करसड़ा मुसहर बस्ती के लोग एक नाले के किनारे, अपनी ज़िंदगी बसर करने को मजबूर हैं। यहां के पुरुष, महिलाएं, और बच्चे दिन-रात संघर्ष कर रहे हैं। बस्ती में न तो पीने के साफ पानी की व्यवस्था है, न शौचालय की सुविधा, और न ही जीवनयापन के लिए रोजगार के अवसर। यहां लोग पहले उसी जगह बसे थे, जहां आज बनारस के अटल आवासीय विद्यालय की भव्य इमारतें खड़ी हैं।
बनारस के करसड़ा स्थित मुसहर बस्ती का नाम लेते ही आंखों के सामने एक ऐसी तस्वीर उभरती है, जिसमें इंसानी जीवन की दुश्वारियां, भूख और बेबसी के हर पहलू शामिल हैं। इस बस्ती में रहने वाले लोगों की जिंदगी में सिर्फ लाचारी और उदासी है। हाईटेंशन बिजली के तारों की झनझनाहट, नीचे बहता हुआ नाला, टूटी-फूटी सड़कें और बेतरतीब खड़े कच्चे मकान यहां की सच्चाई को बयान करते हैं। यह मुसहर बस्ती बनारस जिला मुख्यालय (कचहरी) से करीब 19.5 किलोमीटर दूर है। करसड़ा वो इलाका है जहां के लोगों की संसद में नुमाइंदगी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करते हैं।
करसड़ा मुसहर बस्ती के लोग एक नाले के किनारे, अपनी ज़िंदगी बसर करने को मजबूर हैं। यहां के पुरुष, महिलाएं, और बच्चे दिन-रात संघर्ष कर रहे हैं। बस्ती में न तो पीने के साफ पानी की व्यवस्था है, न शौचालय की सुविधा, और न ही जीवनयापन के लिए रोजगार के अवसर। यहां लोग पहले उसी जगह बसे थे, जहां आज बनारस के अटल आवासीय विद्यालय की भव्य इमारतें खड़ी हैं। 29 अक्टूबर 2021 को प्रशासन ने रातों-रात मुसहर बस्ती को उखाड़ फेंका। बुलडोजर से मकानों को जमींदोज़ कर दिया गया, और 76 परिवारों को खुले आसमान के नीचे छोड़ दिया गया।
मीडिया में मामला उछलने के बाद प्रशासन ने इन परिवारों को एक नाले के किनारे पुनर्वासित करने की व्यवस्था की। लेकिन यह पुनर्वास महज एक दिखावा साबित हुआ। आधे-अधूरे बिना प्लास्टर वाले मकान, पीने के पानी का अभाव, झूलते हुए बिजली के तार, और रोजगार की कमी ने इन परिवारों की जिंदगी को और भी कठिन बना दिया।
करसड़ा मुसहर बस्ती के लोग आज भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। इस बस्ती में न तो साफ पानी उपलब्ध है, न ही शौचालय। महिलाएं और बच्चे जब खुले में शौच करने जाते हैं, तो उन्हें अपमान और तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। बच्चों की शिक्षा का कोई प्रबंध नहीं है, और रोजगार की तलाश में लोगों को रोज़ाना संघर्ष करना पड़ता है। यहां के लोगों ने अपनी बस्ती को नाम दिया है-गौतमबुदध नगर।
हर वक्त सिर पर मंडराती है मौत
मुसहर परिवारों को करसड़ा से बेदखल करने के बाद, प्रशासन ने उनके पुनर्वास के लिए बंधे के उस पार सहदो-महदो पुल के पास बरसाती नाले के किनारे व्यवस्था की। यह जगह पूरी तरह से असुरक्षित है। बरसात के दिनों में नाले के उफान से बस्ती के डूबने का खतरा बना रहता है, और दूसरी ओर, ठीक ऊपर से गुज़रने वाले 25,000 वोल्ट के हाईटेंशन तारों की वजह से बिजली उतरने और जान-माल की हानि का भय हमेशा मंडराता है। इसके अलावा, हाईटेंशन तारों के रेडिएशन से स्वास्थ्य पर गंभीर खतरा होने की आशंका है।
तेरह मुसहर परिवारों को प्रशासन ने जबरन इस खतरनाक जगह पर भेज दिया। ठंड के दिनों में, बिना किसी स्थायी छत और सुविधाओं के, ये लोग पेड़ों के नीचे रहने पर मजबूर थे। नौ महीने बाद जब हम करसड़ा की पुरानी जगह पहुंचे, तो वहां का नक्शा पूरी तरह बदल चुका था। जहां पहले मुसहरों की बस्ती थी, वहां अब अटल आवासीय विद्यालय की ऊंची-ऊंची इमारतें बन चुकी थीं। रास्ता बैरिकेटिंग से घिरा हुआ था, और जगह-जगह गार्ड तैनात थे। गार्डों ने हमें आगे बढ़ने से रोक दिया। वहां निर्माण सामग्री, गिट्टी, रेत और ईंटों का अंबार लगा था।
थोड़ा आगे चलने पर हम उन तेरह परिवारों की नई बस्ती पहुंचे। सड़क से हटकर पचास मीटर नीचे उतरने पर कच्ची पगडंडी से होकर हम वहां पहुंचे। वहां मौजूद शंकर वनवासी ने बताया, "जब हमें उजाड़ा गया, तो हमने बहुत भागदौड़ की। अंत में प्रशासन ने दबाव डालकर हमें यहां भेज दिया। हम यहां मजबूरी में रह रहे हैं। नाले के पास कीचड़ और मच्छरों से जीना मुश्किल हो गया है, लेकिन हमारे पास कोई और चारा नहीं है।"
यह नई बस्ती चारों ओर से खतरों से घिरी हुई है। एक ओर बरसाती नाला है, जिसमें बारिश के दौरान पानी का स्तर बढ़ने से घरों के डूबने का खतरा रहता है। दूसरी ओर, ऊपर से गुज़रते हाईटेंशन तारों के कारण बिजली का डर हमेशा बना रहता है। गर्मी के दिनों में बिजली के झूलते तारों से अक्सर चिनगारियां निकलती हैं। कई बार लोहे के सामान में करंट आ जाता है, जिससे हादसे होने का डर रहता है। आसपास का इलाका गंदगी और कीचड़ से भरा हुआ है, जिससे बच्चों और बुजुर्गों की सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है।
यह पूरा मामला सरकारी नीतियों और प्रशासनिक लापरवाही की गंभीर मिसाल है। मुसहर परिवारों को उनकी पुश्तैनी ज़मीन से उजाड़कर एक ऐसी जगह पर बसाया गया, जहां वे हर दिन जान के जोखिम के साथ जी रहे हैं। बावजूद इसके, समाज और सरकार ने उनकी स्थिति पर चुप्पी साध रखी है।
पुनर्वास या बदहाली?
32 वर्षीय राजेश, जो बस्ती के इकलौते मैट्रिक पास व्यक्ति हैं और वह मुसहर समुदाय की आवाज़ बन चुके हैं। राजेश कहते हैं, "हमने प्रशासन के कहने पर अटल आवासीय विद्यालय के लिए अपनी जमीन छोड़ दी। अफसरों ने वादा था कि हमें मुफ्त राशन, पहचान पत्र और हमारे बच्चों को अटल आवासीय विद्यालय में प्राथमिकता मिलेगी। लेकिन हमें मिला क्या? गड्ढे में जमीन, जहां स्ट्रिट लाइट तक नहीं है।"
"बनारस की सरकार ने हमें वीराने में फेंक दिया है। यहां हाईटेंशन तारों की झनझनाहट हर वक्त डराती रहती है। बारिश में लोहे की किसी चीज़ से करंट लगने का खतरा रहता है। पुनर्वास के नाम पर प्रशासन ने झूठे वादे किए और हमें जानलेवा हालात में छोड़ दिया। अगर सरकार सच में इस समुदाय के लिए कुछ करना चाहती है, तो उनके लिए किसी ऐसे स्थान पर आवास और जमीन पर पुनर्वास करन चाहिए जहां झनझनाते बिजली के न तार हों, और बिजली-पानी व रास्ते का मुकम्मल प्रबंध। हमारे बच्चो की शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का ख्याल रखना सरकार की जिम्मेदारी है।"
राजेश कहते हैं, " यहां बिजली का तार इतना नीचे से गया है कि कभी-कभी लगता है जैसे इसमें करंट आ रहा हो। तेज हवा या तूफान में यह और नीचे लटक सकता है, जिससे किसी की भी जान जा सकती है। मुसहर बस्ती के लोग बताते हैं,"यहां बिजली का कनेक्शन अस्थायी है। अधिकारियों ने कहा था कि पहले घरों की छत ढलवा लें, उसके बाद स्थायी कनेक्शन दिया जाएगा। फिलहाल हाई वोल्टेज तारों से बिजली दी जा रही है, जिससे खतरा लगातार बना हुआ है।
पानी की स्थिति भी बदतर है। पूरे बस्ती के तेरह परिवारों के करीब सत्तर सदस्य एक ही हैंडपंप पर निर्भर हैं। नहाने-धोने से लेकर पीने तक का पानी इसी हैंडपंप से आता है। बारिश के मौसम में पानी में पीलापन और गंदगी रहती है। पुराने इलाके में लगे एक सबमर्सिबल पंप से कभी-कभी पीने के लिए साफ पानी मिलता है, लेकिन वह भी पर्याप्त नहीं है।
खुले में शौच की मजबूरी
इस बस्ती को खुले में शौच मुक्त (ODF) घोषित करने की बात केवल कागजों पर है। यहां के लोगों ने अधिकारियों से शौचालय बनाने की गुहार लगाई, लेकिन उन्हें यह कहकर टाल दिया गया कि पहले घर की छत ढलवा लो, फिर शौचालय बनेगा। महिलाएं, लड़कियां, बुजुर्ग सभी को सुबह-सुबह अंधेरे में बाहर जाना पड़ता है, जो उनके लिए न केवल असुविधाजनक बल्कि असुरक्षित भी है।
इन परिवारों के पास राशन कार्ड नहीं है, जिससे उन्हें अपनी जरूरत का सारा अनाज खुले बाजार से महंगे दामों पर खरीदना पड़ता है। कार्तिक ने बताया कि राशन कार्ड बनवाने के लिए आवेदन दिया था, लेकिन अधिकारियों ने हमारी नहीं सुनी। रोजगार का भी यहां बड़ा संकट है। कुछ पुरुष दिहाड़ी मजदूरी करते हैं, जबकि महिलाएं खेतों में धान रोपने और कटाई जैसे मौसमी कामों पर निर्भर हैं। इन कामों से मिलने वाली मजदूरी भी बेहद कम और अनिश्चित है।
बस्ती के चारों ओर गंदगी का अंबार है। नाले का रुका हुआ पानी मच्छरों और बीमारियों को खुला निमंत्रण देता है। बच्चों और बुजुर्गों के लिए यह स्थिति बेहद खतरनाक है। यहां के लोग सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं और मुफ्त इलाज से भी वंचित हैं क्योंकि उनके पास आधार और वोटर कार्ड जैसे जरूरी दस्तावेज नहीं हैं। इन तेरह परिवारों के पास उम्मीदों और संघर्षों के सिवा कुछ नहीं बचा। छत के बिना बारिश, ठंड और गर्मी में गुजारा करना इनकी मजबूरी है। सरकारी योजनाओं के नाम पर जो वादे किए गए थे, वे अब तक अधूरे हैं। बस्ती के लोग उम्मीद करते हैं कि उनकी आवाज सुनी जाएगी और वे भी सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन जी सकेंगे।
घरों के किनारे जहां-तहां दुबकी महिलाओं का समूह बाहर से भले ही शांत दिखता हो, लेकिन उनके भीतर का असमंजस और चिंता आसानी से महसूस की जा सकती है। ये महिलाएं निश्चिंत होकर आराम नहीं कर रहीं, बल्कि अपने परिवार और बच्चों के भविष्य को लेकर असमंजस में हैं। इनमें से अधिकांश महिलाएं अनपढ़ हैं, जबकि कुछ लड़कियां केवल चौथी या पांचवीं कक्षा तक पढ़ी हैं।
बस्ती की महिलाएं चाहती हैं कि वे भी किसी काम में हाथ बंटा सकें, लेकिन उनके पास न तो रोजगार के साधन हैं और न ही कोई प्रशिक्षण। उनकी बातचीत से स्पष्ट होता है कि वे किसी हुनर को सीखकर परिवार की आर्थिक स्थिति में योगदान देना चाहती हैं। लेकिन, यहां के हालात और सरकारी उदासीनता ने उन्हें इस स्थिति में ला खड़ा किया है कि वे दिन भर खाली बैठने को मजबूर हैं।
बस्ती के पुरुष किसी तरह मजदूरी, रिक्शा चलाने या अन्य छोटे-मोटे काम करके परिवार चलाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन महिलाओं के पास कोई काम नहीं है। उनकी दिनचर्या पेड़ों की छाया में बैठने, परिवार के लिए खाना बनाने और बच्चों की देखभाल करने तक ही सीमित है। सीता देवी और सोमरा देवी, करसड़ा मुसहर बस्ती की बुजुर्ग महिलाएं हैं। वो बताती हैं कि यहां के लोगों को न मनरेगा में काम मिलता है और न ही सरकारी योजनाओं का कोई लाभ। 61 वर्षीय सीता देवी बताती हैं, "बरसात के दिनों में हमारा पूरा इलाका पानी में डूब जाता है। मकानों में रखा सामान बह जाता है, और हमारा जीवन असुरक्षित हो जाता है।"
वहीं, 62 वर्षीय सोमरा देवी अपने घर में छिपे सांप को लेकर चिंतित रहती हैं। वह कहती हैं, "बरसात में सांप घरों में घुस आते हैं। जब घर में सांप आते हैं तो हमारी रातों की नींद उड़ जाती हैं। आखिर बच्चे कैसे सोएं?" वह पूछती हैं। पुनर्वास के नाम पर जो घर दिए गए, वे भी बिना प्लास्टर के हैं। बस्ती के इकलौते चपाकल से मटमैला पानी निकलता है, जिसे पीने के लिए मजबूर हैं।
35 वर्षीय पार्वती, चार बच्चों की मां, बताती हैं कि लॉकडाउन के बाद से मजदूरी मिलनी बंद हो गई है। वह कहती हैं, "हमारे पास सब्जी, चटनी तक खरीदने के पैसे नहीं हैं। बच्चे भूखे रहते हैं। सरकार ने उजाड़ने के बाद जो वादे किए थे, वे सब झूठ निकले। मरे पति पहले मज़दूरी करते थे, अब बेरोज़गार हैं।
बस्ती में रहने वाले बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति बेहद खराब है। लालमनी, जो बच्चों को सिलाई सिखाती हैं, बताती हैं, "मुसहर समुदाय के लोगों को ऐसे स्थान पर बसाया गया है, जहां उच्चशक्ति वाले बिजली के तारों की झनझनाहट हर समय सुनाई देती है। "यहां के बच्चे न तो पढ़ाई कर सकते हैं और न ही उनका भविष्य सुरक्षित है।"
कार्तिक और बलदेव बताते हैं, "कुछ ही लोगों को राशन कार्ड मिला है। मुफ्त का राशन कुछ ही लोगों को मिल पा रहा है। वोटर कार्ड बनवाने की कोशिशें भी विफल हो चुकी हैं। ग्राम प्रधान और पंचायत के कर्मचारी उनकी कोई सुनवाई नहीं करते। हमारा नाम ग्राम पंचायत के अभिलेखों में भी नहीं है।"
मुसहर बस्ती के लोग गरीबी, भूख, बेरोज़गारी और प्रशासनिक उपेक्षा के कारण अपनी जिंदगी को अभिशाप मानने लगे हैं। लालमनी कहती हैं, "हमें बसाने के नाम पर यहां लाकर छोड़ दिया गया, लेकिन हमारे साथ इंसानों जैसा बर्ताव नहीं हुआ। बस्ती के लोग आज भी न्याय और अधिकारों के इंतजार में हैं। "
मुसहरों की जमीन पर विद्यालय
करसड़ा की जिस जमीन पर अटल आवासीय विद्यालय बना है, वह मुसहर समुदाय के मट्ठल मुसहर के परिवार के नाम थी। राजस्व रिकॉर्ड के अनुसार, अराजी नंबर-821 और रकबा 1.0100 हेक्टेयर की यह जमीन अशोक, पिंटू और चमेली देवी के नाम पर दर्ज थी। यह जमीन लंबे समय से मुसहर समुदाय का घर थी। यहां मौजूद पुराने कुएं इस बात के गवाह हैं कि मुसहर परिवार इस जमीन पर दशकों से रह रहे थे। चमेली देवी ने जमीन कब्जाने के खिलाफ वाराणसी जिला प्रशासन पर हाईकोर्ट में याचिका दायर कर रखी है। मामला विचाराधीन था, लेकिन इससे पहले ही प्रशासन ने उनकी जमीन पर कब्जा कर लिया और उन्हें मुआवजा भी नहीं दिया।
लालमनी, जो इस बस्ती में रहती थीं। वह बताती हैं कि वह और उनका कुनबा पिछले डेढ़ दशक से इस जमीन पर रह रहा था। उनकी झोपड़ियां बारिश के दिनों में नाले के पानी से डूब जाती थीं, और तब उन्हें पेड़ के नीचे शरण लेनी पड़ती थी। वह कहती हैं, "हमारे पास कोई स्थायी घर नहीं था, मगर यहां रहते हुए हमें उम्मीद थी कि सरकार हमारी सुध लेगी। हमारी बेटी अमृती देवी ने दुख देखकर हमें अपनी जमीन पर बसाया था।"
17 सितंबर 2021 को मुसहर बस्ती के बच्चों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 71वां जन्मदिन बड़े उत्साह से मनाया। इस अवसर पर रोहनिया के तत्कालीन विधायक सुरेंद्र नारायण सिंह ने बच्चों को मिठाई और फल बांटे थे। लालमनी कहती हैं, "उस दिन हमारी आंखों में सपने थे कि शायद अब हमारा कुनबा भी समाज की मुख्यधारा में शामिल हो जाएगा। लेकिन कुछ ही समय बाद, प्रशासन ने बुलडोज़र चलाकर हमारे सारे सपने चकनाचूर कर दिए।"
बस्ती उजाड़ने का दर्द
करसड़ा की मुसहर बस्ती की यह कहानी केवल जमीन पर कब्जे की नहीं, बल्कि उनके अधिकारों, सपनों और उम्मीदों के खत्म होने की है। मुसहर बस्ती के बुद्धूराम और सदानंद अपनी पीड़ा साझा करते हुए बताते हैं कि जिस दिन उनकी बस्ती उजाड़ी गई, सबसे पहले बच्चों की पाठशाला पर बुलडोज़र चला। इसके बाद उनकी झोपड़ियां ढहा दी गईं और उनका सामान बाहर फेंक दिया गया।
बुद्धूराम कहते हैं, "सर्दी के दिनों में 62 लोग खुले आसमान के नीचे आ गए। हम सब न्याय मांगने के लिए पैदल चलते हुए रात 11 बजे तत्कालीन कलेक्टर के कैंप कार्यालय पहुंचे, लेकिन हमें रास्ते में जबरन रोक लिया गया। एसडीएम उदयभान सिंह और उनके अधिकारियों ने हमारे साथ जोर-जबरदस्ती की और हमें टैम्पो में भरकर लौटा दिया। हम रोते-बिलखते आधी रात में वापस बस्ती पहुंचे। चौबीस घंटे तक हमारे बच्चों को भोजन तक नसीब नहीं हुआ।"
मुसहर समुदाय के 13 परिवारों को, जो अटल आवासीय विद्यालय के लिए अपनी ज़मीन छोड़ने को तैयार हुए थे, प्रशासन द्वारा एक-एक बिस्वा जमीन आवंटित की गई। इनमें राजेश, राहुल, इंदू देवी, बुद्धू, भुलादेव, कार्तिक, विजय, सदानंद, शंकर, राम प्रसाद, मुनीब, नन्हकू और सोमारा देवी शामिल हैं।
राजेश कहते हैं, "सरकार ने वादा किया था कि अगर हम अटल आवासीय विद्यालय के लिए अपनी जमीन छोड़कर चले जाएंगे तो हमें मुफ्त में राशन मिलेगा और पहचान पत्र भी। उनके बच्चों को प्राथमिकता के आधार पर विद्यालय में दाखिला दिया जाएगा, लेकिन हमें मिला क्या? बीस फीट गहरे गड्ढे वाली जमीन। हमारी बस्ती में कोई स्ट्रिट लाइट नहीं है, सिर्फ धोखे की लाइट जलती है।"
करसड़ा के मुसहर परिवार जिस जमीन पर बसे थे, उसे लेकर विवाद है। सरकारी रिकॉर्ड में यह जमीन पहले चमेली देवी नाम की महिला के नाम पर दर्ज थी। चमेली देवी अब चंदौली में रहती हैं, और यह परिवार उनके दूर के रिश्तेदार बताए जाते हैं। बाद में प्रशासन ने इसे हथकरघा विभाग की जमीन बताते हुए खाली करवाने का आदेश दिया। ज़मीन के खसरा संख्या 821 और खाता संख्या 00028 में अशोक और पिंटू नामक खातेदार दर्ज थे। बावजूद इसके, 27 नवंबर 2021 को एसडीएम राजातालाब ने इनका नाम हटाकर इसे बंजर घोषित कर दिया।
बुलडोजर की गड़गड़ाहट और भारी पुलिस बल की मौजूदगी में मुसहर परिवार अपने घरों को टूटते हुए देखने को मजबूर थे। बर्तन, कपड़े, यहां तक कि शादी के लिए रखा चावल और सिलाई मशीन भी मलबे में बदल गए। पाले गए सूअर इधर-उधर भाग गए। कड़ाके की ठंड में इन परिवारों को रातें खुले आसमान के नीचे गुजारनी पड़ीं। बस्ती में रोशनी नहीं थी, और बच्चों की पढ़ाई का कोई ठिकाना नहीं था।
दलित फाउंडेशन से जुड़े राजकुमार गुप्ता बताते हैं, "मुसहर समुदाय के लोगों को सरकार ने 1976 में मट्ठल/मिठाई के नाम पर जमीन पट्टा किया था। लेकिन चक बंदोबस्त के बाद इनका नाम राजस्व अभिलेखों से गायब कर दिया गया। 1991 में अशोक, पिंटू और चमेली देवी का नाम फिर से खतौनी में डाला गया, लेकिन जमीन की स्थिति अब भी जस की तस है।"
वह आगे कहते हैं, "करसड़ा इलाके में सैकड़ों बीघा सरकारी जमीन भूमाफियाओं के कब्जे में है। यह जमीनें राजस्व विभाग के अफसरों और लेखपालों की मिलीभगत से हथियाई गई हैं। बनारस के अफसर गरीबों को कीड़ा-मकोड़ा समझते हैं और मुसहरों को सांप-बिच्छुओं की कॉलोनी में हाईटेंशन तारों के नीचे बसा दिया गया है। यह असंवेदनशीलता प्रशासन के सबसे निचले स्तर तक फैली हुई है।"
गुप्ता कहते हैं, "सरकारी जमीनों पर कब्जे का खेल अब खुलकर सामने आ चुका है, लेकिन अफसरों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यह जमीनें जबर्दस्ती कब्जाई गई हैं, और अफसरों की तरफ से कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी जा रही है। इस सबका शिकार केवल गरीब मुसहर समुदाय ही हो रहा है। योगी सरकार एक तरफ वनवासियों को रामभक्त कहती है, दूसरी ओर उनकी बस्तियों पर बुलडोज़र चलवाने में तनिक भी देर नहीं करती। पिछले सात-आठ दशकों में वक़्त का पहिया तो आगे बढ़ चुका है, लेकिन मुसहर बस्ती की लालमनी, रीता और इंदू की ज़िंदगी वहीं की वहीं खड़ी है।"
करसड़ा मुसहर बस्ती में कई ऐसे लोग हैं जो जिन्हें सरकारी राशन नहीं मिलता, जो राशन सरकार सालों से पीट रही है। योगी सरकार का वनवासी प्रेम और गरीबों को बसाने की नीतियां वादों और प्रचार तक ही सीमित हैं। करसड़ा की मुसहर बस्ती के लोग आज भी अपने हक और जीवनयापन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनकी समस्याएं न केवल सरकार की अनदेखी का परिणाम हैं, बल्कि यह भी दर्शाती हैं कि समाज का यह तबका आज भी मुख्यधारा से कितना दूर है।"
सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब उस ज़मीन पर मुसहर परिवार का पट्टा था तो उन्हें विस्थापित करने के लिए बिना किसी पूर्व सूचना के उनके घरों पर बुलडोजर कैसे चलवा दिया गया? जिस दिन उनका घर उजाड़ा गया, उस दिन तक ज़मीन उस समुदाय के व्यक्ति के नाम थी। बिना उचित प्रक्रिया और पुनर्वास की व्यवस्था किए, पहले उजाड़ने और बाद में उनके खिलाफ फैसला देकर उनका नाम निरस्त करने का आधार क्या था? इन सवालों का आज तक कोई जवाब नहीं मिला है।
कैसा है अटल आवासीय विद्यालय
बनारस के करसड़ा में 66.54 करोड़ रुपये की लागत से स्थापित अटल आवासीय विद्यालय का उद्देश्य श्रमिकों और गरीब तबके के बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करना है। लेकिन इसके साथ ही यह विद्यालय स्थानीय समुदाय, विशेषकर करसड़ा की मुसहर बस्ती के बच्चों की शिक्षा और अधिकारों को लेकर सवालों के घेरे में है। यह विद्यालय 12.25 एकड़ में फैला हुआ है और आधुनिक तकनीकों और सुविधाओं से सुसज्जित है। श्रमिक परिवारों के बच्चों को कक्षा 6 से 12 तक मुफ्त शिक्षा और आवासीय सुविधा दी जाती है।
भूमि अधिग्रहण करते समय वादा किया गया था कि मुसहर बस्ती के बच्चों को विद्यालय में अनिवार्य रूप से दाखिला होगा, लेकिन वादे कोरे निकले। करसड़ा मुसहर बस्ती के किसी भी बच्चे को इसमें जगह नहीं मिली है। यह चयन प्रक्रिया उन परिवारों के लिए अत्यंत जटिल साबित हुई जिनके पास श्रम कार्ड नहीं है या जो अन्य कारणों से इन मापदंडों पर खरे नहीं उतरते।
करसड़ा मुसहर बस्ती के बच्चे आज भी बुनियादी शिक्षा से वंचित हैं। बस्ती के सूरज, नीरज, शनि, जागरण, विकास, ज्योति, अंजली, राजा, शिवानी, कामिनी, और रानी जैसे बच्चे पढ़ने के लिए तीन किलोमीटर दूर जाते हैं। अधिकांश निवासियों के पास वोटर आईडी कार्ड नहीं है। इनका नाम वोटर लिस्ट में दर्ज नहीं है। बच्चों को स्कूल भेजने की सुविधा और साधन की कमी है।
ड्राइवरी करने वाले कार्तिक वनवासी, जो बस्ती के निवासी हैं। वह कहते हैं, "हमारे बच्चों को यह विद्यालय केवल दूर से देखने की इजाजत देता है। उनकी पढ़ाई के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई। हमारे पास न वोटर आईडी है, न श्रम कार्ड। क्या हम इस देश के नागरिक नहीं हैं?"
सूरज और नीरज जैसे बच्चे चाहते हैं कि वे भी अटल आवासीय विद्यालय जैसे स्कूलों में पढ़ाई करें, लेकिन दाखिले की शर्तें उनके लिए बाधा बन गई हैं। अंजली और ज्योति जैसे लड़कियां स्कूल के रास्ते में आने वाली कठिनाइयों और सामाजिक दबावों का सामना कर रही हैं। बस्ती के निवासी चाहते हैं कि उनके बच्चों को नजदीकी स्कूलों में पढ़ाई की सुविधा दी जाए। उनके लिए पहचान पत्र (वोटर आईडी, श्रम कार्ड) बनवाने की प्रक्रिया को तेज और सुलभ किया जाए।
महिलाओं ने बातचीत में बताया कि वे भी अपने परिवार की मदद करना चाहती हैं। वे सिलाई, बुनाई, या किसी अन्य काम के लिए प्रशिक्षण पाने को तैयार हैं। लेकिन न तो उनके पास ऐसे किसी काम का मौका है और न ही प्रशासन ने उनकी इस इच्छा को लेकर कोई पहल की है।
उम्मीदों से दूर, संघर्ष की सच्चाई
करसड़ा की मुसहर बस्ती बनारस के उस हिस्से की कहानी है, जो आज भी प्रशासनिक उपेक्षा और सामाजिक भेदभाव का शिकार है। यहां के लोगों की जिंदगी संघर्ष, अभाव और निराशा के बीच झूल रही है। नन्हकू, कार्तिक, और गनेश जैसे कई परिवार इस बस्ती में रहते हैं, जिनके नाम सिस्टम और ज्यादातर सरकारी योजनाओं से गायब हैं।
बस्ती के ज्यादातर लोगों के पास मनरेगा के जॉब कार्ड हैं, लेकिन उन पर अब तक कोई काम नहीं मिला। रोजगार का कोई साधन न होने के कारण ये लोग दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर हैं, जो अब पूरी तरह से बंद हो चुकी है। नतीजा यह है कि परिवारों के चूल्हे तक ठंडे पड़े हैं। बस्ती के पुरुष और महिलाएं मज़दूरी करके अपना जीवनयापन करते थे, लेकिन अब लॉकडाउन के बाद से काम मिलना बंद हो गया है। 35 वर्षीय पार्वती कहती हैं, "हम रोज़ कमाने-खाने वाले लोग हैं। अब मज़दूरी नहीं मिल रही है, तो हमारे पास खाने के लिए भी कुछ नहीं है।"
इस बस्ती में पानी की जरूरत पूरा करने के लिए केवल एक हैंडपंप है, जो सैकड़ों लोगों की प्यास बुझाने में नाकाफी है। शौचालय जैसी बुनियादी सुविधा आज भी इस बस्ती के लिए एक सपना है। बस्ती तक पहुंचने के लिए कोई पक्का रास्ता नहीं है; खड़ंजा तक नहीं लगाया गया है, जिससे यहां के लोग कीचड़ और धूल में चलने को मजबूर हैं।
सोमरा देवी जैसी बुजुर्ग महिलाएं, जो पेंशन के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटती हैं, आज भी निराश लौटती हैं। बस्ती के अधिकांश वृद्धों को पेंशन नहीं मिल रही है। ये लोग न सिर्फ आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं, बल्कि सामाजिक सुरक्षा के अभाव में अपमानजनक जीवन जीने को मजबूर हैं। इनके हिस्से में विकास की ज्यादतर योजननाएं नहीं पहुंची हैं। किसी को न विधवा-विकलांग पेशन मिल पा रहा है और न ही मनरेगा में काम। पुनर्वास के समय ये सभी सरकारी सुविधाओं से आच्छादित करने का वादा किया गया था।
बस्ती की पांच लड़कियां शादी की उम्र पार कर चुकी हैं, लेकिन उनके परिवारों के पास शादी के लिए जरूरी पैसा नहीं है। सामूहिक विवाह योजना जैसी सरकारी पहल भी यहां तक नहीं पहुंच पाई है। न तो कोई इन योजनाओं के बारे में जानकारी देने आता है और न ही आवेदन प्रक्रिया के लिए मदद मिलती है। परिवार वाले लड़कियों की शादी को लेकर चिंतित हैं, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति उनके रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा बन गई है।
इस बस्ती में न तो कोई स्थायी रोजगार का साधन है और न ही बच्चों की शिक्षा का कोई प्रबंध। बच्चे भूखे पेट बैठते हैं, और उनके हाथों में किताबों की जगह बेरोजगारी का बोझ आ जाता है। सरकारी योजनाओं और तथाकथित विकास के बड़े-बड़े दावों के बावजूद, यह बस्ती आज भी अंधेरे में जी रही है। करसड़ा के ग्राम प्रधान प्रधान महेंद्र कुमार पटेल कहते हैं, "हमारी सीमाएं सीमित हैं। मुसहर बस्ती के लिए हम बहुत कुछ करना चाहते हैं, लेकिन सरकार की ओर से संसाधन और पैसा मिलेगा, तभी कुछ कर पाएंगे। हमने कई परिवारों का राशन कार्ड बनवा दिया है। कोशिश कर रहे हैं कि सभी के लिए शौचालय, खड़ंजा और पेयजल का पुख्ता इंतजाम हो जाए।"
एक्टिविस्ट सौरभ सिंह कहते हैं, "करसड़ा के 13 परिवारों को जो जमीन दी गई है, वह नाले के किनारे ढलान पर है। अगर नाले में थोड़ा भी पानी भरता है, तो उनके घर डूब सकते हैं। गंगा का जलस्तर बढ़ने या तेज बारिश होने पर यह खतरा और गंभीर हो जाता है। दीवारें अभी सूखी नहीं हैं, और पानी का एक झटका उन्हें गिरा सकता है। इन परिवारों की स्थिति को देखकर साफ होता है कि सरकारी योजनाओं के वादों और जमीन पर सच्चाई के बीच बड़ा फासला है। छत के बिना ये परिवार असुरक्षा और बाढ़ के खतरे के बीच दिन गुजार रहे हैं।"
"बस्ती के लोग बताते हैं कि बरसात के दिनों में यहां की स्थिति और भी भयावह हो जाती है। बस्ती के चारों ओर पानी भर जाता है, और लोग अपने घरों को छोड़कर पास के एक बांध पर झोपड़ी लगाकर रहते हैं। वहां न तो कोई सुरक्षा है और न ही कोई सहूलियत। इन हालात में जीवन जीना किसी त्रासदी से कम नहीं है। मुसहर समुदाय के लोगों को जमीनें ऐसे इलाके में दी गई हैं, जहां नाला बहता है। बारिश या गंगा का जलस्तर बढ़ने पर यह बस्ती जलमग्न हो सकती है।
दरअसल, करसड़ा की मुसहर बस्ती की हालत किसी आपदा क्षेत्र से कम नहीं है। यहां के लोग प्रशासन और सरकार से बार-बार मदद की गुहार लगाते हैं, लेकिन उनकी आवाज अनसुनी रह जाती है। रोजगार, शिक्षा, पानी, बिजली, राशन, और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतें तक पूरी नहीं हो पा रही हैं। यह बस्ती केवल करसड़ा की नहीं, बल्कि उन सभी गरीब और उपेक्षित समुदायों का प्रतीक है, जो विकास और उन्नति के नाम पर पीछे छूट गए हैं।
करसड़ा की मुसहर बस्ती की यह कहानी सिर्फ एक बस्ती की नहीं है, बल्कि उन सभी हाशिए पर पड़े समुदायों की दास्तान है, जो प्रशासनिक उपेक्षा और सामाजिक भेदभाव के बीच अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। अटल आवासीय विद्यालय के लिए जमीनें खाली कराई गई, लेकिन इन 13 परिवारों के 76 लोगों को बदले में क्या मिला? सिर्फ असुरक्षित जीवन, टूटे वादे और हर दिन का संघर्ष। गरीबी, बेरोजगारी और सरकारी अनदेखी से जूझते इन परिवारों की कहानी सत्ता और समाज की असंवेदनशीलता का जीवंत प्रमाण है।
एक्टिविस्ट मीरा सिंह कहती हैं, "बीजेपी सरकार ने पुनर्वासित किए गए मुसहर समुदाय को पूरी तरह से भुला दिया है। सरकार की कोई भी योजना इस बस्ती तक नहीं पहुंची है। इस बस्ती के लोग इस बात से भी खफा हैं कि पहले जो समाजसेवी और एनजीओ उनके हालात को सुधारने के वादे करते थे, अब वे भी कहीं नजर नहीं आते। पहले एनजीओ वाले अपनी ब्रांडिंग के लिए आते थे, लेकिन अब मान लिया है कि सरकार ने सब कुछ ठीक कर दिया है।"
(विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं। करसड़ा की मुसहर बस्ती से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट)
बनारस के करसड़ा स्थित मुसहर बस्ती का नाम लेते ही आंखों के सामने एक ऐसी तस्वीर उभरती है, जिसमें इंसानी जीवन की दुश्वारियां, भूख और बेबसी के हर पहलू शामिल हैं। इस बस्ती में रहने वाले लोगों की जिंदगी में सिर्फ लाचारी और उदासी है। हाईटेंशन बिजली के तारों की झनझनाहट, नीचे बहता हुआ नाला, टूटी-फूटी सड़कें और बेतरतीब खड़े कच्चे मकान यहां की सच्चाई को बयान करते हैं। यह मुसहर बस्ती बनारस जिला मुख्यालय (कचहरी) से करीब 19.5 किलोमीटर दूर है। करसड़ा वो इलाका है जहां के लोगों की संसद में नुमाइंदगी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करते हैं।
करसड़ा मुसहर बस्ती के लोग एक नाले के किनारे, अपनी ज़िंदगी बसर करने को मजबूर हैं। यहां के पुरुष, महिलाएं, और बच्चे दिन-रात संघर्ष कर रहे हैं। बस्ती में न तो पीने के साफ पानी की व्यवस्था है, न शौचालय की सुविधा, और न ही जीवनयापन के लिए रोजगार के अवसर। यहां लोग पहले उसी जगह बसे थे, जहां आज बनारस के अटल आवासीय विद्यालय की भव्य इमारतें खड़ी हैं। 29 अक्टूबर 2021 को प्रशासन ने रातों-रात मुसहर बस्ती को उखाड़ फेंका। बुलडोजर से मकानों को जमींदोज़ कर दिया गया, और 76 परिवारों को खुले आसमान के नीचे छोड़ दिया गया।
मीडिया में मामला उछलने के बाद प्रशासन ने इन परिवारों को एक नाले के किनारे पुनर्वासित करने की व्यवस्था की। लेकिन यह पुनर्वास महज एक दिखावा साबित हुआ। आधे-अधूरे बिना प्लास्टर वाले मकान, पीने के पानी का अभाव, झूलते हुए बिजली के तार, और रोजगार की कमी ने इन परिवारों की जिंदगी को और भी कठिन बना दिया।
करसड़ा मुसहर बस्ती के लोग आज भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। इस बस्ती में न तो साफ पानी उपलब्ध है, न ही शौचालय। महिलाएं और बच्चे जब खुले में शौच करने जाते हैं, तो उन्हें अपमान और तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। बच्चों की शिक्षा का कोई प्रबंध नहीं है, और रोजगार की तलाश में लोगों को रोज़ाना संघर्ष करना पड़ता है। यहां के लोगों ने अपनी बस्ती को नाम दिया है-गौतमबुदध नगर।
हर वक्त सिर पर मंडराती है मौत
मुसहर परिवारों को करसड़ा से बेदखल करने के बाद, प्रशासन ने उनके पुनर्वास के लिए बंधे के उस पार सहदो-महदो पुल के पास बरसाती नाले के किनारे व्यवस्था की। यह जगह पूरी तरह से असुरक्षित है। बरसात के दिनों में नाले के उफान से बस्ती के डूबने का खतरा बना रहता है, और दूसरी ओर, ठीक ऊपर से गुज़रने वाले 25,000 वोल्ट के हाईटेंशन तारों की वजह से बिजली उतरने और जान-माल की हानि का भय हमेशा मंडराता है। इसके अलावा, हाईटेंशन तारों के रेडिएशन से स्वास्थ्य पर गंभीर खतरा होने की आशंका है।
तेरह मुसहर परिवारों को प्रशासन ने जबरन इस खतरनाक जगह पर भेज दिया। ठंड के दिनों में, बिना किसी स्थायी छत और सुविधाओं के, ये लोग पेड़ों के नीचे रहने पर मजबूर थे। नौ महीने बाद जब हम करसड़ा की पुरानी जगह पहुंचे, तो वहां का नक्शा पूरी तरह बदल चुका था। जहां पहले मुसहरों की बस्ती थी, वहां अब अटल आवासीय विद्यालय की ऊंची-ऊंची इमारतें बन चुकी थीं। रास्ता बैरिकेटिंग से घिरा हुआ था, और जगह-जगह गार्ड तैनात थे। गार्डों ने हमें आगे बढ़ने से रोक दिया। वहां निर्माण सामग्री, गिट्टी, रेत और ईंटों का अंबार लगा था।
थोड़ा आगे चलने पर हम उन तेरह परिवारों की नई बस्ती पहुंचे। सड़क से हटकर पचास मीटर नीचे उतरने पर कच्ची पगडंडी से होकर हम वहां पहुंचे। वहां मौजूद शंकर वनवासी ने बताया, "जब हमें उजाड़ा गया, तो हमने बहुत भागदौड़ की। अंत में प्रशासन ने दबाव डालकर हमें यहां भेज दिया। हम यहां मजबूरी में रह रहे हैं। नाले के पास कीचड़ और मच्छरों से जीना मुश्किल हो गया है, लेकिन हमारे पास कोई और चारा नहीं है।"
यह नई बस्ती चारों ओर से खतरों से घिरी हुई है। एक ओर बरसाती नाला है, जिसमें बारिश के दौरान पानी का स्तर बढ़ने से घरों के डूबने का खतरा रहता है। दूसरी ओर, ऊपर से गुज़रते हाईटेंशन तारों के कारण बिजली का डर हमेशा बना रहता है। गर्मी के दिनों में बिजली के झूलते तारों से अक्सर चिनगारियां निकलती हैं। कई बार लोहे के सामान में करंट आ जाता है, जिससे हादसे होने का डर रहता है। आसपास का इलाका गंदगी और कीचड़ से भरा हुआ है, जिससे बच्चों और बुजुर्गों की सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है।
यह पूरा मामला सरकारी नीतियों और प्रशासनिक लापरवाही की गंभीर मिसाल है। मुसहर परिवारों को उनकी पुश्तैनी ज़मीन से उजाड़कर एक ऐसी जगह पर बसाया गया, जहां वे हर दिन जान के जोखिम के साथ जी रहे हैं। बावजूद इसके, समाज और सरकार ने उनकी स्थिति पर चुप्पी साध रखी है।
पुनर्वास या बदहाली?
32 वर्षीय राजेश, जो बस्ती के इकलौते मैट्रिक पास व्यक्ति हैं और वह मुसहर समुदाय की आवाज़ बन चुके हैं। राजेश कहते हैं, "हमने प्रशासन के कहने पर अटल आवासीय विद्यालय के लिए अपनी जमीन छोड़ दी। अफसरों ने वादा था कि हमें मुफ्त राशन, पहचान पत्र और हमारे बच्चों को अटल आवासीय विद्यालय में प्राथमिकता मिलेगी। लेकिन हमें मिला क्या? गड्ढे में जमीन, जहां स्ट्रिट लाइट तक नहीं है।"
"बनारस की सरकार ने हमें वीराने में फेंक दिया है। यहां हाईटेंशन तारों की झनझनाहट हर वक्त डराती रहती है। बारिश में लोहे की किसी चीज़ से करंट लगने का खतरा रहता है। पुनर्वास के नाम पर प्रशासन ने झूठे वादे किए और हमें जानलेवा हालात में छोड़ दिया। अगर सरकार सच में इस समुदाय के लिए कुछ करना चाहती है, तो उनके लिए किसी ऐसे स्थान पर आवास और जमीन पर पुनर्वास करन चाहिए जहां झनझनाते बिजली के न तार हों, और बिजली-पानी व रास्ते का मुकम्मल प्रबंध। हमारे बच्चो की शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का ख्याल रखना सरकार की जिम्मेदारी है।"
राजेश कहते हैं, " यहां बिजली का तार इतना नीचे से गया है कि कभी-कभी लगता है जैसे इसमें करंट आ रहा हो। तेज हवा या तूफान में यह और नीचे लटक सकता है, जिससे किसी की भी जान जा सकती है। मुसहर बस्ती के लोग बताते हैं,"यहां बिजली का कनेक्शन अस्थायी है। अधिकारियों ने कहा था कि पहले घरों की छत ढलवा लें, उसके बाद स्थायी कनेक्शन दिया जाएगा। फिलहाल हाई वोल्टेज तारों से बिजली दी जा रही है, जिससे खतरा लगातार बना हुआ है।
पानी की स्थिति भी बदतर है। पूरे बस्ती के तेरह परिवारों के करीब सत्तर सदस्य एक ही हैंडपंप पर निर्भर हैं। नहाने-धोने से लेकर पीने तक का पानी इसी हैंडपंप से आता है। बारिश के मौसम में पानी में पीलापन और गंदगी रहती है। पुराने इलाके में लगे एक सबमर्सिबल पंप से कभी-कभी पीने के लिए साफ पानी मिलता है, लेकिन वह भी पर्याप्त नहीं है।
खुले में शौच की मजबूरी
इस बस्ती को खुले में शौच मुक्त (ODF) घोषित करने की बात केवल कागजों पर है। यहां के लोगों ने अधिकारियों से शौचालय बनाने की गुहार लगाई, लेकिन उन्हें यह कहकर टाल दिया गया कि पहले घर की छत ढलवा लो, फिर शौचालय बनेगा। महिलाएं, लड़कियां, बुजुर्ग सभी को सुबह-सुबह अंधेरे में बाहर जाना पड़ता है, जो उनके लिए न केवल असुविधाजनक बल्कि असुरक्षित भी है।
इन परिवारों के पास राशन कार्ड नहीं है, जिससे उन्हें अपनी जरूरत का सारा अनाज खुले बाजार से महंगे दामों पर खरीदना पड़ता है। कार्तिक ने बताया कि राशन कार्ड बनवाने के लिए आवेदन दिया था, लेकिन अधिकारियों ने हमारी नहीं सुनी। रोजगार का भी यहां बड़ा संकट है। कुछ पुरुष दिहाड़ी मजदूरी करते हैं, जबकि महिलाएं खेतों में धान रोपने और कटाई जैसे मौसमी कामों पर निर्भर हैं। इन कामों से मिलने वाली मजदूरी भी बेहद कम और अनिश्चित है।
बस्ती के चारों ओर गंदगी का अंबार है। नाले का रुका हुआ पानी मच्छरों और बीमारियों को खुला निमंत्रण देता है। बच्चों और बुजुर्गों के लिए यह स्थिति बेहद खतरनाक है। यहां के लोग सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं और मुफ्त इलाज से भी वंचित हैं क्योंकि उनके पास आधार और वोटर कार्ड जैसे जरूरी दस्तावेज नहीं हैं। इन तेरह परिवारों के पास उम्मीदों और संघर्षों के सिवा कुछ नहीं बचा। छत के बिना बारिश, ठंड और गर्मी में गुजारा करना इनकी मजबूरी है। सरकारी योजनाओं के नाम पर जो वादे किए गए थे, वे अब तक अधूरे हैं। बस्ती के लोग उम्मीद करते हैं कि उनकी आवाज सुनी जाएगी और वे भी सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन जी सकेंगे।
घरों के किनारे जहां-तहां दुबकी महिलाओं का समूह बाहर से भले ही शांत दिखता हो, लेकिन उनके भीतर का असमंजस और चिंता आसानी से महसूस की जा सकती है। ये महिलाएं निश्चिंत होकर आराम नहीं कर रहीं, बल्कि अपने परिवार और बच्चों के भविष्य को लेकर असमंजस में हैं। इनमें से अधिकांश महिलाएं अनपढ़ हैं, जबकि कुछ लड़कियां केवल चौथी या पांचवीं कक्षा तक पढ़ी हैं।
बस्ती की महिलाएं चाहती हैं कि वे भी किसी काम में हाथ बंटा सकें, लेकिन उनके पास न तो रोजगार के साधन हैं और न ही कोई प्रशिक्षण। उनकी बातचीत से स्पष्ट होता है कि वे किसी हुनर को सीखकर परिवार की आर्थिक स्थिति में योगदान देना चाहती हैं। लेकिन, यहां के हालात और सरकारी उदासीनता ने उन्हें इस स्थिति में ला खड़ा किया है कि वे दिन भर खाली बैठने को मजबूर हैं।
बस्ती के पुरुष किसी तरह मजदूरी, रिक्शा चलाने या अन्य छोटे-मोटे काम करके परिवार चलाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन महिलाओं के पास कोई काम नहीं है। उनकी दिनचर्या पेड़ों की छाया में बैठने, परिवार के लिए खाना बनाने और बच्चों की देखभाल करने तक ही सीमित है। सीता देवी और सोमरा देवी, करसड़ा मुसहर बस्ती की बुजुर्ग महिलाएं हैं। वो बताती हैं कि यहां के लोगों को न मनरेगा में काम मिलता है और न ही सरकारी योजनाओं का कोई लाभ। 61 वर्षीय सीता देवी बताती हैं, "बरसात के दिनों में हमारा पूरा इलाका पानी में डूब जाता है। मकानों में रखा सामान बह जाता है, और हमारा जीवन असुरक्षित हो जाता है।"
वहीं, 62 वर्षीय सोमरा देवी अपने घर में छिपे सांप को लेकर चिंतित रहती हैं। वह कहती हैं, "बरसात में सांप घरों में घुस आते हैं। जब घर में सांप आते हैं तो हमारी रातों की नींद उड़ जाती हैं। आखिर बच्चे कैसे सोएं?" वह पूछती हैं। पुनर्वास के नाम पर जो घर दिए गए, वे भी बिना प्लास्टर के हैं। बस्ती के इकलौते चपाकल से मटमैला पानी निकलता है, जिसे पीने के लिए मजबूर हैं।
35 वर्षीय पार्वती, चार बच्चों की मां, बताती हैं कि लॉकडाउन के बाद से मजदूरी मिलनी बंद हो गई है। वह कहती हैं, "हमारे पास सब्जी, चटनी तक खरीदने के पैसे नहीं हैं। बच्चे भूखे रहते हैं। सरकार ने उजाड़ने के बाद जो वादे किए थे, वे सब झूठ निकले। मरे पति पहले मज़दूरी करते थे, अब बेरोज़गार हैं।
बस्ती में रहने वाले बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति बेहद खराब है। लालमनी, जो बच्चों को सिलाई सिखाती हैं, बताती हैं, "मुसहर समुदाय के लोगों को ऐसे स्थान पर बसाया गया है, जहां उच्चशक्ति वाले बिजली के तारों की झनझनाहट हर समय सुनाई देती है। "यहां के बच्चे न तो पढ़ाई कर सकते हैं और न ही उनका भविष्य सुरक्षित है।"
कार्तिक और बलदेव बताते हैं, "कुछ ही लोगों को राशन कार्ड मिला है। मुफ्त का राशन कुछ ही लोगों को मिल पा रहा है। वोटर कार्ड बनवाने की कोशिशें भी विफल हो चुकी हैं। ग्राम प्रधान और पंचायत के कर्मचारी उनकी कोई सुनवाई नहीं करते। हमारा नाम ग्राम पंचायत के अभिलेखों में भी नहीं है।"
मुसहर बस्ती के लोग गरीबी, भूख, बेरोज़गारी और प्रशासनिक उपेक्षा के कारण अपनी जिंदगी को अभिशाप मानने लगे हैं। लालमनी कहती हैं, "हमें बसाने के नाम पर यहां लाकर छोड़ दिया गया, लेकिन हमारे साथ इंसानों जैसा बर्ताव नहीं हुआ। बस्ती के लोग आज भी न्याय और अधिकारों के इंतजार में हैं। "
मुसहरों की जमीन पर विद्यालय
करसड़ा की जिस जमीन पर अटल आवासीय विद्यालय बना है, वह मुसहर समुदाय के मट्ठल मुसहर के परिवार के नाम थी। राजस्व रिकॉर्ड के अनुसार, अराजी नंबर-821 और रकबा 1.0100 हेक्टेयर की यह जमीन अशोक, पिंटू और चमेली देवी के नाम पर दर्ज थी। यह जमीन लंबे समय से मुसहर समुदाय का घर थी। यहां मौजूद पुराने कुएं इस बात के गवाह हैं कि मुसहर परिवार इस जमीन पर दशकों से रह रहे थे। चमेली देवी ने जमीन कब्जाने के खिलाफ वाराणसी जिला प्रशासन पर हाईकोर्ट में याचिका दायर कर रखी है। मामला विचाराधीन था, लेकिन इससे पहले ही प्रशासन ने उनकी जमीन पर कब्जा कर लिया और उन्हें मुआवजा भी नहीं दिया।
लालमनी, जो इस बस्ती में रहती थीं। वह बताती हैं कि वह और उनका कुनबा पिछले डेढ़ दशक से इस जमीन पर रह रहा था। उनकी झोपड़ियां बारिश के दिनों में नाले के पानी से डूब जाती थीं, और तब उन्हें पेड़ के नीचे शरण लेनी पड़ती थी। वह कहती हैं, "हमारे पास कोई स्थायी घर नहीं था, मगर यहां रहते हुए हमें उम्मीद थी कि सरकार हमारी सुध लेगी। हमारी बेटी अमृती देवी ने दुख देखकर हमें अपनी जमीन पर बसाया था।"
17 सितंबर 2021 को मुसहर बस्ती के बच्चों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 71वां जन्मदिन बड़े उत्साह से मनाया। इस अवसर पर रोहनिया के तत्कालीन विधायक सुरेंद्र नारायण सिंह ने बच्चों को मिठाई और फल बांटे थे। लालमनी कहती हैं, "उस दिन हमारी आंखों में सपने थे कि शायद अब हमारा कुनबा भी समाज की मुख्यधारा में शामिल हो जाएगा। लेकिन कुछ ही समय बाद, प्रशासन ने बुलडोज़र चलाकर हमारे सारे सपने चकनाचूर कर दिए।"
बस्ती उजाड़ने का दर्द
करसड़ा की मुसहर बस्ती की यह कहानी केवल जमीन पर कब्जे की नहीं, बल्कि उनके अधिकारों, सपनों और उम्मीदों के खत्म होने की है। मुसहर बस्ती के बुद्धूराम और सदानंद अपनी पीड़ा साझा करते हुए बताते हैं कि जिस दिन उनकी बस्ती उजाड़ी गई, सबसे पहले बच्चों की पाठशाला पर बुलडोज़र चला। इसके बाद उनकी झोपड़ियां ढहा दी गईं और उनका सामान बाहर फेंक दिया गया।
बुद्धूराम कहते हैं, "सर्दी के दिनों में 62 लोग खुले आसमान के नीचे आ गए। हम सब न्याय मांगने के लिए पैदल चलते हुए रात 11 बजे तत्कालीन कलेक्टर के कैंप कार्यालय पहुंचे, लेकिन हमें रास्ते में जबरन रोक लिया गया। एसडीएम उदयभान सिंह और उनके अधिकारियों ने हमारे साथ जोर-जबरदस्ती की और हमें टैम्पो में भरकर लौटा दिया। हम रोते-बिलखते आधी रात में वापस बस्ती पहुंचे। चौबीस घंटे तक हमारे बच्चों को भोजन तक नसीब नहीं हुआ।"
मुसहर समुदाय के 13 परिवारों को, जो अटल आवासीय विद्यालय के लिए अपनी ज़मीन छोड़ने को तैयार हुए थे, प्रशासन द्वारा एक-एक बिस्वा जमीन आवंटित की गई। इनमें राजेश, राहुल, इंदू देवी, बुद्धू, भुलादेव, कार्तिक, विजय, सदानंद, शंकर, राम प्रसाद, मुनीब, नन्हकू और सोमारा देवी शामिल हैं।
राजेश कहते हैं, "सरकार ने वादा किया था कि अगर हम अटल आवासीय विद्यालय के लिए अपनी जमीन छोड़कर चले जाएंगे तो हमें मुफ्त में राशन मिलेगा और पहचान पत्र भी। उनके बच्चों को प्राथमिकता के आधार पर विद्यालय में दाखिला दिया जाएगा, लेकिन हमें मिला क्या? बीस फीट गहरे गड्ढे वाली जमीन। हमारी बस्ती में कोई स्ट्रिट लाइट नहीं है, सिर्फ धोखे की लाइट जलती है।"
करसड़ा के मुसहर परिवार जिस जमीन पर बसे थे, उसे लेकर विवाद है। सरकारी रिकॉर्ड में यह जमीन पहले चमेली देवी नाम की महिला के नाम पर दर्ज थी। चमेली देवी अब चंदौली में रहती हैं, और यह परिवार उनके दूर के रिश्तेदार बताए जाते हैं। बाद में प्रशासन ने इसे हथकरघा विभाग की जमीन बताते हुए खाली करवाने का आदेश दिया। ज़मीन के खसरा संख्या 821 और खाता संख्या 00028 में अशोक और पिंटू नामक खातेदार दर्ज थे। बावजूद इसके, 27 नवंबर 2021 को एसडीएम राजातालाब ने इनका नाम हटाकर इसे बंजर घोषित कर दिया।
बुलडोजर की गड़गड़ाहट और भारी पुलिस बल की मौजूदगी में मुसहर परिवार अपने घरों को टूटते हुए देखने को मजबूर थे। बर्तन, कपड़े, यहां तक कि शादी के लिए रखा चावल और सिलाई मशीन भी मलबे में बदल गए। पाले गए सूअर इधर-उधर भाग गए। कड़ाके की ठंड में इन परिवारों को रातें खुले आसमान के नीचे गुजारनी पड़ीं। बस्ती में रोशनी नहीं थी, और बच्चों की पढ़ाई का कोई ठिकाना नहीं था।
दलित फाउंडेशन से जुड़े राजकुमार गुप्ता बताते हैं, "मुसहर समुदाय के लोगों को सरकार ने 1976 में मट्ठल/मिठाई के नाम पर जमीन पट्टा किया था। लेकिन चक बंदोबस्त के बाद इनका नाम राजस्व अभिलेखों से गायब कर दिया गया। 1991 में अशोक, पिंटू और चमेली देवी का नाम फिर से खतौनी में डाला गया, लेकिन जमीन की स्थिति अब भी जस की तस है।"
वह आगे कहते हैं, "करसड़ा इलाके में सैकड़ों बीघा सरकारी जमीन भूमाफियाओं के कब्जे में है। यह जमीनें राजस्व विभाग के अफसरों और लेखपालों की मिलीभगत से हथियाई गई हैं। बनारस के अफसर गरीबों को कीड़ा-मकोड़ा समझते हैं और मुसहरों को सांप-बिच्छुओं की कॉलोनी में हाईटेंशन तारों के नीचे बसा दिया गया है। यह असंवेदनशीलता प्रशासन के सबसे निचले स्तर तक फैली हुई है।"
गुप्ता कहते हैं, "सरकारी जमीनों पर कब्जे का खेल अब खुलकर सामने आ चुका है, लेकिन अफसरों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यह जमीनें जबर्दस्ती कब्जाई गई हैं, और अफसरों की तरफ से कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी जा रही है। इस सबका शिकार केवल गरीब मुसहर समुदाय ही हो रहा है। योगी सरकार एक तरफ वनवासियों को रामभक्त कहती है, दूसरी ओर उनकी बस्तियों पर बुलडोज़र चलवाने में तनिक भी देर नहीं करती। पिछले सात-आठ दशकों में वक़्त का पहिया तो आगे बढ़ चुका है, लेकिन मुसहर बस्ती की लालमनी, रीता और इंदू की ज़िंदगी वहीं की वहीं खड़ी है।"
करसड़ा मुसहर बस्ती में कई ऐसे लोग हैं जो जिन्हें सरकारी राशन नहीं मिलता, जो राशन सरकार सालों से पीट रही है। योगी सरकार का वनवासी प्रेम और गरीबों को बसाने की नीतियां वादों और प्रचार तक ही सीमित हैं। करसड़ा की मुसहर बस्ती के लोग आज भी अपने हक और जीवनयापन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनकी समस्याएं न केवल सरकार की अनदेखी का परिणाम हैं, बल्कि यह भी दर्शाती हैं कि समाज का यह तबका आज भी मुख्यधारा से कितना दूर है।"
सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब उस ज़मीन पर मुसहर परिवार का पट्टा था तो उन्हें विस्थापित करने के लिए बिना किसी पूर्व सूचना के उनके घरों पर बुलडोजर कैसे चलवा दिया गया? जिस दिन उनका घर उजाड़ा गया, उस दिन तक ज़मीन उस समुदाय के व्यक्ति के नाम थी। बिना उचित प्रक्रिया और पुनर्वास की व्यवस्था किए, पहले उजाड़ने और बाद में उनके खिलाफ फैसला देकर उनका नाम निरस्त करने का आधार क्या था? इन सवालों का आज तक कोई जवाब नहीं मिला है।
कैसा है अटल आवासीय विद्यालय
बनारस के करसड़ा में 66.54 करोड़ रुपये की लागत से स्थापित अटल आवासीय विद्यालय का उद्देश्य श्रमिकों और गरीब तबके के बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करना है। लेकिन इसके साथ ही यह विद्यालय स्थानीय समुदाय, विशेषकर करसड़ा की मुसहर बस्ती के बच्चों की शिक्षा और अधिकारों को लेकर सवालों के घेरे में है। यह विद्यालय 12.25 एकड़ में फैला हुआ है और आधुनिक तकनीकों और सुविधाओं से सुसज्जित है। श्रमिक परिवारों के बच्चों को कक्षा 6 से 12 तक मुफ्त शिक्षा और आवासीय सुविधा दी जाती है।
भूमि अधिग्रहण करते समय वादा किया गया था कि मुसहर बस्ती के बच्चों को विद्यालय में अनिवार्य रूप से दाखिला होगा, लेकिन वादे कोरे निकले। करसड़ा मुसहर बस्ती के किसी भी बच्चे को इसमें जगह नहीं मिली है। यह चयन प्रक्रिया उन परिवारों के लिए अत्यंत जटिल साबित हुई जिनके पास श्रम कार्ड नहीं है या जो अन्य कारणों से इन मापदंडों पर खरे नहीं उतरते।
करसड़ा मुसहर बस्ती के बच्चे आज भी बुनियादी शिक्षा से वंचित हैं। बस्ती के सूरज, नीरज, शनि, जागरण, विकास, ज्योति, अंजली, राजा, शिवानी, कामिनी, और रानी जैसे बच्चे पढ़ने के लिए तीन किलोमीटर दूर जाते हैं। अधिकांश निवासियों के पास वोटर आईडी कार्ड नहीं है। इनका नाम वोटर लिस्ट में दर्ज नहीं है। बच्चों को स्कूल भेजने की सुविधा और साधन की कमी है।
ड्राइवरी करने वाले कार्तिक वनवासी, जो बस्ती के निवासी हैं। वह कहते हैं, "हमारे बच्चों को यह विद्यालय केवल दूर से देखने की इजाजत देता है। उनकी पढ़ाई के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई। हमारे पास न वोटर आईडी है, न श्रम कार्ड। क्या हम इस देश के नागरिक नहीं हैं?"
सूरज और नीरज जैसे बच्चे चाहते हैं कि वे भी अटल आवासीय विद्यालय जैसे स्कूलों में पढ़ाई करें, लेकिन दाखिले की शर्तें उनके लिए बाधा बन गई हैं। अंजली और ज्योति जैसे लड़कियां स्कूल के रास्ते में आने वाली कठिनाइयों और सामाजिक दबावों का सामना कर रही हैं। बस्ती के निवासी चाहते हैं कि उनके बच्चों को नजदीकी स्कूलों में पढ़ाई की सुविधा दी जाए। उनके लिए पहचान पत्र (वोटर आईडी, श्रम कार्ड) बनवाने की प्रक्रिया को तेज और सुलभ किया जाए।
महिलाओं ने बातचीत में बताया कि वे भी अपने परिवार की मदद करना चाहती हैं। वे सिलाई, बुनाई, या किसी अन्य काम के लिए प्रशिक्षण पाने को तैयार हैं। लेकिन न तो उनके पास ऐसे किसी काम का मौका है और न ही प्रशासन ने उनकी इस इच्छा को लेकर कोई पहल की है।
उम्मीदों से दूर, संघर्ष की सच्चाई
करसड़ा की मुसहर बस्ती बनारस के उस हिस्से की कहानी है, जो आज भी प्रशासनिक उपेक्षा और सामाजिक भेदभाव का शिकार है। यहां के लोगों की जिंदगी संघर्ष, अभाव और निराशा के बीच झूल रही है। नन्हकू, कार्तिक, और गनेश जैसे कई परिवार इस बस्ती में रहते हैं, जिनके नाम सिस्टम और ज्यादातर सरकारी योजनाओं से गायब हैं।
बस्ती के ज्यादातर लोगों के पास मनरेगा के जॉब कार्ड हैं, लेकिन उन पर अब तक कोई काम नहीं मिला। रोजगार का कोई साधन न होने के कारण ये लोग दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर हैं, जो अब पूरी तरह से बंद हो चुकी है। नतीजा यह है कि परिवारों के चूल्हे तक ठंडे पड़े हैं। बस्ती के पुरुष और महिलाएं मज़दूरी करके अपना जीवनयापन करते थे, लेकिन अब लॉकडाउन के बाद से काम मिलना बंद हो गया है। 35 वर्षीय पार्वती कहती हैं, "हम रोज़ कमाने-खाने वाले लोग हैं। अब मज़दूरी नहीं मिल रही है, तो हमारे पास खाने के लिए भी कुछ नहीं है।"
इस बस्ती में पानी की जरूरत पूरा करने के लिए केवल एक हैंडपंप है, जो सैकड़ों लोगों की प्यास बुझाने में नाकाफी है। शौचालय जैसी बुनियादी सुविधा आज भी इस बस्ती के लिए एक सपना है। बस्ती तक पहुंचने के लिए कोई पक्का रास्ता नहीं है; खड़ंजा तक नहीं लगाया गया है, जिससे यहां के लोग कीचड़ और धूल में चलने को मजबूर हैं।
सोमरा देवी जैसी बुजुर्ग महिलाएं, जो पेंशन के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटती हैं, आज भी निराश लौटती हैं। बस्ती के अधिकांश वृद्धों को पेंशन नहीं मिल रही है। ये लोग न सिर्फ आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं, बल्कि सामाजिक सुरक्षा के अभाव में अपमानजनक जीवन जीने को मजबूर हैं। इनके हिस्से में विकास की ज्यादतर योजननाएं नहीं पहुंची हैं। किसी को न विधवा-विकलांग पेशन मिल पा रहा है और न ही मनरेगा में काम। पुनर्वास के समय ये सभी सरकारी सुविधाओं से आच्छादित करने का वादा किया गया था।
बस्ती की पांच लड़कियां शादी की उम्र पार कर चुकी हैं, लेकिन उनके परिवारों के पास शादी के लिए जरूरी पैसा नहीं है। सामूहिक विवाह योजना जैसी सरकारी पहल भी यहां तक नहीं पहुंच पाई है। न तो कोई इन योजनाओं के बारे में जानकारी देने आता है और न ही आवेदन प्रक्रिया के लिए मदद मिलती है। परिवार वाले लड़कियों की शादी को लेकर चिंतित हैं, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति उनके रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा बन गई है।
इस बस्ती में न तो कोई स्थायी रोजगार का साधन है और न ही बच्चों की शिक्षा का कोई प्रबंध। बच्चे भूखे पेट बैठते हैं, और उनके हाथों में किताबों की जगह बेरोजगारी का बोझ आ जाता है। सरकारी योजनाओं और तथाकथित विकास के बड़े-बड़े दावों के बावजूद, यह बस्ती आज भी अंधेरे में जी रही है। करसड़ा के ग्राम प्रधान प्रधान महेंद्र कुमार पटेल कहते हैं, "हमारी सीमाएं सीमित हैं। मुसहर बस्ती के लिए हम बहुत कुछ करना चाहते हैं, लेकिन सरकार की ओर से संसाधन और पैसा मिलेगा, तभी कुछ कर पाएंगे। हमने कई परिवारों का राशन कार्ड बनवा दिया है। कोशिश कर रहे हैं कि सभी के लिए शौचालय, खड़ंजा और पेयजल का पुख्ता इंतजाम हो जाए।"
एक्टिविस्ट सौरभ सिंह कहते हैं, "करसड़ा के 13 परिवारों को जो जमीन दी गई है, वह नाले के किनारे ढलान पर है। अगर नाले में थोड़ा भी पानी भरता है, तो उनके घर डूब सकते हैं। गंगा का जलस्तर बढ़ने या तेज बारिश होने पर यह खतरा और गंभीर हो जाता है। दीवारें अभी सूखी नहीं हैं, और पानी का एक झटका उन्हें गिरा सकता है। इन परिवारों की स्थिति को देखकर साफ होता है कि सरकारी योजनाओं के वादों और जमीन पर सच्चाई के बीच बड़ा फासला है। छत के बिना ये परिवार असुरक्षा और बाढ़ के खतरे के बीच दिन गुजार रहे हैं।"
"बस्ती के लोग बताते हैं कि बरसात के दिनों में यहां की स्थिति और भी भयावह हो जाती है। बस्ती के चारों ओर पानी भर जाता है, और लोग अपने घरों को छोड़कर पास के एक बांध पर झोपड़ी लगाकर रहते हैं। वहां न तो कोई सुरक्षा है और न ही कोई सहूलियत। इन हालात में जीवन जीना किसी त्रासदी से कम नहीं है। मुसहर समुदाय के लोगों को जमीनें ऐसे इलाके में दी गई हैं, जहां नाला बहता है। बारिश या गंगा का जलस्तर बढ़ने पर यह बस्ती जलमग्न हो सकती है।
दरअसल, करसड़ा की मुसहर बस्ती की हालत किसी आपदा क्षेत्र से कम नहीं है। यहां के लोग प्रशासन और सरकार से बार-बार मदद की गुहार लगाते हैं, लेकिन उनकी आवाज अनसुनी रह जाती है। रोजगार, शिक्षा, पानी, बिजली, राशन, और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतें तक पूरी नहीं हो पा रही हैं। यह बस्ती केवल करसड़ा की नहीं, बल्कि उन सभी गरीब और उपेक्षित समुदायों का प्रतीक है, जो विकास और उन्नति के नाम पर पीछे छूट गए हैं।
करसड़ा की मुसहर बस्ती की यह कहानी सिर्फ एक बस्ती की नहीं है, बल्कि उन सभी हाशिए पर पड़े समुदायों की दास्तान है, जो प्रशासनिक उपेक्षा और सामाजिक भेदभाव के बीच अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। अटल आवासीय विद्यालय के लिए जमीनें खाली कराई गई, लेकिन इन 13 परिवारों के 76 लोगों को बदले में क्या मिला? सिर्फ असुरक्षित जीवन, टूटे वादे और हर दिन का संघर्ष। गरीबी, बेरोजगारी और सरकारी अनदेखी से जूझते इन परिवारों की कहानी सत्ता और समाज की असंवेदनशीलता का जीवंत प्रमाण है।
एक्टिविस्ट मीरा सिंह कहती हैं, "बीजेपी सरकार ने पुनर्वासित किए गए मुसहर समुदाय को पूरी तरह से भुला दिया है। सरकार की कोई भी योजना इस बस्ती तक नहीं पहुंची है। इस बस्ती के लोग इस बात से भी खफा हैं कि पहले जो समाजसेवी और एनजीओ उनके हालात को सुधारने के वादे करते थे, अब वे भी कहीं नजर नहीं आते। पहले एनजीओ वाले अपनी ब्रांडिंग के लिए आते थे, लेकिन अब मान लिया है कि सरकार ने सब कुछ ठीक कर दिया है।"
(विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं। करसड़ा की मुसहर बस्ती से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट)