हिरासत से निर्वासन तक: असम के माटिया केंद्र में बड़े पैमाने पर निर्वासन और हिरासत का संकट

Written by CJP Team | Published on: May 16, 2025
गुप्त तरीके से सीमा पार भेजने से लेकर अवैध हिरासत तक, माटिया में रोहिंग्या और अन्य विदेशियों के साथ भारत का व्यवहार उचित प्रक्रिया और अधिकारों के हनन को दर्शाता है।



असम में हाल के दिनों में अहम लेकिन अपारदर्शी अभियान चल रहा है जिसमें हिरासत में लिए गए विदेशी नागरिकों जिसमें रोहिंग्या शरणार्थी समुदाय भी शामिल हैं उनको भारत के सबसे बड़े हिरासत केंद्र गोलपारा स्थित मटिया से बड़े पैमाने पर निकाला जा रहा है। बांग्लादेशी मीडिया और सीमा अधिकारियों से मिलने वाली कई रिपोर्टें पुष्टि करती हैं कि रोहिंग्या और बंगाली भाषी करीब 123 लोगों को जबरन अंतरराष्ट्रीय सीमा पार करके बांग्लादेश में वापस भेज दिया गया। इन निर्वासनों को कथित तौर पर औपचारिक राजनयिक प्रोटोकॉल या पारदर्शी निर्वासन प्रक्रियाओं के बिना अंजाम दिया गया।

यह अभियान भारत के बढ़ते हुए "पुशबैक" (बिना कानूनी प्रक्रिया के वापस भेजना) के इस्तेमाल को साफ तौर पर दिखाता है, जो शरणार्थियों की सुरक्षा, कानूनी हिरासत और कूटनीतिक बातचीत की जटिलताओं से बचने के लिए एक तरीका बन चुका है। ऐसी कार्रवाइयां भारत के अंतर्राष्ट्रीय शरणार्थी और मानवाधिकार कानूनों का उल्लंघन कर सकती हैं, साथ ही इसके अपने कानूनों का भी जो राज्यविहीन व्यक्तियों और शरणार्थियों की सुरक्षा के लिए बने हैं। बांग्लादेश और म्यांमार द्वारा इन कमजोर लोगों को स्वीकार करने से इंकार करने के बाद भारत ने अप्रत्यक्ष रूप से इन्हें वापस भेजने की नीति अपनाई है जिससे इनकी देखरेख का बोझ अब पड़ोसियों पर डाला जा रहा है। 

निर्वासन की संख्या और भारतीय अधिकारियों का इस बारे में चुप रहना लोगों के मन में बड़ा सवाल खड़ा कर रहा है कि क्या सही प्रक्रिया का पालन हुआ है। अभी तक ये भी साफ नहीं हुआ है कि कितने लोग वापस भेजे गए, उनके पास उस वक्त कौन सा कानूनी दर्जा था या फिर उन्हें उनके देशों की सरकारों या किसी अंतर्राष्ट्रीय संस्था की मदद से भेजा गया था। इस बारे में कोई आधिकारिक जानकारी नहीं दी गई है। 

असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा का सार्वजनिक बयान

निर्वासन की गुप्त प्रकृति का खुलासा तब हुआ जब हिमंत बिस्वा सरमा ने ये बताया कि रोहिंग्या शरणार्थी और ऐसे दूसरे हिरासत में लिए गए लोग जिनकी अपील लंबित नहीं थी बांग्लादेश भेजे गए। सरमा ने इसे भारत सरकार का एक "ऑपरेशन" बताया जिसमें असम भी शामिल था।

डेक्कन हेराल्ड की 12 मई की एक रिपोर्ट के अनुसार, असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने साफ तौर पर कहा है कि रोहिंग्या और दूसरे घोषित विदेशी लोगों को बांग्लादेश भेजना कोई एक-दो बार की बात नहीं है, बल्कि ये भारत सरकार की एक प्लानिंग के तहत चल रहा "ऑपरेशन" है। शनिवार 10 मई को गुवाहाटी में मीडिया से बात करते हुए उन्होंने बताया कि जिन लोगों के केस कोर्ट में नहीं चल रहे थे, उन्हें माटिया डिटेंशन सेंटर से बांग्लादेश की ओर भेजा गया।

सरमा ने कहा, "माटिया अब लगभग खाली हो चुका है, बस 30-40 लोग ही बचे हैं।" ये वही डिटेंशन सेंटर है जो देश का सबसे बड़ा माना जाता है। हालांकि, उन्होंने ये नहीं बताया कि इन लोगों को भेजने का तरीका क्या था और क्या ये कानूनी रूप से सही था या नहीं।

उनके इस बयान से उन आशंकाओं को बल मिला है जो कई कार्यकर्ता और सीमा पर नजर रखने वाले लोग पहले से जता रहे थे कि भारत चुपचाप ऐसे लोगों को देश से निकाल रहा है जिनका कोई ठिकाना नहीं है, खासकर रोहिंग्या, जिन्हें न म्यांमार और न बांग्लादेश औपचारिक रूप से अपनाने को तैयार हैं।

उनके जबरन वापसी (पुशबैक) की इन कार्रवाइयों को एक "सफल ऑपरेशन" बताया, जिससे असल में जो बड़े मानवीय और कानूनी मुद्दे हैं, वो छिप जाते हैं खासकर उन लोगों को जबरन निकालने की जिनके पास कोई देश नहीं है, और जिन्हें न तो शरणार्थी माना गया है और न ही कहीं सुरक्षित बसने का कोई विकल्प मिला है। शर्मा का बयान ये भी बताता है कि असम और भारत में अब धीरे-धीरे एक सख्त नीति अपनाई जा रही है, जहां "विदेशी" कहे जाने वाले लोगों के साथ सख्ती से पेश आया जा रहा है और उनके अधिकारों या दोबारा बसाने की कोई ठोस कोशिश नहीं हो रही।

क्या जमीनी आंकड़े कहते हैं?

सिटिजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) की असम टीम ने जो स्वतंत्र जानकारी जुटाई है, वो माटिया डिटेंशन सेंटर की बदलती सच्चाई को दिखाती है:

    • माटिया डिटेंशन सेंटर में पहले जो भी सजायाफ्ता विदेशी नागरिक थे उनमें से लगभग सभी को या तो वापस उनके देश भेज दिया गया है या सीमा पार करवा दी गई है। अब वहां सिर्फ एक ही व्यक्ति बचा है जो नाइजीरिया का रहने वाला कमरदीन ओलाडेजी ओलाडिमेजी है जो अभी भी डिटेंशन में है। 
      
    • अधिकारियों ने निर्वासित किए गए लोगों की सही संख्या नहीं बताई है, लेकिन पहले के रिकॉर्ड्स के अनुसार, माटिया में 203 सजायाफ्ता विदेशी नागरिक रखे गए थे। एक नाइजीरियाई नागरिक को छोड़कर 202 लोगों को "निकाला गया" (यानी निर्वासित) कर दिया गया है। माना जा रहा है कि यह सब बिना किसी पारदर्शी और कानूनी प्रक्रिया के किया गया। माटिया निर्वासन केंद्र में मौजूद लोगों के बारे में और जानकारी यहां पढ़ी जा सकती है।
      
    • सजायाफ्ता विदेशी नागरिकों के अलावा, माटिया में 46 और लोग हैं जिन्हें असम के विदेशी न्यायाधिकरणों ने विदेशी घोषित किया है लेकिन उनके मामले अभी भी उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट में चल रहे हैं।
      
    • CJP के अनुभव के अनुसार, जमीनी जांच से पता चलता है कि ज्यादातर सजायाफ्ता विदेशी नागरिक भारतीय नागरिक हैं जिन्हें गलत तरीके से विदेशी घोषित कर दिया गया है और यह अक्सर न्यायाधिकरण की गलत प्रक्रिया या दस्तावेजों की कमी के कारण हुआ है। इन लोगों को विदेशी के तौर पर निर्वासित नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि उन्हें सही कानूनी तरीके से भारतीय समाज में वापस शामिल किया जाना चाहिए।
      
    • अजाबा खातून का मामला है जिसे CJP हाई कोर्ट में लड़ रहा है। उन्हें गलत तरीके से विदेशी घोषित किया गया और उनके भारतीय नागरिक होने के बावजूद उनका निर्वासन किया जा रहा है। 3 मार्च 2025 को गुवाहाटी हाई कोर्ट ने अजाबा खातून के निर्वासन पर रोक लगा दी। वह फिलहाल माटिया डिटेंशन कैंप में बंद हैं जहां उन्हें सितंबर 2024 में गिरफ्तार किया गया था।
      
    • CJP टीम के मानवाधिकार और मानवीय कार्यों ने ये सवाल उठाया है कि क्या ये पुशबैक असल में आधिकारिक निर्वासन हैं, जिनमें कूटनीतिक चैनल्स का इस्तेमाल किया गया है या फिर ये अवैध तरीके से जबरन निकाले जाने के मामले हैं। अब तक इस बात की कोई सार्वजनिक पुष्टि नहीं हुई है कि इन सजायाफ्ता विदेशी नागरिकों को उनके दूतावासों या सरकारों के जरिए सही तरीके से वापस भेजा गया था।

यह जानकारी एक चिंताजनक चीजों के सामने लाती है: लगता है कि माटिया में भारत की निर्वासन प्रक्रिया कानूनी सुरक्षा, पारदर्शिता, या पुनर्वास के बजाय बस ज्यादा से ज्यादा लोगों को बाहर निकालने को प्राथमिकता दे रही है।

मटिया में सजा काट रहे नाइजीरियाई नागरिक का मामला: अवैध हिरासत और न्यायिक हस्तक्षेप

नाइजीरियाई नागरिक कमरदीन ओलाडेजी ओलाडिमेजी का माटिया में लंबा समय तक बंद रहना एक बड़ा उदाहरण है कि कैसे सिस्टम में खामियां हैं। ओलाडिमेजी अपनी कानूनी सजा से ज्यादा यानी 1,457 दिन माटिया डिटेंशन सेंटर में बंद रहे हैं।

"इसलिए, यह देखा गया कि जब सजा और आदेश दिया गया था, तब याचिकाकर्ता पहले ही 13.05.2021 तक अपनी सजा पूरी कर चुका था। इस तरह, इस आदेश की तारीख तक, याचिकाकर्ता ने 1457 दिन अवैध हिरासत में बिताए हैं।" (पैरा 3)

लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में फॉरेन एक्ट एंड पासपोर्ट्स (इंट्री इनटू इंडिया) रूल्स के तहत दोषी पाए गए ओलाडिमेजी ने मई 2021 तक अपनी 6 महीने की सजा पूरी कर ली थी और जुर्माना भी चुका दिया था। फिर भी, राज्य ने उसे अवैध रूप से हिरासत में रखा और न तो उसे वापस भेजने की प्रक्रिया शुरू की और न ही उसे रिहा किया। 
गुवाहाटी उच्च न्यायालय की एक डिवीजन बेंच ने 9 मई 2025 को सख्त आदेश जारी करते हुए असम और केंद्रीय अधिकारियों को ओलाडिमेजी का तुरंत प्रत्यावर्तन सुनिश्चित करने का निर्देश दिया। कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि अधिकारियों ने यह आदेश नहीं माना, तो उसे ओलाडिमेजी को बिना शर्त रिहा करना पड़ेगा और इसके लिए राज्य को पूरी जिम्मेदारी उठानी होगी। 

राज्य और असम सरकार के गृह और राजनीतिक (बी) विभाग के संबंधित अधिकारियों; भारत सरकार के गृह मंत्रालय के सचिव; और भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के सचिव को विशेष रूप से यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए कि याचिकाकर्ता ने 13.05.2021 को अपनी सजा पूरी की थी और इसलिए, याचिकाकर्ता 1457 दिन से अवैध हिरासत में है। अत: यदि उचित कार्रवाई समय पर नहीं की जाती है, तो संबंधित अधिकारियों को सूचित किया जाता है कि अदालत को याचिकाकर्ता को बिना शर्त रिहा करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा, जिसका जोखिम और खर्च इन अधिकारियों को उठाना होगा।” (पैरा 9) 

यह ध्यान देने लायक है कि नाइजीरिया का दूतावास एक वीडियो साक्षात्कार के बाद आपातकालीन यात्रा प्रमाणपत्र जारी करने के लिए तैयार है और इसे माटिया कैम्प के अधिकारियों के जरिए आसानी से किया जा सकता है। फिर भी, नौकरशाही की लापरवाही और एजेंसियों के बीच हो रही देरी के कारण उसकी अवैध हिरासत जारी रही है।

ओलाडिमेजी का मामला भारत के डिटेंशन सेंटरों में सिस्टम की उदासीनता और न्याय प्रक्रिया के बिखड़ने को साफ दिखाता है, जहां प्रशासनिक अड़चनों और नीति की उपेक्षा के कारण लोग अपनी सजा पूरी करने के बाद भी हिरासत में फंसे रहते हैं।

पूरा आदेश नीचे पढ़ा जा सकता है



एक कानूनी और नैतिक चेतावनी: नॉन-रिफाउलमेंट के उल्लंघन का खतरा

माटिया डिटेंशन सेंटर से गुप्त तरीके और तेजी से किए जा रहे निर्वासन (deportations) कई गंभीर सवाल खड़े करते हैं खासकर इस बात को लेकर कि क्या भारत अंतरराष्ट्रीय कानूनों का सही तरीके से पालन कर रहा है। इसमें सबसे अहम है नॉन रिफाउलमेंट का सिद्धांत जो कहता है कि किसी भी इंसान को उस जगह वापस नहीं भेजा जा सकता जहां उसकी जान को खतरा हो, उसकी आजादी छीनी जा सकती हो या उसे किसी भी तरह का उत्पीड़न झेलना पड़ सकता हो।

भले ही भारत 1951 के रिफ्यूजी कन्वेंशन या 1967 के उसके प्रोटोकॉल का हिस्सा नहीं है। नॉन रिफाउलमेंट को दुनिया भर में एक ऐसा नियम माना जाता है जो हर देश पर लागू होता है चाहे उन्होंने उस संधि पर दस्तखत किए हों या नहीं। इसके अलावा, भारत इंटरनेशनल कोवेनएंट ऑन सिविल एंड पॉलिटिकल राइट्स (ICCPR) का हिस्सा है, जिसके तहत अनुच्छेद 7 में साफ तौर पर कहा गया है कि किसी भी इंसान के साथ अमानवीय या अपमानजनक बर्ताव नहीं किया जा सकता और ये सुरक्षा उस स्थिति पर भी लागू होती है जब किसी को ऐसे देश में वापस भेजा जा रहा हो जहां उसे ऐसे बर्ताव का खतरा हो।

भारतीय अदालतों ने भी पहले कई बार साफ किया है कि किसी को ऐसी जगह जबरन नहीं भेजा जा सकता जहां उसकी जान को खतरा हो।

    • 1999 में गुजरात हाई कोर्ट ने तईर अब्बास हबिब अल कुतैफी बनाम भारत सरकार केस में कहा था कि संविधान का अनुच्छेद 21 जो हर इंसान को जीवन और आजादी का हक देता है, शरणार्थियों और शरण चाहने वालों को भी उस जगह जबरन भेजे जाने से बचाता है जहां उनके लिए खतरा हो।
    • 2010 में दिल्ली हाई कोर्ट ने डोंघ लियान खाम बनाम भारत सरकार केस में साफ-साफ कहा कि नॉन रिफाउलमेंट यानी किसी को जबरन खतरनाक हालात में वापस न भेजना, हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 का हिस्सा है।
    • 2021 में मणिपुर हाई कोर्ट ने नंदिता हक्सर बनाम मणिपुर राज्य केस में म्यांमार से भागकर आए कुछ लोगों को UNHCR (संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी) से मिलने की इजाज़त दी। कोर्ट ने कहा कि भारत को इंसानियत के अंतरराष्ट्रीय नियमों का पालन करना चाहिए, भले ही हम शरणार्थी संधि पर दस्तखत किए हुए न हों।

हाल ही में ऐसा देखने को मिला है कि भारत का रुख अब पहले से सख्त हो गया है।

मई 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने जफर उल्लाह बनाम भारत सरकार केस में रोहिंग्या शरणार्थियों को देश से बाहर भेजने के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई की। लेकिन कोर्ट ने उन्हें भारत से निकालने (डिपोर्ट करने) पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। कोर्ट ने कहा कि भारत में रहने का हक सिर्फ भारतीय नागरिकों को है, इसलिए जो लोग नागरिक नहीं हैं, उन्हें निकालना मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं माना जा सकता। इससे पहले भी, मोहम्मद सलीमुल्लाह बनाम भारत सरकार केस में कोर्ट ने कहा था कि भले ही विदेशी नागरिकों को कुछ बुनियादी संवैधानिक अधिकार जैसे जिंदगी और बराबरी का हक (अनुच्छेद 14 और 21) मिले हुए हैं, लेकिन उन्हें भारत में रहने या डिपोर्ट न किए जाने की कोई गारंटी नहीं है, भले ही उन्हें वापस भेजने से खतरा हो।

यह संवैधानिक सुरक्षा की संकुचित व्याख्या जो राज्यविहीन व्यक्तियों और शरण चाहने वालों के मामलों में की जा रही है वह सीधे तौर पर नॉन-रिफाउलमेंट के सिद्धांत को कमजोर करती है और एक खतरनाक मिसाल कायम करती है। यह फैसला सरकार को बिना पूरी तरह से यह देखे समझे लोगों को देश से बाहर करने का मौका देता है कि क्या उन्हें उत्पीड़न, यातना या बेवजह हिरासत का खतरा हो सकता है। खासकर रोहिंग्या जैसे लोगों के लिए या जिनके पास राष्ट्रीयता के दस्तावेज नहीं होते, उनके लिए यह और भी खतरनाक हो सकता है। 

असम में जो स्थिति बन रही है जहां बिना कूटनीतिक समन्वय या कानूनी जांच के लोगों को सीमा पार भेजा जा रहा है, उसे कानूनी निर्वासन नहीं कहा जा सकता। यह अधिकतर गैर-न्यायिक निर्वासन के समान है और जब यह राज्यवीहिन या उत्पीड़ित समुदायों पर लागू किया जाता है तो यह अंतरराष्ट्रीय कानून, संविधानिक अधिकारों और न्याय के बुनियादी सिद्धांतों का उल्लंघन कर सकता है। 

व्यापक प्रभाव: राज्यविहीनता, मानवाधिकार और उचित प्रक्रिया का न होना 

इन घटनाक्रमों ने असम में विदेशी और शरणार्थियों, खासकर रोहिंग्या और बांग्ला बोलने वाले मुसलमानों के प्रति भारत के दृष्टिकोण में एक गहरे चिंता का कारण बनने वाले पैटर्न को उजागर किया है। 

    • राज्यविहीनता यानी नागरिकता नहीं होने को अपराध के साथ जोड़ने से लोगों को लंबे समय तक हिरासत में रखा जा रहा है और बड़े पैमाने पर उन्हें बिना सही जांच के सीमा पार भेजा जा रहा है, जो मानवाधिकारों और अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन है। 
      
    • असम के विदेशी न्यायाधिकरण, जिनकी प्रक्रिया पर लगातार सवाल उठ रहे हैं, सैकड़ों लोगों को गलत तरीके से विदेशी घोषित कर रहे हैं। इसके कारण ये लोग न सिर्फ हिरासत में रहते हैं, बल्कि उन्हें जबरदस्ती बाहर निकालने का भी खतरा बना रहता है। 
      
    • कूटनीतिक समझौतों या सही जानकारी के बिना किए गए निर्वासन को अवैध "पुशबैक" कहा जा सकता है, जो जिम्मेदारी को ऐसे पड़ोसी देशों पर डाल देता है जो इन लोगों को अपनाने के लिए तैयार नहीं होते। 
      
    • इन प्रक्रियाओं की अस्पष्टता और जवाबदेही की कमी से लोगों का विश्वास टूटता है, संविधान में दी गई स्वतंत्रता की गारंटी का उल्लंघन होता है और उन लोगों की परेशानियां अनदेखी हो जाती हैं जो कानूनी उलझनों में फंसे हुए होते हैं।
      
    • सरकार का "माटिया डिटेंशन सेंटर" को खाली करने के लिए जल्दबाजी तब तक बेकार है, जब यह कानूनी निर्वासन या पुनर्वास की बजाय जबरदस्ती निर्वासन पर आधारित है। 
      
    • ओलादीमेजी जैसे मामलों का बार-बार सामने आना न्यायिक आदेशों, अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं और हिरासत में लिए गए लोगों के अधिकारों का सम्मान करने में सिस्टम की विफलताओं को दर्शाता है। 

असम का माटिया डिटेंशन सेंटर अब गोपनीयता, क्रूरता और प्रशासनिक लापरवाही का प्रतीक बन गया है और इस पूरे मामले में पारदर्शिता और न्यायिक निगरानी की जरूरत बेहद अहम है। इस सेंटर से जो बातें सामने आ रही हैं जैसे कि जबरदस्ती निर्वासन, लंबे समय तक अवैध हिरासत और मानवाधिकारों की अनदेखी आदि ये सब भारत में प्रवासियों और शरणार्थियों के साथ हो रहे बर्ताव में गहरी समस्याओं को दिखाती हैं। संविधान का पालन करना बातें करने से ज्यादा अहम है; यह कानूनी प्रक्रिया, सम्मान और भेदभाव से मुक्त न्याय की मजबूत प्रतिबद्धता की मांग करता है। नागरिक समाज, अदालतें और मीडिया को इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। यहां बात सिर्फ कुछ लोगों के भविष्य की नहीं, बल्कि उस लोकतंत्र की है जो कानून के शासन का पालन करने का दावा करता है। आखिर में, माटिया डिटेंशन सेंटर का संकट सिर्फ एक प्रशासनिक मुद्दा नहीं है, बल्कि यह न्याय, मानवता और कानून के शासन के बड़े संकट का प्रतीक है जहां सबसे कमजोर लोग राष्ट्रीयता और सुरक्षा के नाम पर नुकसान उठाते हैं। 

Related

28,000 मामले वापस या वोट बैंक की राजनीति? असम के सीएम द्वारा कोच राजबोंगशी के खिलाफ 'विदेशी' मामलों को वापस लेने के बयान पर सवाल

असम के मुख्यमंत्री द्वारा 'मिया मुसलमानों' को बाहर निकालने के बयान से बंगाली मुसलमान मजदूरों पर हिंसा

बाकी ख़बरें