बनारस जैसे धार्मिक शहर में, जहां हर गली में बाबा भोले का नाम लिया जाता है, वहां ये विधवाएं अपने जीवन की अंतिम लड़ाई लड़ रही हैं। कहीं कोई उपाय नहीं, कोई आवाज़ नहीं, सिर्फ मौन, सिर्फ उनकी गुमनाम ज़िंदगी।
बनारस कहें या काशी, इसे सदियों से मोक्ष की नगरी माना जाता रहा है। यह शहर गंगा के तट पर बसा है और हिन्दू धर्म का तीर्थस्थल है, जहां जीवन और मृत्यु के बीच की लकीर धुंधली हो जाती है। लेकिन इसी नगरी में, जीवन की एक और कड़वी सच्चाई दिखती है—विधवाओं का दर्द। बनारस, विधवाओं के लिए भी एक आश्रय स्थल बन गया है, जिनकी कहानियां इस शहर की गलियों में गुम हो जाती हैं। इनका जीवन इस कदर कठिन है कि समाज की मानसिकता आज भी उन्हें दुर्भाग्य का प्रतीक मानती है। इन विधवाओं के लिए बनारस एक 'मोक्ष धाम' नहीं, बल्कि 'विधवाओं का शहर' बन गया है, जहां वे निर्वासित जीवन जी रही हैं।
बनारस जैसे धार्मिक शहर में, जहां हर गली में बाबा भोले का नाम लिया जाता है, वहां ये विधवाएं अपने जीवन की अंतिम लड़ाई लड़ रही हैं। कहीं कोई उपाय नहीं, कोई आवाज़ नहीं, सिर्फ मौन, सिर्फ उनकी गुमनाम ज़िंदगी। बनारस की इन गलियों में छिपी हुई यह कहानी किसी और की नहीं, बल्कि उन विधवाओं की है जो समाज के कोने में खड़ी हैं, पर शायद किसी को दिखाई नहीं देतीं। बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर के करीब स्थित लाटघाट मुहल्ले में सुबह का समय है।
सूरज की पहली किरणें जैसे ही दीवारों पर पड़ती हैं, एक दुकान से भजन की आवाज़ सुनाई देती है, "शिव शंकर को जिसने पूजा, उसका ही उद्धार हुआ…। भोले शंकर की पूजा करो, ध्यान चरणों में इसके धरो…। हर हर महादेव शिव शम्भो…।" बनारस का हर गली-कूचा, घाट, और मंदिर भगवान शिव की महिमा को बयां करता है। लेकिन इस पवित्र नगरी का एक और दर्दनाक पहलू भी है—यह शहर 'विधवाओं की त्रासदी' के रूप में भी जाना जाता है। यहां सैकड़ों विधवाएं हैं, जिन्हें परिवारों ने त्याग दिया है और वे अब अपनी जिंदगी की जंग लड़ रही हैं। बनारस की तंग गलियों में अगर आप चलें, तो सफेद कपड़ों में लिपटी, मुरझाए चेहरों वाली विधवाएं आपके सामने आएंगी। ये महिलाएं मंदिरों में बैठकर भिक्षाटन करती हैं, कभी-कभी चाय की दुकान पर काम कर, या फिर गली के नुक्कड़ पर चंद सिक्कों के लिए हाथ फैलाते हुए मिलेंगी। उनका जीवन संघर्ष से भरा है, और एक दिन की रोटी के लिए उन्हें अनगिनत कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।
बनारस में रहने वाली 65 वर्षीय राधा देवी ने अपनी कहानी साझा की। राधा को उनके परिवार ने उनके पति के निधन के बाद बनारस भेज दिया। उन्हें बताया गया कि "यहां रहकर भक्ति करने से मोक्ष मिलेगा," लेकिन असल में यह समाज और परिवार की उस मानसिकता का परिणाम था, जहां विधवाओं को बोझ समझा जाता है। राधा बताती हैं, “मैंने कभी सोचा नहीं था कि जीवन के इस पड़ाव पर मुझे भीख मांगनी पड़ेगी।” राधा की तरह सैकड़ों महिलाएं हर दिन यहां दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष करती हैं।
बनारस में कई आश्रम हैं जो विधवाओं को आश्रय प्रदान करते हैं। हालांकि, इन आश्रमों में रहन-सहन की स्थिति अक्सर बहुत दयनीय होती है। सीमित संसाधनों के बीच, विधवाओं को बहुत ही कठिन परिस्थितियों में रहना पड़ता है। कुछ आश्रम जैसे कि मीरघाट स्थित 'मुमुक्षु भवन' और काशी के अन्य आश्रय स्थल, विधवाओं को राहत देने का प्रयास करते हैं, लेकिन संसाधनों की कमी और सामाजिक उपेक्षा उनके जीवन को कठिन बनाती है। 70 वर्षीय लक्ष्मी देवी, जो मुमुक्षु भवन में सालों से रह रही हैं, बताती हैं, "यहां कम से कम हमें एक छत और खाना मिल जाता है, लेकिन हम अपने परिवार और समाज से कटे हुए हैं। हमारी आखिरी ख्वाहिश सिर्फ यही है कि हमें मरने के बाद सम्मान से विदा किया जाए।"
अपनों ने दिया दर्द
अस्सी घाट पर, सुबह की पहली किरण के साथ ही राधा देवी (65) गंगा के किनारे अपने दिन की शुरुआत करती हैं। मूलतः उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव की रहने वाली राधा देवी, अपने पति की मृत्यु के बाद घरवालों से अलग होकर बनारस आ गई थीं। उन्होंने बताया, "पति के जाने के बाद सब बदल गया। पहले तो कुछ महीने साथ रखा, फिर धीरे-धीरे सबने दूर कर दिया। किसी ने कहा कि बनारस में रहोगी तो मोक्ष मिलेगा। मैं आ गई, पर यहां जो जीवन है, वो किसी सजा से कम नहीं।"
राधा देवी अब बनारस की गलियों में भजन-कीर्तन करती हैं और बर्तन साफ करके अपना गुज़ारा करती हैं। दो वक्त की रोटी के लिए हर रोज़ संघर्ष करना पड़ता है। उनका कहना है कि यहां का जीवन कभी खत्म न होने वाली तपस्या जैसा है। दशाश्वमेध घाट पर बैठी मीरा देवी (58) का चेहरा झुर्रियों से भरा है, पर उनकी आंखों में अब भी एक चमक दिखाई देती है। अपने पति के देहांत के बाद, उनके ससुराल वालों ने उन्हें घर से बाहर कर दिया। उन्होंने अपनी व्यथा साझा की, "जब पति जिंदा थे, तब सब कुछ ठीक था। पर उनके जाने के बाद सब बदल गया। मेरे पास बस एक बेटा था, पर उसे भी नौकरी के लिए शहर जाना पड़ा। ससुराल वालों ने कहा कि मैं मनहूस हूं और मुझे घर से निकाल दिया। तब से मैं यहां हूं, भिक्षा मांगकर अपना गुजारा कर रही हूं।"
मीरा देवी की कहानी सिर्फ उनकी नहीं है, बल्कि सैकड़ों विधवाओं की है जो बनारस की इन गलियों में जीवित हैं, परंतु समाज द्वारा उपेक्षित। उनकी गरिमा और सुरक्षा की कोई परवाह नहीं करता, और वह बस किसी तरह अपने दिन काट रही हैं। बनारस के एक विधवा आश्रम में रह रही विद्यावासिनी देवी (72) अपने जीवन की कड़वी सच्चाई बयां करती हैं। उनका कहना है, "आश्रम में तो रह रही हूं, पर यहां भी मुश्किलें कम नहीं हैं। घरवालों ने जगह दी, पर उस घर में भी मेरी कोई अहमियत नहीं थी। यहां भी सिर्फ खाने को मिल जाता है, पर सम्मान कहीं नहीं मिलता।"
सबकी राम कहानी एक जैसी
उत्तर में वरुणा नदी और दक्षिण में अस्सी नदी के बीच बसा बनारस और बनारस की सैकड़ों गालियां न जाने कितनी विधवाओं के इतिहास को समेटे हुए। बिल्कुल निःशब्द। बनारस की तंग गलियों में अपने ही परिजनों और संतानों द्वारा फेंकी गई ज्यादातर विधवाएं कहती हैं, "अब तो सिर्फ भोले बाबा का सहारा है।" गंगा घाटों पर स्थित मंदिरों के बाहर सैकड़ों की तादाद में माथे पर तिलक लगाए तमाम उम्रदराज़ विधवाएं कहीं भी दिख जाएंगी। ये विधवाएं देश के कई कोनों आकर यहां पहुंची हैं। हर किसी की अपनी अलग राम कहानी है। सबकी अलग व्यथा है और सभी के पास मुश्किलों का पहाड़ है। सभी विधवाओं का दर्द एक जैसा है। अपने परिवार से दूर अलग और वीरान ज़िंदगी। ज्यादतर विधवाएं किसी आश्रम में अपनी ज़िंदगी काटती हैं या फिर किसी किराए के मकान में रहती हैं। बहुत सी विधवाएं नेपाल अथवा पश्चिमी बंगाल से हैं जिनका घर अब बनारस है।
किसी सरकारी एजेंसी या एनजीओ ने इनकी सही संख्या को जानने की कोशिश आज तक नहीं की है। साल 2011 में जनगणना के दौरान बनारस में विधवाओं की तादाद 35,000 से अधिक बताई गई थी। लेकिन, जिन औरतों के पास रहने के लिए कोई ठिकाना नहीं था, उन्हें कहीं दर्ज नहीं किया गया। समाज कल्याण विभाग के पास सिर्फ उन्हीं विधवाओं की सूची है, जिन्होंने पेंशन के लिए आवेदन किया है। बनारस के दुर्गाकुंड पर प्रदेश सरकार ने विधवा महिलाओं के लिए एक राजकीय वृद्धाश्रम खोला है। इसके अलावा राज्य महिला कल्याण निगम भी एक वृद्धाश्रम चला रहा है, लेकिन क्या ये पर्याप्त है?
लाटघाट में श्रीमती रानी बिड़ला मारवाड़ी महिला निवास (वृद्धाश्रम) में भी कई विधवाएं जिंदगी की अंतिम सांसें गिन रही हैं। यहां रह रहीं महिलाओं की उम्र 60 से 80 वर्ष के बीच है। उनकी आंखों में एक गहरा शून्य और चेहरे पर दुख की गहरी लकीरें हैं। कुछ विधवाएं अपने बच्चों की उपेक्षा का दर्द लेकर आई हैं, तो कुछ ने पति की यादों को समेटे हुए यहां ठिकाना बनाया है। बनारस में और भी कई आश्रम हैं, जैसे मदर टेरेसा आश्रम शिवाला, नेपाली आश्रम ललिता घाट, लालमुनि आश्रम नई सड़क, मुमुक्षु भवन, अपना घर, आशा भवन, मां सर्वेश्वरी वृद्धाश्रम, और रामकृष्ण मिशन। इनमें भी सैकड़ों विधवाएं अपने जीवन के अंतिम दिन गुजार रही हैं।
लाटघाट में श्रीमती रानी बिड़ला मारवाड़ी महिला निवास (वृद्धाश्रम) में भी कई विधवाएं जिंदगी की अंतिम सांसें गिन रही हैं। इनमें से कोई अपनों की सताई हुई है, तो कोई अपने जीवन की गाड़ी खींचने के लिए लुटकर यहां पहुंची है। हर एक विधवा की कहानी अलग है। कुछ ने अपने बच्चों को खो दिया है, कुछ ने पति को, तो कुछ ने अपने परिवार के सदस्य। उनके जीवन की कहानी के पीछे छिपे दर्द को समझना आसान नहीं है। जब उनसे बात की जाती है, तो उनकी आंखों में एक गहरा शून्य नजर आता है। ये महिलाएं अब समाज की मुख्य धारा से बिलकुल कट चुकी हैं। उनकी जरूरतें, उनकी इच्छाएं, सबकुछ कहीं खो गया है। क्या कोई है जो उनके लिए सोचता है? शायद नहीं। इनका दुख शायद यही है कि उनके दुख की आवाज़ सुनने वाला कोई नहीं है।
अनदेखी दर्द की कहानी
जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर बनारस में अपना ठिकाना बनाने वाली ज्यादातर विधवाओं के परिवार में कोई नहीं है। लेकिन ऐसी विधवाओं की तादाद कम नहीं है जो अपने परिजनों की बेरुख़ी के चलते बनारस में रह रही हैं। यहां पर मौजूद एक विधवा, जो अब अपने बचपन के सपनों को भुला चुकी है, बताती हैं, "मैंने अपने पति को कैंसर में खोया। अब मेरे पास न तो कोई सहारा है, न ही कोई उम्मीद। बस यही आश्रम है जहां मैं रह सकती हूं।" दूसरी ओर, एक और विधवा कहती हैं, "मेरे बेटे ने मुझे छोड़ दिया, जब मैंने अपनी पति की संपत्ति के लिए न्याय की मांग की। अब मैं यहां हूं, पर मैं खुद को अकेला महसूस करती हूं।"
श्रीमती रानी बिड़ला मारवाड़ी महिला निवास में रह रहीं 92 वर्षीया सावित्री शर्मा राजस्थान के चुरू से यहां आई हैं। वह पिछले 18 बरस से बनारस में हैं। कहती हैं, "साल 1985 में मेरे पति की मौत हुई तो उनके ऊपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। इकलौता बेटा ओम प्रकाश ने हमारी जिम्मेदारी नहीं उठाई। वो अपने ससुराल इंफाल चला गया। अपने बेटे की हरकतों की वजह से हमें घर छोड़ना पड़ा। मेरा बेटा अपनी पत्नी के उकसाने पर हमें मारता-पीटता था। बेटा होने का मतलब यह नहीं है कि वो जन्म देने वाली मां को सताता रहे।"
सावित्री यह भी कहती हैं, "हमारी हालत ‘बांझ से भी बदतर’ है। मैंने बेटा तो पैदा किया, लेकिन ऐसे बेटे से बगैर औलाद के रहना ही अच्छा है। बाबा विश्वनाथ से मैं रोज यही प्रार्थना करती हूं कि हमें अपने चरणों में जगह दें। अकेली हूं और अकेली ही मरना चाहती हूं। मुफ्त में सरकारी अनाज भी मिल जाता है, जिससे किसी तरह से जिंदगी कट रही है।"
एक वृद्धाश्रम में रह रही रचना को उनके बच्चों ने बनारस लाकर छोड़ दिया। वह कहती हैं कि, "गांव में रोजना होने वाले झगड़ों से ऊब गई थी। मंदिरों में दर्शन-पूजन और भजन करते हुए किसी तरह से जिंदगी बीत रही है। सरकार और गैर-सरकारी संस्थाओं की ओर से मिलने वाली वित्तीय मदद से सिर्फ दो वक्त की रोटी मिल पाती है। कुछ लोग दान में पैसे दे जाते हैं। चंद दिनों की मेहमान हूं। हमारी ख्वाहिश है कि मैं किसी पर बोझ न बनूं और दुनिया से रुखसत हो जाऊं।"
बिहार के आलापुर-बरौनी (बेगूसराय) की 70 वर्षीया इंद्रासन देवी जिस वृद्धाश्रम में रहती हैं, उसमें एक छोटे से कमरे के कोने पर देवी-देवताओं से चित्र सजे हैं। पूजा-पाठ का सामान भी है। जिस कमरे में भोजन भी पकाती हैं और उसी में सोती भी हैं। अपनी व्यथा बताते हुए उनके माथे पर चिंता की लकीरें उभर आती हैं। वह कहती हैं, "पति की मौत के बाद बेटे उदय ने मेरे साथ मारपीट शुरू कर दी। लाचारी में हमें घर छोड़ना पड़ा। सांस लेने में थोड़ी दिक़्क़त है। बढ़ती उम्र और अपनों का साथ नहीं होने का दर्द हर समय सताता रहता है। मैंने जीवन भर जिन लोगों को अपना माना, उन्होंने ही हमें पराया कर दिया। आखिर ज़िल्लत भरी ज़िंदगी कब तक सहती। आठ साल तक हमने एक आश्रम में झाड़ू-बर्तन का काम किया। अब यह काम नहीं हो पाता है। मैं किसी से मांगती नहीं। कोई दान दे देता है तो ले लेती हूं। लाचार हूं, फिर भी अब मैं बेगूसराय नहीं जाना चाहती।"
तिलचट्टा और छिपकलियों से भरे एक छोटे से कमरे में एक चारपाई पर गुदड़ी लपेटे इंद्रासन देवी की जिंदगी झंझावतों से भरी हुई है। वह कई सालों से बनारस में हैं। एक छोटा सा कमरा ही उनका संसार है। खाना बनाने से लेकर रहने तक। हवा और मिट्टी की न जाने कितनी परतें इसकी रजाई और चादरों को ढंककर काला कर दिया है। ऐसा लगता है जैसे उस घर में रखा एक-एक सामान उस वृद्ध महिला को देख रहा हो और उनके मौत का इंतजार कर रहा हों।
इंद्रासनी देवी के बेटे राम उदय चौधरी आलापुर गांव में रहते हैं और दस बीघा खेत है, जिसे उनके पति ने खरीदा था। बाद में बेटे ने उन्हें पागल करार दे दिया और यह कहते हुए घर से निकाल दिया कि उसे भूत ने पकड़ लिया है। इंद्रासनी देवी को इस कदर सताया कि वो बनारस आ गईं और किसी ने उन्हें श्रीमती रानी बिड़ला मारवाड़ी महिला निवास में पहुंचा दिया। वह गाहे-बगाहे बीमार होती हैं तो उनकी बेटी सरस्वती देवी उनका खयाल रखती हैं।
61 वर्षीया विधवा सुनीता ठाकुर छत्तीसगढ़ राज्य के रायपुर की रहने वाली हैं। इनके पति एनसीसी कार्यालय में मुलाजिम थे और वह खुद एक साप्ताहिक अखबार “चौपाल की खबरें” निकलती थीं, जिसकी वह खुद संपादक थीं। इनके दो शादीशुदा बेटे हैं। बहुएं आईं तो बेटों का नजरिया बदल गया। शुरू में छोटा बेटा दस हजार रुपये भेजा करता था, लेकिन बाद में उसका भी रुख बदल गया। वह बनारस में एक कपड़ा व्यवसायी के यहां नौकरी करती थीं। बीमार हुई तो नौकरी छूट गई। सुनीता रुंधे गले से कहती हैं, "अब मेरा अपना कोई नहीं है। पति ने बहुत ही पहले छोड़ दिया था। आकाशीय बिजली से उनकी मौत हो गई थी। मुसीबत हमारा पीछा नहीं छोड़ रही है। अब बाबा विश्वनाथ का आसरा है।"
अन्नपूर्णा शर्मा बनारस की रहने वाली हैं, लेकिन उन्हें अपनों ने छोड़ दिया है। परिवार वाले मदद नहीं करते। सुलभ इंटरनेशनल संस्था से कुछ पैसे मिल जाते हैं तो कुछ भजन-कीर्तन से। वह कहती हैं, "हम अकेले रहते हैं। परेशान तब होती है जब बीमार होती हूं। घर के नरक से बेहतर है वृद्धाश्रम। दान-पुण्य के पैसे से हमारा गुजारा हो जाता है। जीवन में सिर्फ बाबा विश्वनाथ की भक्ति ही है। उनके सिवाय कुछ भी नहीं है।"
दान और दया से भरता है पेट
बनारस के गायघाट हमें मिली 75 वर्षीया विधवा संध्या । वह मूलतः पश्चिम बंगाल की रहने वाली हैं। विद्यावती की तरह हर सुबह मणिकर्णिका, ललिता घाट, काशी विश्वनाथ मंदिर इलाके के घाटों और मंदिरों के आसपास सैकड़ों विधवाएं भीख मांगती देखी जा सकती हैं। बनारस की ज्यादातर विधवाओं की कहानी लगभग एक जैसी है। इनमें से कई की ज़िंदगी में पहले बीघे भर का आंगन हुआ करता था, लेकिन अब बुढ़ापे में उनके लिए बाड़ानुमा वृद्धाश्रम में एक छोटा सा कोना भी नहीं बचा है। अपने अपनों की बेरुखी ने इन विधवाओं को बनारस की तंग गलियों में भटकने पर मजबूर कर दिया है। कुछ विधवाओं को मोक्ष की तलाश है, तो कुछ को अपनों से गहरी शिकायतें।
बनारस में ढेरों विधवाएं हैं जिनका पेट फिलहाल दान और दया से ही भरता है। कुछ विधवाओं को सरकार से पेंशन मिलती है, जबकि कुछ को स्वैच्छिक संस्थाओं ने गोद ले रखा है। वाराणसी में कई सड़कों पर भिक्षा मांगने वाली महिलाओं ने बताया कि उनके पास आधार या पहचान पत्र नहीं है। आधार न होने के चलते उन्हें विधवा पेंशन जैसी सुविधाएं भी नहीं मिलतीं।
यहां की तमाम विधवाएं घाटों और मंदिरों के किनारे दिनभर हाथ पसारे भीख मांगती हैं, और उसी से उनका गुजारा चलता है। इनकी हर दिन जीने की जद्दोजहद इसी तरह से शुरू होती है और शाम होते-होते भीख मांगने में ही निकल जाती है। कुछ विधवाएं भजन गाकर भी पैसे कमाती हैं। बनारस में कई मंदिर और आश्रम ऐसे हैं जहां हर सुबह-शाम कीर्तन होते हैं। विधवा औरतों को वहां भोजन भी मिल जाता है। भजन और कीर्तन के बदले में कुछ विधाएं अनाज भी जुटा लेती हैं।
बनारस के एक कारोबारी दिलीप सिंह कहते हैं, "भजन-कीर्तन करने वाली विधवाओं को कई जगह से टोकन मिलते हैं, जिनकी कीमत पांच से सौ रुपये तक होती हो सकती है। इन टोकनों से वह अपनी जरूरतों का सामान खरीद लिया करती हैं। स्थानीय दुकानदार टोकन देने वालों के पास जाकर पैसे ले आते हैं।"
घाटों पर विधवाओं का जीवन
बनारस के घाट, जहां लोग पवित्र गंगा स्नान करते हैं, वहीं विधवाओं के लिए ये घाट भीख मांगने और दिनभर बैठने की जगह बन गए हैं। ये महिलाएं अपने परिवारों से दूर यहां जीवन के अंतिम दिनों का इंतजार करती हैं। घाटों पर बैठी विधवाएं गंगा के किनारे घंटों बिताती हैं, उम्मीद करती हैं कि एक दिन उन्हें मोक्ष मिल जाएगा, लेकिन उनका दैनिक जीवन संघर्षों से भरा है।
अधिकांश विधवाओं का जीवन सीमित आमदनी पर निर्भर होता है, जो मंदिरों में काम करने या भीख मांगने से मिलती है। 70 वर्षीय मीरा देवी, जो पिछले 20 सालों से बनारस के एक मंदिर में रह रही हैं, बताती हैं, "यहां हम भजन गाते हैं, लेकिन असली सुकून अब कहीं खो गया है। अब तो बस पेट भरने का संघर्ष है।"
विधवाओं की स्थिति केवल आर्थिक दयनीयता तक ही सीमित नहीं है। ये महिलाएं कई बार यौन शोषण का शिकार भी होती हैं। बनारस के कई आश्रमों में रहने वाली विधवाओं ने बताया कि किस प्रकार उन्हें शोषण का सामना करना पड़ता है, और उनके खिलाफ कोई भी आवाज उठाने को तैयार नहीं होता। समाज का यह हिस्सा जो आध्यात्मिकता और धर्म के लिए जाना जाता है, यहां भी स्त्रियों की सुरक्षा और गरिमा की कोई जगह नहीं है।
बनारस में हर रोज हजारों शिवभक्त और पर्यटक आते हैं, लेकिन वो इन विधवाओं की समस्याओं को नजरअंदाज कर देते हैं। सवाल उठता है कि क्या आध्यात्मिकता का यह स्वरूप वास्तव में विधवाओं को सम्मानजनक जीवन दे सकता है? क्या समाज का यह अंधविश्वास कि विधवाएं अपशगुन हैं, खत्म नहीं होना चाहिए? ज्यादातर विधवाएं, चाहे वे अस्सी घाट की हों या दशाश्वमेध घाट की, अपने परिवार और समाज द्वारा उपेक्षित होने के कारण यहां आकर बस गई हैं। बनारस में गंगा की आरती और धार्मिक क्रियाकलापों के बीच इन महिलाओं का दर्द कहीं भी छिप जाता है। धार्मिकता की आड़ में, इनका यौन शोषण भी होता है, पर उनकी सुरक्षा की परवाह कौन नहीं करता?
समाज की क्रूरता और अंधविश्वास
ऐसा नहीं कि सभी विधवाएं हिन्दू ही हैं। मुस्लिम समुदाय की विधवाओं का दर्द कम नहीं है। इनके लिए कोई वृद्धाश्रम भी नहीं है। ज़ीनत की शादी करीब 12 साल पहले बनारस के एक ट्रक ड्राइवर, इकबाल से हुई थी। शादी के दो साल बाद ही इकबाल अचानक लापता हो गए। अब ज़ीनत अपने बच्चों के साथ अकेले ज़िन्दगी गुज़ार रही है। वह बताती हैं, "मेरे मायके वालों ने मुझ पर दोबारा शादी करने का बहुत दबाव डाला, लेकिन मैंने अपने बच्चों के भविष्य के बारे में सोचा। अब मैं ही उनकी माँ हूँ और बाप भी।"
ज़ीनत कहती हैं, "हमने बनारस की हर जेल और पुलिस थाने का चक्कर लगाया है। बहुत सारा पैसा भी खर्च हो गया, घर तक बिक गया, लेकिन सब बेकार गया।" इतना ही नहीं, कुछ लोग उन्हें धोखा देकर पैसे भी ठग लेते हैं, यह कहकर कि उनके पति को देखा है। हलीमा कहती हैं, "कुछ लोग मेरे पास आए और कहा कि उन्होंने मेरे शौहर को देखा है। मैंने उन्हें ढेर सारे पैसे दे दिए, ताकि वो मेरे पति को वापस ला सकें। अब सोचती हूं, काश ये पैसे बच्चों के लिए बचाए होते।"
अपने पति इकबाल का ज़िक्र करते ही उनकी आंखों में आंसू भर आते हैं। वो कहती हैं, "मैं उन्हें हर दिन याद करती हूं। अगर ये बच्चे न होते, तो शायद मैं उनके बिना जी ही नहीं पाती।" हलीमा की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। करीब 13 साल पहले उनके पति भी बिना किसी खबर के गायब हो गए थे, और तब से वो भी उनके लौटने का इंतजार कर रही हैं।
हलीमा कहती हैं, "अगर मुझे ये पता चल जाए कि मेरे शौहर अब इस दुनिया में नहीं हैं, तो शायद मैं मन को तसल्ली दे पाऊं। लेकिन हमें अंधेरे में रखा गया है। दिल में एक उम्मीद रहती है कि शायद वो ज़िंदा हैं, कहीं लौट आएं।" हलीमा का दर्द छलक उठता है, "ये अनिश्चितता बहुत दर्दनाक है, मेरे लिए, मेरे बच्चों के लिए, और हम सभी के लिए। हम हर रोज़ इसी इंतजार में जीते जा रहे हैं।"
कोरोना महामारी का दंश
कोरोना महामारी के बाद विधवाओं की स्थिति और भी दयनीय हो गई है। जिन महिलाओं के पति महामारी के दौरान गुजर गए, उनके लिए जिंदगी पहले से भी कठिन हो गई। न केवल आर्थिक संकट, बल्कि सामाजिक अलगाव भी बढ़ गया है। परिवार और समाज से अलग होने के बाद, ये महिलाएं अब आश्रमों में या गलियों में भीख मांगकर अपना जीवन यापन कर रही हैं। इन्हीं में एक हैं बनारस की 44 वर्षीया विधवा अरुणा। इनकी ज़िंदगी उस दिन पूरी तरह से बदल गई, जब उनके पति आलोक का कोविड-19 के कारण निधन हो गया।
यह घटना उनके 50वें जन्मदिन से बस दो दिन पहले की है। आलोक को अप्रैल में कोरोना वायरस से संक्रमित होने पर अस्पताल में भर्ती कराया गया था, जब देश में कोविड की दूसरी लहर चरम पर थी। बनारस के अस्पतालों में जगह की भारी कमी थी, और परिवार को उन्हें भर्ती कराने में काफी संघर्ष करना पड़ा। आखिरकार उन्हें एक सरकारी अस्थायी अस्पताल में बिस्तर मिला, लेकिन दो हफ्ते बाद उनकी मृत्यु हो गई।
अरुणा कहती हैं, "आलोक की मौत से मैं स्तब्ध रह गई हूं। ये मेरे जीवन के सबसे बुरे दिन थे, लेकिन मेरे पास शोक मनाने का समय नहीं है क्योंकि मेरी जिंदगी ने 360 डिग्री का मोड़ ले लिया है।" आलोक दूरसंचार क्षेत्र में काम करते थे और परिवार में एकमात्र कमाने वाले थे। अरुणा कहती हैं, "हमने हमेशा आराम से जीवन जिया और मुझे वह सब मिला जो मैंने मांगा। सारा बजट आलोक ही बनाते थे और मैंने उनसे सिर्फ पैसे मांगे। अब मुझे नहीं पता कि हमारी बचत कितने दिनों तक चलेगी, क्योंकि मैंने कभी खुद उसका प्रबंधन नहीं किया।"
वह बच्चों की परवरिश के लिए नौकरी ढूंढने की उम्मीद करती हैं, लेकिन उनके पास काम का कोई अनुभव नहीं है और उन्हें नहीं पता कि शुरुआत कहां से करनी है। वह कहती हैं, "मैं बस नौकरी ढूंढ़ना चाहती हूं, घर से बाहर निकलना चाहती हूं, लोगों से मिलना चाहती हूं और किसी के साथ एक कप चाय पीना चाहती हूं। जब मैं घर पर होती हूं तो दर्द मुझे सोने नहीं देता।"
दुखों का अंत नहीं
बनारस की सामाजिक चिंतक प्रज्ञा सिंह कहती हैं, "बनारस ही नहीं, सभी जगहों पर विधवाओं की जिंदगी बहुत कष्टकारी है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले दस साल से अधिक समय से बनारस के सांसद हैं, लेकिन उन्होंने इन विधवाओं की सूनी जिंदगी में झांकने की कोशिश कभी नहीं की। स्थिति यह है कि तमाम विधवाओं को उनके घर वाले मोक्ष की आड़ में बनारस के आश्रमों में छोड़ जाते हैं तो कुछ को उनके बेटे-बेटियां घर से बाहर का दरवाजा दिखाकर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाते हैं। जब खाना नहीं मिलता तो वो भीख मांगने के लिए मजबूर हो जाती हैं।"
"सरकार ने हाल ही में वृद्ध महिलाओं के लिए एनजीओ द्वारा संचालित वृद्धाश्रमों को बंद करने का फरमान जारी किया है। महिला कल्याण विभाग की प्रमुख सचिव वीणा कुमारी के नए फरमान से विधवाओं की जिंदगी और कष्टकारी होने की आंशका बढ़ गई है। बनारस में कई ऐसी घटनाएं प्रकाश में आई हैं जब सरकारी वृद्धाश्रमों की संचालिकाओं ने विधवाओं को दान में मिलने वाले पैसे छीन लिए। विधवाओं की जिंदगी का सबसे दर्दनाक पहलू यह है कि गंगा घाटों पर रहने वाली विधवाओं की जब मौत हो जाती है तो उनका अंतिम संस्कार करने वाला कोई नहीं होता है। आमतौर उनके शव को गंगा में फेंक दिया जाता है अथवा श्मशान घाट पर लावारिस हाल में अधजली लकड़ियों पर उन्हें जला दिया जाता है। बनारस के सांसद पीएम नरेंद्र मोदी को विधवाओं की जिंदगी संवारने के लिए ठोस पहल करने की जरूरत है।"
मानवाधिकार जननिगरानी समिति की मैनेजिंग ट्रस्टी श्रुति नागवंशी ने विधवाओं की स्थिति पर ध्यान आकर्षित करते हुए कहा, "कोरोना के समय जिन औरतों के पतियों की मौत हो गई, उनकी जिंदगी काफी कष्टकारी हो गई है। पहले, परिवार का सहयोग होता था, लेकिन अब मदद करने वाला कोई नहीं है। खासकर मुस्लिम विधवाओं का हाल पहले से ही खराब था, और अब उनकी स्थिति और भी चिंताजनक हो गई है। इन औरतों को समाज में स्वीकार्यता नहीं मिलती, और उनके प्रति समाज की सोच में गहरी धारणा बसी हुई है।"
"बनारस के घाटों पर बसे आश्रमों और धर्मशालाओं में रहने वाली विधवाएं समाज की उपेक्षा और धार्मिक रूढ़ियों का शिकार हैं। समाज के कुछ वर्गों में विधवाओं को 'अशुभ' माना जाता है, और उन्हें धार्मिक और सामाजिक कार्यक्रमों से दूर रखा जाता है। इस पारंपरिक सोच ने इन महिलाओं के जीवन को सीमित कर दिया है, और वे अब एक अंधकारमय भविष्य का सामना कर रही हैं।"
श्रुति नागवंशी बताती हैं कि महामारी के बाद स्थिति और गंभीर हो गई है। "पहले, परिवार का सहयोग था, लेकिन अब हालात बदल गए हैं। मुस्लिम और दलित विधवाओं पर यह स्थिति और भी गहरा असर डाल रही है।" यह केवल आर्थिक संकट नहीं है, बल्कि एक गहरी सामाजिक समस्या भी है। समाज में इन विधवाओं के प्रति धारणाएं इतनी रूढ़ हैं कि उन्हें जीवन की हर छोटी-बड़ी जरूरत के लिए संघर्ष करना पड़ता है। महामारी के बाद सरकार और गैर-सरकारी संगठनों द्वारा राहत प्रयास किए गए थे, लेकिन वह भी इन महिलाओं तक नहीं पहुंच सके। श्रुति नागवंशी के अनुसार, "महामारी के बाद, किसी तरह की सहायता या सुरक्षा नहीं मिल रही है। यहां तक कि जो थोड़ी बहुत मदद होती थी, वह भी अब रुक गई है।"
धार्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण से, मुस्लिम और दलित विधवाएं सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं। श्रुति नागवंशी ने बताया कि, "इन महिलाओं के प्रति समाज में एक अलग धारणा है, और इस धारणा के कारण उन्हें समाज में स्वीकार्यता नहीं मिलती। समाज की सोच में अंधविश्वास और परंपरागत धारणाओं का गहरा असर है। विधवाओं के प्रति यह धारणा कि वे 'अपशगुन' हैं, उनके जीवन को और कठिन बना देती है। धार्मिक और सामाजिक कार्यक्रमों से दूर रखा जाना, और उनके प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया, विधवाओं के जीवन को एक त्रासदी में बदल देता है। श्रुति नागवंशी ने बताया, "धर्म और सामाजिक परिवेश में इनके प्रति धारणा अलग ही है, और यह धारणा ही इनकी सबसे बड़ी समस्या है।"
"यह बात विशेष रूप से मुस्लिम और दलित विधवाओं के लिए लागू होती है, जिनके पास न तो आर्थिक सहारा है और न ही सामाजिक सहयोग। कई मुस्लिम और दलित महिलाएं बनारस की तंग गलियों में आश्रय ढूंढने के लिए मजबूर हो गई हैं। उनके पास अपने बच्चों के लिए न कोई शिक्षा का अवसर है, न ही स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच। वे दोहरी मार झेल रही हैं—पहली, आर्थिक संकट, और दूसरी, सामाजिक अपमान। उनके पास रोजगार के साधन भी बहुत सीमित हैं, और वे कई बार शारीरिक शोषण का शिकार हो जाती हैं।"
श्रुति यह भी कहती हैं, "बनारस की विधवाओं के लिए जीवन कभी आसान नहीं रहा, और महामारी के बाद यह और भी कठिन हो गया है। लेकिन अब समय आ गया है कि समाज इस क्रूरता को समझे और इन महिलाओं के प्रति अपनी धारणाओं में बदलाव लाए। समाज को विधवाओं के प्रति अपनी धारणा बदलनी होगी और इन्हें एक समान अधिकार और गरिमा देनी होगी।"
जिंदगी में कोई रंग नहीं
बनारस की एक्टिविस्ट मुनीजा खान कहती हैं, "धार्मिक शहर में विधवाओं की ज़िदंगी में कोई रंग नहीं है। इनकी बदरंग जिंदगी में किसी बदलाव की उम्मीद नजर नहीं आती। ज्यादातर विधवाओं को वोट की राजनीति से कोई मतलब नहीं हैं। इन्हें मालूम है कि सरकार चाहे जिसकी बने, उनके हालात कोई सुधार होने वाला नहीं है। ये औरतें राजनीति की बातें नहीं जानतीं। ज्यादातर विधवाओं के पास न वोटर कार्ड और न ही आधार कार्ड। जिन गिनी-चुनी महिलाओं के पास है भी, वो भी चुनाव से दूर ही रहती हैं।"
"नारी गरिमा की रक्षा करने के लिए हमें केवल धार्मिक आयोजनों और मंदिरों तक सीमित नहीं रहना चाहिए। बनारस जैसे शहरों में जहां आध्यात्मिकता का बोलबाला है, वहां भी समाज को विधवाओं के प्रति अपना नजरिया बदलना होगा। विधवाओं को सम्मानजनक जीवन देने के लिए समाज के साथ-साथ सरकार को भी ठोस कदम उठाने होंगे। आश्रमों और आश्रयों में सुविधाओं का विस्तार, आर्थिक मदद और पुनर्विवाह को बढ़ावा देने जैसी पहल शुरू की जानी चाहिए। समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वह विधवाओं को न केवल आर्थिक सहायता प्रदान करे, बल्कि उन्हें सामाजिक सम्मान भी दिलाए। इसके लिए सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों को मिलकर काम करना होगा ताकि इन विधवाओं का जीवन फिर से संवार सके और उन्हें एक नई दिशा मिल सके।"
सुश्री मुनीजा यह भी कहती हैं, "बनारस की विधवाएं, चाहे वह मुस्लिम हों या दलित, समाज की उपेक्षा और धार्मिक धारणाओं का शिकार हैं। महामारी ने उनकी स्थिति को और भी बदतर बना दिया है। अब समय है कि हम समाज के इस अंधविश्वास और रूढ़िवादिता को तोड़ें और इन महिलाओं को सम्मान और अधिकार प्रदान करें। यह विडंबना ही है कि जिस नगरी को मोक्ष और शांति की भूमि कहा जाता है, वहीं इन विधवाओं का जीवन एक असीमित दुख और असुरक्षा से भरा हुआ है। समाज में ठोस बदलाव की आवश्यकता है, जहां विधवाओं को भी सामान्य जीवन जीने का अधिकार मिले, सम्मान मिले और उनका जीवन भी खुशहाल हो। संस्कृति और परंपराओं की भंवरजाल में फंसी विधवाओं के जीवन में सरकार कब रोशनी लेकर आएगी, यह देखना बाकी है।"
बनारस के एक्टिविस्ट सौरभ सिंह और उनकी पत्नी मीरा सिंह ने विधवाओं की जिंदगी की जिंदगी आसान बनाने के लिए सालों से लगातार मुहिम चला रहे हैं। इनकी जिंदगी पर भी दोनों ने काफी शोध किया है। मीरा कहती हैं, "भारत उन देशों में से एक है, जहां के लोग कोविड-19 से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। यहां अब तक आधिकारिक तौर पर 4,50,000 से ज्यादा मौतें दर्ज की गई हैं। महामारी ने हज़ारों महिलाओं को विधवा होने पर एक नए जीवन में ढलने के लिए संघर्ष करने पर मजबूर कर दिया है। इनमें से कई महिलाओं ने पहले कभी कोई वेतन वाली नौकरी नहीं की है। विश्व बैंक के अनुसार, भारत की महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर-जो 2019 में 21% से कम थी-दुनिया में सबसे कम में से एक है।"
मीरा कहती हैं, "बनारस में घरों में लैंगिक भूमिकाएं और पितृसत्तात्मक मानदंडों का मतलब है कि वे आर्थिक रूप से अपने पुरुष साथियों पर निर्भर थीं और उन्हें वित्तीय सेवाओं से बाहर रखा गया था। विश्व बैंक के अनुसार, 2017 में, भारतीय महिलाओं के पास आपातकालीन स्थिति में धन जुटाने की संभावना पुरुषों की तुलना में लगभग 13% कम थी। भारतीय महिलाओं के पास बैंक खाता होने की संभावना भी पुरुषों की तुलना में 6% कम थी। कुछ विधवाएं विरासत के मुद्दों का सामना कर रही हैं, जबकि अन्य के ससुराल वाले उन्हें वैवाहिक घर में रहने नहीं दे रहे हैं।"
एक्टिविस्ट सौरभ सिंह कहते हैं, "दुनियाभर में विधवाओं की स्थिति आज भी बहुत चिंताजनक है। 2015 में एक अनुमान के अनुसार, पूरी दुनिया में करीब 26 करोड़ विधवाएं थीं, और यह संख्या लगातार बढ़ रही है। 2010 से 2015 के बीच हिंसा और बीमारियों के चलते विधवाओं की संख्या में करीब 9 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। दुख की बात यह है कि हर सात में से एक विधवा बेहद गरीबी में जीने को मजबूर है, और इनकी संख्या करीब 3.80 करोड़ से भी ज्यादा है। इसका मतलब है कि शादी की उम्र की हर 10 में से एक महिला विधवा है।"
"भारत और चीन दुनिया के उन देशों में आते हैं जहां सबसे ज्यादा विधवाएं पाई जाती हैं। इनमें भी सबसे ज्यादा विधवाएं भारत में रहती हैं, जहां इनकी संख्या 4.60 करोड़ से भी ज्यादा है। चौंकाने वाली बात यह है कि इन महिलाओं में से कई विधवाएं बचपन में ही विधवा हो गई थीं। इसका सीधा मतलब यह है कि गरीब और विकासशील देशों में बाल विवाह आज भी प्रचलित है, जहां छोटी बच्चियों की शादी उनसे कई साल बड़े पुरुषों से कर दी जाती है।"
विधवाओं के लिए कानूनी समर्थन
'विश्व विधवा रिपोर्ट, 2015' के अनुसार, भारत उन देशों में से एक है, जहां विधवाओं के साथ अच्छा व्यवहार बहुत कम देखने को मिलता है। इनकी देखभाल भी ठीक से नहीं की जाती। हमारे देश में सिर्फ 18 प्रतिशत विधवाओं की अच्छी देखभाल होती है, जबकि 24 प्रतिशत विधवाओं की देखभाल का स्तर संतोषजनक है। वहीं, 24 प्रतिशत विधवाओं को बहुत ही कम ध्यान मिलता है और 11 प्रतिशत की देखभाल न के बराबर होती है। पति की मृत्यु के बाद एक महिला जिन कठिनाइयों का सामना करती है, उसे लेकर समाज में जागरूकता की भारी कमी है। उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति को समझने और सुधारने के लिए सामान्य योजनाएं पर्याप्त नहीं हैं।
ये आंकड़े हमें ये सोचने पर मजबूर करते हैं कि समाज में विधवाओं के प्रति नज़रिया और उनकी जीवन-स्थितियों को सुधारने के लिए हमें ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है। इसके साथ ही, विधवाओं की आर्थिक स्थिति को लेकर हमारे पास पर्याप्त आंकड़े नहीं हैं। जनगणना के आंकड़ों से विधवाओं की संख्या का अनुमान तो लगाया जा सकता है, लेकिन उनकी वास्तविक स्थिति, सामाजिक सुरक्षा और अन्य सुविधाओं तक पहुंच को लेकर कोई विश्वसनीय अध्ययन उपलब्ध नहीं है।
बनारस कहें या काशी, इसे सदियों से मोक्ष की नगरी माना जाता रहा है। यह शहर गंगा के तट पर बसा है और हिन्दू धर्म का तीर्थस्थल है, जहां जीवन और मृत्यु के बीच की लकीर धुंधली हो जाती है। लेकिन इसी नगरी में, जीवन की एक और कड़वी सच्चाई दिखती है—विधवाओं का दर्द। बनारस, विधवाओं के लिए भी एक आश्रय स्थल बन गया है, जिनकी कहानियां इस शहर की गलियों में गुम हो जाती हैं। इनका जीवन इस कदर कठिन है कि समाज की मानसिकता आज भी उन्हें दुर्भाग्य का प्रतीक मानती है। इन विधवाओं के लिए बनारस एक 'मोक्ष धाम' नहीं, बल्कि 'विधवाओं का शहर' बन गया है, जहां वे निर्वासित जीवन जी रही हैं।
बनारस जैसे धार्मिक शहर में, जहां हर गली में बाबा भोले का नाम लिया जाता है, वहां ये विधवाएं अपने जीवन की अंतिम लड़ाई लड़ रही हैं। कहीं कोई उपाय नहीं, कोई आवाज़ नहीं, सिर्फ मौन, सिर्फ उनकी गुमनाम ज़िंदगी। बनारस की इन गलियों में छिपी हुई यह कहानी किसी और की नहीं, बल्कि उन विधवाओं की है जो समाज के कोने में खड़ी हैं, पर शायद किसी को दिखाई नहीं देतीं। बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर के करीब स्थित लाटघाट मुहल्ले में सुबह का समय है।
सूरज की पहली किरणें जैसे ही दीवारों पर पड़ती हैं, एक दुकान से भजन की आवाज़ सुनाई देती है, "शिव शंकर को जिसने पूजा, उसका ही उद्धार हुआ…। भोले शंकर की पूजा करो, ध्यान चरणों में इसके धरो…। हर हर महादेव शिव शम्भो…।" बनारस का हर गली-कूचा, घाट, और मंदिर भगवान शिव की महिमा को बयां करता है। लेकिन इस पवित्र नगरी का एक और दर्दनाक पहलू भी है—यह शहर 'विधवाओं की त्रासदी' के रूप में भी जाना जाता है। यहां सैकड़ों विधवाएं हैं, जिन्हें परिवारों ने त्याग दिया है और वे अब अपनी जिंदगी की जंग लड़ रही हैं। बनारस की तंग गलियों में अगर आप चलें, तो सफेद कपड़ों में लिपटी, मुरझाए चेहरों वाली विधवाएं आपके सामने आएंगी। ये महिलाएं मंदिरों में बैठकर भिक्षाटन करती हैं, कभी-कभी चाय की दुकान पर काम कर, या फिर गली के नुक्कड़ पर चंद सिक्कों के लिए हाथ फैलाते हुए मिलेंगी। उनका जीवन संघर्ष से भरा है, और एक दिन की रोटी के लिए उन्हें अनगिनत कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।
बनारस में रहने वाली 65 वर्षीय राधा देवी ने अपनी कहानी साझा की। राधा को उनके परिवार ने उनके पति के निधन के बाद बनारस भेज दिया। उन्हें बताया गया कि "यहां रहकर भक्ति करने से मोक्ष मिलेगा," लेकिन असल में यह समाज और परिवार की उस मानसिकता का परिणाम था, जहां विधवाओं को बोझ समझा जाता है। राधा बताती हैं, “मैंने कभी सोचा नहीं था कि जीवन के इस पड़ाव पर मुझे भीख मांगनी पड़ेगी।” राधा की तरह सैकड़ों महिलाएं हर दिन यहां दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष करती हैं।
बनारस में कई आश्रम हैं जो विधवाओं को आश्रय प्रदान करते हैं। हालांकि, इन आश्रमों में रहन-सहन की स्थिति अक्सर बहुत दयनीय होती है। सीमित संसाधनों के बीच, विधवाओं को बहुत ही कठिन परिस्थितियों में रहना पड़ता है। कुछ आश्रम जैसे कि मीरघाट स्थित 'मुमुक्षु भवन' और काशी के अन्य आश्रय स्थल, विधवाओं को राहत देने का प्रयास करते हैं, लेकिन संसाधनों की कमी और सामाजिक उपेक्षा उनके जीवन को कठिन बनाती है। 70 वर्षीय लक्ष्मी देवी, जो मुमुक्षु भवन में सालों से रह रही हैं, बताती हैं, "यहां कम से कम हमें एक छत और खाना मिल जाता है, लेकिन हम अपने परिवार और समाज से कटे हुए हैं। हमारी आखिरी ख्वाहिश सिर्फ यही है कि हमें मरने के बाद सम्मान से विदा किया जाए।"
अपनों ने दिया दर्द
अस्सी घाट पर, सुबह की पहली किरण के साथ ही राधा देवी (65) गंगा के किनारे अपने दिन की शुरुआत करती हैं। मूलतः उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव की रहने वाली राधा देवी, अपने पति की मृत्यु के बाद घरवालों से अलग होकर बनारस आ गई थीं। उन्होंने बताया, "पति के जाने के बाद सब बदल गया। पहले तो कुछ महीने साथ रखा, फिर धीरे-धीरे सबने दूर कर दिया। किसी ने कहा कि बनारस में रहोगी तो मोक्ष मिलेगा। मैं आ गई, पर यहां जो जीवन है, वो किसी सजा से कम नहीं।"
राधा देवी अब बनारस की गलियों में भजन-कीर्तन करती हैं और बर्तन साफ करके अपना गुज़ारा करती हैं। दो वक्त की रोटी के लिए हर रोज़ संघर्ष करना पड़ता है। उनका कहना है कि यहां का जीवन कभी खत्म न होने वाली तपस्या जैसा है। दशाश्वमेध घाट पर बैठी मीरा देवी (58) का चेहरा झुर्रियों से भरा है, पर उनकी आंखों में अब भी एक चमक दिखाई देती है। अपने पति के देहांत के बाद, उनके ससुराल वालों ने उन्हें घर से बाहर कर दिया। उन्होंने अपनी व्यथा साझा की, "जब पति जिंदा थे, तब सब कुछ ठीक था। पर उनके जाने के बाद सब बदल गया। मेरे पास बस एक बेटा था, पर उसे भी नौकरी के लिए शहर जाना पड़ा। ससुराल वालों ने कहा कि मैं मनहूस हूं और मुझे घर से निकाल दिया। तब से मैं यहां हूं, भिक्षा मांगकर अपना गुजारा कर रही हूं।"
मीरा देवी की कहानी सिर्फ उनकी नहीं है, बल्कि सैकड़ों विधवाओं की है जो बनारस की इन गलियों में जीवित हैं, परंतु समाज द्वारा उपेक्षित। उनकी गरिमा और सुरक्षा की कोई परवाह नहीं करता, और वह बस किसी तरह अपने दिन काट रही हैं। बनारस के एक विधवा आश्रम में रह रही विद्यावासिनी देवी (72) अपने जीवन की कड़वी सच्चाई बयां करती हैं। उनका कहना है, "आश्रम में तो रह रही हूं, पर यहां भी मुश्किलें कम नहीं हैं। घरवालों ने जगह दी, पर उस घर में भी मेरी कोई अहमियत नहीं थी। यहां भी सिर्फ खाने को मिल जाता है, पर सम्मान कहीं नहीं मिलता।"
सबकी राम कहानी एक जैसी
उत्तर में वरुणा नदी और दक्षिण में अस्सी नदी के बीच बसा बनारस और बनारस की सैकड़ों गालियां न जाने कितनी विधवाओं के इतिहास को समेटे हुए। बिल्कुल निःशब्द। बनारस की तंग गलियों में अपने ही परिजनों और संतानों द्वारा फेंकी गई ज्यादातर विधवाएं कहती हैं, "अब तो सिर्फ भोले बाबा का सहारा है।" गंगा घाटों पर स्थित मंदिरों के बाहर सैकड़ों की तादाद में माथे पर तिलक लगाए तमाम उम्रदराज़ विधवाएं कहीं भी दिख जाएंगी। ये विधवाएं देश के कई कोनों आकर यहां पहुंची हैं। हर किसी की अपनी अलग राम कहानी है। सबकी अलग व्यथा है और सभी के पास मुश्किलों का पहाड़ है। सभी विधवाओं का दर्द एक जैसा है। अपने परिवार से दूर अलग और वीरान ज़िंदगी। ज्यादतर विधवाएं किसी आश्रम में अपनी ज़िंदगी काटती हैं या फिर किसी किराए के मकान में रहती हैं। बहुत सी विधवाएं नेपाल अथवा पश्चिमी बंगाल से हैं जिनका घर अब बनारस है।
किसी सरकारी एजेंसी या एनजीओ ने इनकी सही संख्या को जानने की कोशिश आज तक नहीं की है। साल 2011 में जनगणना के दौरान बनारस में विधवाओं की तादाद 35,000 से अधिक बताई गई थी। लेकिन, जिन औरतों के पास रहने के लिए कोई ठिकाना नहीं था, उन्हें कहीं दर्ज नहीं किया गया। समाज कल्याण विभाग के पास सिर्फ उन्हीं विधवाओं की सूची है, जिन्होंने पेंशन के लिए आवेदन किया है। बनारस के दुर्गाकुंड पर प्रदेश सरकार ने विधवा महिलाओं के लिए एक राजकीय वृद्धाश्रम खोला है। इसके अलावा राज्य महिला कल्याण निगम भी एक वृद्धाश्रम चला रहा है, लेकिन क्या ये पर्याप्त है?
लाटघाट में श्रीमती रानी बिड़ला मारवाड़ी महिला निवास (वृद्धाश्रम) में भी कई विधवाएं जिंदगी की अंतिम सांसें गिन रही हैं। यहां रह रहीं महिलाओं की उम्र 60 से 80 वर्ष के बीच है। उनकी आंखों में एक गहरा शून्य और चेहरे पर दुख की गहरी लकीरें हैं। कुछ विधवाएं अपने बच्चों की उपेक्षा का दर्द लेकर आई हैं, तो कुछ ने पति की यादों को समेटे हुए यहां ठिकाना बनाया है। बनारस में और भी कई आश्रम हैं, जैसे मदर टेरेसा आश्रम शिवाला, नेपाली आश्रम ललिता घाट, लालमुनि आश्रम नई सड़क, मुमुक्षु भवन, अपना घर, आशा भवन, मां सर्वेश्वरी वृद्धाश्रम, और रामकृष्ण मिशन। इनमें भी सैकड़ों विधवाएं अपने जीवन के अंतिम दिन गुजार रही हैं।
लाटघाट में श्रीमती रानी बिड़ला मारवाड़ी महिला निवास (वृद्धाश्रम) में भी कई विधवाएं जिंदगी की अंतिम सांसें गिन रही हैं। इनमें से कोई अपनों की सताई हुई है, तो कोई अपने जीवन की गाड़ी खींचने के लिए लुटकर यहां पहुंची है। हर एक विधवा की कहानी अलग है। कुछ ने अपने बच्चों को खो दिया है, कुछ ने पति को, तो कुछ ने अपने परिवार के सदस्य। उनके जीवन की कहानी के पीछे छिपे दर्द को समझना आसान नहीं है। जब उनसे बात की जाती है, तो उनकी आंखों में एक गहरा शून्य नजर आता है। ये महिलाएं अब समाज की मुख्य धारा से बिलकुल कट चुकी हैं। उनकी जरूरतें, उनकी इच्छाएं, सबकुछ कहीं खो गया है। क्या कोई है जो उनके लिए सोचता है? शायद नहीं। इनका दुख शायद यही है कि उनके दुख की आवाज़ सुनने वाला कोई नहीं है।
अनदेखी दर्द की कहानी
जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर बनारस में अपना ठिकाना बनाने वाली ज्यादातर विधवाओं के परिवार में कोई नहीं है। लेकिन ऐसी विधवाओं की तादाद कम नहीं है जो अपने परिजनों की बेरुख़ी के चलते बनारस में रह रही हैं। यहां पर मौजूद एक विधवा, जो अब अपने बचपन के सपनों को भुला चुकी है, बताती हैं, "मैंने अपने पति को कैंसर में खोया। अब मेरे पास न तो कोई सहारा है, न ही कोई उम्मीद। बस यही आश्रम है जहां मैं रह सकती हूं।" दूसरी ओर, एक और विधवा कहती हैं, "मेरे बेटे ने मुझे छोड़ दिया, जब मैंने अपनी पति की संपत्ति के लिए न्याय की मांग की। अब मैं यहां हूं, पर मैं खुद को अकेला महसूस करती हूं।"
श्रीमती रानी बिड़ला मारवाड़ी महिला निवास में रह रहीं 92 वर्षीया सावित्री शर्मा राजस्थान के चुरू से यहां आई हैं। वह पिछले 18 बरस से बनारस में हैं। कहती हैं, "साल 1985 में मेरे पति की मौत हुई तो उनके ऊपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। इकलौता बेटा ओम प्रकाश ने हमारी जिम्मेदारी नहीं उठाई। वो अपने ससुराल इंफाल चला गया। अपने बेटे की हरकतों की वजह से हमें घर छोड़ना पड़ा। मेरा बेटा अपनी पत्नी के उकसाने पर हमें मारता-पीटता था। बेटा होने का मतलब यह नहीं है कि वो जन्म देने वाली मां को सताता रहे।"
सावित्री यह भी कहती हैं, "हमारी हालत ‘बांझ से भी बदतर’ है। मैंने बेटा तो पैदा किया, लेकिन ऐसे बेटे से बगैर औलाद के रहना ही अच्छा है। बाबा विश्वनाथ से मैं रोज यही प्रार्थना करती हूं कि हमें अपने चरणों में जगह दें। अकेली हूं और अकेली ही मरना चाहती हूं। मुफ्त में सरकारी अनाज भी मिल जाता है, जिससे किसी तरह से जिंदगी कट रही है।"
एक वृद्धाश्रम में रह रही रचना को उनके बच्चों ने बनारस लाकर छोड़ दिया। वह कहती हैं कि, "गांव में रोजना होने वाले झगड़ों से ऊब गई थी। मंदिरों में दर्शन-पूजन और भजन करते हुए किसी तरह से जिंदगी बीत रही है। सरकार और गैर-सरकारी संस्थाओं की ओर से मिलने वाली वित्तीय मदद से सिर्फ दो वक्त की रोटी मिल पाती है। कुछ लोग दान में पैसे दे जाते हैं। चंद दिनों की मेहमान हूं। हमारी ख्वाहिश है कि मैं किसी पर बोझ न बनूं और दुनिया से रुखसत हो जाऊं।"
बिहार के आलापुर-बरौनी (बेगूसराय) की 70 वर्षीया इंद्रासन देवी जिस वृद्धाश्रम में रहती हैं, उसमें एक छोटे से कमरे के कोने पर देवी-देवताओं से चित्र सजे हैं। पूजा-पाठ का सामान भी है। जिस कमरे में भोजन भी पकाती हैं और उसी में सोती भी हैं। अपनी व्यथा बताते हुए उनके माथे पर चिंता की लकीरें उभर आती हैं। वह कहती हैं, "पति की मौत के बाद बेटे उदय ने मेरे साथ मारपीट शुरू कर दी। लाचारी में हमें घर छोड़ना पड़ा। सांस लेने में थोड़ी दिक़्क़त है। बढ़ती उम्र और अपनों का साथ नहीं होने का दर्द हर समय सताता रहता है। मैंने जीवन भर जिन लोगों को अपना माना, उन्होंने ही हमें पराया कर दिया। आखिर ज़िल्लत भरी ज़िंदगी कब तक सहती। आठ साल तक हमने एक आश्रम में झाड़ू-बर्तन का काम किया। अब यह काम नहीं हो पाता है। मैं किसी से मांगती नहीं। कोई दान दे देता है तो ले लेती हूं। लाचार हूं, फिर भी अब मैं बेगूसराय नहीं जाना चाहती।"
तिलचट्टा और छिपकलियों से भरे एक छोटे से कमरे में एक चारपाई पर गुदड़ी लपेटे इंद्रासन देवी की जिंदगी झंझावतों से भरी हुई है। वह कई सालों से बनारस में हैं। एक छोटा सा कमरा ही उनका संसार है। खाना बनाने से लेकर रहने तक। हवा और मिट्टी की न जाने कितनी परतें इसकी रजाई और चादरों को ढंककर काला कर दिया है। ऐसा लगता है जैसे उस घर में रखा एक-एक सामान उस वृद्ध महिला को देख रहा हो और उनके मौत का इंतजार कर रहा हों।
इंद्रासनी देवी के बेटे राम उदय चौधरी आलापुर गांव में रहते हैं और दस बीघा खेत है, जिसे उनके पति ने खरीदा था। बाद में बेटे ने उन्हें पागल करार दे दिया और यह कहते हुए घर से निकाल दिया कि उसे भूत ने पकड़ लिया है। इंद्रासनी देवी को इस कदर सताया कि वो बनारस आ गईं और किसी ने उन्हें श्रीमती रानी बिड़ला मारवाड़ी महिला निवास में पहुंचा दिया। वह गाहे-बगाहे बीमार होती हैं तो उनकी बेटी सरस्वती देवी उनका खयाल रखती हैं।
61 वर्षीया विधवा सुनीता ठाकुर छत्तीसगढ़ राज्य के रायपुर की रहने वाली हैं। इनके पति एनसीसी कार्यालय में मुलाजिम थे और वह खुद एक साप्ताहिक अखबार “चौपाल की खबरें” निकलती थीं, जिसकी वह खुद संपादक थीं। इनके दो शादीशुदा बेटे हैं। बहुएं आईं तो बेटों का नजरिया बदल गया। शुरू में छोटा बेटा दस हजार रुपये भेजा करता था, लेकिन बाद में उसका भी रुख बदल गया। वह बनारस में एक कपड़ा व्यवसायी के यहां नौकरी करती थीं। बीमार हुई तो नौकरी छूट गई। सुनीता रुंधे गले से कहती हैं, "अब मेरा अपना कोई नहीं है। पति ने बहुत ही पहले छोड़ दिया था। आकाशीय बिजली से उनकी मौत हो गई थी। मुसीबत हमारा पीछा नहीं छोड़ रही है। अब बाबा विश्वनाथ का आसरा है।"
अन्नपूर्णा शर्मा बनारस की रहने वाली हैं, लेकिन उन्हें अपनों ने छोड़ दिया है। परिवार वाले मदद नहीं करते। सुलभ इंटरनेशनल संस्था से कुछ पैसे मिल जाते हैं तो कुछ भजन-कीर्तन से। वह कहती हैं, "हम अकेले रहते हैं। परेशान तब होती है जब बीमार होती हूं। घर के नरक से बेहतर है वृद्धाश्रम। दान-पुण्य के पैसे से हमारा गुजारा हो जाता है। जीवन में सिर्फ बाबा विश्वनाथ की भक्ति ही है। उनके सिवाय कुछ भी नहीं है।"
दान और दया से भरता है पेट
बनारस के गायघाट हमें मिली 75 वर्षीया विधवा संध्या । वह मूलतः पश्चिम बंगाल की रहने वाली हैं। विद्यावती की तरह हर सुबह मणिकर्णिका, ललिता घाट, काशी विश्वनाथ मंदिर इलाके के घाटों और मंदिरों के आसपास सैकड़ों विधवाएं भीख मांगती देखी जा सकती हैं। बनारस की ज्यादातर विधवाओं की कहानी लगभग एक जैसी है। इनमें से कई की ज़िंदगी में पहले बीघे भर का आंगन हुआ करता था, लेकिन अब बुढ़ापे में उनके लिए बाड़ानुमा वृद्धाश्रम में एक छोटा सा कोना भी नहीं बचा है। अपने अपनों की बेरुखी ने इन विधवाओं को बनारस की तंग गलियों में भटकने पर मजबूर कर दिया है। कुछ विधवाओं को मोक्ष की तलाश है, तो कुछ को अपनों से गहरी शिकायतें।
बनारस में ढेरों विधवाएं हैं जिनका पेट फिलहाल दान और दया से ही भरता है। कुछ विधवाओं को सरकार से पेंशन मिलती है, जबकि कुछ को स्वैच्छिक संस्थाओं ने गोद ले रखा है। वाराणसी में कई सड़कों पर भिक्षा मांगने वाली महिलाओं ने बताया कि उनके पास आधार या पहचान पत्र नहीं है। आधार न होने के चलते उन्हें विधवा पेंशन जैसी सुविधाएं भी नहीं मिलतीं।
यहां की तमाम विधवाएं घाटों और मंदिरों के किनारे दिनभर हाथ पसारे भीख मांगती हैं, और उसी से उनका गुजारा चलता है। इनकी हर दिन जीने की जद्दोजहद इसी तरह से शुरू होती है और शाम होते-होते भीख मांगने में ही निकल जाती है। कुछ विधवाएं भजन गाकर भी पैसे कमाती हैं। बनारस में कई मंदिर और आश्रम ऐसे हैं जहां हर सुबह-शाम कीर्तन होते हैं। विधवा औरतों को वहां भोजन भी मिल जाता है। भजन और कीर्तन के बदले में कुछ विधाएं अनाज भी जुटा लेती हैं।
बनारस के एक कारोबारी दिलीप सिंह कहते हैं, "भजन-कीर्तन करने वाली विधवाओं को कई जगह से टोकन मिलते हैं, जिनकी कीमत पांच से सौ रुपये तक होती हो सकती है। इन टोकनों से वह अपनी जरूरतों का सामान खरीद लिया करती हैं। स्थानीय दुकानदार टोकन देने वालों के पास जाकर पैसे ले आते हैं।"
घाटों पर विधवाओं का जीवन
बनारस के घाट, जहां लोग पवित्र गंगा स्नान करते हैं, वहीं विधवाओं के लिए ये घाट भीख मांगने और दिनभर बैठने की जगह बन गए हैं। ये महिलाएं अपने परिवारों से दूर यहां जीवन के अंतिम दिनों का इंतजार करती हैं। घाटों पर बैठी विधवाएं गंगा के किनारे घंटों बिताती हैं, उम्मीद करती हैं कि एक दिन उन्हें मोक्ष मिल जाएगा, लेकिन उनका दैनिक जीवन संघर्षों से भरा है।
अधिकांश विधवाओं का जीवन सीमित आमदनी पर निर्भर होता है, जो मंदिरों में काम करने या भीख मांगने से मिलती है। 70 वर्षीय मीरा देवी, जो पिछले 20 सालों से बनारस के एक मंदिर में रह रही हैं, बताती हैं, "यहां हम भजन गाते हैं, लेकिन असली सुकून अब कहीं खो गया है। अब तो बस पेट भरने का संघर्ष है।"
विधवाओं की स्थिति केवल आर्थिक दयनीयता तक ही सीमित नहीं है। ये महिलाएं कई बार यौन शोषण का शिकार भी होती हैं। बनारस के कई आश्रमों में रहने वाली विधवाओं ने बताया कि किस प्रकार उन्हें शोषण का सामना करना पड़ता है, और उनके खिलाफ कोई भी आवाज उठाने को तैयार नहीं होता। समाज का यह हिस्सा जो आध्यात्मिकता और धर्म के लिए जाना जाता है, यहां भी स्त्रियों की सुरक्षा और गरिमा की कोई जगह नहीं है।
बनारस में हर रोज हजारों शिवभक्त और पर्यटक आते हैं, लेकिन वो इन विधवाओं की समस्याओं को नजरअंदाज कर देते हैं। सवाल उठता है कि क्या आध्यात्मिकता का यह स्वरूप वास्तव में विधवाओं को सम्मानजनक जीवन दे सकता है? क्या समाज का यह अंधविश्वास कि विधवाएं अपशगुन हैं, खत्म नहीं होना चाहिए? ज्यादातर विधवाएं, चाहे वे अस्सी घाट की हों या दशाश्वमेध घाट की, अपने परिवार और समाज द्वारा उपेक्षित होने के कारण यहां आकर बस गई हैं। बनारस में गंगा की आरती और धार्मिक क्रियाकलापों के बीच इन महिलाओं का दर्द कहीं भी छिप जाता है। धार्मिकता की आड़ में, इनका यौन शोषण भी होता है, पर उनकी सुरक्षा की परवाह कौन नहीं करता?
समाज की क्रूरता और अंधविश्वास
ऐसा नहीं कि सभी विधवाएं हिन्दू ही हैं। मुस्लिम समुदाय की विधवाओं का दर्द कम नहीं है। इनके लिए कोई वृद्धाश्रम भी नहीं है। ज़ीनत की शादी करीब 12 साल पहले बनारस के एक ट्रक ड्राइवर, इकबाल से हुई थी। शादी के दो साल बाद ही इकबाल अचानक लापता हो गए। अब ज़ीनत अपने बच्चों के साथ अकेले ज़िन्दगी गुज़ार रही है। वह बताती हैं, "मेरे मायके वालों ने मुझ पर दोबारा शादी करने का बहुत दबाव डाला, लेकिन मैंने अपने बच्चों के भविष्य के बारे में सोचा। अब मैं ही उनकी माँ हूँ और बाप भी।"
ज़ीनत कहती हैं, "हमने बनारस की हर जेल और पुलिस थाने का चक्कर लगाया है। बहुत सारा पैसा भी खर्च हो गया, घर तक बिक गया, लेकिन सब बेकार गया।" इतना ही नहीं, कुछ लोग उन्हें धोखा देकर पैसे भी ठग लेते हैं, यह कहकर कि उनके पति को देखा है। हलीमा कहती हैं, "कुछ लोग मेरे पास आए और कहा कि उन्होंने मेरे शौहर को देखा है। मैंने उन्हें ढेर सारे पैसे दे दिए, ताकि वो मेरे पति को वापस ला सकें। अब सोचती हूं, काश ये पैसे बच्चों के लिए बचाए होते।"
अपने पति इकबाल का ज़िक्र करते ही उनकी आंखों में आंसू भर आते हैं। वो कहती हैं, "मैं उन्हें हर दिन याद करती हूं। अगर ये बच्चे न होते, तो शायद मैं उनके बिना जी ही नहीं पाती।" हलीमा की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। करीब 13 साल पहले उनके पति भी बिना किसी खबर के गायब हो गए थे, और तब से वो भी उनके लौटने का इंतजार कर रही हैं।
हलीमा कहती हैं, "अगर मुझे ये पता चल जाए कि मेरे शौहर अब इस दुनिया में नहीं हैं, तो शायद मैं मन को तसल्ली दे पाऊं। लेकिन हमें अंधेरे में रखा गया है। दिल में एक उम्मीद रहती है कि शायद वो ज़िंदा हैं, कहीं लौट आएं।" हलीमा का दर्द छलक उठता है, "ये अनिश्चितता बहुत दर्दनाक है, मेरे लिए, मेरे बच्चों के लिए, और हम सभी के लिए। हम हर रोज़ इसी इंतजार में जीते जा रहे हैं।"
कोरोना महामारी का दंश
कोरोना महामारी के बाद विधवाओं की स्थिति और भी दयनीय हो गई है। जिन महिलाओं के पति महामारी के दौरान गुजर गए, उनके लिए जिंदगी पहले से भी कठिन हो गई। न केवल आर्थिक संकट, बल्कि सामाजिक अलगाव भी बढ़ गया है। परिवार और समाज से अलग होने के बाद, ये महिलाएं अब आश्रमों में या गलियों में भीख मांगकर अपना जीवन यापन कर रही हैं। इन्हीं में एक हैं बनारस की 44 वर्षीया विधवा अरुणा। इनकी ज़िंदगी उस दिन पूरी तरह से बदल गई, जब उनके पति आलोक का कोविड-19 के कारण निधन हो गया।
यह घटना उनके 50वें जन्मदिन से बस दो दिन पहले की है। आलोक को अप्रैल में कोरोना वायरस से संक्रमित होने पर अस्पताल में भर्ती कराया गया था, जब देश में कोविड की दूसरी लहर चरम पर थी। बनारस के अस्पतालों में जगह की भारी कमी थी, और परिवार को उन्हें भर्ती कराने में काफी संघर्ष करना पड़ा। आखिरकार उन्हें एक सरकारी अस्थायी अस्पताल में बिस्तर मिला, लेकिन दो हफ्ते बाद उनकी मृत्यु हो गई।
अरुणा कहती हैं, "आलोक की मौत से मैं स्तब्ध रह गई हूं। ये मेरे जीवन के सबसे बुरे दिन थे, लेकिन मेरे पास शोक मनाने का समय नहीं है क्योंकि मेरी जिंदगी ने 360 डिग्री का मोड़ ले लिया है।" आलोक दूरसंचार क्षेत्र में काम करते थे और परिवार में एकमात्र कमाने वाले थे। अरुणा कहती हैं, "हमने हमेशा आराम से जीवन जिया और मुझे वह सब मिला जो मैंने मांगा। सारा बजट आलोक ही बनाते थे और मैंने उनसे सिर्फ पैसे मांगे। अब मुझे नहीं पता कि हमारी बचत कितने दिनों तक चलेगी, क्योंकि मैंने कभी खुद उसका प्रबंधन नहीं किया।"
वह बच्चों की परवरिश के लिए नौकरी ढूंढने की उम्मीद करती हैं, लेकिन उनके पास काम का कोई अनुभव नहीं है और उन्हें नहीं पता कि शुरुआत कहां से करनी है। वह कहती हैं, "मैं बस नौकरी ढूंढ़ना चाहती हूं, घर से बाहर निकलना चाहती हूं, लोगों से मिलना चाहती हूं और किसी के साथ एक कप चाय पीना चाहती हूं। जब मैं घर पर होती हूं तो दर्द मुझे सोने नहीं देता।"
दुखों का अंत नहीं
बनारस की सामाजिक चिंतक प्रज्ञा सिंह कहती हैं, "बनारस ही नहीं, सभी जगहों पर विधवाओं की जिंदगी बहुत कष्टकारी है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले दस साल से अधिक समय से बनारस के सांसद हैं, लेकिन उन्होंने इन विधवाओं की सूनी जिंदगी में झांकने की कोशिश कभी नहीं की। स्थिति यह है कि तमाम विधवाओं को उनके घर वाले मोक्ष की आड़ में बनारस के आश्रमों में छोड़ जाते हैं तो कुछ को उनके बेटे-बेटियां घर से बाहर का दरवाजा दिखाकर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाते हैं। जब खाना नहीं मिलता तो वो भीख मांगने के लिए मजबूर हो जाती हैं।"
"सरकार ने हाल ही में वृद्ध महिलाओं के लिए एनजीओ द्वारा संचालित वृद्धाश्रमों को बंद करने का फरमान जारी किया है। महिला कल्याण विभाग की प्रमुख सचिव वीणा कुमारी के नए फरमान से विधवाओं की जिंदगी और कष्टकारी होने की आंशका बढ़ गई है। बनारस में कई ऐसी घटनाएं प्रकाश में आई हैं जब सरकारी वृद्धाश्रमों की संचालिकाओं ने विधवाओं को दान में मिलने वाले पैसे छीन लिए। विधवाओं की जिंदगी का सबसे दर्दनाक पहलू यह है कि गंगा घाटों पर रहने वाली विधवाओं की जब मौत हो जाती है तो उनका अंतिम संस्कार करने वाला कोई नहीं होता है। आमतौर उनके शव को गंगा में फेंक दिया जाता है अथवा श्मशान घाट पर लावारिस हाल में अधजली लकड़ियों पर उन्हें जला दिया जाता है। बनारस के सांसद पीएम नरेंद्र मोदी को विधवाओं की जिंदगी संवारने के लिए ठोस पहल करने की जरूरत है।"
मानवाधिकार जननिगरानी समिति की मैनेजिंग ट्रस्टी श्रुति नागवंशी ने विधवाओं की स्थिति पर ध्यान आकर्षित करते हुए कहा, "कोरोना के समय जिन औरतों के पतियों की मौत हो गई, उनकी जिंदगी काफी कष्टकारी हो गई है। पहले, परिवार का सहयोग होता था, लेकिन अब मदद करने वाला कोई नहीं है। खासकर मुस्लिम विधवाओं का हाल पहले से ही खराब था, और अब उनकी स्थिति और भी चिंताजनक हो गई है। इन औरतों को समाज में स्वीकार्यता नहीं मिलती, और उनके प्रति समाज की सोच में गहरी धारणा बसी हुई है।"
"बनारस के घाटों पर बसे आश्रमों और धर्मशालाओं में रहने वाली विधवाएं समाज की उपेक्षा और धार्मिक रूढ़ियों का शिकार हैं। समाज के कुछ वर्गों में विधवाओं को 'अशुभ' माना जाता है, और उन्हें धार्मिक और सामाजिक कार्यक्रमों से दूर रखा जाता है। इस पारंपरिक सोच ने इन महिलाओं के जीवन को सीमित कर दिया है, और वे अब एक अंधकारमय भविष्य का सामना कर रही हैं।"
श्रुति नागवंशी बताती हैं कि महामारी के बाद स्थिति और गंभीर हो गई है। "पहले, परिवार का सहयोग था, लेकिन अब हालात बदल गए हैं। मुस्लिम और दलित विधवाओं पर यह स्थिति और भी गहरा असर डाल रही है।" यह केवल आर्थिक संकट नहीं है, बल्कि एक गहरी सामाजिक समस्या भी है। समाज में इन विधवाओं के प्रति धारणाएं इतनी रूढ़ हैं कि उन्हें जीवन की हर छोटी-बड़ी जरूरत के लिए संघर्ष करना पड़ता है। महामारी के बाद सरकार और गैर-सरकारी संगठनों द्वारा राहत प्रयास किए गए थे, लेकिन वह भी इन महिलाओं तक नहीं पहुंच सके। श्रुति नागवंशी के अनुसार, "महामारी के बाद, किसी तरह की सहायता या सुरक्षा नहीं मिल रही है। यहां तक कि जो थोड़ी बहुत मदद होती थी, वह भी अब रुक गई है।"
धार्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण से, मुस्लिम और दलित विधवाएं सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं। श्रुति नागवंशी ने बताया कि, "इन महिलाओं के प्रति समाज में एक अलग धारणा है, और इस धारणा के कारण उन्हें समाज में स्वीकार्यता नहीं मिलती। समाज की सोच में अंधविश्वास और परंपरागत धारणाओं का गहरा असर है। विधवाओं के प्रति यह धारणा कि वे 'अपशगुन' हैं, उनके जीवन को और कठिन बना देती है। धार्मिक और सामाजिक कार्यक्रमों से दूर रखा जाना, और उनके प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया, विधवाओं के जीवन को एक त्रासदी में बदल देता है। श्रुति नागवंशी ने बताया, "धर्म और सामाजिक परिवेश में इनके प्रति धारणा अलग ही है, और यह धारणा ही इनकी सबसे बड़ी समस्या है।"
"यह बात विशेष रूप से मुस्लिम और दलित विधवाओं के लिए लागू होती है, जिनके पास न तो आर्थिक सहारा है और न ही सामाजिक सहयोग। कई मुस्लिम और दलित महिलाएं बनारस की तंग गलियों में आश्रय ढूंढने के लिए मजबूर हो गई हैं। उनके पास अपने बच्चों के लिए न कोई शिक्षा का अवसर है, न ही स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच। वे दोहरी मार झेल रही हैं—पहली, आर्थिक संकट, और दूसरी, सामाजिक अपमान। उनके पास रोजगार के साधन भी बहुत सीमित हैं, और वे कई बार शारीरिक शोषण का शिकार हो जाती हैं।"
श्रुति यह भी कहती हैं, "बनारस की विधवाओं के लिए जीवन कभी आसान नहीं रहा, और महामारी के बाद यह और भी कठिन हो गया है। लेकिन अब समय आ गया है कि समाज इस क्रूरता को समझे और इन महिलाओं के प्रति अपनी धारणाओं में बदलाव लाए। समाज को विधवाओं के प्रति अपनी धारणा बदलनी होगी और इन्हें एक समान अधिकार और गरिमा देनी होगी।"
जिंदगी में कोई रंग नहीं
बनारस की एक्टिविस्ट मुनीजा खान कहती हैं, "धार्मिक शहर में विधवाओं की ज़िदंगी में कोई रंग नहीं है। इनकी बदरंग जिंदगी में किसी बदलाव की उम्मीद नजर नहीं आती। ज्यादातर विधवाओं को वोट की राजनीति से कोई मतलब नहीं हैं। इन्हें मालूम है कि सरकार चाहे जिसकी बने, उनके हालात कोई सुधार होने वाला नहीं है। ये औरतें राजनीति की बातें नहीं जानतीं। ज्यादातर विधवाओं के पास न वोटर कार्ड और न ही आधार कार्ड। जिन गिनी-चुनी महिलाओं के पास है भी, वो भी चुनाव से दूर ही रहती हैं।"
"नारी गरिमा की रक्षा करने के लिए हमें केवल धार्मिक आयोजनों और मंदिरों तक सीमित नहीं रहना चाहिए। बनारस जैसे शहरों में जहां आध्यात्मिकता का बोलबाला है, वहां भी समाज को विधवाओं के प्रति अपना नजरिया बदलना होगा। विधवाओं को सम्मानजनक जीवन देने के लिए समाज के साथ-साथ सरकार को भी ठोस कदम उठाने होंगे। आश्रमों और आश्रयों में सुविधाओं का विस्तार, आर्थिक मदद और पुनर्विवाह को बढ़ावा देने जैसी पहल शुरू की जानी चाहिए। समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वह विधवाओं को न केवल आर्थिक सहायता प्रदान करे, बल्कि उन्हें सामाजिक सम्मान भी दिलाए। इसके लिए सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों को मिलकर काम करना होगा ताकि इन विधवाओं का जीवन फिर से संवार सके और उन्हें एक नई दिशा मिल सके।"
सुश्री मुनीजा यह भी कहती हैं, "बनारस की विधवाएं, चाहे वह मुस्लिम हों या दलित, समाज की उपेक्षा और धार्मिक धारणाओं का शिकार हैं। महामारी ने उनकी स्थिति को और भी बदतर बना दिया है। अब समय है कि हम समाज के इस अंधविश्वास और रूढ़िवादिता को तोड़ें और इन महिलाओं को सम्मान और अधिकार प्रदान करें। यह विडंबना ही है कि जिस नगरी को मोक्ष और शांति की भूमि कहा जाता है, वहीं इन विधवाओं का जीवन एक असीमित दुख और असुरक्षा से भरा हुआ है। समाज में ठोस बदलाव की आवश्यकता है, जहां विधवाओं को भी सामान्य जीवन जीने का अधिकार मिले, सम्मान मिले और उनका जीवन भी खुशहाल हो। संस्कृति और परंपराओं की भंवरजाल में फंसी विधवाओं के जीवन में सरकार कब रोशनी लेकर आएगी, यह देखना बाकी है।"
बनारस के एक्टिविस्ट सौरभ सिंह और उनकी पत्नी मीरा सिंह ने विधवाओं की जिंदगी की जिंदगी आसान बनाने के लिए सालों से लगातार मुहिम चला रहे हैं। इनकी जिंदगी पर भी दोनों ने काफी शोध किया है। मीरा कहती हैं, "भारत उन देशों में से एक है, जहां के लोग कोविड-19 से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। यहां अब तक आधिकारिक तौर पर 4,50,000 से ज्यादा मौतें दर्ज की गई हैं। महामारी ने हज़ारों महिलाओं को विधवा होने पर एक नए जीवन में ढलने के लिए संघर्ष करने पर मजबूर कर दिया है। इनमें से कई महिलाओं ने पहले कभी कोई वेतन वाली नौकरी नहीं की है। विश्व बैंक के अनुसार, भारत की महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर-जो 2019 में 21% से कम थी-दुनिया में सबसे कम में से एक है।"
मीरा कहती हैं, "बनारस में घरों में लैंगिक भूमिकाएं और पितृसत्तात्मक मानदंडों का मतलब है कि वे आर्थिक रूप से अपने पुरुष साथियों पर निर्भर थीं और उन्हें वित्तीय सेवाओं से बाहर रखा गया था। विश्व बैंक के अनुसार, 2017 में, भारतीय महिलाओं के पास आपातकालीन स्थिति में धन जुटाने की संभावना पुरुषों की तुलना में लगभग 13% कम थी। भारतीय महिलाओं के पास बैंक खाता होने की संभावना भी पुरुषों की तुलना में 6% कम थी। कुछ विधवाएं विरासत के मुद्दों का सामना कर रही हैं, जबकि अन्य के ससुराल वाले उन्हें वैवाहिक घर में रहने नहीं दे रहे हैं।"
एक्टिविस्ट सौरभ सिंह कहते हैं, "दुनियाभर में विधवाओं की स्थिति आज भी बहुत चिंताजनक है। 2015 में एक अनुमान के अनुसार, पूरी दुनिया में करीब 26 करोड़ विधवाएं थीं, और यह संख्या लगातार बढ़ रही है। 2010 से 2015 के बीच हिंसा और बीमारियों के चलते विधवाओं की संख्या में करीब 9 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। दुख की बात यह है कि हर सात में से एक विधवा बेहद गरीबी में जीने को मजबूर है, और इनकी संख्या करीब 3.80 करोड़ से भी ज्यादा है। इसका मतलब है कि शादी की उम्र की हर 10 में से एक महिला विधवा है।"
"भारत और चीन दुनिया के उन देशों में आते हैं जहां सबसे ज्यादा विधवाएं पाई जाती हैं। इनमें भी सबसे ज्यादा विधवाएं भारत में रहती हैं, जहां इनकी संख्या 4.60 करोड़ से भी ज्यादा है। चौंकाने वाली बात यह है कि इन महिलाओं में से कई विधवाएं बचपन में ही विधवा हो गई थीं। इसका सीधा मतलब यह है कि गरीब और विकासशील देशों में बाल विवाह आज भी प्रचलित है, जहां छोटी बच्चियों की शादी उनसे कई साल बड़े पुरुषों से कर दी जाती है।"
विधवाओं के लिए कानूनी समर्थन
'विश्व विधवा रिपोर्ट, 2015' के अनुसार, भारत उन देशों में से एक है, जहां विधवाओं के साथ अच्छा व्यवहार बहुत कम देखने को मिलता है। इनकी देखभाल भी ठीक से नहीं की जाती। हमारे देश में सिर्फ 18 प्रतिशत विधवाओं की अच्छी देखभाल होती है, जबकि 24 प्रतिशत विधवाओं की देखभाल का स्तर संतोषजनक है। वहीं, 24 प्रतिशत विधवाओं को बहुत ही कम ध्यान मिलता है और 11 प्रतिशत की देखभाल न के बराबर होती है। पति की मृत्यु के बाद एक महिला जिन कठिनाइयों का सामना करती है, उसे लेकर समाज में जागरूकता की भारी कमी है। उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति को समझने और सुधारने के लिए सामान्य योजनाएं पर्याप्त नहीं हैं।
ये आंकड़े हमें ये सोचने पर मजबूर करते हैं कि समाज में विधवाओं के प्रति नज़रिया और उनकी जीवन-स्थितियों को सुधारने के लिए हमें ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है। इसके साथ ही, विधवाओं की आर्थिक स्थिति को लेकर हमारे पास पर्याप्त आंकड़े नहीं हैं। जनगणना के आंकड़ों से विधवाओं की संख्या का अनुमान तो लगाया जा सकता है, लेकिन उनकी वास्तविक स्थिति, सामाजिक सुरक्षा और अन्य सुविधाओं तक पहुंच को लेकर कोई विश्वसनीय अध्ययन उपलब्ध नहीं है।