प्रसून जी मौन हैं...........बताइए तो वो कौन है?

Written by Shashi Shekhar | Published on: August 4, 2018
मित्रों, भूल जाइए कि पुण्य प्रसून वाजपेयी/अभिसार शर्मा नाम का कोई पत्रकार है. इनके होने और न होने से कोई फर्क नहीं पडता. आपका संपादक आज आपको अधिकार दे दे तो आप भी वाजपेयी है, अभिसार है, रविश है, फलाना है, ढिमकाना है.



आप इन्हें क्रांतिकारी मानते है तो मानिए. मैं सिर्फ नौकरीपेशा पत्रकार मानता हूं. क्यों? क्योंकि क्रांतिकारी खबर के नाम पर जो खबर वो हमें दिखाते है, वो हिमशैल का ऊपरी हिस्सा भी नहीं है.

नौकरी सीरिज, बैंक सीरिज, डेटा जर्नलिज्म. सब ठीक है. लेकिन, जा कर खंगालिए टीवी स्क्रीन. ढूंढिए खबर. किस क्रांतिकारी पत्रकार ने आपको बताया कि अंबानी पर लगाया गया 1 खरब रुपये से अधिक का जुर्माना निरस्त हो गया. है किसी क्रांतिकारी पत्रकार की मजाल कि इस पर सवाल उठाए.

किसान आत्महत्या पर आंसू बहाने वाले क्रांतिवीर पत्रकारों से पूछिए कि कौन इस देश में 60 लाख अवैध जीएम कॉटन सीड्स बेच रहा है और उसका कितना हिस्सा किसके पास जा रहा है?

किसी पुण्य, किसी रविश, किसी अभिसार ने आपको बताया कि पारसा केंते खदान में अडानी के कोयला खनन के पीछे का खेल क्या है? किसी क्रांतिकारी रिपोर्टर की हिम्मत हुई केजी बेसिन में जा कर ये पता लगाने की कि ओएनजीसी का गैस किसने कैसे चुराया?

की थी हिम्मत प्रांजय गुहा ठाकुरता ने. गैस वार लिख कर. करोडों का डिफेमेशन केस हुआ था. उन्होंने की थी अडानी के खिलाफ कार्माइल खदान पर स्टोरी. ईपीडब्लू की नौकरी से निकाले गए थे. कहीं शोर-शराबा सुना था?

इंडियन एक्सप्रेस को मानते है आप क्रांतिवीर. जरा लोया केस पर रिपोर्टिंग देखिए. सारी क्रांतिवीरता का सिरा कहां जा कर मिलता है, पता चल जाएगा. उस स्टोरी के बाद कोई पत्रकार लोया मामले पर बोलने लायक नहीं रह गया. सरकार के लिए इससे बडा सेफ्टी वॉल्व का काम कौन कर सकता है?

मार्केटिंग की एक कहावत है. इफ इट ब्लीड्स, इट लीड्स. जो दिखता है, बिकता है. टीवी स्क़्रीन पर चमकने वाले चेहरे को हीरो मान कर असल खेल को भूला नहीं जा सकता.

ये ठीक है कि तब झुकने को कहा गया था. आज रेंगने को कहा जा रहा है. तो विरोध कीजिए न. बताइए न प्रसून जी, अवीक सरकार ने क्यों निकाला आपको? बताइए प्रसून जी, क्या सचमुच बाबा रामदेव प्रकरण के कारण आपको निकाला गया था? यहां जनता आपके नाम पर सोशल मीडिया पर लड-कट रही है. आप है कि खामोश है.

हालांकि, जितने सवाल मेरे मन में प्रसून जी के लिए है, उससे कहीं ज्यादा सवाल सरकार के लिए भी है. मैं जानता हूं सरकार को सवाल से डर लगता है. लेकिन, ये सरकार सचमुच बहुत अनुभवहीन सरकार है. 12 साल तक सीएम रहे नरेंद्र मोदी के केन्द्रीय राजनीति का अनुभव न होना ही वह कारण है कि उन्हें हर उस पत्रकार से डर लगता है, जो सवाल करता है. पिछले 4 साल्के दौरान, कितने संपादक कहां से कहां चले गए, इसका डेटा निकाल लीजिए. मेरी बातों पर यकीन हो जाएगा.

अन्ना आन्दोलन के दौरान कांग्रेस को जब बहुत गुस्सा आता था तब वो एक एडवाइजरी जारी करती थी, जिसे कोई मीडिया हाउस तवज्जो नहीं देता था. लोकतंत्र है भाई. कांग्रेस जानती है. कुछ साल हम, कुछ साल तुम. ये चुनावी लोकतंत्र का शाश्वस्त नियम है. मोदी जी भी यह नियम जानते है. जाने, किसके कहने पर ऐसा कर रहे है कि इतिहास के किसी पन्ने पर इन् दिनों का भी उल्लेख होगा. और लिखा जाएगा कि सरकार ने लोकतंत्र के चौथे खंभे की हत्या कर दी थी.

खेल तो पर्सेप्शन का है. पर्सेप्शन बन गया तो बन गय. प्रसून जी, यथाशीघ्र अपना मौन तोडिए, अन्यथा आपको ले कर भी पर्सेप्शन बनेंगे...

(ये लेखक के निजी विचार हैं। शशि शेखर वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये लेख मूलतः उनके फेसबुक पोस्ट में प्रकाशित किया जा चुका है।)

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