दिल्ली में ढह गई 'आप' की मीनार, क्या कांग्रेस जिम्मेवार?

Written by Navnish Kumar | Published on: February 10, 2025
दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 27 साल बाद जीत हासिल कर वापसी की है। पार्टी ने विधानसभा की 70 सीटों में से 48 पर जीत दर्ज की है।" बीजेपी ने लगातार चौथी बार दिल्ली की कुर्सी पर बैठने का आम आदमी पार्टी का सपना पूरा नहीं होने दिया। बाकी 22 सीटें आम आदमी पार्टी (आप) को मिलीं।


फोटो साभार : आज तक

"दिल्ली चुनाव में आम आदमी पार्टी की बदलाव की राजनीति की मीनार ढह गई है। सवाल है कि जिम्मेवार कौन है। क्या कांग्रेस ने 'खेल' बिगाड़ा या मकड़ी अपने ही बने जाल में फंस गई। या फिर 'आप' को आप नेताओं का अहंकार, बिना विचारधारा की सॉफ्ट हिंदुत्व वाली दोहरी राजनीति और घपले घोटालों के आरोपों से हिला आत्मविश्वास ले डूबा?। दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 27 साल बाद जीत हासिल कर वापसी की है। पार्टी ने विधानसभा की 70 सीटों में से 48 पर जीत दर्ज की है।"

बीजेपी ने लगातार चौथी बार दिल्ली की कुर्सी पर बैठने का आम आदमी पार्टी का सपना पूरा नहीं होने दिया। बाकी 22 सीटें आम आदमी पार्टी (आप) को मिलीं। इससे पहले साल 2015 में 'आप' ने 67 और 2020 में 62 सीटें जीती थीं। साल 1998 से 2013 तक यानी 15 साल तक दिल्ली की सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस लगातार तीसरे विधानसभा चुनाव में भी कोई सीट नहीं जीत पाई। दिल्ली में बीजेपी ने पिछले कुछ वर्षों से 34 से 38 फ़ीसदी का एक स्थिर वोट शेयर बनाए रखा था, लेकिन इस बार वो इसे बढ़ाकर 45.6 फ़ीसदी तक ले गई है। जबकि आम आम आदमी पार्टी का वोट शेयर 10 फ़ीसदी गिरकर 53.6 से 43.6 फ़ीसदी पर पहुंच गया है। वहीं कांग्रेस का वोट शेयर 2020 के 4.3 फ़ीसदी से बढ़ कर 6.3 फ़ीसदी पर पहुंच गया है।

2012 में ‘बदलाव की राजनीति’ का वादा कर मैदान में उतरने वाली आप की हार का कई तरह से विश्लेषण किया जा रहा है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार दस साल के शासन की एंटी इनकम्बेंसी, वादे पूरे न करने का खामियाजा, उप-राज्यपाल द्वारा पैदा की गयी अड़चन, शीर्ष नेतृत्व के जेल जाने के बाद बिखरी आम आदमी पार्टी आदि कई वजह हार की हो सकती हैं। लेकिन इससे परे, एक वजह है ‘इंडिया गठबंधन’ का आपसी मतभेद, जिसमें आप और कांग्रेस दोनों शामिल हैं। इसे लेकर, जब रुझानों में भाजपा आगे चल रही थी, जम्मू- कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने चुटकी लेते हुए रामायण धारावाहिक का एक क्लिप शेयर किया और लिखा, ‘और लड़ो एक दूसरे से।’ दिल्ली विधानसभा चुनाव की घोषणा के पहले ही साफ हो गया था कि आप और कांग्रेस साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। इसके बाद इंडिया गठबंधन के कुछ अन्य दलों ने भी घोषणा कर दी कि वह किसके पाले में हैं। समाजवादी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस ने आप का समर्थन किया। सपा ने तो आप के लिए प्रचार भी किया। चुनावी सरगर्मी जैसे-जैसे बढ़ी, आप और कांग्रेस के बीच जुबानी हमला तेज हुआ। चुनाव के दौरान कांग्रेस उन्हीं शब्दावलियों का इस्तेमाल कर आप पर हमला कर रही थी, जिनका इस्तेमाल भाजपा केजरीवाल पर निशाना साधने के लिए कर रही थी, जैसे- शीशमहल। राहुल गांधी ने केजरीवाल पर वंचित समाज की उपेक्षा का आरोप लगाया, ‘आप केजरीवाल जी से पूछें कि क्या वह पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण और जाति जनगणना चाहते हैं? जब मैं जाति जनगणना की बात करता हूं तो प्रधानमंत्री मोदी और केजरीवाल दोनों चुप्पी साध लेते हैं। केजरीवाल और प्रधानमंत्री मोदी में कोई अंतर नहीं है क्योंकि दोनों झूठे वादे करते हैं।’ इसके अलावा राहुल ने आप पर वंचितों को प्रतिनिधित्व न देने का भी आरोप लगाया। ‘टीम केजरीवाल (दिल्ली चुनाव के लिए आप का पोस्टर) में नौ लोग हैं, लेकिन उसमें से कोई भी दलित, पिछड़ा या मुस्लिम समुदाय से नहीं है।’

जब राहुल गांधी के हमले तीखे होते गए, तो रिपोर्ट के अनुसार केजरीवाल ने जवाब देते हुए कहा, ‘लोग पूछ रहे हैं राहुल गांधी जी ‘राजमहल’ पर चुप क्यों है? आज राहुल जी ने दिल्ली में पूरा भाजपा वालों का भाषण दोहराया। जनता को बता दो कि बीजेपी और कांग्रेस में क्या समझौता हुआ है?’ कांग्रेस दिल्ली चुनाव को लेकर आत्मविश्वास से भरी नहीं थी, जैसा वह हरियाणा में दिख रही थी। ऐसे में कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं था। शराब घोटाले के आरोप में जेल जाने, हिंदुत्व की राजनीति में हाथ आजमाने, मुसलमानों के हित में खड़े होने से बचने की वजह से केजरीवाल की पार्टी को पहले ही नुकसान हो रहा था। कांग्रेस के हमले ने इस चोट को गहरा कर दिया।

दिल्ली में भाजपा भले 1993 के बाद से सरकार न बना पाई हो, लेकिन पार्टी का वोट प्रतिशत कभी भी 30 प्रतिशत से कम नहीं रहा है। पिछले तीन चुनावों 2013, 2015 और 2020 की बात करें तो भाजपा को क्रमश: 33.07 प्रतिशत, 32.2 प्रतिशत और 38.51 प्रतिशत वोट मिले हैं। आप जब 70 में 67 सीट जीतती है, तब भी भाजपा 32.2 प्रतिशत वोट रोकने में कामयाब रहती है। यानी आप के उत्कर्ष के दौरान भी भाजपा के कोर वोट पर ज्यादा असर नहीं पड़ा था। आप कांग्रेस की राख पर खड़ी हुई थी। कांग्रेस को मिलने वाले वोटों का एक बड़ा हिस्सा लेकर आप विकसित हुई थी। कांग्रेस के खिलाफ हुए देशव्यापी आंदोलन ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ से निकलकर राजनीति में आई आप को साल 2013 के विधानसभा चुनाव में 29.49 प्रतिशत वोट मिले थे, कांग्रेस का वोट प्रतिशत इससे थोड़ा कम 24.55 प्रतिशत था। लेकिन इसके बाद के चुनावों में कांग्रेस का वोट तेजी से कम हुआ। 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 9.7 प्रतिशत वोट मिले और अगले चुनाव (2020) में केवल 4.26 प्रतिशत।

दूसरी तरफ आप का वोट प्रतिशत उतनी ही तेजी से बढ़ा। 2015 में 54.3 प्रतिशत और 2020 में 53.57 प्रतिशत। 2025 के चुनाव में जब आप का वोट प्रतिशत कुछ कम होकर 43 प्रतिशत तक पहुंचा है तो कांग्रेस के वोट प्रतिशत में थोड़ी बढ़ोत्तरी (इस चुनाव में कांग्रेस को 6 प्रतिशत से थोड़ा अधिक वोट मिला है) हुई है। भाजपा को 45 प्रतिशत से थोड़ा ज्यादा वोट मिला है।

सवाल वही है क्या आम आदमी पार्टी की हार के पीछे कांग्रेस का बड़ा हाथ है। अरविंद केजरीवाल से लेकर आम आदमी पार्टी (आप) के कई दिग्गज नेता दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिले वोटों के अंतर से भी कम अंतर से हारे। आम आदमी पार्टी के शीर्ष नेताओं में हारने वालों में अरविंद केजरीवाल(नई दिल्ली), मनीष सिसोदिया (जंगपुरा), सौरभ भारद्वाज (ग्रेटर कैलाश), सोमनाथ भारती (मालवीय नगर), दुर्गेश पाठक (राजिंदर नगर) से हार गए। यह सभी सीटें ऐसी थीं जहां कांग्रेस को बीजेपी के जीत के अंतर से ज़्यादा वोट मिले , जिससे नतीजे प्रभावित हुए। कुल मिलाकर 70 में से 13 ऐसी सीटें थीं।"

"भाजपा के परवेश वर्मा ने केजरीवाल को 4,009 वोटों से हराया। आप प्रमुख 2013 से तीन बार इस सीट से जीते हैं। कांग्रेस उम्मीदवार संदीप दीक्षित को नई दिल्ली सीट पर 4,568 वोट मिले और वे तीसरे स्थान पर रहे। 2013 में केजरीवाल ने दीक्षित की मां शीला दीक्षित को हराकर सीएम के तौर पर उनका शासन खत्म किया था।

वो सीटें जिन पर भारी पड़ा कांग्रेस से ‘हाथ’ छुड़ाना



मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार जंगपुरा में पूर्व डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया को भाजपा के तरविंदर सिंह मारवाह ने मात्र 675 वोटों से हराया। यहां कांग्रेस उम्मीदवार फरहाद सूरी को 7,350 वोट मिले। पटपड़गंज से तीन बार विधायक रह चुके सिसोदिया को आप ने जंगपुरा से इसलिए मैदान में उतारा, क्योंकि पटपड़गंज को आप के लिए मुश्किल सीट माना जा रहा था। ग्रेटर कैलाश में आप के भारद्वाज दो बार पार्षद रहीं भाजपा की शिखा रॉय से 3,139 वोटों से हार गए। यहां कांग्रेस के उम्मीदवार गर्वित सिंघवी को 6,711 वोट मिले। तीन बार विधायक रह चुके भारद्वाज केजरीवाल के अधीन गृह, स्वास्थ्य, बिजली और शहरी विकास मंत्रालयों के साथ कैबिनेट मंत्री भी थे और उनके जीतने की पूरी उम्मीद थी। मालवीय नगर में AAP के एक अन्य लोकप्रिय उम्मीदवार सोमनाथ भारती को भाजपा के पूर्व पार्षद सतीश उपाध्याय ने 1,971 वोटों से हराया। यहां कांग्रेस उम्मीदवार जितेंद्र कोचर को 6502 वोट मिले। "डिप्टी स्पीकर राखी बिड़ला एक और प्रमुख आप नेता थीं, जो कांग्रेस द्वारा जीत के अंतर से ज़्यादा वोट हासिल करने के बाद हार गईं। मंगोलपुरी से तीन बार विधायक रहीं बिड़ला को एससी-आरक्षित मादीपुर से मैदान में उतारा गया था। वह भाजपा के कैलाश गंगवाल से 11,010 वोटों से हार गईं, जबकि कांग्रेस उम्मीदवार हनुमान सहाय को 17,958 वोट मिले। राजिंदर नगर में दुर्गेश पाठक भाजपा के उमंग बजाज से 1,231 वोटों से हार गए। कांग्रेस उम्मीदवार विनीत यादव को यहां 4,015 वोट मिले। आप की राजनीतिक मामलों की समिति सदस्य पाठक ने पहली बार 2022 के उपचुनाव में ये सीट जीती थी, जब पार्टी विधायक राघव चड्ढा को राज्यसभा में नामित किया था। संगम विहार से आप विधायक दिनेश मोहनिया भाजपा के चंदन कुमार चौधरी से मात्र 316 वोटों से हारे, जो सबसे कम अंतर में से एक है। कांग्रेस के हर्ष चौधरी को 6,101 वोट मिले। तीन बार विधायक रह चुके मोहनिया को 2016 में यौन उत्पीड़न के एक मामले में जेल जाना पड़ा था, लेकिन बाद में उन्हें बरी कर दिया गया। अन्य सीटें जहां AAP उम्मीदवार इसी तरह हार गए, वे थीं बादली, छतरपुर, महरौली, नांगलोई जाट, तिमारपुर और त्रिलोकपुरी।

इन नतीजों से इंडिया ब्लॉक में बेचैनी और बढ़ गई है क्योंकि इसके कई सदस्यों ने आप और कांग्रेस के बीच गठबंधन का समर्थन किया था, साथ ही तृणमूल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने भी आप उम्मीदवारों के लिए प्रचार किया था। कांग्रेस ने भले ही कागजों पर कम से कम 13 सीटों पर आप की संभावनाओं को खराब किया हो, लेकिन वह एक भी सीट नहीं जीत सकी और 2020 के मुकाबले उसके कुल वोट शेयर में मामूली वृद्धि ही देखी गई।"

सवाल है कि क्या आप और कांग्रेस मिलकर लड़ते तो परिणाम अलग आते? दोनों पार्टियों के गठबंधन से चुनाव परिणाम पर पड़ने वाला प्रभाव आज भले ही अकादमिक प्रश्न लगे, लेकिन कुछ ऐसी सीटें ज़रूर थीं, जिस पर आप और कांग्रेस के मिलकर लड़ने से परिणाम बदल सकता था। ऐसी 13 सीट हैं जहां कांग्रेस के प्रत्याशी ने आप की संभावनाओं को नुकसान पहुंचाया, और जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिला। इंडिया गठबंधन जो बड़े वायदों के साथ पिछले साल लोकसभा चुनाव के दौरान साथ आया था, और जिसने भाजपा को बहुमत से बहुत पीछे रोक दिया था, वह हरियाणा और महाराष्ट्र के बाद इस बार दिल्ली में विफल रहा। हालांकि ज्यादातर लोग इस स्थिति के लिए कांग्रेस को नहीं, आप को ही ज्यादा जिम्मेवार मानते हैं।

खास है कि अरविंद केजरीवाल की हार पर कई समाजवादी लोग बहुत पीड़ा का अनुभव कर रहे हैं। उन सहित कईयों को मलाल है कि कांग्रेस ने यदि किनारा ना किया होता तो भाजपा दिल्ली ना जीतती। उन्हें इस बात पर गौर करना चाहिए कि इंडिया गठबंधन का रुख खुद केजरीवाल ने किया था उन्हें किसी ने भी पटना में हुई प्रथम बैठक में नहीं बुलाया था। स्वयं संयोजक नीतीश कुमार ने उन्हें बुलाना उचित नहीं समझा था। वरिष्ठ पत्रकार सुसंस्कृति परिहार के अनुसार, वजह साफ थी कि वे संघ के उस कुंड से निकले थे जो समाजवादियों और कांग्रेस से बुनियादी तौर पर नफ़रत करते रहे हैं। मगर इंडिया गठबंधन की दरियादिली ही थी कि उन्हें साथ लिया उनके रास्तों में आए कंटकों को दूर करने में हमेशा सहयोग दिया। लेकिन वे चुनाव में अपने गठबंधन प्रमुख कांग्रेस को ही भुला बैठे। ये हालांकि पहला अवसर नहीं था उन्होंने गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, हरियाणा में कांग्रेस और अन्य दलों की उपेक्षा की। वे अपनी पार्टी को बड़ी राष्ट्रीय पार्टी समझने लगे थे और उनका मुख्य लक्ष्य कांग्रेस को मिटाकर अपना वर्चस्व कायम करना था। वे संघ की बी टीम के सदस्य थे और कांग्रेस को हर जगह से उखाड़ फेंकने के काम में लगे थे। जो राष्ट्र प्रमुख मोदी जी की भावना को पुष्ट करता है। जो कांग्रेस साफ करने का मकसद लेकर चुनाव लड़ते हैं। इसी के तहत उन्होंने लगभग 90% कांग्रेस नेताओं पर पहले आपराधिक मामले दर्ज कराए उन्हें परेशान किया फिर सुलह कर उन्हें भाजपा में ना केवल प्रवेश दिया बल्कि उन्हें मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान भी दिया। लोगों का कहना सच है कि भाजपा वाशिंग मशीन में सब पाप धुल जाते हैं। 

परिहार के अनुसार, ये और बात है कि शेष जो 10% लोग हैं वे फिलहाल कठिन परिस्थितियों से जूझ रहे हैं। इनमें वर्तमान प्रतिपक्ष नेता राहुल गांधी, उनकी मां सोनिया गांधी जी और बहिन प्रियंका के परिवार पर भी आपराधिक मामले दर्ज किए गए, राहुल गांधी की सांसदी भी ख़त्म की गई पर वे अभी तक सुरक्षित हैं। राहुल पर चाहे जब राष्ट्रद्रोह की एफआईआर दर्ज की जाती है। ये राहुल गांधी की छाती है जो महात्मा गांधी के सत्य, अहिंसा और भाईचारे की भावना लेकर कांग्रेस की पुनर्वापसी के अपने चंद कार्यकर्ताओं के साथ ऐसी तानाशाह पार्टी से लोहा ले रहे हैं जिसने समस्त लोकतांत्रिक संस्थाओं को खरीद रखा है। चुनाव आयोग से लेकर न्याय व्यवस्था भी गुलाम है सरकार की। झूठ और छल का गठजोड़ हर जगह कांग्रेस को समाप्त करने के लिए बेताब है। ऐसे ही एक छली अरविंद केजरीवाल की जब असलियत उजागर होती है तो कांग्रेस को मजबूरन अपने प्रत्याशी यहां प्रमुख सीटों पर खड़े करने पड़े। कांग्रेस के अचानक प्रवेश को दलित और मुस्लिम समझ नहीं पाए उन्होंने यह समझा केजरीवाल जीत ही रहे हैं इसलिए जो वोट मिले हैं वह कांग्रेस के वोट हैं। 

बड़ा खेल भाजपा ने अपने चुनाव पूर्व बजट से खेला है जिसमें आयकर छूट की सीमा बढ़ाकर 12 लाख करना प्रमुख है। कर्मचारी बहुल दिल्ली ने भाजपा का दामन थामा। चुनावी प्रलोभन का यह मामला बनता है। बजट को चुनाव के बाद आना चाहिए था। यह एक सबक राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस के लिए तो है ही गठबंधन के वे सदस्य जो भाजपा के साथ सरकार में शामिल रहे हैं अविश्वसनीय हैं। कांग्रेस को अब एक नई सोच के साथ ही मेहनत करनी होगी। छली, भगोड़ों, पद लोलुपों और डरे हुए लोगों से कांग्रेस को मुक्त करना ही होगा। गठबंधन से सावधानी बरतनी होगी।

वरिष्ठ पत्रकार शकील अख्तर तो इससे भी आगे जाकर कहते हैं कि सिर्फ आम आदमी पार्टी के हारने से कांग्रेस खुश नहीं हो सकती! कांग्रेस को दिल्ली में अपनी जगह वापस लेने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। कहा कि यही वह पाइंट है जहां से कांग्रेस को आगे सोचना होगा। कांग्रेस को इसलिए कि वह राष्ट्रव्यापी दल है। सबसे बड़ा विपक्षी दल। बाकी विपक्षी दल उससे लड़ लिए, साथ भी आए, मोदी की तरफ भी झुके मगर कोई भी पूरे देश में अपनी वह स्थिति नहीं बना सका जो कांग्रेस की है। कमजोर से कमजोर होने के बावजूद वह हर गांव-मोहल्ले में है। इसलिए मोदी के खिलाफ अगर कोई लड़ सकता है तो वह कांग्रेस ही है।

मोदी कुछ नहीं दे रहे। नौकरी, रोजगार, महंगाई कम करना कुछ नहीं। केवल अपनी बातों के सहारे तीसरी बार केन्द्र में सत्ता में आ गए। क्यों? क्योंकि दूसरी तरफ उन्हें विपक्ष में जीत की ललक, भूख, तड़प दिखाई नहीं देती। जैसे घुड़दौड़ में दांव उसी घोड़े पर लगाया जाता है जो स्टार्टिंग लाइन पर थका सा खड़ा नहीं होता, दौड़ने के लिए बेताब होता है। सपा अभी मिल्कीपुर उप चुनाव हार गई। सबको मालूम था कि सरकार और प्रशासन इस चुनाव को हर हाल में जीतने के लिए कमर कस चुके हैं। मगर नतीजे आने के बाद तक अखिलेश यादव ने अपने तेवर ढीले नहीं छोड़े। लड़ते रहे। ऐसे ही ममता बनर्जी बंगाल में लगातार लड़ीं। बिहार में तेजस्वी लड़ रहे हैं। ऐसे मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात, उत्तराखंड में कांग्रेस कहीं लड़ते हुए दिखती है?

इसी से यही वह पाइंट है जहां से कांग्रेस को आगे सोचना होगा। कांग्रेस को इसलिए कि वह राष्ट्रव्यापी दल है। सबसे बड़ा विपक्षी दल। बाकी विपक्षी दल उससे लड़ लिए, साथ भी आए, मोदी की तरफ भी झुके मगर कोई भी पूरे देश में अपनी वह स्थिति नहीं बना सका जो कांग्रेस की है। कमजोर से कमजोर होने के बावजूद वह हर गांव-मोहल्ले में है। इसलिए मोदी के खिलाफ अगर कोई लड़ सकता है तो वह कांग्रेस ही है। बाकी कोई भी विपक्षी दल इस स्थिति में नहीं है। और न ही वे सब मिलकर माइनस कांग्रेस यह कर सकते हैं।

दिल्ली में यह प्रयोग किया था। समाजवादी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस ने की कांग्रेस के विरोध में आम आदमी पार्टी को समर्थन देने का। मगर मोदी नहीं रुके। अब शायद यह दोनों आम आदमी पार्टी का साथ देना छोड़ दें! मगर सिर्फ उससे मोदी कमजोर नहीं होंगे। उसके लिए जरूरी है कि अपने राज्यों के बाहर जहां कांग्रेस भाजपा से सीधे मुकाबले में है वहां कांग्रेस का समर्थन करना। लेकिन उसके लिए कांग्रेस को खुद को मजबूत करना जरूरी है। छोटे-छोटे कारणों से खुश होने से बचने की जरूरत है। 70 और 80 के दशक में भारत की क्रिकेट टीम केवल टेस्ट बचा कर खुश हो जाती थी। हम लोग उस समय ड्रा को जीत मानने लगे थे। बैट्समेन हाफ सेंचुरी से ड्यूटी पूरी मान लेता था और बालर तीन विकेट से टीम में जगह पक्की। उस सोच से कांग्रेस को निकलना होगा। लोकसभा में 240 पर मोदी को रोक दिया अब उससे आगे सोचना होगा।

दिल्ली चुनाव का यही सबक है। आम आदमी पार्टी को बीच से हटा दिया ठीक है। मगर अब इतनी मेहनत करने की जरूरत है कि दिल्ली वालों को लगे कि यहां मुख्य विपक्षी दल आम आदमी पार्टी नहीं कांग्रेस है। नेतृत्व पैदा करना पड़ेगा। सबसे बड़ी बात है संगठन का काम सर्वोच्च प्राथमिकता का समझ कर दिलचस्पी से करना होगा। सिलसिला शुरू हो गया है। कांग्रेस अध्यक्ष खरगे और राहुल गांधी ने कुछ मीटिंगें की हैं। इनमें संगठन महासचिव के सी वेणुगोपाल भी शामिल थे। इसे जल्दी पूरा करना होगा।

कांग्रेस ने अपनी बेलगावी वर्किंग कमेटी में कहा है कि यह साल 2025 संगठन का साल होगा। करना चाहिए। एक बार में पूरे संगठन की घोषणा। लोगों को याद भी नहीं होगा कि आखिरी बार कब कांग्रेस का पूरा संगठन बना था। 2004 मेंसोनिया गांधी ने बनाया था। उसके बाद से छोटे-मोटे परिवर्तन होते रहे। कांग्रेस की भाषा में एडजस्टमेंट। लेकिन तमाम राज्यों में जिला ब्लाक लेवल पर कुछ भी नहीं है। कांग्रेसी भूल गए कि कभी जिला कांग्रेस अध्यक्ष, ब्लाक कांग्रेस अध्यक्ष कितना प्रभावशाली हुआ करते था। इन्दिरा गांधी के यहां सांसद, विधायक को अपाइंटमेंट मिले या न मिले जिला और ब्लाक अध्यक्षों के लिए कभी मना नहीं होता था। सोनिया गांधी ने एक बार दिल्ली में ब्लाक कांग्रेस अध्यक्षों का सम्मेलन करवाया था। वे कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन भी करवाती थीं। अब कम सही मगर फिर भी मुख्यमंत्री तो हैं। इनको एक साथ बिठाकर बात करना चाहिए कि क्या कर रहे हो जो कुछ नया हो जिसे हम देश भर में बता सकें। भाजपा शासित राज्यों से अलग क्या किया?

कांग्रेस को मोदी से मुकाबला करने के लिए बहुत सारे मोर्चों पर काम करने की जरूरत है। केजरीवाल हार गए, मोदी 240 पर रुक गए, से आगे सोचने की जरूरत है।

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