पश्चिम बंगाल : भाजपा नेता सुवेंदु अधिकारी द्वारा विधानसभा से मुस्लिम मुक्त विधानसभा वाले बयान पर सख्त कार्रवाई की मांग

Written by sabrang india | Published on: March 13, 2025
मुस्लिम विधायकों को निष्कासित करने की मांग करते हुए, भाजपा नेता ने एक खतरनाक, असंवैधानिक एजेंडे को उजागर किया है। इसके लिए तत्काल कानूनी और विधायी कार्रवाई की आवश्यकता है, इससे पहले कि यह और बढ़ जाए।


फोटो साभार : पीटीआई

पश्चिम बंगाल के विपक्ष के नेता सुवेंदु अधिकारी ने हाल में भड़काऊ बयान देते हुए संवैधानिकता और लोकतांत्रिक औचित्य की सभी सीमाओं को पार कर दिया है। यह ऐलान करते हुए कि भाजपा 2026 के विधानसभा चुनावों में अगली सरकार बनाने के बाद "मुस्लिम विधायकों को विधानसभा से बाहर निकाल देगी", ऐसे में अधिकारी ने खुले तौर पर धार्मिक भेदभाव की वकालत की है। यह एक ऐसा बयान है जो भारत के संविधान और इसके मौलिक लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है।

भाषण और पूरी घटना

मंगलवार, 11 मार्च को सुवेंदु अधिकारी ने पश्चिम बंगाल विधानसभा के बाहर पत्रकारों से बात करते हुए सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) सरकार पर “सांप्रदायिक सरकार” होने का आरोप लगाया और इसकी तुलना “मुस्लिम लीग 2” से की। उन्होंने आगे कहा कि अगर 2026 में भाजपा सत्ता में आती है, तो वे विधानसभा से टीएमसी के सभी मुस्लिम विधायकों को निकाल देंगे। सांप्रदायिकता वाली उनकी इस टिप्पणी ने लोगों को नाराज कर दिया। कई लोगों ने इसे संवैधानिक लोकतंत्र पर सीधा हमला बताया।

यह विवाद भाजपा के हल्दिया विधायक तापसी मंडल के टीएमसी में शामिल होने के ठीक एक दिन बाद शुरू हुआ। टीएमसी ने अधिकारी की टिप्पणी की निंदा की, प्रवक्ता कुणाल घोष ने उन्हें “खतरनाक, भड़काऊ और भ्रष्ट” कहा। घोष ने आगे कहा, “संसद या राज्य विधानसभाओं में बहस और तर्क हो सकते हैं। लेकिन धर्म को हवा देना और किसी खास समुदाय से संबंधित विधायकों को निशाना बनाना संविधान के सिद्धांतों के विपरीत है। यह एक अपराध भी है।” हालांकि, राज्य भाजपा चुप रही, उसने न तो टिप्पणियों का समर्थन किया और न ही उनका खंडन किया।

माना जाता है कि यह बयान विधानसभा अध्यक्ष की कुर्सी का कथित रूप से अपमान करने को लेकर 18 मार्च, 2025 तक अधिकारी को विधानसभा से निलंबित किए जाने के मद्देनजर दी गई। इससे पहले भाजपा विधायकों ने विधानसभा के अंदर विरोध प्रदर्शन किया था, जिसमें हिंदू मंदिरों पर कथित हमलों को लेकर उनके स्थगन प्रस्ताव को अध्यक्ष द्वारा अस्वीकार किए जाने के बाद आधिकारिक दस्तावेज फाड़ दिए गए थे। जवाब में, अध्यक्ष बिमान बंद्योपाध्याय ने विधानसभा सचिव को निर्देश दिया कि वे भाजपा विधायकों को सदन की कार्यवाही से संबंधित कोई और दस्तावेज न दें।

आगे बढ़ते हुए, अधिकारी और उनकी पार्टी के सदस्यों ने विधानसभा के बाहर प्रदर्शन किया, जिसमें आरोप लगाया गया कि सत्ताधारी पार्टी विपक्ष की आवाज दबा रही है। उन्होंने दावा किया कि बंगाल के विभिन्न जिलों में हिंदुओं पर हमला किया जा रहा है, हिंदू दुकान मालिकों और घरों में आग लगा दी गई है, और राज्य पुलिस 14 मार्च को होली समारोह को प्रतिबंधित करके सांप्रदायिक तरीके से काम कर रही है, क्योंकि यह शुक्रवार की प्रार्थना के दिन था। उन्होंने आरोप लगाया कि बीरभूम जिले के शांतिनिकेतन में पुलिस ने शुक्रवार की नमाज के कारण लोगों को सुबह 11 बजे तक होली का जश्न खत्म करने का निर्देश दिया था। उन्होंने यह भी दावा किया कि उलुबेरिया में चैंपियंस ट्रॉफी में भारत की जीत का जश्न मना रहे लोगों पर हमला किया गया, जिसमें एक स्थानीय पुलिस अधिकारी भी घायल हो गया। अधिकारी ने इन घटनाओं को इस बात का सबूत बताया कि टीएमसी सरकार हिंदुओं की कीमत पर मुस्लिम हितों को पूरा कर रही है, जिससे सांप्रदायिक भावनाएं और भड़क रही हैं।

नफरत फैलाना, संविधान को कमजोर करना

अधिकारी का बयान केवल नफरत फैलाने वाला बयान नहीं है बल्कि यह भारत के संवैधानिक ढांचे पर सीधा हमला है। संविधान सभी नागरिकों को समान अधिकार और प्रतिनिधित्व की गारंटी देता है, चाहे वे किसी भी धर्म के हों। उनके शब्दों से एक खास धार्मिक समुदाय को विधायी प्रतिनिधित्व से बाहर करने की मंशा का पता चलता है, जो लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) और अनुच्छेद 15 (धर्म के आधार पर भेदभाव का निषेध) भारतीय संविधान में निहित मौलिक सिद्धांत हैं, और अधिकारी की टिप्पणी चौंकाने वाली निडरता के साथ उनका उल्लंघन करती है।

यह अधिकारी की सांप्रदायिक बयानबाजी का कोई अकेला उदाहरण नहीं है। इससे पहले उन्होंने भाजपा के ‘सबका साथ, सबका विकास’ नारे को खारिज कर दिया था और उसकी जगह विभाजनकारी नारा ‘जो हमारे साथ, हम उनके साथ’ दिया था, जो उनकी वर्चस्ववादी विचारधारा का स्पष्ट संकेत था। अगर इस तरह के बयानों पर लगाम नहीं लगाई गई तो धार्मिक भेदभाव को बढ़ावा मिलेगा और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिलेगा।

तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता

तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने अधिकारी की टिप्पणियों की निंदा करते हुए उन्हें “खतरनाक, भड़काऊ और भ्रष्ट” बताया है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए अधिकारी की टिप्पणियों की निंदा करते हुए कहा कि यह सांप्रदायिक विवाद को बढ़ावा देने का एक खुला प्रयास है। उन्होंने कहा, “यह केवल नफरत फैलाने वाला बयान नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र के लिए खुला खतरा है। बंगाल ऐसी विभाजनकारी राजनीति को कभी स्वीकार नहीं करेगा। मैं उन्हें चुनौती देती हूं कि वे एक भी विधायक को बाहर निकालने की कोशिश करें तो उन्हें लोगों के जनादेश की ताकत का अंदाजा हो जाएगा।”

उनके बयानों की गंभीरता को देखते हुए, केवल निंदा करना पर्याप्त नहीं है। अधिकारी को पहले उनके कदाचार के कारण बजट सत्र के शेष समय के लिए विधानसभा से निलंबित कर दिया गया था, लेकिन इस हालिया मामलों के लिए कहीं बड़े गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।

कानूनी कार्रवाई: उनकी टिप्पणियों के लिए भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 196 (विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना) और 299 (धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के इरादे से जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण कार्य) के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है।

विधानसभा से निष्कासन: पश्चिम बंगाल विधानसभा को और अधिक कठोर अनुशासनात्मक उपाय पर विचार करना चाहिए- या तो उनके निलंबन को अनिश्चित काल के लिए बढ़ा दिया जाए या उन्हें पूरी तरह से निष्कासित कर दिया जाए। गंभीर कदाचार के मामलों में अध्यक्ष के पास ऐसी कार्रवाई करने का अधिकार है।

भाजपा की जवाबदेही: इस मामले पर राज्य भाजपा नेतृत्व की चुप्पी बहुत कुछ बयां करती है। अगर पार्टी अधिकारी की टिप्पणियों से खुद को अलग नहीं करती है और आंतरिक अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं करती है, तो वह इस तरह की असंवैधानिक बयानबाजी का समर्थन करने में भागीदार है।

एक खतरनाक मिसाल

अगर अधिकारी को इस तरह के बयानों से बचने की अनुमति दी जाती है, तो यह भारतीय राजनीति के लिए एक खतरनाक मिसाल कायम करता है। विधायी निकायों से धार्मिक बहिष्कार के आह्वान को सामान्य बनाना न केवल लोकतंत्र को कमजोर करता है, बल्कि अन्य नेताओं को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करता है। पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक सद्भाव का एक लंबा इतिहास रहा है, और इस तरह के नफरती बयानों को पनपने देना राज्य के सामाजिक ताने-बाने को खतरे में डालता है।

भारत ऐसे स्पष्ट सांप्रदायिक खतरों को केवल राजनीतिक बयानबाजी के रूप में नहीं देख सकता। इन असंवैधानिक बयानों को स्पष्ट रूप से खारिज किया जाना चाहिए। इस पर जल्द कानूनी और संसदीय कार्रवाई की जानी चाहिए। इससे कम कुछ भी उन लोकतांत्रिक आदर्शों की रक्षा करने में विफलता होगी जिन पर राष्ट्र खड़ा है।

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