पूर्ण रूप से भरोसा करने लायक लोकतंत्र देश में बचा नहीं है!

Written by मिथुन प्रजापति | Published on: March 27, 2019
चुनाव करीब है। नामांकन जोरों पर है। चुनाव प्रचार भी जोरों पर है। लोग जगह-जगह चुनाव संबंधित ज्ञान दे रहे हैं। जिसे लोग प्रेरणास्रोत समझते हैं उसकी हर बात को सही मान लेते हैं। उस दिन चाय की दुकान पर एक सज्जन कहने लगे- अब काला धन बचा नहीं है।

मैंने पूछ लिया- जरा भी नहीं ?
उन्होंने दृढ़ता से कहा- तनिक भी नहीं।
मैंने पूछा- कोई आंकड़ा मिला कहीं से ? किसी अखबार में पढ़ा आपने , या फिर अपने मन से कह रहे हैं ?
वे मधुर आवाज में बोले- उस दिन मोदी जी कह रहे थे। 

मैंने कहा- आप मोदी जी को प्रेरणाश्रोत मानते होंगे ?
वे बोले- जी बिलकुल, साधारण से दिखने वाले, महान व्यक्तित्व धारण किये वे मेहनती इंसान हैं। जो कहते हैं सही ही कहते होंगे।
मैंने कहा- आप बिलकुल सही कह रहे हैं। आदमी तो हीरा हैं मोदी जी। 

यह मैंने व्यंग में कहा था पर उन्हें तारीफ लगी। वे फूल गए। उन्हें मैं अपना वाला जान पड़ा। व्यंग्य सब नहीं समझ पाते। जो समझता है वह विचार करता है। तो वे फूल गए थे। अब उनके पिचकने का समय था। मैंने फिर कहा- लेकिन वो जो पंद्रह लाख वाली बात की थी वो भी तो सही थी ? शायद किसी के खाते में अभीतक एक भी रूपया नहीं आया !

वे दांत दिखाते हुए हें हें करने लगे। वे जितना फूले थे उससे थोड़ा ज्यादा पिचक गए। उन्हें समझ आया मैं अपना वाला नहीं हूं। वे मुझे समझाते हुए कहने लगे- आपने कभी अपनी प्रेमिका को रिझाने के लिए ये नहीं कहा है कि मैं तुम्हारे लिए चाँद तारे तोड़कर ला दूंगा ?
मैंने कहा- जी नहीं। मैंने इतनी बड़ी बेवकूफी नहीं की है। मुझे पता है कि मैं यह नहीं कर सकता। और मैं यह भी जानता हूँ कि मेरी प्रेमिका या आज के समय की कोई भी प्रेमिका यह सुनते ही कहेगी कि क्या बड़ी-बड़ी फेंक रहे हो ?

वे कहने लगे- मैं मान ही नहीं सकता। प्रेमिकाएं इन्हीं बातों पर तो रीझती हैं।
मैंने कहा- अब वो दौर गया साहब। वे प्रेमिकाएं होती हैं कोई भक्त नहीं जो किसी भी बात पर भरोसा कर लेंगी। सब कहानियों की बातें है कि प्रेमिकाएं चांद तारों पर रीझती हैं। अब प्रेमिकाएं आपकी ईमानदारी देखती हैं। वे बराबरी ढूंढती हैं। वह ऐसा प्रेमी चाहती हैं जो किचन में खाना बना सके, उसे बर्तन धोने में आपत्ति न हो, वह महिलाओं का सम्मान करता हो, जिसे महिला पुरूष में भेद न दिखता हो। 

वे थोड़ा चुप हुए। कुछ देर सोचते रहे। चाय को सुड़कते रहे। थोड़ी देर में थोड़े गुस्से वाले लहजे में बोले- तो आप क्या चाहते हैं कि सरकार सबको पंद्रह लाख ऐसे ही दे दे। कोई मेहनत नहीं करना जानता। सब को बस ठाठ से घर बैठे सारी सुविधाएं चाहिए।
मैंने कहा- बात ठाठ की नहीं, मोदी जी के वादे की है।

वे थोड़ा और गर्म होते हुए बोले- पिछली सरकार के वादे तुम्हें नहीं दिखते। उन्हीं का किया धरा है कि मोदी जी को पांच साल चीजों को व्यवस्थित करने में चले गए। यह कहते हुए उनका चेहरा लाल होता जा रहा था।

वे भड़कते जा रहे थे। मैं उन्हें सुनता जा रहा था। दो तरह के इंसान होते हैं। एक ढीठ और एक बेशर्म। यह आदमी जो मेरे सामने चिल्लाये जा रहा था वह ढीठ और बेशर्म दोनों था। 

ढीठ को जब पता चलता है कि वह गलत है तो बेशर्मी उसपर हावी हो जाती है और वह अपने गलत होने को भी डिफेंड करने लगता है। मैंने tv डिबेट में कई बार पार्टी प्रवक्ताओं को सवाल के जवाब में उत्तर न होने पर बेशर्मी से चिल्लाते हुए सुना है। कई तो अपनी बेशर्मी के लिए ही जाने जाते हैं।

हाल ही में सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ता से एक बार ऐंकर ने पूछ लिया- नोटबन्दी से क्या फायदा हुआ देश को ?
पहले तो प्रवक्ता ने बताया कि काला धन समाप्त हुआ, नगदी लेन-देन कम हुआ, आतंकवाद में कमी आई, पर जब ऐंकर ने प्रमाण के साथ उसकी बात को गलत साबित कर दिया तो वह चीखने लगा । कमियों को स्वीकारने की बजाय अपनी ढीठता और बेशर्मी  से लगा विपक्ष को कोसने। 

मैं ऐसे व्यक्तियों से बचता फिरता हूँ। मैं जानता हूँ। बेशर्म और ढीठ गाली के साथ हाथापाई भी करने लगते हैं। और मेरा भरोसा तो लोकतंत्र में है। लेकिन मैं यह भी  जानता हूँ कि इस देश में लोकतंत्र उतना बचा नहीं है कि पूर्णरूप से भरोसा कर लिया जाए। इसलिए मैं चाय की दुकान से उठने की कोशिश करने लगा।  पर सामने बैठे दूसरे बुजुर्ग ने कहा- सही तो कह रहे हैं, जब पंद्रह लाख देने को कहा तो सरकार देती क्यों नहीं। और लोगों ने बुजुर्ग की हां में हां मिलाई। तबतक उस सज्जन से ढीठ आदमी का मोबाइल बज गया और वे उठकर  चलने लगे।

मैं अभी भी सोच रहा हूँ कि उस दिन चाय की दुकान पर  फोन बजने पर मेरी जान छूटी  थी कि उस सज्जन से ढीठ आदमी की !
 

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