आपकी खिचड़ी सड़ गयी है श्रीमान !

Written by Himanshu Pandya | Published on: January 2, 2019
भाजपा 6 जनवरी को दिल्ली के रामलीला मैदान में समरसता खिचड़ी पकाने वाली है। ‘समरसता’ संघ दर्शन का प्रिय शब्द है। समानता शब्द से उन्हें परहेज़ है। समरसता - यानी भारतीय वर्णाश्रम व्यवस्था को बनाए रखते हुए, उसमें से अस्पृश्यता जैसे कुछ आयाम निकालकर उसे सर्व स्वीकार्य बनाना। यह कुछ कुछ पूँजीवाद के ‘ग्लोबलाइज़ेशन विथ ए ह्यूमन फ़ेस’ जैसी कोशिश है।

यानी सरल शब्दों में कहें तो समाज में जाति विभाजन बना रहे, सब अपना अपना नियत काम करें और ‘प्रेम से रहें’।

जब उत्पीड़ित अपना हक़ माँगता है तो उथल पुथल होती है। जब सेवा करने वाला सेवा करता रहे और मेवा खाने वाला मेवा खाता रहे तो प्रेम बना रहता है। ऐसा प्रेम नहीं चाहिए, ऐसी समरसता धोखा है।

मोदी जी ने इसे अपने शाब्दिक मकड़जाल में यों प्रस्तुत किया था - “उसने सिर्फ़ पेट भरने के लिए यह काम स्वीकारा हो मैं यह नहीं मानता, क्योंकि तब वह लंबे समय तक नहीं कर पाता। पीढ़ी दर पीढ़ी तो नहीं ही कर पाता। एक ज़माने में किसी को ये संस्कार हुए होंगे कि संपूर्ण समाज और देवता की साफ़-सफ़ाई की ज़िम्मेदारी मेरी है और उसी के लिए यह काम मुझे करना है।'' ( ‘कर्मयोग’ , पृष्ठ 48 )

देखा आपने किस सफ़ाई से मैला ढोने को ‘महान’ काम की संज्ञा देकर सफ़ाईकर्मियों को पीढ़ी दर पीढ़ी वही काम करते रहने के लिए भूमिका तैयार की गयी है !

दलितों को खिचड़ी,
सवर्णों को मेवा 
नहीं चलेगा, नहीं चलेगा 
समरसता की खिचड़ी 
नहीं पकेगी, नहीं पकेगी।

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