्देश देता है , लोकपाल की नियुक्ति की प्रक्रिया को अटकाया ना जाये। उसके बाद 17 अप्रैल 2018 को कहता है, लोकपाल की नियुक्ति जल्द से जल्द हो। और 2 जुलाई 2018 को तो सीधे कहता है, 10 दिन में बताए कबतक बनेगा लोकपाल? और 2 जुलाई के बाद देश में स्वायत्त संस्था से लेकर सुप्रीम कोर्ट में क्या क्या हुआ ये किसी से छिपा नहीं है। यानी संकेत साफ है जब सत्ता संविधान की व्याख्या करने वाले सुप्रीम कोर्ट को टरका सकती है और खुद को ही सीबीआई, सीवीसी, रिजर्व बैक से लेकर चुनाव आयोग में तब्दील कर सकती है तो उसमें आपकी क्या बिसात?