जन-गण-मन... दे दनादन

Published on: 12-04-2015

 
असली बात शुरू करने से पहले मैं आपको अपने बचपन की एक छोटी सी कहानी सुनाता हूं। हमारे स्कूल में हिंदी के एक मास्टर साहब हुआ करते थे। आदमी बुरे नहीं थे। लेकिन कायदे-कानून और अनुशासन को लेकर लगभग जुनूनी थे। क्लास में कभी-कभी अचानक बच्चो के मोजे तक चेक कर लिया करते थे। नेवी ब्लू की जगह अगर किसी ने काली जुराबे पहनी हो तो उसे क्लास से निकाल देते थे। मास्टर साहब की सबसे बड़ी शिकायत ये थी कि बच्चे उन्हे उचित सम्मान नहीं देते हैं। स्कूल के बाहर मिलते हैं तो ठीक से नमस्ते नहीं करते। बच्चे इस इल्जाम को गलत बताते थे। लेकिन  मास्टर साहब अपनी नाराज़गी बच्चो के अभिभावकों तक पहुंचा चुके थे और बदले में कई बच्चो को डांट पड़ चुकी थी। एक दिन मेरे क्लास के बच्चो का एक ग्रुप क्रिकेट खेलकर लौट रहा था। रास्ते में उन्हे मास्टर साहब नज़र आ गये— भारतीय परंपरा के मुताबिक दीवार की तरफ मुंह करके कान पर जनेउ चढ़ाये कुछ ज़रूरी काम निपटाते हुए। पूरी क्रिकेट टीम ने उन्हे एक-एक करके नमस्ते किया। अगले दिन मास्टर साहब ने स्कूल के प्रिंसिपल से बच्चो के बदत्तमीज होने की शिकायत की। प्रिंसिपल के सामने पेशी हुई तो बच्चो ने कहा—हम क्या करें, सर हमें रोज डांटते हैं कि बाहर मिलने पर नमस्ते क्यों नहीं करते हो, इसलिए हमलोगो ने नमस्ते कर दिया। इस कहानी की सीख यही है कि सम्मान के ज़रूरत से ज्यादा प्रदर्शन का दबाव उसकी गरिमा को हल्का कर देता है। मुंबई के सिनेमाघरो में राष्ट्रगान के असम्मान की ख़बरे सुनता हूं तो बचपन की वही घटना याद आती है।
 
आज़ादी के बाद कुछ वक्त तक भारत के सिनेमा हॉलो में जन-गण-मन गाया जाता था। जिन लोगो ने भी इसे बंद करने का फैसला किया, यकीनन वे समझदार लोग थे। उन्हे पता था कि पॉप कॉर्न खाते और कोल्ड ड्रिंक पीते लोग अगर अचानक एक मिनट के लिए उठ भी जाये और जन-गण-मन खत्म होते ही फौरन कोल्ड ड्रिंक का स्ट्रॉ मुंह में ले लें, तो इससे राष्ट्रगान का सम्मान नहीं बढ़ेगा।

कैटरीना के ठुमके और सनी लियोनी के जलवे देखने आई जनता आखिर मन को किस तरह राष्ट्रगान के लिए एकाग्र करे। मन एकाग्र ना हुआ तो कसूर किसका? मन देशभक्ति की ओर ज्यादा चला गया फिर तो आइटम नंबर के पैसे बेकार गये! मनोरंजन के साथ राष्ट्रभक्ति का क्लब सैंडविच बनाना एक मूर्खतापूर्ण आइडिया है। लेकिन कुछ साल पहले महाराष्ट्र की कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने इस आइडिया को पुनर्जीवित किया जिसके अजीबो-गरीब नतीजे लगातार सामने आ रहे हैं। कुछ समय पहले मुंबई के अख़बारों में यह ख़बर आई थी कि हिंदी सिनेमा के एक पिटे हुए विलेन की बीवी को अचानक मल्टीप्लेक्स में देशभक्ति का दौरा पड़ गया। विलेन की बीवी ने एक बुजुर्ग का कॉलर पकड़ा और एक झन्नाटेदार तमाचा रसीद कर दिया। महिला का इल्जाम ये था कि बुजुर्ग राष्ट्रगान के वक्त भी बैठे हुए थे और इससे जन-गण-मन का अपमान हुआ। ताज़ा घटना भी मुंबई की है। कुछ दर्शकों ने हो-हल्ला मचाकर एक परिवार को शो के दौरान सिनेमा हॉल से बाहर निकलवा दिया। इल्जाम वही.. राष्ट्रगान का अपमान। अब ज़रा सोशल मीडिया पर वायरल हुआ वीडियो देखिये -- मियां बीवी बैठे हैं और बाकी दर्शकों की भीड़ ने उन्हे घेर रखा है। गालियों की बौछार हो रही है, थप्पड़ मारने की धमकी दी जा रही है। आखिरकार जब मल्टीप्लेक्स के कर्मचारियों ने मियां-बीवी को बाहर निकाला तो दर्शकों ने तालियां बजाईं। देशभक्ति जीत गई, देशद्रोह हार गया। एक ही टिकट में दो-दो मजे। सिनेमा देखकर मनोरंजन भी हो गया और गद्धार को खदेडकर 1947 के पहले पैदा ना होने का मलाल भी दूर गया। लेकिन मुझे एक बात समझ में नहीं आई। ये लोग खुद राष्ट्रगान का गा रहे थे या तो इस बात की चौकीदारी कर रहे थे कि दूसरे क्या कर रहे हैं? मैं जब भी राष्ट्रगान के लिए खड़ा होता हूं, मेरा ध्यान कभी इस बात पर नहीं जाता कि आजू-बाजू क्या चल रहा है। मुझे भरोसा है कि हर सच्चे हिंदुस्तानी के साथ ऐसा ही होता होगा। खुद सावधान की मुद्रा में भक्ति-भाव से खड़े होकर चोर नज़र से दायें-बायें देखने वाले आखिर कौन लोग होते हैं? ये वही लोग होते है जो मंदिरों में प्रार्थना के लिए हाथ जोड़कर खड़े होते हैं, लेकिन ध्यान बाहर रखे चप्पलों पर रहता है। दर्शन भगवान के करने हैं, लेकिन चोर नज़र प्रभु मूरत के बदले आजू-बाजू की मोहिनी सूरत निहार रही होती है। ये वही लोग होते हैं जो पड़ोसी के घर में तांक-झांक करते हैं और फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि पड़ोस में बहुत ही गंवार किस्म के लोग बस गये हैं.. व्हेरी डाउन मार्केट पीपल यू नो!

 

मनोरंजन के साथ राष्ट्रभक्ति का क्लब सैंडविच बनाना एक मूर्खतापूर्ण आइडिया है
लेकिन मुझे एक बात समझ में नहीं आई। ये लोग खुद राष्ट्रगान का गा रहे थे या तो इस बात की चौकीदारी कर रहे थे कि दूसरे क्या कर रहे हैं?


 पाखंड और पोंगापंथ के झंडाबरदार लोग पहले मोरल पुलिसिंग किया करते थे, अब उन्होने आपकी देशभक्ति पर निगरानी रखने का भी ठेका ले लिया है। देश के लिए यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है। हर वह आदमी सच्चा राष्ट्रभक्त है, जो ईमानदारी से टैक्स देता है और देश के कानूनों का पालन करता है। अगर आप इन शर्तों पर खरे नहीं उतरते तो फिर प्रतीकों के सहारे खुद को राष्ट्रवादी साबित करने की तमाम कोशिशें महज ढोंग है। आधुनिक नागरिक समाज की बुनियादी शर्त यही है कि अपने मौलिक अधिकारों का इस्तेमाल करते वक्त आप इस बात का ध्यान रखें कि कहीं इससे दूसरे के अधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा है। महान रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की ने एक सदी पहले कहा था--  शिष्टाचार यह नहीं है कि खाते वक्त डाइनिंग टेबल पर चटनी ना गिराई जाये, शिष्टाचार यह है कि जब किसी और से चटनी गिर जाये तो उसे नज़रअंदाज कर दिया जाये। कुछ इसी तरह की बात हिंदू धर्म के महान संत और गायत्री परिवार के संस्थापक आचार्य श्रीराम शर्मा ने कही है—हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा। लेकिन खुद को सुधारने की चिंता किसे है? समाज का एक बड़ा तबका `मैं महान बाकी सब नीच’ वाली ग्रंथि से पीड़ित है। भारतीय समाज के साथ दिक्कत यह है कि वह ना तो अपने जड़ो से जुड़ा है और ना ही अमेरिका की तरह आधुनिक और उदार हो पाया है, जहां अंर्तवस्त्रों तक पर राष्ट्रीय झंडे बने होते हैं और कोई विरोध नहीं करता है। परंपरा, आधुनिकता और पाखंड का विचित्र मेल भारत में ऐसी स्थितियां पैदा कर रहा है, जिसमें राष्ट्रीय प्रतीक डंडा बनते जा रहे हैं। जन-गन-मन, जो ना बोले उसे दे दनादन। 
The writer is a senior journalist, former managing editor India Today group and presently researching at the Jawaharlal Nehru Univreristy (JNU) on Media and Caste relations.

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