नोटबंदी की मार से बनारसी साड़ी कारोबार का अनोखा उधारी सिस्टम ठप

Written by Teesta Setalvad | Published on: December 23, 2016

नोटबंदी ने बनारस साड़ी उद्योग की रीढ़ यानी उधारी पर लेन-देन पर गहरी चोट की है। यहां पूरा का पूरा कारोबार उधार पर होता है। पोस्ट डेटेड बियरर चेक से ही काम होता है। यह पोस्ट डेटेड बियरर चेक प्रॉमिसरी नोट के तौर पर सिल्क खरीदने के लिए भी बैंक में भुनाए जाने से पहले छह नहीं तो कम से ही तीन हाथों से तो गुजरता ही है।


वाराणसी में 8 से 15 नवंबर के बीच लाखों-करोड़ों रुपये के रेशम के धागे खरीदे गए। इससे रेशम की कीमत प्रति किलो कई हजार रुपये तक बढ़ गई। नोटबंदी शुरू होते ही रेशम उत्पादकों और कारोबारियों ने कारोबार के लिहाज से व्यावहारिक कदम उठाया। अपने पास मौजूद नोटों को उन्होंने रेशम खरीदने में इस्तेमाल किया।

वाराणसी की गलियों में घूमते हुए आपका सामना वहां पसरे सन्नाटे से होगा। नोटबंदी के बाद यहां के बुनकरों का यह सीजन ठहर सा गया है और बाजार एक अजीब तरह की जकड़बंदी से घिर चुका है।
वाराणसी हिंदुओं और बौद्धों का आध्यात्मिक और धार्मिक केंद्र है। साथ ही यह एक विशाल और पेचीदा कारोबारी और उत्पादन केंद्र है, जिसमें तमाम छोटे-बड़े बाजार और अपने दम पर खड़ा मशहूर रेशम बुनाई उद्योग समाया है। वाराणसी की यह दोनों पहचान अहम है।

बनारस का कारोबार का अहम हिस्सा यानी – कारोबारी और उत्पादन, दोनों पक्ष, भारी नकदी प्रवाह पर टिका है। दोनों जगह उधारी लेने-देने के लिए सालों से चली आ रही एक जटिल व्यवस्था चली आ रही है। इसके तहत कर्ज के लेन-देन के लिए कागज पर लिखे नोट्स का आदान-प्रदान होता है। यह सिस्टम यहां दशकों से चल आ रहा है। लेकिन बगैर सोचे-समझे नोटबंदी का फैसला लागू होने के बाद अब वहां कारोबार पूरी तरह ठप पड़ा है।

31 दिसंबर या फिर कैश-क्रेडिट के नए सिस्टम के आने तक इंतजार करने से पहले वाराणसी में छोटे-बड़े कारोबारी से लेकर 10-15 लाख बुनकरों और उद्योगपतियों के बीच 8 और 15 नवंबर के बीच जबरदस्त हलचल दिखी।

वाराणसी में 8 से 15 नवंबर के बीच पूरे देश में जिस तरह बढ़ी हुई कीमतों पर सोने की बिक्री हुई उस तरह वाराणसी में काफी महंगे दामों में रेशम बिका। रेशम की कीमत प्रति किलो चार रुपये से लेकर 5000 रुपये तक बढ़ गई। एक बड़े रेशम उत्पादक ने नाम न छापने की शर्त पर इस लेखिका से कहा – पैसों का रेशम बन गया।

एक दूसरे मध्य वर्गीय उस्ताद बुनकर ने अपने 40 लाख रुपये के पुराने नोटों से शुद्ध वाराणसी धागे की खरीदारी कर ली (गौरतलब है कि पीएम मोदी की ओर से 8 नवंबर को 500 और 1000 के पुराने नोटों को बंद करने का ऐलान कर दिया गया था)। ऐसा इस विश्वास से किया गया कि रेशम कहीं जाने वाला नहीं है और बाद में इसका इस्तेमाल साड़ी बुनाई कारोबार में हो जाएगा। कई कारोबारियों ने इस लेखिका को बताया कि रेशम खरीदने के लिए गुजरात के सूरत से भी पैसों का लेन-देन हुआ है।

रेशम की साड़ियों का पर्याय वाराणसी लाखों उस्ताद बुनकरों का घर है। हालांकि पावरलूम की बुनाई हथकरघों से बुनाई की शुद्धता पर हावी हो गई है लेकिन हो बनारसी साड़ियों की अहमियत कम नहीं हुई है। अब भी वहां साड़ियों की कीमत 1,00,000 रुपये तक जा सकती है। प्योर सिल्क से बुनाई , इसकी बारीकियों और इसके आनंद को कोई पारखी ही समझ सकता है।

वाराणसी में साड़ी निर्माण उद्योग से 10 -15 लाख लोग गहरे जुड़े हैं। इनमें से सिर्फ आधे ही मुसलमान हैं। हालांकि बुनकर कहने से मन में किसी उस्ताद मुस्लिम कारीगर की छवि उभरती है। लेकिन साड़ी निर्माण और कारोबार का कम से कम आधा लाभ गैर मुस्लिमों को हिस्से जाता है। रेशम के धागे की खरीद से लेकर बुनाई और बुनी हुई साड़ियो का पूरा कारोबार कैश पर नहीं बल्कि उधारी पर पैसों के लेन-देन (क्रेडिट फ्लो) पर टिका है। बल्कि यूं कहिये  क्रेडिट फ्लो पर यह कुछ ज्यादा ही टिका है।

कारोबारी केंद्र
बनारस बढ़ते कारोबार और बाजार का केंद्र है। यह शहर पूर्वी उत्तर प्रदेश यानी पूर्वांचल, पश्चिम और मध्य बिहार और उत्तरी मध्य प्रदेश का कारोबारी केंद्र है। इन राज्यों के लगभग 48 जिलों में यहां से माल जाता है। यहां की थोक मंडियों से इन जिलों के बाजारों में सामान की निरंतर सप्लाई होती है। हर जरूरी चीज- यानी घी से लेकर तेल और सूजी से लेकर मैदा (मिठाइयों के लिए इस्तेमाल होता है) तक की सप्लाई यहां से होती है। यहां की कई मंडियां शादी का सामान बेचती हैं। खुदरा विक्रेता ये सारा सामान यहां की थोक मंडियों से खरीदते हैं।

लेकिन 8 नवंबर के बाद यहां के थोक और खुदरा बाजार में कारोबारी गतिविधियां लगभग ठप है। दुकानों के शटर गिरे हुए हैं। पैसों का लेनदेन रुक गया है। बचत खाते से सप्ताह में 24000 और थोक बाजार से 50000 रुपये साप्ताहिक निकासी की हदबंदी की वजह से कारोबारी न तो सामान बेच पा रहे हैं और न ही खरीद पा रहे हैं। इस लेखिका को नाम न छापने की शर्त पर एक व्यापारी ने कहा कि इतनी बुरी स्थिति है कि बड़े-बड़े कारोबार करने वाले रिक्शा चला रहे हैं।

अध्येता और राजनीतिक कार्यकर्ता अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने सबरंगइंडिया से कहा ‘’चाहे वह हथकरघा से बुनाई का कारोबार हो या पावरलूम से। पूरा का पूरा कारोबार कैश पर टिका है। नोटबंदी की वजह से स्थानीय अर्थव्यवस्था बिल्कुल रुक गई है। न सिर्फ यह ठहर गई है बल्कि बर्बाद हो गई है। नोटबंदी का कोई फायदा नहीं हुआ है। वाराणसी में अर्थव्यवस्था नकदी पर चलती है। यहां कागज के एक टुकड़े जिसे हुंडी कहते हैं, पर पूरा कारोबार चलता है। हुंडी एक तरह की गारंटी होती है कि आपको जितने पैसे (उधारी या नकदी के तौर पर) देने का वादा किया गया है उसे पूरा किया जाएगा। यह बरसों पुरानी  कारोबारी परंपरा है और अब इसने एक मजबूत व्यवस्था का रुप ले लिया है। वाराणसी के सिल्क उद्योग की यह उत्पादन व्यवस्था नोटबंदी के एक क्रूर ठोकर में ही ध्वस्त हो गई है।‘’

अखिलेंद्र कहते हैं- सोचिए अगर किसी राज्य या देश में उत्पादन की पूरी व्यवस्था और कारोबार ही ध्वस्त हो जाए तो अर्थव्यवस्था का क्या हाल होगा। बगैर सोचे-समझे नोटबंदी के फैसले ने इस उत्पादन और कारोबारी व्यवस्था पर निर्भर लाखों लोगों को बुरी तरह प्रभावित किया है। बनारस में सिल्क के कारोबार और उत्पादन से जुड़े बुनकर, छोटे उत्पादक और कारोबारी नोटबंदी के इस फैसले से पूरी तरह बर्बाद हो गए हैं। मेरी रिपोर्ट कहती हैं कि 70 फीसदी स्थानीय अर्थव्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो गई है। बुनाई और कालीन उद्योग के एक बड़े केंद्र भदोही में 60 फीसदी काम बंद हो गया है। परेशान होकर लोग अपने गांवों की ओर लौट रहे हैं। नकदी नहीं तो काम नहीं।

बनारस के साड़ी उत्पादक केंद्र की अर्थव्यवस्था
बनारस के साड़ी उद्योग में नकदी और उधारी के प्रवाह का मॉडल अनोखा है। यह अपने आप में अनोखा बिजनेस मॉडल है। यह मॉडल नकदी प्रवाह के चारो ओर घूमता है और इसके केंद्र में है बुनकर।
वाराणसी साड़ी के एक छोटे उत्पादक और लेखक अतीक अहमद सबरंगइंडिया के साथ घंटे भर के इंटरव्यू में इस पूरी व्यवस्था को समझाते हैं। वह कहते हैं- बड़े शहरों के थोक विक्रेता बुनकरों, छोटे निर्माताओं और उस्ताद बुनकरों की ओर से तैयार साड़ियां खरीदते हैं। यह पूरा कारोबार सौ फीसदी उधार पर चलता है।

कैसे काम करती ही यह व्यवस्था
कम से कम 10 से 15 लाख लोग बनारसी साड़ियों के कारोबार से जुड़े हैं। इनमें से आधे मुस्लिम और आधे गैर मुस्लिम हैं। बुनकरों या छोटे साड़ी उत्पादकों, निर्माताओं को हमेशा पोस्ट डेटेड बियरर चेक से पेमेंट किया जाता है।

अतीक बताते हैं- पोस्ट डेटेड बियरर चेक एक क्रेडिट या प्रॉमिसरी नोट की तरह तीन तरह से इस्तेमाल किए जाते हैं। यह बुनकर या उत्पादक की माली हालत की मजबूती पर निर्भर होता है।
अतीक समझाते हैं-  इन तीनों में से किसी भी एक परिस्थिति में एक बियरर चेक कम से कम तीन-चार हाथों से होकर गुजरता है। बैंक में भुनाए जाने से पहले कई बार यह छह हाथों से होकर गुजरता है। बियरर चेक प्रॉमिसरी नोट और क्रेडिट नोट दोनों तरह से इस्तेमाल होता है। 

बनारस का बट्टावाला
बट्टा का शाब्दिक अर्थ है छूट।  अतीक कहते हैं, जिन तीन परिस्थितियों की हमने बात की है। उनमें सबसे आखिरी है बट्टा वाला। जब भी कोई चेक बट्टावाला के पास जाता है तो इसे उसके पास ले जाने वाले बुनकर को एक छोटा हिस्सा (फीसदी में) में काट कर कैश दे दिया जाता है। यह कटौती (फीसदी में) चेक में दस्तख्त करने वाले शख्स या पक्ष की वित्तीय स्थिति पर निर्भर करती है । अगर उसकी उधारी चुकाने की क्षमता अच्छी होती है तो दो फीसदी बट्टा लेकर कैश दे दिया जाता है। जिसकी साख नहीं है उसका चेक ले जाने वालों को चार फीसदी बट्टे पर कैश मिलता है। इसलिए छोटे बुनकरों को कई बार चार-पांच फीसदी बट्टा देना पड़ता है।
 
कौन हैं ये बट्टे वाले
बनारस में चौक पर हर दिन दोपहर तीन बजे से सात बजे तक तमाम बट्टे वाले मौजूद रहते हैं। वहां लगभग 2 से 4 हजार बट्टे वाले बैठे होते हैं जो पोस्ट डेटेड बियरर चेक का कारोबार करते हैं। धंधे का सबसे व्यस्त समय दोपहर तीन बजे से शाम सात बजे तक होता है। दरअसल ये बट्टेवाले पार्ट टाइम उधारी देने वाले होते हैं। ये बड़े फाइनेंसरों के मुखौटे होते हैं जो जरूरत पड़ने पर पार्टी को पैसे उधारी पर देते हैं।

अतीक बताते हैं कि इस धंधे में सबसे ऊपर बट्टावाला ही होता है। उसकी चलती है। खास कर यह चलती ईद या दीवाली के त्योहारी सीजन में और बढ़ जाती है। जब छोटे उत्पादकों को पोस्ट डेटेड चेक पर तुरंत पैसे चाहिए होते हैं ताकि परिवार वालों लिए त्योहार के कपड़े और दूसरे साजो-सामान लिए जा सकें।

8 नवंबर की रात और नोटबंदी
 आठ नवंबर की रात नोटबंदी के फैसले के बाद उधारी पर चलने वाली बनारस की साड़ी मंडी के पूरे काराबोर को लकवा मार गया। मोदी के नोटबंदी के फैसले ने पूरे क्रेडिट फ्लो को ठप कर दिया। हालांकि अभी यह पूरी तरह पता नहीं चल सका है कि नोटबंदी के इस फैसले का आखिरकार इस पेचीदा लेकिन व्यावहारिक कारोबारी व्यवस्था पर क्या दूरगामी असर होगा। साड़ी उत्पादकों पर इसका क्या असर होगा। दुकानदार कैसे प्रभावित होंगे। उधारी के प्रवाह की क्या स्थिति होगी। बनारस के उस उद्योग में 8 नवंबर के बाद अब कोई भी पोस्ट डेटेड चेक नहीं ले रहा है क्योंकि किसी को पता नहीं है कि 31 दिसंबर के बाद बैंक से पैसे निकालने की सीमा क्या होगी।

नोटबंदी के बाद सरकार लगातार उलझी हुई दिख रही है और हर दिन पहले के आदेश को रद्द कर दूसरा आदेश जारी कर रही है। करंट अकाउंट से सरकार ने निकासी की सीमा 50000 तय की है जबकि साड़ी कारोबार में लगे सामान्य कारोबारी को भी हर दिन बैंक से पांच लाख रुपये निकालने पड़ सकते हैं। अब वे कहां से पैसे लाएंगे। लोगों में रोष और गुस्सा है और वे बड़ी बेसब्री से इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि 31 दिसंबर के बाद सरकार नकद निकालने के क्या नियम बनाती है।   

साड़ी बुनाई कारोबार पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश की रीढ़ की हड्डी है। यहां तक कि लोग कृषि से ज्यादा इस पर निर्भर हैं। बनारस की 38 लाख की आबादी में से 10-15 लाख साड़ी उत्पादन के कारोबार से जुड़े हैं। 
 
बैकग्राउंड
नोटबंदी का क्रूर फैसला बनारस के साड़ी के बुनकरों, उत्पादकों, दुकानदारों और छोटे-बड़े कारोबारियों पर कहर बन कर बरपा है। पिछले तीन साल में इस बार पहली बार बुनकरों और उत्पादकों को इस शादी सीजन में जबरदस्त कमाई की उम्मीद थी। गुजरात के सूरत के वर्चस्व वाले नकली सिल्क साड़ी के कारोबार ने बनारस के साड़ी उद्योग का काफी कारोबार हड़प लिया है। नरेंद्र मोदी के बनारस से चुनाव जीतने के बावजूद बनारस के साड़ी उद्योग का भला नहीं हुआ है। सूरत में कृत्रिम रेशम के धागे से साड़ी बुनी जाती है। यह कम कीमत पर उपलब्ध है। सूरत की नकली सिल्क की साड़ी ने बनारस के बुनकर उद्योग को खासी चोट पहुंचाई है। इससे असली बनारसी साड़ियों की कीमत कम रखने का दबाव पैदा हुआ है।

केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय (अब वस्त्र) के आंकड़ों के मुताबिक देश के 38.47 लाख वयस्क बुनकरों और सहायक कामगारों में 77 फीसदी महिला और 23 फीसदी पुरुष बुनकर हैं। दस फीसदी बुनकर अनुसूचित जाति के हैं। 18 फीसदी अनुसूचित जनजाति के हैं। ओबीसी समुदाय के बुनकर 45 और अन्य जातियों के 27 फीसदी के हैं। (यह स्पष्ट नहीं है कि मंत्रालय के इस आंकड़े के मुताबिक अन्य जातियों के बुनकरों का आशय बेहद उच्च कारीगरी करने वाले मुस्लिम बुनकरों से है या नहीं)।

 

 

 

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