असहमति नोट: महाराष्ट्र विशेष सार्वजनिक सुरक्षा बिल, 2024

Written by | Published on: July 12, 2025
विस्तृत अधिकार, अस्पष्ट परिभाषाएँ और असहमति को दबाने की प्रवृत्ति कानून में समाहित; विचार-विमर्श की प्रक्रिया राजनीतिक नाटक बनकर रह गई है।



महाराष्ट्र सरकार ने 9 जुलाई को विधानसभा में "महाराष्ट्र स्पेशल पब्लिक सेफ्टी बिल 2024" पेश किया, जिससे कानून, समाज और राजनीति के हलकों में नाराजगी फैल गई है। ये नया कानून, जिसे सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस जैसे कई मानवाधिकार संगठनों ने संविधान के खिलाफ दमनकारी और सरकार को बहुत ज्यादा शक्ति देने वाला बताया है। इसके तहत सरकार किसी भी संगठन को गैरकानूनी घोषित कर सकती है, उनसे जुड़े लोगों को अपराधी बना सकती है, बस्तियों को खाली करा सकती है, संपत्ति जब्त कर सकती है साथ ही इससे लोगों को अदालत में जाने का हक भी छिन जाएगा और ये सब "सुरक्षा" के नाम पर किया जाएगा।

विपक्षी विधायकों के बार-बार विरोध और जनता की तरफ से सैकड़ों आपत्तियों के बावजूद सरकार ने ये बिल सिर्फ कुछ मामूली शब्दों की फेरबदल के साथ पेश कर दिया। बिल के खतरनाक और मूल प्रावधानों में किसी भी तरह का बदलाव करने से सरकार का इनकार इस आशंका को बल देता है कि संयुक्त समिति की प्रक्रिया सिर्फ दिखावटी थी। संशोधन के बजाय, इसका उद्देश्य पहले से तय कानून को वैधता देना भर था।

इस कानून का मूल सिद्धांत स्पष्ट है: असहमति को खतरे के रूप में देखा जाए। ‘वामपंथी उग्रवादी संगठन’ और ‘शहरी नक्सल’ जैसे अस्पष्ट शब्द इस विधेयक में प्रमुखता से हैं, लेकिन कहीं परिभाषित नहीं किए गए हैं। इससे सरकार को मनमानी छूट मिल जाती है कि वह छात्र संगठनों, विरोध आंदोलनों, नागरिक अधिकार समूहों और यहां तक कि विपक्ष से जुड़े मंचों को भी खतरा करार दे सकेगा।

विस्तृत कानूनी विश्लेषण के आधार पर तैयार ये असहमति वाला दस्तावेज इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि सतही बदलावों की आड़ में सरकार ने मूल तानाशाही वाली शक्तियों को बरकरार रखा है जिनमें एहतियाती हिरासत, वित्तीय निगरानी, संपत्ति जब्ती और पुलिस को कानूनी छूट जैसी व्यवस्थाएं शामिल हैं।

विपक्ष के सदस्यों, नागरिक समाज और संवैधानिक विशेषज्ञों द्वारा उठाई गई चिंताओं को नजरअंदाज किया गया है या टाल दिया गया है। संयुक्त समिति ने एमएसपीएस बिल के पहले के संस्करण में केवल तीन औपचारिक संशोधन किए हैं, जो निम्नलिखित हैं:

1. उद्देश्य खंड को संशोधित कर “कट्टर वामपंथी संगठन या इसी तरह के संगठन” को निशाना बनाना;
2. सलाहकार बोर्ड की संरचना में बदलाव करना;
3. जांच अधिकारी के पद को सब-इंस्पेक्टर से बढ़ाकर डिप्टी सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस करना।

अंतिम विधेयक अभी भी वैसा ही:

● कार्यपालिका को संगठनों को “अवैध” घोषित करने का अधिकार बिना उचित प्रक्रिया के देता है;
● अस्पष्ट परिभाषाओं के तहत मामूली असहमति को अपराध घोषित करता है;
● गैर-न्यायिक तरीकों से संपत्ति जब्ती, बेदखली और आर्थिक नुकसान की अनुमति प्रदान करता है।
●निचली अदालतों को क्षेत्राधिकार से बाहर रखता है, जिससे आसान न्यायिक उपायों का रास्ता बंद हो जाता है;
● “अच्छी नीयत” के नाम पर राज्य के अधिकारियों को पूर्ण संरक्षण प्रदान करता है;
● यह विपक्षी दलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आंदोलनों के खिलाफ विचारधारा आधारित सख्ती के लिए ज़मीन तैयार करता है।

संशोधित बिल का सारांश इस प्रकार है:

1. उद्देश्य और स्वरूप: असहमति को चरमपंथ के रूप में अपराध घोषित करना।

बिल के संशोधित उद्देश्य का अब लक्ष्य : ‘वामपंथी कट्टरपंथी संगठनों या इसी तरह के संगठनों की अवैध गतिविधियों’ को निशाना बनाना है।

यह बदलाव केवल सामान्य शब्दों की जगह वैचारिक पक्षपात को ले आया है, जिससे कानून में अस्पष्ट और अपरिभाषित राजनीतिक शब्द शामिल हो गए हैं। “वामपंथी कट्टरपंथी” या “इसी तरह के संगठन” जैसे पद कानूनी रूप से अस्पष्ट और खतरनाक रूप से लचीले बने हुए हैं, जो सरकार को किसी भी समूह-किसान संघ, छात्र संगठन, या नागरिक अधिकार समूह-को सार्वजनिक व्यवस्था के लिए खतरा घोषित करने की अनुमति देते हैं। भाषा में यह बदलाव केवल दिखावे का है, जिसका उद्देश्य बिल की व्यापक असहमति दबाने वाली कार्रवाई को साफ-सुथरा और जायज दिखाना है। कट्टरपंथी सभी विचारधाराओं में होता है, जिसमें दक्षिणपंथी कट्टरता भी शामिल है। इसलिए, बिल के उद्देश्य और लक्ष्य में यह वैचारिक रंग भरना ही प्रस्तावित कानून के उद्देश्य पर ही पक्षपात करता है।

2. परिभाषाएं: अस्पष्ट, व्यापक और दुरुपयोग की आशंका से भरी

धारा 2(एफ): "अवैध गतिविधि"

ये बिल "अवैध गतिविधि" को इतनी अस्पष्ट शब्दावली में परिभाषित करता है कि यह अपराध बना देता है:

● भाषण (बोलकर या लिखकर)
● प्रतीक, इशारे या विजुअल के जरिये विरोध
● ऐसी गतिविधियां जो केवल “सार्वजनिक व्यवस्था में हस्तक्षेप की प्रवृत्ति” दिखाएं या “आशंका पैदा करें”
● ऐसी गतिविधियों के लिए धन जुटाना

इस तरह की भाषा राज्य को यह छूट देती है कि वह अभिव्यक्ति, इकट्ठा होने, आलोचना, व्यंग्य और भीड़ जुटाने जैसी लोकतांत्रिक गतिविधियों को केवल इस आधार पर अपराध घोषित कर दे कि वे किसी संभावित खतरे की आशंका पैदा करती हैं। न तो वास्तविक हिंसा की कोई शर्त है, न नुकसान की और न ही आपराधिक मंशा की कोई जरूरत। यह पूरी धारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 के तहत निर्धारित अनुपातिकता के सिद्धांतों के सीधे खिलाफ है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जीवन व व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं।

3. संगठनों को अवैध घोषित करने की प्रक्रिया: कोई वास्तविक सुरक्षा उपाय नहीं

धारा 3 से 7 के तहत, ये बिल सरकार को यह अधिकार प्रदान करता है कि वह:

● किसी संगठन को कार्यकारी अधिसूचना के माध्यम से “अवैध” घोषित करना;
● ऐसी परिस्थितियों में इस घोषणा को लागू करना, जिन्हें राज्य सरकार ऐसा मानती है कि संगठन को तुरंत प्रभाव से अवैध घोषित करना आवश्यक है, और यह पुष्टि सलाहकार बोर्ड द्वारा होने से पहले किया जा सकता है;
● “सार्वजनिक हित” में किसी भी तथ्य को दबाना;
● प्रतिबंध को बिना किसी समय सीमा के साल दर साल बढ़ाना।

ऐसी घोषणाओं की समीक्षा करने वाला सलाहकार बोर्ड निम्नलिखित सदस्यों से मिलकर बनेगा:

● उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश (अध्यक्ष),
● एक सेवानिवृत्त जिला न्यायाधीश,
● एक सरकारी पैरवीकार।

ध्यान देने वाली बात है कि सदस्यों और अध्यक्ष की अवधि का उल्लेख अभी तक नहीं किया गया है। इससे यह संभावना खुली रहती है कि प्रस्तावित कानून के नियमों के जरिए सरकार के अनुकूल व्यक्तियों को इस बोर्ड में शामिल किया जा सकता है।

यह बोर्ड की तटस्थता और स्वतंत्रता को बुरी तरह से प्रभावित करता है। इसमें प्रतिवाद या कड़ाई से जांच की कोई व्यवस्था नहीं है, सबूतों के मानक निर्धारित नहीं किए गए हैं, निर्णय के कारणों को प्रकाशित करने का कोई दायित्व नहीं है और प्रभावित व्यक्तियों को प्रतिबंध आदेश या निगरानी के खिलाफ चुनौती देने का कोई प्रावधान भी नहीं है।

4. संगठित होना, विचारधारा और भागीदारी को अपराध की श्रेणी में लाना

धारा 8: इस धारा के तहत, किसी भी संगठन को जो इस अधिनियम के तहत “अवैध” घोषित किया गया है, उससे संबंधित व्यापक गतिविधियों को अपराध माना गया है। कथित संलिप्तता की प्रकृति के आधार पर निम्नलिखित गतिविधियों के लिए 3 वर्ष, 5 वर्ष या 7 वर्ष तक की जेल हो सकती है:

1. किसी अवैध संगठन का सदस्य होना;
2. ऐसे संगठनों की बैठकों या गतिविधियों में भाग लेना;
3. उनके लिए पैसा देना या उनके नाम पर डोनेशन लेना;
4. उनके लिए सामग्री का प्रकाशन या वितरण करना;
5. किसी भी रूप में उनके उद्देश्यों को बढ़ावा देना;
6. समर्थन करने में सहायता, प्रोत्साहन या उकसावा देना;
7. ऐसे संगठनों की संपत्ति का कब्जा रखना।

सजा की गंभीरता इस बात पर निर्भर करती है कि राज्य सक्रिय भागीदारी को कितना गंभीर मानता है। यहां तक कि निष्क्रिय संबंध भी कड़े आपराधिक आरोपों का कारण बन सकता है। ये प्रावधान UAPA की तर्ज पर बनाए गए हैं, लेकिन निचली कानूनी मानदंडों पर लागू होते हैं, जिससे हिंसा की बजाय विचारधारा और संबद्धता को पूर्व-सक्रिय रूप से अपराधी ठहराने की व्यवस्था होती है।

5. बेदखल करने और संपत्ति जब्त करने के अधिकार: असाधारण और असंगत धारा 9 और 10:

जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस कमिश्नर को अधिकार दिए गए हैं कि वे:

● किसी भी स्थान को “अवैध संगठन” से जुड़ा हुआ घोषित कर सकें;
● उस स्थान से सभी निवासियों को बेदखल करना; महिलाओं और बच्चों को इस तरह की बेदखली से पहले एक अनिर्दिष्ट “उचित समय” दिया जाएगा।
● वहां पाए गए सभी चल संपत्ति, धन, दस्तावेज, या व्यक्तिगत सामान जब्त करना;
● उस स्थान पर कब्जा बनाए रखना जब तक प्रतिबंध लागू रहता है।

ये धाराएं न्यायिक समीक्षा के बिना कार्यकारी अधिकारों के तहत जबरन जब्ती की अनुमति देती हैं, और केवल औपचारिक बाद की प्रक्रिया संबंधी सुरक्षा प्रदान करती हैं।

ये प्रावधान सीधे तौर पर आतंकवाद-विरोधी कानूनों जैसे UAPA से लिए गए हैं, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा या आतंकवादी गतिविधि की आवश्यकता के बिना लागू किए जा रहे हैं। इन्हें एक्टिविस्ट, गैर-लाभकारी संस्थाओं और राजनीतिक समूहों के खिलाफ बिना किसी आपराधिक सबूत के भी इस्तेमाल किया जा सकता है। जैसा कि ऊपर बताया गया है, ऐसे समान प्रावधान जो कई कानूनों में मौजूद हैं, न केवल व्यक्तियों बल्कि उन संगठनों को भी, जो सरकार की नीतियों की आलोचना या विरोध करते हैं, बार-बार मुकदमेबाजी और जमानत से वंचित करके उत्पीड़न के प्रति असुरक्षित बना देते हैं।

6. वित्तीय जब्ती और निगरानी: बिना रोक-टोक के वित्तीय दमन

धारा 11: फंड की जब्ती

● सरकार को यह अधिकार मिलता है कि वह किसी भी ऐसे फंड को जब्त कर सके जिसे वह “संतोष” के साथ मानती है कि वह अवैध संगठन द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा है;
● कई मामलों में न्यायिक वारंट की आवश्यकता को दरकिनार किया जाता है;
● यह टैक्स और आतंकवाद नियंत्रण एजेंसियों के बराबर खोज, जब्ती और वित्तीय निगरानी के अधिकार देता है।

15 दिन के भीतर प्रतिनिधित्व का नाममात्र का अधिकार है, लेकिन अंतिम निर्णय कार्यपालिका का होता है, न कि कोई स्वतंत्र न्यायिक प्राधिकारी का। ये न्यायिक निगरानी और जांच के अभाव में यह प्रस्तावित कानून वर्तमान सरकार द्वारा तानाशाही तरीके से इस्तेमाल के लिए और भी अधिक संवेदनशील हो जाता है।

7. कानूनी उपायों और न्यायिक निरीक्षण की सीमाएं

धारा 12: यह केवल उच्च न्यायालय के समक्ष पुनरीक्षण याचिका दाखिल करने की अनुमति देता है, जिससे सत्र न्यायालय या जिला न्यायालयों तक पहुंच बंद हो जाती है। इससे खासकर गरीब और वंचित नागरिकों के लिए न्याय प्राप्ति का अधिकार प्रभावित होता है।

धारा 14: यह किसी भी न्यायालय (सिवाय उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के) को इस अधिनियम के तहत लिए गए कार्यों की समीक्षा करने से रोकता है।

ये प्रावधान न्यायिक समीक्षा की मूल संरचना और न्यायाधीश निर्णय के चार स्तरीय ढांचे का उल्लंघन करते हैं। इससे न केवल उचित प्रक्रिया और प्रभावी उपचार का अधिकार छीना जाता है, बल्कि यह अनुच्छेद 14 और 21 का भी उल्लंघन है।

8. जांच व संज्ञान: केंद्रीकृत और राजनीतिक

धारा 15:


● सभी अपराध संज्ञानात्मक और गैर-जमानती हैं।
● मामले दर्ज करने के लिए डीआईजी स्तर के अधिकारी की लिखित अनुमति आवश्यक है, जो जांच अधिकारी का भी निर्धारण करेगा जो मामले की जांच करेगा।
● न्यायालय में संज्ञान लेने के लिए अतिरिक्त डीजीपी स्तर या उससे ऊपर के अधिकारी की रिपोर्ट आवश्यक है।

यह मॉडल गिरफ्तारी और मुकदमे दोनों के लिए राजनीतिक मंजूरी अनिवार्य बनाता है, जिससे प्रशासनिक और न्यायिक दोनों कार्य पुलिस-राजनीतिक नौकरशाही के हाथों में केंद्रीकृत हो जाते हैं।
यह सरकार की कार्यपालिका शाखा में शक्ति के केंद्रीकरण को और बढ़ाता है और संविधान में शक्तियों के संतुलन के सिद्धांत के खिलाफ है, जिससे प्रस्तावित कानून वर्तमान सरकार द्वारा तानाशाही प्रवृत्ति से दुरुपयोग के लिए अधिक संवेदनशील हो जाता है।

9. राज्य अधिकारियों को पुरी सुरक्षा
धारा 17:

इस अधिनियम के तहत “भरोसे” में काम करने वाले किसी भी सरकारी अधिकारी या सरकार को पूर्ण नागरिक और आपराधिक प्रतिरक्षा प्रदान की गई है।

कोई स्वतंत्र शिकायत निवारण तंत्र नहीं है, झूठे आरोपों या दुर्भावनापूर्ण मुकदमों के लिए कोई जवाबदेही नहीं तय की गई है और न ही कोई संस्थागत निगरानी व्यवस्था मौजूद है। यह उन अधिकारियों को दंडमुक्ति (impunity) प्रदान करता है, जो इस कानून का इस्तेमाल वैध विरोध, आलोचना या असहमति को कुचलने के लिए करते हैं।

निष्कर्ष: विधायी रूप में एक संवैधानिक संकट

महाराष्ट्र विशेष सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक, 2024, जिसे 9 जुलाई 2025 को विधानसभा में पेश किया गया, सार्वजनिक सुरक्षा का उपाय नहीं है बल्कि यह राजनीतिक विरोध को कुचलने का वैधानिक हथियार है। राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे संदर्भ के बिना यह विधेयक UAPA, NSA और AFSPA जैसे कठोर कानूनों की सबसे खराब विशेषताओं को एक साथ जोड़ता है और उन्हें नागरिक प्रतिरोध, लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति और विपक्षी लामबंदी पर लागू करता है।

इस विरोध-पत्र में उठाया गया अहम सवाल यह है कि क्या सच में एक और कानून की जरूरत है, जबकि पहले से ही UAPA 1967 (संशोधित 2008, 2019), भारतीय न्याय संहिता (BNS) 2023 और MCOCA 1999 जैसे सख्त कानून राज्य में मौजूद हैं, जो पहले ही पुलिस और राज्य को अत्यधिक और काफी शक्तियां दे रहे हैं?

प्रस्तावित कानून 'महाराष्ट्र विशेष सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक, 2024’ को समझने के लिए यह जरूरी है कि इसे पहले से मौजूद सख्त कानूनों के संदर्भ में देखा जाए। UAPA 1967 और भारतीय न्याय संहिता (BNS) 2023 जैसे केंद्रीय कानून पहले ही "आतंकवाद" और "संगठित अपराधों" से निपटने के लिए बनाए गए हैं। इसके अलावा MCOCA 1999 नामक राज्य कानून भी मौजूद है, जो ‘आतंकी या अलगाववादी’ गतिविधियों पर कार्रवाई के लिए एक व्यापक कानूनी ढांचा उपलब्ध कराता है। इन सभी कानूनों के तहत राज्य और पुलिस को पहले से ही असाधारण और व्यापक अधिकार हासिल हैं जिनका इस्तेमाल देश की सुरक्षा, एकता और संप्रभुता के खिलाफ माने गए अपराधों पर कार्रवाई के लिए किया जा सकता है।

महाराष्ट्र के आपराधिक कानूनों में ऐसे कठोर प्रावधानों को शामिल करना, वह भी बिना आवश्यक सुरक्षा उपायों के, गंभीर चिंता का विषय है। आज जब सरकार की नीतियों के खिलाफ राजनीतिक या रचनात्मक विरोध को सहन नहीं किया जा रहा है और जब जांच एजेंसियों के दुरुपयोग की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं, ऐसे माहौल में यह विधेयक राज्य की मनमानी कार्रवाई के खतरे को और बढ़ाता है। यह न सिर्फ न्यायिक संतुलन को कमजोर करता है, बल्कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर भी सीधा हमला करता है।

आखिर में, महाराष्ट्र विशेष सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक (MSPS) पूरी तरह से सवालों के घेरे में है:

● अनावश्यक: महाराष्ट्र में पहले से ही MCOCA, UAPA और अब BNS जैसे कानून मौजूद हैं, जो असली आतंकवादी गतिविधियों से निपटने के लिए पर्याप्त हैं।
● असंवैधानिक: यह विधेयक संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), 19 (अभिव्यक्ति, संगठन और विरोध का अधिकार) और 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का सीधा उल्लंघन करता है।
● गैर-लोकतांत्रिक: यह चिंतन, संगठन, लामबंदी और विरोध प्रदर्शन जैसे सभी लोकतांत्रिक अधिकारों को निशाना बनाता है।
● अपारदर्शी और जवाबदेही से परे: यह विधेयक पुलिस और कार्यपालिका को बिना किसी ठोस नियंत्रण या निगरानी के असीमित शक्तियां देता है।

संयुक्त समिति की विफलता: विरोध और आलोचनात्मक आवाजों को नजरअंदाज किया गया

महाराष्ट्र विशेष सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक, 2024 (विधानसभा विधेयक संख्या 33) पर बनी संयुक्त समिति की रिपोर्ट उस गंभीर आपत्तियों की अनदेखी पर पर्दा डालने वाली एक राजनीतिक लीपापोती के रूप में सामने आई है, जो समिति की बैठकों के दौरान लगातार उठाई गई थीं। पांच बैठकों के बावजूद, समिति की रिपोर्ट में विपक्ष और विशेष रूप से महाविकास आघाड़ी (MVA) के सदस्यों द्वारा उठाए गए गंभीर और ठोस सवालों को शामिल नहीं किया गया।

इन सदस्यों ने चर्चा के दौरान कुछ स्पष्ट और ठोस आपत्तियां दर्ज की थीं, इन आपत्तियों में शामिल थे:

● "अवैध गतिविधि" की अस्पष्ट और अत्यधिक व्यापक परिभाषा,
● गिरफ्तारी और संपत्ति जब्ती के अत्यधिक अधिकार,
● जिला न्यायालयों की पूरी तरह अनदेखी,
● सलाहकार बोर्ड की संरचना में स्वतंत्र निगरानी तंत्र की अनुपस्थिति,
● बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के निगरानी और वित्तीय जब्ती की व्यापक शक्तियां।

समिति की बैठकों में इन सब मुद्दों पर चर्चाओं के बावजूद, 9 जुलाई 2025 को विधानसभा में पेश किए गए अंतिम विधेयक में इन मुद्दों का कोई झलक नहीं दिखता। इसके उलट, सरकार ने केवल कुछ नाममात्र के संशोधन किए हैं, जो विधेयक के दमनकारी ढांचे में कोई वास्तविक बदलाव नहीं लाते।

और भी चिंता की बात है कि समिति ने जिस अपारदर्शी और बहिष्कृत तरीके से काम किया, वह बेहद परेशान करने वाला है

● समिति ने सार्वजनिक सुनवाई करने से इनकार कर दिया, जबकि उसने महाराष्ट्र भर के नागरिकों और संगठनों से लिखित आपत्तियां मांगी थीं।
● समिति ने सैकड़ों व्यक्तियों और संगठनों में से किसी को भी व्यक्तिगत सुनवाई का मौका नहीं दिया, जिन्होंने अपने मत और आपत्तियां दर्ज कराई थीं।
● न ही समिति ने प्राप्त आपत्तियों की सूची सार्वजनिक की, न ही अपने भीतर विरोधी मतों का पारदर्शी दस्तावेज तैयार किया।

यह पूरा प्रक्रिया स्पष्ट रूप से दिखाती है कि यह समिति लोकतांत्रिक विचार-विमर्श का मंच नहीं थी, बल्कि एक औपचारिकता भर थी, जिसका उद्देश्य जनता की आलोचना को दबाना और पहले से तय किए गए विधायी फैसले को वैधता प्रदान करना था।

आखिर में पेश किया गया विधेयक इस बंद प्रक्रिया का ही नतीजा है: एक ऐसा दस्तावेज जिसमें संवैधानिक कमजोरियां, चिंतन को निशाना बनाना और संरचनात्मक पक्षपात स्पष्ट हैं। इसे “जन सुरक्षा” के नाम पर पेश किया गया है, लेकिन यह राजनीतिक दमन का उपकरण साबित होता दिख रहा है।

संयुक्त समिति की विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ी जा सकती है।



विधेयक की प्रति नीचे पढ़ी जा सकती है।



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