टीवी टुडे के ‘लल्लनटॉप इतिहासकारों’ ने बहादुरशाह ज़फ़र की आँखें फोड़ीं…भारत सम्राट को “मुख़बिर” बताया !

Written by पंकज श्रीवास्तव | Published on: August 13, 2016

 
दो-तीन दिन से जारी बेचैनी से निजात पाने के लिए बोलना ज़रूरी था, पर अक़्ल के घोड़े रोके हुए थे। बार-बार कह रहे थे कि पानी में रहकर कब तक मगर से बैर लेते रहोगे ? लेकिन रेडियो मिर्ची पर अभी-अभी सआदत हसन मंटो की कहानी ‘ सन1919 की एक बात’ सुनने के बाद इन घोड़ों की लगाम कसने की ताक़त हासिल हो गई। पुराने दोस्त दारेन शाहिदी की पुरक़शिश आवाज़ में एक जिस्म बेचने वाली औरत के बदन से पैदा हुए बाग़ी नौजवान के शरीर में धँसी अंग्रेज़ी गोलियों का दर्द जैसे अपने जिस्म में फूट पड़ा जो बुज़दिली और ख़ुदगर्ज़ी के तमाम अहसास को बहा ले गया।

‘बोलना ज़रूरी है’, यह विचार तब भी आया था जब पहली बार इस लेख को पढ़ा था। पहले ग़ुस्सा मगर फिर ख़्याल आया कि क्या मैंने ठेका ले रखा है मीडिया में हो रही ग़लतियों को उजागर करने का ?…मैं क्यों रोज़ किसी न किसी मीडियावाले से रिश्ते बिगाड़ता जा रहा हूँ ? यह तो कुल्हाड़ी पर पाँव मारने की हरक़त है..! पर 'दी लल्लनटॉप.कॉम' पर 9 अगस्त को शाया हुई इस ख़बर को अभी तक यानी 12 अगस्त रात 11 बजे तक 13,693 लोग शेयर कर चुके हैं। ज़ाहिर है, इसे लाखों पढ़ चुके हैं और आगे भी न जाने कितने लाख पढ़ेंगे। वे तो यही समझेंगे कि 1857 की क्रांति में हिंदुस्तान का प्रतीक बनकर उभरा वह 80 बरस का बूढ़ा बादशाह बहादुरशाह बहादुरशाह ज़फ़र अंग्रेज़ों का मुख़बिर था और यह भी कि वह अंधा होकर मरा। इस झूठ को बरदाश्त करते हुए चुप कैसे रहा जाए ?

लल्लनटॉप' यानी..? दरअसल, यह ‘आज तक’ जैसे सबसे तेज़ चैनल और पत्रिका इंडिया टुडे प्रकाशित करने वाले टीवी टुडे  की एक वेबसाइट है। ख़ासतौर पर युवाओं को समर्पित है।

zafar lallon

चीजों को हल्के-फ़ुल्के अंदाज़ में लिखने की अदा हिट्स पाने का उसका अपना नुस्खा है। पर हल्क़ापन इस क़दर बढ़ जाएगा, उम्मीद न थी। जिस लेखनुमा ख़बर ने मुझे बेचैन कर रखा है, उसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं। आज़ादी का जश्न मनाते हुए यह साइट 9 अगस्त से रोज़ाना 1857 की क्रांति से जुड़ा एक क़िस्सा छाप रही है। यह सिलसिला 15 अगस्त तक चलेगा।

बहरहाल,मक़सद जिस खबर से है वह 9 अगस्त को 'ऋषभ प्रतिपक्ष' की बाइलाइन से छपी है। ख़बर का शीर्षक है-दिल्ली में 22 हज़ार मुसलमानों को एक ही दिन फाँसी पर लटका दिया गया ! लेकिन इसमें दी गई जानकारियों में यह दो दावे ख़ास चौंकाने वाले हैं—
 
1.लड़ाई अपने तय समय से पहली शुरू हो गयी थी. क्योंकि मंगल पाण्डेय ने कारतूस में चर्बी के नाम पर अपने एक अफसर को मार दिया था. सैनिक वहीं से विद्रोह कर गए. जब बहादुरशाह जफ़र को इसके बारे में बताया गया तो उन्होंने ब्रिटिश अफसरों को खबर कर दी. पर फिर भी उनको नेता बना लिया गया. 

2. बहादुरशाह जफ़र की आंखें फोड़कर उनको रंगून भेज दिया गया. आंखें फोड़ने से पहले उनके बेटों को उनके सामने ही क़त्ल कर दिया गया. 

यानी बहादुरशाह ज़फ़र ने मंगल पांडेय के विद्रोह की ख़बर अंग्रेजों को दे दी थी (मुख़बिरी की ! )। फिर भी उनको नेता बनाया गया (वे इस लायक़ नहीं थे !) । उनके बच्चों को उनके सामने कत़्ल किया गया और उनकी आँखें फोड़ दी गईं (रंगून अंधा बनाकर भेजा गया !)

मैं सोच रहा था कि आख़िर ख़बर लिखने वाले को यह सब पता कहाँ से चला होगा। क्या इतिहास से जुड़ी किसी जानकारी को बिना स्रोत का ज़िक्र किये, ‘कहा जाता है’, ‘सुना जाता है’ के अंदाज़ में लिखा जा सकता है? फिर लगा कि लिखा जा रहा है तो ‘लिखा जा सकता है ? ’ जैसा सवाल मेरी मूर्खता का ही प्रमाण है।

आख़िर सच क्या है…. ?
सच यह है कि मंगल पांडेय की बग़ावत से जुड़ी ख़बर पाकर बादशाह ज़फ़र की प्रतिक्रिया बिलकुल उलट थी। क्रांति की नाकामी के बाद जब लालकिले में ज़फ़र के ख़िलाफ़ मुक़दमा चला तो शाही हक़ीम एहसन उल्ला खाँ ने अपनी गवाही में यह दर्ज कराया-

"मुझे वह महीना याद नहीं है जबकि कलकत्ता रेजीमेंट ने सबसे पहले चर्बी के नए कारतूस लेने से इंकार किया था और उसकी ख़बर बादशाह को मिली। मुझे इतना याद है कि कलकत्ता के किसी अख़बार से यह सूचना मिली थी और जब कारतूसों की स्थान-स्थान पर चर्चा फैली तो यह अनुमान किया गया था कि जितनी अधिक चर्चा होगी उतनी ही अधिक उत्तेजना देश के कोने-कोने में फैलेगी और देशी सेना  अंग्रेजों का नाश करके राज्य को उलट देगी। उस समय बादशाह ने प्रकट किया था कि उनकी दशा अच्छी होगी क्योंकि जो शक्ति राज्य का भार लेगी, वह उनकी इज़्ज़त करेगी।"
(पेज 152, ‘बहादुर शाह का मुक़दमा’ संपादक- ख़्वाजा हसन निज़ामी..(हिंदी अनुवाद) प्रकाशक- स्वर्ण जयंती, संस्करण 1999)

यानी ज़फ़र को उम्मीद थी कि देशी सेना की जीत में उनके सिंहासन या मुग़लिया सल्तनत का रौब लौट आयेगा। ऐसे में उनकी मुख़बिरी का मक़सद क्या हो सकता है ? और क्या अंग्रेज़, सूचना पाने के लिए लालक़िले में बैठे पेंशनयाफ़्ता बूढ़े बादशाह पर निर्भर थे ? अंग्रजों के पास अपना और प्रभावी सूचना तंत्र था जिसका कोई मुक़ाबला न था। दूसरे, जो ख़बर अख़बार के ज़रिये बादशाह तक पहुँची, वह अंग्रेज़ों से कैसे छिपी रह सकती थी ?

लल्लनटॉप को शिकायत है कि ज़फ़र ने ब्रिटिश अफ़सरों को ख़बर कर दी, फिर भी बाग़ियों ने उन्हें नेता बना दिया। शायद 'लल्लनटॉप इतिहासकारों' को अंदाज़ा नहीं कि बाग़ी सिपाहियों की नज़र में ज़फ़र की क्या अहमियत थी। दरअसल, मुग़लिया सल्तनत जिस भी हाल में थी, भारत का प्रतीक थी। अंधेरे में इस बुझते चिराग़ को सूरज बनाने की ठानने वाले क्या सोचते हैं, इसका कुछ अंदाज़ा ख़्वाजा हसन निज़ामी यूँ देते हैं—

"10 मई 1857 को मेरठ छावनी में हुए सिपाही विद्रोह के बाद बाग़ी सेनाओं ने सीधे दिल्ली के लालकिले की ओर कूच किया था और 11 मई की सुबह वहाँ पहुँचकर, अंग्रेज़ों की पेंशन पर गुज़ारा कर रहे और नाम-भर के बादशाह रह गए, बहादुरशाह के आगे गुहार की थी, “ हे धर्मरक्षक, दीन के गुसैंया, हम धर्म को बचाने के लिए अंग्रेज़ों से बिगाड़कर आए हैं। आप हमारे सिर पर हाथ रखें और इंसाफ़ करें। हम आपको हिंदुस्तान का शहंशाह बनाना चाहते हैं।” बादशाह ने अपनी तंगहाली बयान की, “ मेरे पास ख़ज़ाना भी नहीं है कि तुम्हें तनख़्वाह दे सकूँ, न फौज ही है कि तुम्हारी मदद कर सकूँ, सल्तनत भी नहीं कि तुम लोगों को अमलदारी में रख सकूँ।” जवाब में सिपाहियों ने कहा “हमें यह सब कुछ नहीं चाहिए। हम आपके पाक कदमों पर अपनी जान कुर्बान करने आए हैं। आप बस हमारे सिर पर हाथ रख दीजिए।”

 इसके बाद आकाशभेदी जयकारों व तालियों की गड़गड़ाहट के बीच बहादुर शाह ज़फ़र एक बार फिर सचमुच के हिंदुस्तान के बादशाह और हिंदुस्तान की पहली जंगे आज़ादी के नेता बन गए। तोपख़ाने ने 21 तोपों दाग़कर उन्हें सलामी दी।

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यह आँखों देखा हाल बताता है कि बहादुर शाह ज़फ़र को मुख़बिर बताना कितनी बड़ी हिमाक़त है। यह सच है कि मुकदमे के दौरान ज़फ़र ने दलील दी थी कि उन्होंने सैनिकों के दबाव में विद्रोह की कमान संभाली थी, लेकिन अंग्रेजों ने तमाम सबूतों और गवाहों के आधार पर ज़फ़र को ‘पक्का षड़यंत्रकारी’ और ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ जंग करने वाला माना और उन्हें सज़ा सुनाई। कोई लल्लनटॉप गवाह यह साबित नहीं कर पाया कि, "हुज़र, ये तो आपके मुख़बिर हैं..पुराने वफ़ादार, इन्हें क्यों सज़ा दे रहे हैं.?."  

इसी तरह लल्लनटॉप ख़बर देती है कि बादशाह की आँख फोड़ दी गई थी। यह बात न इसके पहले सुनी गई, न पढ़ी गई। बेहतर होता कि लेखक इस जानकारी का स्रोत भी बताता। इसी तरह ‘बादशाह की आँख फोड़ने से पहले शहज़ादों को उनके सामने क़त्ल’ करने की बात भी कल्पना की उड़ान है। सच्चाई यह है कि 22 सितंबर 1857 को तीनों शहज़ादों मिर्ज़ा मुग़ल, अबू बक्र और ख़िज्र सुल्तान को दिल्ली गेट के पास ख़ूनी दरवाज़े पर गोलियों से भून डाला गया। तीनों शहज़ादो का सिर काटे गये और फिर एक थाल में सजाकर और उन्हें रेशमी कपड़ों में ढंककर, हुमायूँ के मक़बरे से पकड़कर लालक़िले में क़ैद करके रखे गये बहादुरशाह ज़फ़र और बेग़म ज़ीनत महल के सामने पेश किया गया। बहादुर शाह ने कपड़ा हटाकर कटे हुए सिरों को देखा तो कहा —“हमारे तैमूरी ख़ानदान के लोग हमेशा इसी तरह सुर्खरू होकर सामने आते हैं।”

अंग्रेज़ों ने ज़फ़र को रंगून भेज दिया ताकि विद्रोह का कोई केंद्रीय प्रतीक भारत में न रहने पाये। ज़फ़र आला दर्ज़े के शायर थे। उनकी आँखें सलामत थी। लिखना-पढ़ना रंगून में भी जारी रहा जहाँ में 7 नवंबर 1862 को उनका इंतक़ाल हुआ। ज़फ़र का यह शेर बड़ा मशहूर है-

‘कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिए, दो ग़ज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में..’

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 ( यह बर्मा भेजे जाने से पहले लालक़िले में क़ैद और बीमार बहादुरशाह ज़फ़र की वास्तविक तस्वीर है। आँखें सलामत नज़र आ रही हैं। )

क्या लल्लनटॉप की आलोचना का अर्थ यह है कि मैं पत्रकारों से इतिहास या किसी अन्य विषय का 'ज्ञाता' होने की अपेक्षा कर रहा हूँ ? बिलकुल नहीं। बस मैं इतना कह रहा हूँ कि जब कोई रिपोर्ट करे तो उसके स्रोत के बारे में जानकारी ज़रूर दे। इतिहास का ज्ञाता होना सबके लिए मुमकिन नहीं, लेकिन एनसीईआरटी या एनबीटी की किताबें तो अपने पास रखी ही जा सकती हैं, अगर इतिहास पर लिखने का शौक़ है तो !

हैरानी यह भी है कि लल्लनटॉप में छपा यह लेख अगर चार दिनों से पढ़ा और शेयर किया जा रहा है तो इसकी ग़लतियों पर, टीवी टुडे के फ़िल्म सिटी, नोएडा वाले 'शीशमहल' में मौजूद तमाम संपादकों और आला प्रोड्यूसरों की नज़र क्यों न गई ? अरुण पुरी ने मीडिया इंडस्ट्री के एक से एक नगीनों को इकट्ठा कर रखा है जो यह काम आसानी से कर सकते थे। वे लल्लनटॉप के संपादक से ग़लतियाँ दुरुस्त करने के लिए कह सकते थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ ! कहीं ऐसा तो नहीं कि वे इस साइट को तवज्जो लायक़ नहीं पाते.. अगर सचमुच ऐसा है तो अरुण पुरी जी से पूछा जाना चाहिए कि फिर करोड़ों हिंदी भाषी जनता ने ही क्या बिगाड़ा है ?

यह कहानी संपादकीय संस्था के बरबाद हो जाने का एक आदर्श नमूना है। एक ज़माने में संवाददाताओं की कॉपी को छह हज़ार रुपये पाकर रिटायर हो जाने वाला उप संपादक मुँह पर दे मारता था। रिपोर्टर को बार-बार कॉपी दुरुस्त करनी पड़ती थी। वह ‘ग्रो’ करता था। लेकिन आजकल यह काम जैसे बंद ही हो गया है। रिपोर्टर को पता ही नहीं चलता कि उसने जो लिखा है, उसमें क्या ग़लती है। वह बस वाह-वाही पर पलता है, और यूँ ही न जाने कितने ऋषभ, ‘वृषभ’ में बदल जाते हैं।
बहरहाल, घड़ी बता रही है कि तारीख़ बदल गई है। तवारीख़ के साथ खिलावड़ की इस कोशिश के ख़िलाफ 'चींटी भर चेष्टा' ने सीने का बोझ कुछ हल्का कर दिया है। अब घर में मढ़वाकर रखी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से मिली इतिहास की डी.फ़िल डिग्री, चुप्पी पर सवाल उठाते हुए शर्मिंदा नहीं करेगी।

लेकिन क्या कभी वे भी शर्मिंदा होंगे जो ज़फ़र को इस क़दर बदनाम कर रहे हैं। क्या लल्लनटॉप की 'आर्काइव' से यह लेख गायब होगा या अनंतकाल तक अपना ज़हर फैलाता ही जाएगा ? ज़फ़र को ऐसी सज़ा तो अंग्रेज़ों ने भी नहीं दी थी। …पढ़िये, उस बादशाह का दर्द —

या मुझे अफ़सर-ए-शाहा न बनाया होता 
या मेरा ताज गदाया न बनाया होता 
ख़ाकसारी के लिये ग़रचे बनाया था मुझे 
काश ख़ाक-ए-दर-ए-जानाँ न बनाया होता 
नशा-ए-इश्क़ का ग़र ज़र्फ़ दिया था मुझ को 
उम्र का तंग न पैमाना बनाया होता 
रोज़-ए-ममूरा-ए-दुनिया में ख़राबी है 'ज़फ़र' 
ऐसी बस्ती से तो वीराना बनाया होता
 
होना तो यह चाहिए था कि आज़ादी की 70वीं सालगिरह पर ज़फ़र की मिट्टी को कू-ए-यार यानी दिल्ली में दो ग़ज़ ज़मीन का दिलाने का संकल्प लिया जाता, लेकिन हो यह रहा है कि ज़फ़र की यादों पर भी झूठ की मिट्टी डाली जा रही है। लल्लनटॉप की हरकत बताती है कि हम किस दर्जे के नाशुकरे हैं ! बख़्श दो यारों इस बूढ़े को.. तरस खाओ… इस लेख को हटाओ..या दुरुस्त करो !
 
(लेखक एक चैनल से बरख़ास्त पत्रकार हैं)

Courtesy: MediaVigil.com

 

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