पूर्व न्यायाधीश एस. मुरलीधर ने प्रो. जी.एन. साईबाबा मेमोरियल लेक्चर में कहा कि आरएसएस विभाजनकारी एजेंडा चला रहा है और भ्रामक इतिहास पढ़ा रहा है। उन्होंने शिक्षा में युवाओं के मन पर नियंत्रण, संस्थागत हस्तक्षेप और अकादमिक स्वतंत्रता पर गंभीर सवाल उठाए। साथ ही साईबाबा के मामले के माध्यम से न्यायपालिका की कार्यप्रणाली पर भी चिंता व्यक्त की।

ओडिशा हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस. मुरलीधर ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के विभाजनकारी एजेंडे की तीखी आलोचना की है और संघ द्वारा गलत इतिहास पढ़ाए जाने की ओर ध्यान आकर्षित किया है।
न्यायमूर्ति मुरलीधर ने यह बात रविवार, 12 अक्टूबर 2025 को दिल्ली में आयोजित प्रोफेसर जी.एन. साईबाबा की पहली स्मृति व्याख्यान में कही। “टीचिंग अ लेसन?: एकेडमिक फ्रीडम एंड द इंडियन स्टेट” विषय पर बोलते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता और सेवानिवृत्त न्यायाधीश ने भारत की शिक्षा प्रणाली, अकादमिक स्वतंत्रता और वर्तमान सरकार की नीतियों की आलोचना की।
पूर्व न्यायाधीश ने प्रो. साईबाबा को एक विद्वान के रूप में याद किया।
अकादमिक नियंत्रण और असहिष्णुता पर टिप्पणी
द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, न्यायमूर्ति मुरलीधर ने कहा, “अब यह तय करना कि क्या पढ़ाया जाएगा, कैसे पढ़ाया जाएगा, कौन पढ़ाएगा और किसे पढ़ाया जाएगा — ये निर्णय अब शैक्षणिक संस्थानों के हाथ में नहीं रह गए हैं। यहां तक कि किस विषय पर लेखन या टिप्पणी की जा सकती है, इसका फैसला भी अब वे नहीं करते। इन सबके लिए बाहरी और गैर-कानूनी तंत्रों से ‘मंजूरी’ लेनी पड़ती है।”
संस्थागत दमन, असहिष्णुता, सत्ता के हस्तक्षेप और शिक्षकों व छात्रों के अधिकारों पर चिंता जताते हुए उन्होंने कहा, “2025 के भारत में फैज़ अहमद फैज़ की कविता ‘बोल’ पढ़ी तो जा सकती है, लेकिन उस पर नियम और शर्तें लागू होती हैं। यदि आप किसी कैंपस में ‘हम देखेंगे’ या ‘आज़ादी’ जैसे नारे लगाते हैं, तो आप पर ‘अर्बन नक्सल’, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’, ‘खान मार्केट गैंग’ या ‘जेएनयू टाइप’ जैसे लेबल लगाए जा सकते हैं।”
यह उल्लेखनीय है कि “खान मार्केट गैंग” शब्द का इस्तेमाल पहली बार 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था। उन्होंने इसका उपयोग कांग्रेस पार्टी और उसके उन कथित समर्थकों के लिए किया जिन्हें वे दिल्ली के उच्चवर्गीय, अंग्रेज़ी बोलने वाले बुद्धिजीवियों का प्रतिनिधि मानते हैं।
मई 2019 में द इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था, “मेरी छवि ‘खान मार्केट गैंग’ या ‘लुटियन्स दिल्ली’ द्वारा निर्मित नहीं की गई है, बल्कि यह 45 वर्षों की तपस्या और परिश्रम का परिणाम है।”
कैसे युवा मन पर किया जा रहा है कब्जा
मोदी सरकार में शिक्षा के जरिए युवाओं के मानस पर नियंत्रण स्थापित करने की प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हुए न्यायमूर्ति मुरलीधर ने कहा, “जब हम पिछले दशक में शिक्षा क्षेत्र में हुए बदलावों पर पीछे मुड़कर देखते हैं, तो यह साफ दिखाई देता है कि जनता — विशेष रूप से युवाओं — के सोचने-समझने के तरीके को प्रभावित करने के लिए एक सतत और गहराई से चलाया गया प्रयास हुआ है। यह एक सुनियोजित कोशिश है कि शिक्षा प्रणाली से हर उस तत्व को बाहर कर दिया जाए जो सत्ता की नीतियों या कार्यों पर सवाल उठाता हो। विज्ञान की उपेक्षा और प्राचीन उपलब्धियों के महिमामंडन की इस प्रवृत्ति में एक प्रकार का अहंकार झलकता है।”
भ्रामक इतिहास और ‘विद्या भारती’ की भूमिका
जस्टिस मुरलीधर ने बताया कि आरएसएस किस तरह का इतिहास बच्चों को पढ़ा रहा है। उन्होंने कहा, “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध प्रमुख शैक्षणिक संस्था ‘विद्या भारती’ देशभर में लगभग 12,754 औपचारिक और 12,654 अनौपचारिक विद्यालयों का संचालन करती है, जिनसे करीब 77 लाख छात्र और 1.5 लाख शिक्षक जुड़े हैं। इनमें से अधिकांश स्कूल सीबीएसई, राज्य बोर्डों और एनआईओएस से मान्यता प्राप्त हैं। विद्या भारती द्वारा प्रकाशित पुस्तकें हिंदी सहित बांग्ला, तमिल और उड़िया जैसी 12 क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध हैं, और ये किताबें सरकार द्वारा स्वीकृत पाठ्यक्रम के अतिरिक्त पढ़ाई जाती हैं।”
एक मीडिया रिपोर्ट के हवाले से उन्होंने बताया, “‘बोधमाला-4’ नाम की किताब, जो चौथी कक्षा के बच्चों के ‘सांस्कृतिक ज्ञान’ के लिए लिखी गई है, उसमें पेज 5 पर दिया गया सवाल-जवाब ध्यान खींचता है:
प्रश्न: हमारी मौजूदा सीमाओं से लगे कौन-कौन से देश पहले हमारे देश का हिस्सा थे?
उत्तर: पूर्व में ब्रह्मदेश (म्यांमार) और बांग्लादेश, पश्चिम में पाकिस्तान और अफगानिस्तान, उत्तर में तिब्बत, नेपाल और भूटान, और दक्षिण में श्रीलंका।”
उसी श्रृंखला की शिक्षक मार्गदर्शिका में दावा किया गया है कि “प्राचीन काल में संपूर्ण जंबूद्वीप में हिंदू संस्कृति का प्रभुत्व था... जिसे हम आज एशिया कहते हैं, वह जंबूद्वीप कहलाता था। मिस्र, सऊदी अरब, इराक, ईरान, कज़ाख़स्तान, इज़राइल, रूस, मंगोलिया, चीन, म्यांमार, इंडोनेशिया, मलेशिया, जावा, सुमात्रा, भारत, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, पाकिस्तान और अफगानिस्तान सभी उसी का हिस्सा थे।”
उन्होंने कहा, “अगर यह सब कुछ ‘इंडियन नॉलेज सिस्टम’ के नाम पर चल रहे एक बड़े अभियान का हिस्सा न होता, तो चिंता की बात नहीं होती। लेकिन अब इन विचारों का असर औपचारिक शिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रमों में भी दिखाई दे रहा है।”
संस्थागत स्वायत्तता और पाठ्यक्रम परिवर्तन पर टिप्पणी
न्यायमूर्ति मुरलीधर ने कहा, “संस्थागत स्वायत्तता की कमी सबसे ज्यादा उस समय महसूस होती है जब यह तय किया जाता है कि पाठ्यक्रम में क्या शामिल किया जाएगा और कौन-सी सामग्री पढ़ाई जाएगी। यह संकट केवल स्कूलों तक सीमित नहीं है, बल्कि कॉलेजों और उच्च शिक्षण संस्थानों में भी समान रूप से फैला है।”
उन्होंने बताया कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने देशभर के विश्वविद्यालयों को ‘आर्ट ऑफ लिविंग फाउंडेशन’ द्वारा आयोजित मेडिटेशन सेशन आयोजित करने और कैंपस में त्योहार मनाने जैसे निर्देश जारी किए हैं।
उन्होंने कहा कि पाठ्यक्रमों में व्यापक बदलाव किए जा रहे हैं — कहीं संशोधन, तो कहीं पूरी सामग्री हटाई जा रही है, विशेषकर वे विषय जो दक्षिणपंथी विचारों से मेल नहीं खाते। उदाहरण के लिए, दिल्ली विश्वविद्यालय के बी.ए. ऑनर्स कोर्स की पठन-सूची से प्रसिद्ध साहित्यकार ए.के. रामानुजन का निबंध “थ्री हंड्रेड रामायणाज” जबरन हटाया गया था।
न्यायपालिका और साईबाबा केस पर चिंता
प्रो. जी.एन. साईबाबा के मामले में न्यायपालिका की भूमिका पर चिंता जताते हुए उन्होंने कहा, “दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के शिक्षक प्रो. जी.एन. साईबाबा के मामले में सुप्रीम कोर्ट के रुख ने कई कानूनी विद्वानों को आश्चर्यचकित और असहमत किया है। हालांकि, मामला अभी लंबित है, इसलिए उस पर विस्तार से चर्चा उचित नहीं होगी।”
साईबाबा पर यूएपीए की कठोर धाराओं के तहत आरोप लगाया गया था कि वे एक प्रतिबंधित संगठन से जुड़े थे। 9 मई 2014 को उन्हें गिरफ्तार किया गया था। बचपन से पोलियोग्रस्त होने के कारण वे व्हीलचेयर पर रहते थे, लेकिन उन्हें जमानत नहीं मिली और वे दस वर्षों तक जेल में रहे। बाद में 57 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
जस्टिस मुरलीधर ने कहा, “यह ‘प्रक्रिया ही सजा’ बन गई थी। उनका शरीर दस वर्षों की कैद और राज्य के कठोर व्यवहार से बुरी तरह टूट चुका था।”
कार्यक्रम और विरासत
यह व्याख्यान दिल्ली के हरकिशन सिंह सुरजीत भवन में ‘प्रो. जी.एन. साईबाबा मेमोरियल कमेटी’ द्वारा आयोजित किया गया था। मंच पर जस्टिस मुरलीधर के साथ जी.एन. साईबाबा की पत्नी वसंता कुमारी और बेटी मंजीरा भी उपस्थित थीं।
कार्यक्रम की शुरुआत युवाओं के नारों से हुई — “ऑपरेशन कगार बंद करो”, “राजनीतिक कैदियों को रिहा करो” और “जी.एन. साईबाबा अमर रहें।” समापन क्रांतिकारी गीतों के साथ हुआ।
न्यायमूर्ति मुरलीधर का करियर और चर्चित फैसले
8 अगस्त 1961 को जन्मे जस्टिस मुरलीधर ने 17 वर्षों तक न्यायिक सेवा दी। अगस्त 2023 में वे ओडिशा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पद से सेवानिवृत्त हुए।
उनके कई फैसले भारतीय न्यायिक इतिहास में महत्वपूर्ण हैं —
● 2009 में नाज़ फ़ाउंडेशन मामले में धारा 377 को असंवैधानिक घोषित कर एलजीबीटीक्यू+ अधिकारों का मार्ग प्रशस्त किया।
● 1984 के सिख दंगों में कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को दोषी ठहराया और आजीवन कारावास की सजा दी।
● 1987 के हाशिमपुरा नरसंहार में उत्तर प्रदेश पुलिस के 16 जवानों को दोषी ठहराया।
2020 के दिल्ली दंगों के दौरान मध्यरात्रि सुनवाई में उन्होंने कहा था, “हम इस देश में एक और 1984 नहीं होने देंगे।” इसके तुरंत बाद उनका रातों-रात पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में स्थानांतरण कर दिया गया, जिसे व्यापक रूप से सरकारी दबाव का परिणाम माना गया।
14 वर्षों तक दिल्ली हाईकोर्ट में सेवा देने के बाद फरवरी 2020 में उनका अचानक स्थानांतरण और बाद में ओडिशा हाईकोर्ट का कार्यभार संभालना न्यायिक स्वतंत्रता पर लगातार सवाल खड़ा करता रहा। सुप्रीम कोर्ट में उनकी नियुक्ति न होना आज भी न्यायिक हलकों में चर्चा का विषय है।

ओडिशा हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस. मुरलीधर ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के विभाजनकारी एजेंडे की तीखी आलोचना की है और संघ द्वारा गलत इतिहास पढ़ाए जाने की ओर ध्यान आकर्षित किया है।
न्यायमूर्ति मुरलीधर ने यह बात रविवार, 12 अक्टूबर 2025 को दिल्ली में आयोजित प्रोफेसर जी.एन. साईबाबा की पहली स्मृति व्याख्यान में कही। “टीचिंग अ लेसन?: एकेडमिक फ्रीडम एंड द इंडियन स्टेट” विषय पर बोलते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता और सेवानिवृत्त न्यायाधीश ने भारत की शिक्षा प्रणाली, अकादमिक स्वतंत्रता और वर्तमान सरकार की नीतियों की आलोचना की।
पूर्व न्यायाधीश ने प्रो. साईबाबा को एक विद्वान के रूप में याद किया।
अकादमिक नियंत्रण और असहिष्णुता पर टिप्पणी
द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, न्यायमूर्ति मुरलीधर ने कहा, “अब यह तय करना कि क्या पढ़ाया जाएगा, कैसे पढ़ाया जाएगा, कौन पढ़ाएगा और किसे पढ़ाया जाएगा — ये निर्णय अब शैक्षणिक संस्थानों के हाथ में नहीं रह गए हैं। यहां तक कि किस विषय पर लेखन या टिप्पणी की जा सकती है, इसका फैसला भी अब वे नहीं करते। इन सबके लिए बाहरी और गैर-कानूनी तंत्रों से ‘मंजूरी’ लेनी पड़ती है।”
संस्थागत दमन, असहिष्णुता, सत्ता के हस्तक्षेप और शिक्षकों व छात्रों के अधिकारों पर चिंता जताते हुए उन्होंने कहा, “2025 के भारत में फैज़ अहमद फैज़ की कविता ‘बोल’ पढ़ी तो जा सकती है, लेकिन उस पर नियम और शर्तें लागू होती हैं। यदि आप किसी कैंपस में ‘हम देखेंगे’ या ‘आज़ादी’ जैसे नारे लगाते हैं, तो आप पर ‘अर्बन नक्सल’, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’, ‘खान मार्केट गैंग’ या ‘जेएनयू टाइप’ जैसे लेबल लगाए जा सकते हैं।”
यह उल्लेखनीय है कि “खान मार्केट गैंग” शब्द का इस्तेमाल पहली बार 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था। उन्होंने इसका उपयोग कांग्रेस पार्टी और उसके उन कथित समर्थकों के लिए किया जिन्हें वे दिल्ली के उच्चवर्गीय, अंग्रेज़ी बोलने वाले बुद्धिजीवियों का प्रतिनिधि मानते हैं।
मई 2019 में द इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था, “मेरी छवि ‘खान मार्केट गैंग’ या ‘लुटियन्स दिल्ली’ द्वारा निर्मित नहीं की गई है, बल्कि यह 45 वर्षों की तपस्या और परिश्रम का परिणाम है।”
कैसे युवा मन पर किया जा रहा है कब्जा
मोदी सरकार में शिक्षा के जरिए युवाओं के मानस पर नियंत्रण स्थापित करने की प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हुए न्यायमूर्ति मुरलीधर ने कहा, “जब हम पिछले दशक में शिक्षा क्षेत्र में हुए बदलावों पर पीछे मुड़कर देखते हैं, तो यह साफ दिखाई देता है कि जनता — विशेष रूप से युवाओं — के सोचने-समझने के तरीके को प्रभावित करने के लिए एक सतत और गहराई से चलाया गया प्रयास हुआ है। यह एक सुनियोजित कोशिश है कि शिक्षा प्रणाली से हर उस तत्व को बाहर कर दिया जाए जो सत्ता की नीतियों या कार्यों पर सवाल उठाता हो। विज्ञान की उपेक्षा और प्राचीन उपलब्धियों के महिमामंडन की इस प्रवृत्ति में एक प्रकार का अहंकार झलकता है।”
भ्रामक इतिहास और ‘विद्या भारती’ की भूमिका
जस्टिस मुरलीधर ने बताया कि आरएसएस किस तरह का इतिहास बच्चों को पढ़ा रहा है। उन्होंने कहा, “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध प्रमुख शैक्षणिक संस्था ‘विद्या भारती’ देशभर में लगभग 12,754 औपचारिक और 12,654 अनौपचारिक विद्यालयों का संचालन करती है, जिनसे करीब 77 लाख छात्र और 1.5 लाख शिक्षक जुड़े हैं। इनमें से अधिकांश स्कूल सीबीएसई, राज्य बोर्डों और एनआईओएस से मान्यता प्राप्त हैं। विद्या भारती द्वारा प्रकाशित पुस्तकें हिंदी सहित बांग्ला, तमिल और उड़िया जैसी 12 क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध हैं, और ये किताबें सरकार द्वारा स्वीकृत पाठ्यक्रम के अतिरिक्त पढ़ाई जाती हैं।”
एक मीडिया रिपोर्ट के हवाले से उन्होंने बताया, “‘बोधमाला-4’ नाम की किताब, जो चौथी कक्षा के बच्चों के ‘सांस्कृतिक ज्ञान’ के लिए लिखी गई है, उसमें पेज 5 पर दिया गया सवाल-जवाब ध्यान खींचता है:
प्रश्न: हमारी मौजूदा सीमाओं से लगे कौन-कौन से देश पहले हमारे देश का हिस्सा थे?
उत्तर: पूर्व में ब्रह्मदेश (म्यांमार) और बांग्लादेश, पश्चिम में पाकिस्तान और अफगानिस्तान, उत्तर में तिब्बत, नेपाल और भूटान, और दक्षिण में श्रीलंका।”
उसी श्रृंखला की शिक्षक मार्गदर्शिका में दावा किया गया है कि “प्राचीन काल में संपूर्ण जंबूद्वीप में हिंदू संस्कृति का प्रभुत्व था... जिसे हम आज एशिया कहते हैं, वह जंबूद्वीप कहलाता था। मिस्र, सऊदी अरब, इराक, ईरान, कज़ाख़स्तान, इज़राइल, रूस, मंगोलिया, चीन, म्यांमार, इंडोनेशिया, मलेशिया, जावा, सुमात्रा, भारत, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, पाकिस्तान और अफगानिस्तान सभी उसी का हिस्सा थे।”
उन्होंने कहा, “अगर यह सब कुछ ‘इंडियन नॉलेज सिस्टम’ के नाम पर चल रहे एक बड़े अभियान का हिस्सा न होता, तो चिंता की बात नहीं होती। लेकिन अब इन विचारों का असर औपचारिक शिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रमों में भी दिखाई दे रहा है।”
संस्थागत स्वायत्तता और पाठ्यक्रम परिवर्तन पर टिप्पणी
न्यायमूर्ति मुरलीधर ने कहा, “संस्थागत स्वायत्तता की कमी सबसे ज्यादा उस समय महसूस होती है जब यह तय किया जाता है कि पाठ्यक्रम में क्या शामिल किया जाएगा और कौन-सी सामग्री पढ़ाई जाएगी। यह संकट केवल स्कूलों तक सीमित नहीं है, बल्कि कॉलेजों और उच्च शिक्षण संस्थानों में भी समान रूप से फैला है।”
उन्होंने बताया कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने देशभर के विश्वविद्यालयों को ‘आर्ट ऑफ लिविंग फाउंडेशन’ द्वारा आयोजित मेडिटेशन सेशन आयोजित करने और कैंपस में त्योहार मनाने जैसे निर्देश जारी किए हैं।
उन्होंने कहा कि पाठ्यक्रमों में व्यापक बदलाव किए जा रहे हैं — कहीं संशोधन, तो कहीं पूरी सामग्री हटाई जा रही है, विशेषकर वे विषय जो दक्षिणपंथी विचारों से मेल नहीं खाते। उदाहरण के लिए, दिल्ली विश्वविद्यालय के बी.ए. ऑनर्स कोर्स की पठन-सूची से प्रसिद्ध साहित्यकार ए.के. रामानुजन का निबंध “थ्री हंड्रेड रामायणाज” जबरन हटाया गया था।
न्यायपालिका और साईबाबा केस पर चिंता
प्रो. जी.एन. साईबाबा के मामले में न्यायपालिका की भूमिका पर चिंता जताते हुए उन्होंने कहा, “दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के शिक्षक प्रो. जी.एन. साईबाबा के मामले में सुप्रीम कोर्ट के रुख ने कई कानूनी विद्वानों को आश्चर्यचकित और असहमत किया है। हालांकि, मामला अभी लंबित है, इसलिए उस पर विस्तार से चर्चा उचित नहीं होगी।”
साईबाबा पर यूएपीए की कठोर धाराओं के तहत आरोप लगाया गया था कि वे एक प्रतिबंधित संगठन से जुड़े थे। 9 मई 2014 को उन्हें गिरफ्तार किया गया था। बचपन से पोलियोग्रस्त होने के कारण वे व्हीलचेयर पर रहते थे, लेकिन उन्हें जमानत नहीं मिली और वे दस वर्षों तक जेल में रहे। बाद में 57 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
जस्टिस मुरलीधर ने कहा, “यह ‘प्रक्रिया ही सजा’ बन गई थी। उनका शरीर दस वर्षों की कैद और राज्य के कठोर व्यवहार से बुरी तरह टूट चुका था।”
कार्यक्रम और विरासत
यह व्याख्यान दिल्ली के हरकिशन सिंह सुरजीत भवन में ‘प्रो. जी.एन. साईबाबा मेमोरियल कमेटी’ द्वारा आयोजित किया गया था। मंच पर जस्टिस मुरलीधर के साथ जी.एन. साईबाबा की पत्नी वसंता कुमारी और बेटी मंजीरा भी उपस्थित थीं।
कार्यक्रम की शुरुआत युवाओं के नारों से हुई — “ऑपरेशन कगार बंद करो”, “राजनीतिक कैदियों को रिहा करो” और “जी.एन. साईबाबा अमर रहें।” समापन क्रांतिकारी गीतों के साथ हुआ।
न्यायमूर्ति मुरलीधर का करियर और चर्चित फैसले
8 अगस्त 1961 को जन्मे जस्टिस मुरलीधर ने 17 वर्षों तक न्यायिक सेवा दी। अगस्त 2023 में वे ओडिशा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पद से सेवानिवृत्त हुए।
उनके कई फैसले भारतीय न्यायिक इतिहास में महत्वपूर्ण हैं —
● 2009 में नाज़ फ़ाउंडेशन मामले में धारा 377 को असंवैधानिक घोषित कर एलजीबीटीक्यू+ अधिकारों का मार्ग प्रशस्त किया।
● 1984 के सिख दंगों में कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को दोषी ठहराया और आजीवन कारावास की सजा दी।
● 1987 के हाशिमपुरा नरसंहार में उत्तर प्रदेश पुलिस के 16 जवानों को दोषी ठहराया।
2020 के दिल्ली दंगों के दौरान मध्यरात्रि सुनवाई में उन्होंने कहा था, “हम इस देश में एक और 1984 नहीं होने देंगे।” इसके तुरंत बाद उनका रातों-रात पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में स्थानांतरण कर दिया गया, जिसे व्यापक रूप से सरकारी दबाव का परिणाम माना गया।
14 वर्षों तक दिल्ली हाईकोर्ट में सेवा देने के बाद फरवरी 2020 में उनका अचानक स्थानांतरण और बाद में ओडिशा हाईकोर्ट का कार्यभार संभालना न्यायिक स्वतंत्रता पर लगातार सवाल खड़ा करता रहा। सुप्रीम कोर्ट में उनकी नियुक्ति न होना आज भी न्यायिक हलकों में चर्चा का विषय है।
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