बिहार: वैध मतदाताओं को बाहर करने की साजिश, चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची का ‘गहन’ पुनरीक्षण चिंता का विषय

Written by DR. PYARA LAL GARG | Published on: July 2, 2025
भारतीय नागरिकता' की जांच करने का अधिकार चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है, लेकिन इसको हड़पते हुए मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार की हालिया कार्रवाई न केवल अवैध और जल्दबाजी में उठाया गया कदम है, बल्कि यह भारतीय संविधान, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 और मतदाताओं के पंजीकरण नियम 1960 का भी घोर उल्लंघन है।


फोटो साभार : सौरभ रॉय/द न्यू इंडियन एक्सप्रेस

बिहार राज्य चुनावों से कुछ महीने पहले भारतीय निर्वाचन आयोग (ECI) द्वारा एकतरफा तरीके से घोषित किया गया "विशेष गहन संशोधन" का हालिया निर्णय न केवल उस प्रावधान का उल्लंघन करता है जिसका हवाला देकर इसे उचित ठहराया गया है, बल्कि इसका उद्देश्य साफ तौर से उन अशिक्षित मतदाताओं को मताधिकार से वंचित करना है जो “कोई संपत्ति के मालिक नहीं हैं।” इससे भी ज्यादा चिंताजनक यह है कि इस घोषणा के अनुसार “सभी मतदाताओं को एक नामांकन फॉर्म भरना होगा, और जो 2003 के बाद पंजीकृत हुए हैं उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने वाले दस्तावेज भी देने होंगे”। यह न केवल भारतीय संविधान का उल्लंघन है बल्कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 की धारा 15 और 19 का भी सीधा उल्लंघन है।

जब विपक्ष केवल प्रेस कॉन्फ़्रेंसों में विरोध दर्ज करवा रहा है, वहीं रविवार, 29 जून की खबरों से संकेत मिलता है कि चुनाव आयोग (ECI) सभी आपत्तियों को नजरअंदाज करते हुए अपने निर्णय को जबरदस्ती लागू करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है!

वोट फॉर डेमोक्रेसी से जुड़े एक विशेषज्ञ द्वारा लिखे गए इस लेख में सवाल उठाया गया है:

● क्या यह कदम चुनाव कानून का सरासर उल्लंघन नहीं है?

● क्या यह कदम हमारे चुनाव प्रणाली और सार्वभौमिक मताधिकार के अधिकार पर गहरा आघात पहुंचाने की एक नापाक साजिश का हिस्सा नहीं है?

इस लेख में आगे मांग की गई है:

क्या ज्ञानेश कुमार की नियुक्ति इसलिए हुई है कि वे:

● जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 (जिसे आरपी अधिनियम 1950 कहा जाता है) की धारा 19 का खुला उल्लंघन करें?

● गरीब, अशिक्षित, बेघर, संपत्तिहीन और वंचित नागरिकों के खिलाफ चुनिंदा तरीके से आरपी अधिनियम 1950 का उल्लंघन करें?

● छिपे तौर पर नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 (CAA 2019) और खतरनाक राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) को लागू करें?

क्या मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) के पास कानून के तहत संवैधानिक अधिकार हैं:

● नागरिकता के अधिकारों को परिभाषित करने और उस पर निर्णय लेने का?

● संसद के अधिकारों को हड़पने का?

आगामी 2025 बिहार विधानसभा चुनावों से कुछ महीने पहले यानी 24 जून को मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त के नेतृत्व में चुनाव आयोग ने मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण की प्रक्रिया शुरू की है जिसे चुनाव कानून (जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951) और संविधान के अनुसार ही सख्ती से किया जाना चाहिए।

चुनाव आयोग (ECI) का यह एकतरफा और मूल रूप से दोषपूर्ण निर्णय विपक्षी दलों और आम जनता को जानकारी के निरंतर वंचित किए जाने के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324-326 के तहत, ईसीआई द्वारा संचित सभी डेटा “भारत के लोगों” के हित में होता है न कि किसी भी सरकार के नियंत्रण में जो सत्ता में हो। हाल में ईसीआई ने अलोकतांत्रिक तरीके से अपने नियमों में बदलाव किया है, जिसके तहत मतदान केंद्रों की मतदान बंद होने के बाद की वीडियोग्राफी उपलब्ध नहीं कराई जाती। साथ ही, यह आयोग विपक्ष और जनता को पहले के मतदाता सूचियां उपलब्ध कराने से भी लगातार इंकार कर रहा है, जो ऐसे डेटा में होना चाहिए जो पढने और खोजने लायक हो, ताकि बड़े पैमाने पर नाम हटाने और बहिष्कार का पता लगाया जा सके।

आम लोगों, विपक्षी दलों और चुनाव आयोग (ईसीआई) के बीच विश्वास और संवाद पूरी तरह टूटने की इस पृष्ठभूमि में ईसीआई ने 24 जून 2025 को अचानक यह आदेश जारी किया। इस आदेश में एक नए बनाए गए और खास तरीके से तैयार किए गए शब्द ‘विशेष गहन संशोधन’ का इस्तेमाल किया गया है, जो चुनाव आयोग के क्रमांक संख्या 23/ESR/2025 दिनांक 24 जून 2025 के जरिए जारी किया गया। यह ऐसा काम जो न तो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324, न जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 और न ही मतदाता पंजीकरण नियम 1960 में वैधता हासिल करता है।

हड़पी गई इन शक्तियों के तहत, चुनाव आयोग ने 24 जून, 2024 को पटना स्थित बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को निर्देश जारी किए हैं, जिनमें 26 जुलाई, 2025 तक मतदाता सूची के ‘विशेष गहन संशोधन’ करने का आदेश दिया गया है। चुनाव आयोग यह दावा करता है कि यह कार्य “हाल के समय में उभरे नए जनसांख्यिकीय कारकों” के कारण जरूरी हुआ है, लेकिन आयोग के इस निर्णय या कार्य का कोई वस्तुनिष्ठ आधार नहीं है।

चुनाव आयोग ने इस प्रकार बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी (CEO) को यह सेल्फ अप्वाइंटेड ड्यूटी सौंपा है कि वे प्रत्येक मतदाता की भारतीय नागरिकता का निर्णय करें। यह एक ऐसा काम है जिसके लिए ईसीआई को संविधान और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 के तहत स्पष्ट रूप से कोई अधिकार प्राप्त नहीं है।

चुनाव आयोग ने यह बड़ी जिम्मेदारी ब्लॉक स्तर के अधिकारियों (BLOs) को सौंप दी है, जो सामान्यतः तृतीय श्रेणी के कर्मचारी होते हैं और जिन्हें सभी मतदाताओं की नागरिकता का निर्णय देने का अधिकार नहीं है। किसी भी कानून के तहत उन्हें ऐसा करने का अधिकार प्राप्त नहीं है, विशेषकर उन मतदाताओं के लिए जो दशकों से मतदाता सूची में दर्ज हैं, यानी वे मतदाता जिन्होंने संविधान द्वारा प्रदत्त सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का लाभ उठाया है। इस निर्णय के परिणामस्वरूप, बिहार के लगभग 8 करोड़ मतदाताओं - जो 2024 के लोकसभा चुनाव (पिछले जून) में 7.726 करोड़ थे - की जांच मात्र एक महीने से भी कम समय में की जानी है। क्या यह प्रक्रिया जो जल्दबाज़ी में घोषित की गई है और चार हफ्तों से भी कम समय में पूरी की जानी है और जिसका न तो कोई कानूनी और न ही संवैधानिक आधार है बिना मतदाता पंजीकरण नियम 1960 के मूलभूत उल्लंघन के पूरी हो पाएगी, जबकि इस कार्य के प्रत्येक चरण के लिए कानूनी रूप से निर्धारित आवश्यक समय जानबूझकर अनदेखा किया गया है?

एक महीने में पूरा किया जाएगा नया कार्य

राज्यवार मतदाताओं की संख्या – बिहार




Source: https://www.eci.gov.in/general-election-to-loksabha-2024-statistical-reports


चुनाव आयोग इस कठोर कार्य के लिए किस कानून के तहत अपने अधिकारों का दावा करता है?

ईसीआई ने अपनी निर्देशात्मक पत्र संख्या 23/2025-ERS (खंड II) दिनांक 24 जून 2025 में कहा है कि उसे यह अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 21 के तहत प्राप्त है।

आइए अब इन प्रावधानों की जांच करें।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 324:

324. चुनावों का पर्यवेक्षण, दिशा-निर्देशन और नियंत्रण चुनाव आयोग के अधीन होगा।

(1) इस संविधान के अधीन आयोजित किए जाने वाले संसद और प्रत्येक राज्य की विधायिका के लिए तथा राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पदों के लिए चुनावों की तैयारी और उन चुनावों के संचालन के लिए निर्वाचन सूचियों की तैयारी का पर्यवेक्षण, निर्देशन व नियंत्रण एक आयोग में निहित होगा (जिसे इस संविधान में निर्वाचन आयोग कहा गया है)।

चुनाव आयोग को केवल ‘मतदाता सूचियों की तैयारी का पर्यवेक्षण, दिशा-निर्देशन और नियंत्रण’ का अधिकार दिया गया है, न कि यह तय करने का कि कोई व्यक्ति भारत का नागरिक है या नहीं।

ऐसा इसलिए है क्योंकि नागरिकता के लिए एक अलग नागरिकता अधिनियम, 1955 (Citizenship Act, 1955) मौजूद है और भारतीय नागरिकता का निर्धारण संविधान के अनुच्छेद 5 से 11 तक के प्रावधानों के अनुसार किया जाता है।

अनुच्छेद 11 का प्रावधान इस प्रकार है: संसद कानून बनाकर नागरिकता के अधिकार को नियंत्रित कर सकती है।

इसलिए, आयोग द्वारा 24 जून को जारी किए गए “निर्देश” असंवैधानिक हैं और नागरिकता से संबंधित अनुच्छेदों के प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं। इसके अलावा, चुनाव आयोग संसद के अधिकारों को बिना अनुमति और अवैध रूप से अपने हाथ में ले रहा है, विशेष रूप से तब, जब वह ऐसे लोगों से कुछ दस्तावेजी प्रमाण मांग रहा है जो 2003 की मतदाता सूची में शामिल नहीं हैं और जिनका जन्म 1 जुलाई 1987 से पहले हुआ है, क्योंकि:

एक ऐसा व्यक्ति जो बेहद वंचित है - जैसे कि बेघर हो, अशिक्षित हो, उसके पास कोई पहचान पत्र न हो, जमीन न हो, सरकार का दिया हुआ स्थायी निवास प्रमाणपत्र न हो, पासपोर्ट न हो, और न ही कोई पेंशन आदेश क्योंकि वह कोई पेंशन नहीं लेता- और अगर उसके ये दस्तावेज 1 जुलाई 1987 से पहले जारी नहीं हुए हैं और उसका नाम 2003 से पहले की मतदाता सूची में नहीं था, चाहे वह उस समय नाबालिग रहा हो या चुनाव आयोग की लापरवाही से छूटा हो- तो ऐसे व्यक्ति को इस प्रक्रिया से भारी नुकसान होगा।

ऐसी मनमानी, भेदभाव, पक्षपात, वंचित होने और अव्यवस्था को दूर करने के लिए देश की वास्तविक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 और मतदाता पंजीकरण नियम 1960 के तहत प्रावधान बनाए गए हैं, जिनका हम आगे उल्लेख करेंगे।

सबसे पहले, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 21:

धारा 21 इस प्रकार है:

[21. मतदाता सूची की तैयारी और संशोधन। - (1) प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की मतदाता सूची नियत प्रक्रिया और योग्यता तिथि के अनुसार तैयार की जाएगी, और इसे इस अधिनियम के तहत बनाए गए नियमों के अनुसार अंतिम रूप से प्रकाशित होते ही तुरंत प्रभावी माना जाएगा।]]

2[(2) उक्त मतदाता सूची —

(a) चुनाव आयोग द्वारा लिखित कारणों के आधार पर अन्यथा निर्देश न दिए जाने तक, निर्धारित तरीके से योग्यता तिथि के संदर्भ में संशोधित की जाएगी-

इसलिए, धारा 21(1) में चुनाव आयोग के लिए कानून द्वारा दिए गए निम्नलिखित निर्देशों पर ध्यान देना आवश्यक है:

i) निर्धारित तरीके से तैयार की जाएगी।

ii) इस अधिनियम के तहत बनाए गए नियमों के अनुसार।

चुनाव आयोग बिना अधिकार के अपने दायरे से बाहर जाकर अनधिकृत गतिविधियां नहीं कर सकता और न ही करनी चाहिए; उसे अपनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी - चुनावों का निष्पक्ष, पारदर्शी और पूरी तरह से तटस्थ संचालन -पर ध्यान देना चाहिए।

इस तरह यह स्पष्ट है कि चुनाव आयोग द्वारा जारी किए गए निर्देश धारा 21(1) के प्रावधानों का स्पष्ट उल्लंघन हैं, क्योंकि यह कार्रवाई उन सभी मौजूदा मतदाता सूचियों को निरस्त कर देगी, जिनमें सभी मतदाता शामिल हैं और जो 2004, 2009, 2014, 2019 और 2024 के लोकसभा चुनावों के साथ-साथ पिछले दो दशकों से बिहार विधानसभा चुनावों में लागू रही हैं, जो सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार प्रदान करती हैं।

इसके अलावा, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की यह धारा 21, अनुच्छेद 15 के अधीन है, जो इस प्रकार है:

15. प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के लिए मतदाता सूची- प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के लिए एक मतदाता सूची बनाई जाएगी, जिसे इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार चुनाव आयोग की देखरेख, दिशा-निर्देशन और नियंत्रण में तैयार किया जाएगा।

इसलिए, धारा 15 स्पष्ट रूप से बताती है कि मतदाता सूची इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार ही तैयार की जानी चाहिए। संभवतः जानबूझकर और गलत मंशा से, चुनाव आयोग ने यह नहीं माना या स्वीकार नहीं किया कि मतदाता सूचियों की ‘तैयारी’ के सभी प्रावधानों को साथ में पढ़ा जाना चाहिए, न कि केवल धारा 21 को चुनिंदा तौर पर।

यह तथ्य नकारा नहीं जा सकता कि चुनाव आयोग को मतदाता सूचियों की तैयारी की देखरेख, दिशा-निर्देशन और नियंत्रण का अधिकार प्राप्त है, लेकिन यह भी बहुत महत्वपूर्ण है कि चुनाव आयोग को यह काम इस अधिनियम 1950 के प्रावधानों के अनुसार ही पूरा करना चाहिए।

अब आइए इस अधिनियम की उन धाराओं पर नजर डालते हैं, जिनमें धारा 19 के तहत मतदाता पंजीकरण की शर्तें निर्धारित की गई हैं, जिन्हें चुनाव आयोग ने पूरी तरह से नजरअंदाज किया है या पालन नहीं किया है।

इन्हें यहां इस तरह पेश किया जा रहा है:

4 [19. पंजीकरण की शर्तें।- इस भाग के पूर्व के प्रावधानों के अधीन, हर वह व्यक्ति जो -

(a) योग्यता तिथि तक कम से कम 18 वर्ष का हो, और

(b) सामान्यत: किसी निर्वाचन क्षेत्र में रहता हो,

उसे उस निर्वाचन क्षेत्र की मतदाता सूची में नाम दर्ज करने का अधिकार होगा।]

यह बिलकुल साफ है कि किसी व्यक्ति के मतदाता सूची में दर्ज होने के लिए केवल दो शर्तें हैं -वह व्यक्ति कम से कम 18 साल का होना चाहिए और सामान्यत: उस निर्वाचन क्षेत्र में रहना चाहिए। इसके अलावा, यह चुनाव आयोग को दिया गया स्पष्ट आदेश है और व्यक्ति का अधिकार भी है कि उसे मतदाता सूची में नाम दर्ज किया जाना चाहिए। ऊपर बताए गए प्रावधानों से यह भी स्पष्ट होता है कि चुनाव आयोग को यह अधिकार नहीं है कि वह साल 2003 में पंजीकृत नहीं हुए हर मतदाता से अपने आदेश में बताई गई दस्तावेज मांग सके। इसके अलावा, केवल किसी क्षेत्र में घर या संपत्ति होना किसी व्यक्ति को 'सामान्यत: रहने वाला' मतदाता नहीं बनाता, जैसा कि नियमों की धारा 20 में परिभाषित है, जो इस प्रकार है:

20. “सामान्यत: निवास करने वाला” का मतलब - 6[(1) केवल इस आधार पर कि कोई व्यक्ति किसी निर्वाचन क्षेत्र में मकान का मालिक है या उसका कब्जा रखता है, उसे उस क्षेत्र में सामान्यत: निवास करने वाला नहीं माना जाएगा।

(1A) कोई व्यक्ति अपने सामान्य निवास स्थान से अस्थायी रूप से कहीं और रहता है, उसे इस कारण से अपने सामान्य निवास स्थान का निवासी माना जाना छोड़ा नहीं किया जाएगा।

कानून बनाने वाली संस्था संसद गलत तरीके से पंजीकृत मतदाताओं को हटाने की जरूरत को समझती है और इस समस्या को दूर करने का प्रावधान जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 की धारा 16 में दिया गया है, जो इस प्रकार है:

16. मतदाता सूची से नाम हटाने की अयोग्यता - (1) कोई व्यक्ति मतदाता सूची में पंजीकृत होने के लिए अयोग्य होगा यदि वह—

(a) भारत का नागरिक नहीं है; या

(b) मानसिक रूप से अस्वस्थ हो और किसी सक्षम न्यायालय द्वारा ऐसा घोषित किया गया हो; या

(c) चुनावों के संबंध में भ्रष्ट 1*** आचरण और अन्य अपराधों से संबंधित किसी कानून के प्रावधानों के तहत मतदान करने से फिलहाल अयोग्य है।

चुनाव आयोग का गैरकानूनी और आडंबरपूर्ण दावा कि वह धारा 16 की उप-धारा (a) के तहत जन्म प्रमाण पत्र मांगेगा, पूरी तरह बेतुका है। क्या चुनाव आयोग फिर धारा 16 की उप-धारा (b) के अनुसार मानसिक रूप से स्वस्थ होने का प्रमाण पत्र भी मांगेगा?

मतदाता के रूप में पंजीकृत होने के लिए पंजीकरण के लिए नियम क्या कहते हैं?

मतदाता पंजीकरण नियम, 1960 के नियम 13(1) के तहत यह कहा गया है कि व्यक्ति को फॉर्म नंबर 6 में आवेदन करना होता है। नियम 13(1) में साल 2003 या उसके बाद कभी भी पंजीकृत मतदाताओं के बीच कोई भेदभाव नहीं किया गया है। तो फिर चुनाव आयोग यह कैसे तय कर सकता है कि नियमों के विपरीत कुछ शर्तें लगाई जाएं?

फॉर्म में भी हाल ही में चुनाव आयोग द्वारा मनमाने तरीके से घोषित किसी भी प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं बताई गई है।

1960 के नियमों के तहत यह भी प्रावधान है कि मतदाता सूची में किसी प्रकार की गलती सुधारने के लिए व्यक्ति को फॉर्म नंबर 8 में आवेदन करना होता है। किसी गलत या 'फर्जी' नाम जोड़ने पर आपत्ति उठाने के लिए फॉर्म नंबर 7 में आवेदन किया जाता है। इसके अलावा, झूठा घोषणा-पत्र देने पर सजा का भी प्रावधान है। ऐसे में चुनाव आयोग द्वारा तैयार की गई यह नई प्रक्रिया पूरी तरह से अनावश्यक और संदिग्ध इरादों से प्रेरित लगती है।

नाम हटाने (डिलीशन) की समय-सीमा- जैसा कि चुनाव आयोग द्वारा 11 अगस्त, 2023 को जारी निर्देश संख्या 23/INST/2023-ERS में दर्ज है

निर्वाचक पंजीकरण अधिकारी (ईआरओ) को भी यह काम करने का पूरा अधिकार नहीं है, फिर बीएलओ (ब्लॉक स्तर अधिकारी) को देना तो और भी अनुचित है।

चुनाव वर्ष में किसी भी प्रकार की गलत तरीके से नाम हटाने की संभावना को ध्यान में रखते हुए और सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद, आयोग ने निर्देश दिया है कि निर्वाचक पंजीकरण अधिकारी (ईआरओ) बिना फॉर्म 7 प्राप्त किए और बिना पैराग्राफ 4 में बताए गए सत्यापन की प्रक्रिया का पालन किए, किसी भी नाम को हटाने की कार्रवाई नहीं करेगा। पैराग्राफ 6 (ii) और (iii) में उल्लिखित और निर्धारित सत्यापन की प्रक्रिया इस प्रकार है:

किसी भी नाम को मतदाता सूची से हटाने के लिए आपत्ति करने वाले व्यक्ति को निर्धारित फॉर्म संख्या 7 में आवेदन देना होता है, जिसमें यह घोषणा करनी होती है कि उसमें दी गई जानकारी झूठी नहीं है। इस आवेदन को प्राप्त करने के बाद इसकी रसीद देना अनिवार्य है। अगर किसी ने फॉर्म में झूठी जानकारी दी है, तो उसके लिए दंड का प्रावधान है, जो इस प्रकार है:

नोट- कोई भी व्यक्ति जो ऐसा कथन या घोषणा करता है जो झूठी है और जिसे वह जानता है या मानता है कि वह झूठी है या जिसे वह सच नहीं मानता, तो उसे जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 (1950 का अधिनियम संख्या 43) की धारा 31 के तहत दंडित किया जा सकता है।

इलेक्शन अथॉरिटी को संबंधित मतदाता को रजिस्टर्ड डाक के जरिए एक नोटिस भेजना होता है और उस नोटिस की डिलीवरी की रसीद को रिकॉर्ड में रखना जरूरी होता है।

जिस व्यक्ति को यह नोटिस भेजा गया है, उसे नोटिस जारी होने की तिथि से 15 दिनों के भीतर जवाब देना होता है।

यदि निर्धारित समय में कोई उत्तर प्राप्त नहीं होता, तो इलेक्शन अथॉरिटी संबंधित बीएलओ (ब्लॉक स्तर अधिकारी) को मौके पर जाकर जांच करने का निर्देश देता है।

इस जांच के दौरान, बीएलओ को अपने दौरे की तारीख और समय, किस व्यक्ति ने दौरा किया, किस व्यक्ति के पास गया और किस स्थान पर गया, वहां क्या पूछताछ की गई -इन सभी बातों का पूरा रिकॉर्ड तैयार कर सक्षम प्राधिकारी को सौंपना होता है। इसके बाद, जब यह रिपोर्ट जमा हो जाती है और अगली 15 दिनों की समय-सीमा भी समाप्त हो जाती है, तभी संबंधित नाम को मतदाता सूची से हटाने का आदेश जारी किया जा सकता है।

चुनाव आयोग ने या तो जमीनी सच्चाई से अनजान होकर या फिर जानबूझकर उन्हें नजरअंदाज करते हुए अपनी समझ के अनुसार 'विशेष गहन संशोधन' के लिए कुछ दस्तावेज निर्धारित किए है।

● कोई भी पहचान पत्र

● पेंशन भुगतान आदेश

● भारत सरकार द्वारा 1 जून 1987 से पहले जारी किया गया पहचान पत्र या दस्तावेज

● सक्षम प्राधिकारी द्वारा जारी जन्म प्रमाण पत्र

● पासपोर्ट

● मैट्रिकुलेशन प्रमाण पत्र

● सक्षम राज्य प्राधिकारी द्वारा जारी स्थायी निवास प्रमाण पत्र

● सरकार द्वारा दिया गया कोई भी जमीन या मकान आवंटन प्रमाण पत्र, आदि

जमीनी हकीकत

1. साल 1987 से पहले जन्मे व्यक्ति और उसके माता-पिता का जन्म प्रमाण पत्र मांगना किसी को बाहर करने की सोच समझ कर की गई चाल है। यह अप्रत्यक्ष रूप से विवादित नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) को लागू करने की कोशिश जैसा भी लगता है, जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। असल में, यह देश के कानून के खिलाफ भी है, क्योंकि जन्म और मृत्यु पंजीकरण अधिनियम केवल 1969 में लागू हुआ था, जैसा कि नीचे बताया गया है।

“जन्म और मृत्यु पंजीकरण अधिनियम, 1969 (अधिनियम संख्या 18, 1969) [31 मई 1969] यह अधिनियम जन्म और मृत्यु के पंजीकरण के नियमन तथा उससे जुड़ी अन्य बातों के लिए बनाया गया है।”

2. जो लोग 1 जुलाई 1987 से पहले जन्मे हैं और 2003 के बाद मतदाता सूची में शामिल हुए हैं, उन्हें चुनाव आयोग द्वारा बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के, जो कि नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत सक्षम प्राधिकारी द्वारा की जानी चाहिए, भारतीय नागरिक का अधिकार नहीं छीना जा सकता।

3. 2011 तक (जब आखिरी जनगणना हुई थी) जन्म और मृत्यु का नागरिक पंजीकरण क्रमशः केवल 82.4% और 66.4% था। तो फिर हम कैसे सोच सकते हैं कि 1 जुलाई 1987 या उससे पहले जन्मे सभी लोगों के माता-पिता के हर वैध जन्म और मृत्यु का जन्म प्रमाण पत्र के जरिए रिकॉर्ड रखा गया होगा?

4. भले ही 2023 में जन्म पंजीकरण अनिवार्य किया गया हो, फिर भी 11 मार्च 2025 तक भारत में 10% बच्चे अभी भी पंजीकृत नहीं हुए हैं।

5. दिसंबर 2005 से अगस्त 2006 के बीच हुए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-3, के अनुसार बिहार में केवल 6.3%, उत्तर प्रदेश में 7.3%, झारखंड में 9.5%, और राजस्थान में 16.4% जन्म पंजीकृत थे, जबकि पूरे देश में यह आंकड़ा 41.4% था। जन्म प्रमाण पत्र केवल 27.1% आबादी को ही मिला था।

6. साल 1991 में भारत की केवल 52.1% आबादी पढ़ना-लिखना जानती थी, यानी करीब आधी आबादी पूरी तरह निरक्षर थी। बिहार में साक्षरता दर केवल 38.48% थी और महिलाओं में यह मात्र 22.89% थी। और आगे बढ़ते हुए, 2001 में 8,29,98,509 में से सिर्फ 87,60,589 लोग यानी करीब 55% ने दसवीं की परीक्षा पास की थी। ऐसे में ईसीआई की मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट की मांग एक भद्दा मजाक जैसा है।

7. 31 दिसंबर 2023 तक भारत के केवल 6.5 प्रतिशत (92,624,661) नागरिकों के पास वैध पासपोर्ट था; अब सीईसी ज्ञानेश्वर उन लोगों को पासपोर्ट न होने के आधार पर वोट देने का अधिकार देने से रोकने की कोशिश कर रहे हैं।

8. साल 2019 से 2023 के बीच बिहार में कुल 20,12,357 पासपोर्ट जारी किए गए, जो आबाद का लगभग 1.5% है। (प्रभात खबर डिजिटल, बिहार, 17 मई 2025, सुबह 6:05 बजे)

9. साल 2011 की जनगणना के अनुसार 4% लोगों का अपना घर नहीं हैं, लेकिन ज्ञानेश्वर चाहते हैं कि वे अपने घर के कागजात दिखाएं, वरना उनका वोट देने का अधिकार छिन जाएगा।

10. gov.in › images › AADHAAR_NUMBERS_ENGLISHGOVERNMENT OF INDIA MINISTRY OF ELECTRONICS AND INFORMATION … RGI के आंकड़ों के अनुसार भारत की अनुमानित जनसंख्या (2022) लगभग 137.30 करोड़ थी। 30 जून 2022 तक कुल 133.586 करोड़ आधार कार्ड बनाए जा चुके थे। यानी करीब 4 करोड़ भारतीयों के पास अब तक आधार कार्ड भी नहीं है।

इन परिस्थितियों में यह सवाल उठता है कि जब संसाधन सीमित हैं तो बिहार में स्वतंत्र, निष्पक्ष, पारदर्शी और न्यायसंगत चुनाव कराने के बजाय चुनाव आयोग एक अवैध और असंवैधानिक मतदाता सूची पुनरीक्षण प्रक्रिया क्यों शुरू कर रहा है? ऐसा लगता है कि यह कदम उन गरीब और असहाय नागरिकों को दंडित करने की जिद में उठाया जा रहा है, जिनके पास सिर्फ एक सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है और वह है सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का अधिकार।

(लेखक वोट फॉर डेमोक्रेसी से जुड़े विशेषज्ञों में से एक विशेषज्ञ हैं। वे चंडीगढ़ स्थित पंजाब यूनिवर्सिटी के फैकल्टी ऑफ मेडिकल साइंस के पूर्व डीन भी रह चुके हैं।)

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