भाषाई विविधता को बढ़ावा: सुप्रीम कोर्ट ने नगर निगम के साइनबोर्ड पर उर्दू को बरकरार रखा

Written by Tanya Arora | Published on: April 19, 2025
महाराष्ट्र के साइनबोर्ड पर उर्दू को बरकरार रखकर सुप्रीम कोर्ट ने भारत के बहुलवादी लोकाचार की पुष्टि की और विभाजनकारी भाषाई राजनीति को झटका दिया।



ऐसे समय में जब भाषा का इस्तेमाल पहचान के लिए और पहचान को बहिष्कार के साधन के रूप में किया जा रहा है, श्रीमती वर्षाताई बनाम महाराष्ट्र राज्य में सुप्रीम कोर्ट का फैसला बहुलवाद के प्रति भारत की संवैधानिक प्रतिबद्धता की एक जबर्दस्त पुष्टि है। 15 अप्रैल, 2025 को दिए गए इस फैसले में अकोला जिले के पातुर में एक नगरपालिका भवन के साइनबोर्ड पर मराठी के साथ उर्दू के लिखे जाने को बरकरार रखा गया। इस दावे को खारिज कर दिया कि इस तरह के इस्तेमाल से महाराष्ट्र स्थानीय प्राधिकरण (राजभाषा) अधिनियम, 2022 का उल्लंघन होता है।

लेकिन यह केवल साइनबोर्ड या वैधानिक व्याख्या का मामला नहीं था। यह इस चीज को लेकर था कि उर्दू - और विस्तार से, भाषाई और सांस्कृतिक अल्पसंख्यक - भारतीय गणराज्य में क्या स्थान रखते हैं। न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ इस फैसले में कानूनी स्पष्टता और सांस्कृतिक ज्ञान का मेल है और यह न्यायिक राय के साथ-साथ संवैधानिक निबंध की तरह भी है। यह भारतीय इतिहास, पहचान और बंधुत्व के व्यापक संदर्भ में भाषा के प्रश्न को पेश करता है - न केवल वैधानिक पाठ बल्कि संविधान की भावना, संविधान सभा की बहस और भारत के बहुभाषी लोगों की वास्तविकताओं का आह्वान करता है। इस पीठ में न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन भी थे।

जो सामने आता है वह केवल एक बहिष्कारी याचिका को खारिज करना नहीं है, बल्कि भाषाई सद्भाव, सांस्कृतिक सह-अस्तित्व और हर भारतीय भाषा के अधिकार का एक शक्तिशाली बचाव है - विशेष रूप से अल्पसंख्यकों द्वारा बोली जाने वाली भाषा - जिसे देखा, सुना और सम्मान दिया जाना चाहिए।

ये निर्णय मौलूद बेनज़ादी की एक पंक्ति से शुरू होता है जो आगे आने वाले पूरे विचार को दिशा और आवाज देती है:

मामले के तथ्य

ये याचिका नगर परिषद की पूर्व सदस्य श्रीमती वर्षाताई द्वारा दायर की गई थी, जिन्होंने साइनेज सहित किसी भी रूप में उर्दू के इस्तेमाल पर आपत्ति जताई थी। उनका तर्क था कि महाराष्ट्र स्थानीय प्राधिकरण (राजभाषा) अधिनियम, 2022, केवल मराठी की अनुमति देता है। नगर परिषद ने पहले 14 फरवरी, 2020 को बहुमत के प्रस्ताव द्वारा उनकी याचिका को खारिज कर दिया था, जिसमें कहा गया था कि उर्दू का इस्तेमाल लंबे समय से यानी 1956 से हो रहा है और शहर की आबादी का एक बड़ा हिस्सा उर्दू भाषी है।

इसके बाद अपीलकर्ता ने कलेक्टर के समक्ष महाराष्ट्र नगर परिषद अधिनियम, 1965 की धारा 308 के तहत एक आवेदन दायर किया जिसने सरकारी कार्यवाही में मराठी के 100% इस्तेमाल को अनिवार्य करने वाले सरकारी परिपत्र का हवाला देते हुए इसे अनुमति दे दी। हालांकि, बाद में डिवीजनल कमिश्नर ने इसे खारिज कर दिया, जिसके कारण बॉम्बे हाई कोर्ट में चुनौती दी गई, जिसने उनकी याचिका को खारिज कर दिया। इसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में एक विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) दायर की।

मामले के लंबित रहने के दौरान, 2022 अधिनियम लागू हुआ। पहले के दौर में, सुप्रीम कोर्ट ने एसएलपी का निपटारा करते हुए कहा कि उच्च न्यायालय का आदेश नए कानून के मद्देनजर नहीं आ सकता है, लेकिन पीड़ित पक्ष को उचित उपाय तलाशने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया। इसके बाद मामले की सुनवाई उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ द्वारा की गई जिसके नगर परिषद के पक्ष में दिए गए फैसले को एक बार फिर चुनौती दी गई जिससे यह मुद्दा फिर से सुप्रीम कोर्ट के समक्ष आ गया।

15 अप्रैल, 2025 को दिए गए अंतिम निर्णय में चुनौती को खारिज कर दिया गया और उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा गया।

कानूनी स्थिति और न्यायालय का तर्क

सुप्रीम कोर्ट ने सबसे पहले नगर परिषद के प्रस्ताव को चुनौती देने के तरीके में प्रक्रियागत कमी पर विचार किया। अपीलकर्ता ने महाराष्ट्र नगर परिषद अधिनियम, 1965 की धारा 308 के तहत कलेक्टर से संपर्क किया था, जिसमें परिषद के साइनबोर्ड पर उर्दू को लिखे जाने के निर्णय को निलंबित करने की मांग की गई थी। हालांकि, 2018 में धारा 308 में एक महत्वपूर्ण संशोधन ने कानून को बदल दिया था: इस संशोधन के बाद, कलेक्टर अब व्यक्तियों या पार्षदों द्वारा की गई शिकायतों पर कार्रवाई नहीं कर सकते, भले ही वे पूर्व सदस्य हों। कलेक्टर के समक्ष प्रस्ताव लाने की शक्ति केवल नगर परिषद के मुख्य अधिकारी के पास है।

न्यायालय ने इस सीमा को स्पष्ट किया:

“संशोधन के बाद… कलेक्टर केवल तभी शक्तियों का इस्तेमाल कर सकते हैं जब नगर परिषद के मुख्य अधिकारी इसे कलेक्टर के संज्ञान में लाते हैं… इस मामले में, आवेदन मुख्य अधिकारी द्वारा नहीं किया गया था… जिसे पहले स्थान पर स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए था।” [पैरा 11]

दूसरे शब्दों में, कलेक्टर के समक्ष याचिकाकर्ता द्वारा शुरू की गई कार्यवाही शुरू से ही कानूनी रूप से अस्थिर थी, क्योंकि कलेक्टर के अधिकार क्षेत्र का आह्वान करने के लिए संशोधित कानून के तहत उसके पास कोई आधार नहीं था। अकेले इस पहलू से मामले का निपटारा हो सकता था। हालांकि, चुनौती की दृढ़ता और इससे पैदा हुई गहरी संवैधानिक चिंताओं को देखते हुए न्यायालय ने मामले के मौलिकता की भी जांच करने का कदम उठाया।

मूल मुद्दे के केंद्र में महाराष्ट्र स्थानीय प्राधिकरण (राजभाषा) अधिनियम, 2022 की व्याख्या थी कि, एक कानून जो राज्य में सभी स्थानीय सरकारी निकायों के लिए मराठी को आधिकारिक भाषा घोषित करता है। याचिकाकर्ता का तर्क इस अधिनियम की संकीर्ण और कठोर व्याख्या पर टिका था - कि एक बार मराठी को आधिकारिक भाषा घोषित कर दिया गया तो उर्दू सहित किसी भी दूसरी भाषा का इस्तेमाल अस्वीकार्य हो गया।

इस बात पर जोर देते हुए न्यायालय ने इस व्याख्या को निर्णायक रूप से खारिज कर दिया कि अधिनियम आधिकारिक संचार के लिए मराठी के इस्तेमाल को अनिवार्य करता है, लेकिन पूरक या सार्वजनिक उद्देश्यों, जैसे साइनबोर्ड के लिए अतिरिक्त भाषाओं के इस्तेमाल को प्रतिबंधित नहीं करता है। इसने कानून के बारे में उच्च न्यायालय के कथन का भी उल्लेख किया।

"[ये अधिनियम] केवल यह सुनिश्चित करता है कि परिषद के कार्य और मामले मराठी भाषा में संचालित हों... यह किसी अतिरिक्त भाषा के इस्तेमाल पर रोक नहीं लगाता... किसी अतिरिक्त भाषा का इस्तेमाल... 2022 के अधिनियम के प्रावधानों के किसी उल्लंघन का संकेत नहीं देगा।" [पैरा 14]

सुप्रीम कोर्ट ने इस दृष्टिकोण से सहमति जताते हुए कहा:

"हमारे विचार से उच्च न्यायालय ने सही निष्कर्ष निकाला है कि 2022 का अधिनियम, जो अपीलकर्ता का आधार है, नगर परिषद भवन के साइनबोर्ड पर किसी अतिरिक्त भाषा, जो वर्तमान मामले में उर्दू है, के इस्तेमाल पर रोक नहीं लगाता।" [पैरा 15]

यह अंतर - एक भाषा को अनिवार्य करने और अन्य को प्रतिबंधित करने के बीच - संवैधानिक रूप से महत्वपूर्ण है। 2022 का अधिनियम यह सुनिश्चित करता है कि मराठी का इस्तेमाल किया जाए, लेकिन इस बात पर जोर नहीं देता कि इसका इस्तेमाल विशेष रूप से किया जाए। इस प्रकार, उर्दू कानून का उल्लंघन किए बिना साइनबोर्ड पर लिखा जा सकता है।

इसके अलावा, न्यायालय ने पूरी बहस को विधिक सीमाओं से हटाकर संवैधानिक उद्देश्य पर केंद्रित कर दिया। आखिर उर्दू का इस्तेमाल क्यों किया जाए? इसका जवाब न्यायालय ने सरल, परंतु समावेशिता और प्रभावी शासन के मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित तर्कों के साथ दिया:

“यहां उर्दू के इस्तेमाल का उद्देश्य केवल संचार है। नगर परिषद सिर्फ प्रभावी संचार करना चाहती थी।” [पैरा 19]

उद्देश्य की यह स्पष्टता महत्वपूर्ण है। साइनबोर्ड पर उर्दू का इस्तेमाल कोई राजनीतिक संकेत या धार्मिक पहचान का दावा नहीं था। यह एक कार्यात्मक, समावेशी और स्थानीय रूप से उचित निर्णय था, जिसका उद्देश्य उर्दू पढ़ने वाली आबादी के एक वर्ग तक पहुंचना और उनका स्वागत करना था। न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि यह न तो नया है और न ही क्रांतिकारी- पातुर नगर परिषद के साइनबोर्ड पर 1956 से ही उर्दू का इस्तेमाल किया जा रहा है।

अंत में, शासन और नागरिकता की वास्तविकताओं में निर्णय को आधार बनाने के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण पैराग्राफ में न्यायालय ने कहा:

“वर्तमान मामले में, यह कहा जाना चाहिए कि नगर परिषद क्षेत्र के स्थानीय समुदाय को सेवाएं प्रदान करने और उनकी तत्काल रोजमर्रे की जरूरतों को पूरा करने के लिए है। यदि नगर परिषद द्वारा कवर किए गए क्षेत्र में रहने वाले लोग या लोगों का एक समूह उर्दू से परिचित है, तो कम से कम नगर परिषद के साइनबोर्ड पर आधिकारिक भाषा यानी मराठी के अलावा उर्दू का इस्तेमाल करने पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। भाषा विचारों के आदान-प्रदान का एक माध्यम है जो विभिन्न विचारों और विश्वासों वाले लोगों को करीब लाती है और यह उनके विभाजन का कारण नहीं बनना चाहिए।” [पैरा 46]

यही वह जगह है जहां न्यायालय एक संकीर्ण कानूनी समाधान से आगे बढ़ गया और याचिकाकर्ता और देश को याद दिलाया कि भाषा, अपने सबसे अच्छे रूप में, एक पुल है, बाधा नहीं। नगर परिषद समुदाय की सेवा करने के लिए है - दूसरों को अलग-थलग करने की कीमत पर एक विलक्षण भाषाई पहचान का दावा करने के लिए नहीं। यदि समुदाय का एक हिस्सा उर्दू पढ़ता है, तो उसे साइनबोर्ड से बाहर करने का कोई कानूनी, नैतिक या संवैधानिक कारण नहीं है।

इसे मान्यता देकर, न्यायालय ने स्थानीय शासन के स्थान को पुनः स्पष्ट किया, जो स्थानीय आवश्यकताओं, पहचानों और वास्तविकताओं के प्रति उत्तरदायी है, न कि भाषाई राष्ट्रवाद की अमूर्त धारणाओं द्वारा निर्देशित।

एक सशक्त ऐतिहासिक सबक

यह निर्णय अपनी सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और संवैधानिक गहराई में विशेष रूप से प्रमुख है। न्यायालय ने केवल विधिक प्रावधानों की व्याख्या नहीं की, बल्कि भाषा को पहचान, इतिहास और संबंध के रूप में देखा। इसने उर्दू के सांप्रदायिकीकरण और इसके चारों ओर बने झूठे द्वैधों पर स्पष्ट और साहसिक फटकार लगाया।

न्यायालय उर्दू को इस्लाम से जोड़ने और इसे एक विदेशी या सांप्रदायिक भाषा के रूप में मानने की व्यापक प्रवृत्ति का सीधे तौर पर सामना करता है। यह शक्तिशाली और स्पष्ट घोषणाओं की एक श्रृंखला बनाकर इस पूर्वाग्रह को सीधे चुनौती देता है। शायद उनमें से सबसे ज्यादा उद्धृत और प्रभावशाली यह है:

“हमारी समझ स्पष्ट होनी चाहिए। भाषा धर्म नहीं है। भाषा धर्म का प्रतिनिधित्व भी नहीं करती है। भाषा एक समुदाय, एक क्षेत्र, लोगों की होती है; न कि किसी धर्म की।” [पैरा 17]

यह सरल लेकिन गहन पंक्ति उस राजनीतिक नैरेटिव को तोड़ देती है जो उर्दू को धार्मिक पहचान के साथ जोड़ना चाहता है। यह भाषा को उसका उचित अर्थ प्रदान करता है - धार्मिक संबद्धता के चिन्ह के रूप में नहीं, बल्कि अभिव्यक्ति, पहचान, स्मृति और संबंध के साधन के रूप में। न्यायालय हमें याद दिलाता है कि भाषा को किसी एक समूह तक सीमित नहीं रखा जा सकता है या किसी एक धर्म के लिए विशेष नहीं माना जा सकता है।

न्यायालय उर्दू का सभ्यतागत और सांस्कृतिक बचाव करते हुए, इसे गंगा-जमिनी तहज़ीब—भारत की सांस्कृतिक एकता और मिश्रण की परंपरा—का परिणाम मानता है।

“भाषा ही संस्कृति है। भाषा किसी समुदाय और उसके लोगों की सभ्यता के सफर को मापने का पैमाना है। उर्दू का मामला भी ऐसा ही है, जो गंगा-जमुनी तहजीब या हिंदुस्तानी तहजीब का बेहतरीन नमूना है, जो उत्तरी और मध्य भारत के मैदानी इलाकों की मिश्रित सांस्कृतिक प्रकृति है। लेकिन भाषा के सीखने का साधन बनने से पहले, इसका सबसे पहला और प्राथमिक उद्देश्य हमेशा संचार ही रहेगा।” [पैरा 18]

इस साझा सांस्कृतिक इतिहास का हवाला देकर, न्यायालय उर्दू को न केवल भाषाई रूप से बल्कि भावनात्मक और ऐतिहासिक रूप से भी भारतीय मानता है। यह हमें याद दिलाता है कि उर्दू कोई सांस्कृतिक घुसपैठिया नहीं है - यह एक सभ्यतागत रचना है, सह-अस्तित्व, साझा स्थानों और आपसी आदान-प्रदान से पैदा हुई भाषा है। निर्णय स्वीकार करता है कि उर्दू की शान, परिष्कार और काव्य परंपरा इस समन्वयकारी अतीत की विरासत है, जिसे संविधान द्वारा संरक्षित करने के लिए बनाया गया था, मिटाने के लिए नहीं।

न्यायालय ने इस चर्चा को संवैधानिक इतिहास में भी रखा है, जिसमें बताया गया है कि स्वतंत्रता आंदोलन और गणतंत्र के शुरुआती वर्षों में हिंदी और उर्दू को विरोधी या असंगत नहीं माना गया। इसके बजाय, उन्हें एक ही विकसित हो रही भाषा-हिंदुस्तानी के दो रूप माना गया, जो एक सामान्य राष्ट्रीय माध्यम के रूप में काम कर सकते थे। न्यायालय ने ग्रैनविले ऑस्टिन के काम का हवाला दिया है, जिनकी संविधान सभा की बहसों और स्वतंत्रता के बाद के भाषाई समझौते पर विद्वता को व्यापक रूप से आधिकारिक माना जाता है।

विभाजन से पहले और बाद में भाषाई बहस का जिक्र करते हुए न्यायालय ने कहा:

“विभाजन ने हिंदुस्तानी को खत्म कर दिया और संविधान में अंग्रेजी और प्रांतीय भाषाओं की स्थिति को खतरे में डाल दिया।” [पैरा 34]

ऑस्टिन से ली गई यह पंक्ति उस दुखद मोड़ को दर्शाती है, जिस पर एक साझा भाषा-हिंदुस्तानी, जो हिंदी और उर्दू दोनों से बनी है- को त्याग दिया गया और इसके घटकों को ध्रुवीकृत कर दिया गया। उर्दू, विशेष रूप से, इस अलगावा का खामियाजा भुगत रही है। निर्णय में यह स्वीकार किया गया है कि विभाजन के बाद के राष्ट्रवाद ने उर्दू को भाषाई कारणों से नहीं बल्कि राजनीतिक और सांप्रदायिक कारणों से खारिज किया - यह कदम न तो न्यायसंगत था और न ही ऐतिहासिक रूप से सटीक।

न्यायालय ने जवाहरलाल नेहरू को कोट किया, जो लोगों की भाषा के रूप में हिंदुस्तानी के कट्टर समर्थक थे - हिंदी और उर्दू के बीच एक पुल और भारत के कई क्षेत्रों को एकजुट करने में सक्षम भाषा:

हिंदुस्तानी (हिंदी या उर्दू) संपूर्ण भारत के लिए एक अनिवार्य द्वितीय भाषा के रूप में स्थापित होने की संभावित भाषा है, जो प्रादेशिक भाषाओं का स्थान नहीं लेती, बल्कि उन्हें पूरक करती है।

हिंदुस्तानी को एक समावेशी, लचीली और जनभाषा के रूप में देखने की यह कल्पना विभाजन के कारण बाधित हुई, लेकिन इस फैसले से पता चलता है कि यह दृष्टिकोण आज भी संविधानिक रूप से प्रासंगिक है। नेहरू का हवाला देकर, न्यायालय ने न केवल इस विचार को बहाल किया बल्कि अपने फैसले को एक लंबे संवैधानिक दायरे में रखा जिसमें स्वतंत्रता आंदोलन के आदर्श, संविधान सभा का संतुलन कार्य और स्वतंत्रता के बाद के समझौते शामिल हैं।

इस निर्णय में महात्मा गांधी का भी उल्लेख किया गया है, जिन्होंने भाषाई शुद्धतावाद और भाषा को संकीर्ण, सांप्रदायिक पहचान में बदलने के खतरों के खिलाफ चेतावनी दी थी। गांधी भाषा को गतिशील और समावेशी मानते थे और हिंदुस्तानी के प्रति उनका दृष्टिकोण इसे दर्शाता है। न्यायालय ने उन्हें प्रभावशाली तरीके उद्धृत किया:

“खुद को केवल हिंदी या उर्दू तक सीमित रखना बुद्धिमत्ता और देशभक्ति की भावना के खिलाफ अपराध होगा।” [पैरा 36]

गांधी के शब्द इस बात को रेखांकित करते हैं कि भाषाई बहुलता को कभी भी राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा नहीं माना गया-यह इसकी नींव थी। नेहरू और गांधी को उद्धृत करते हुए, न्यायालय ने स्पष्ट रूप से तर्क दिया कि सार्वजनिक स्थानों से उर्दू को हटाने के आज के प्रयास न केवल असंवैधानिक हैं-बल्कि वे भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वालों की राष्ट्र-निर्माण दृष्टि के साथ विश्वासघात हैं।

ये संदर्भ और अंतर्दृष्टि मिलकर निर्णय के इस हिस्से को सांस्कृतिक संवैधानिकता में एक मास्टरक्लास बनाते हैं। यह भाषा के सवाल को केवल प्रशासनिक मामले के रूप में नहीं देखता, बल्कि इसे भारत की विविधता के जीवंत प्रतीक के रूप में देखता है - जिसे न केवल कानून द्वारा संरक्षित किया जाना चाहिए, बल्कि सम्मान, स्मृति और साझा संबद्धता की भावना द्वारा भी संरक्षित किया जाना चाहिए।

उर्दू को उसके उचित स्थान पर यानी एक भारतीय भाषा, एक जनभाषा और एक संवैधानिक भाषा के रूप में बहाल करके न्यायालय ने इस बात की पुष्टि की है कि बहिष्कार नहीं बल्कि समावेशिता हमारी संवैधानिक पहचान का मूल है।

उर्दू के विदेशी होने के मिथक को खारिज करना

इस निर्णय का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा यह है कि यह उर्दू भाषा के खिलाफ गहरी जड़ें जमाए हुए पूर्वाग्रह का सामना करता है और उसे खत्म करता है - एक ऐसा पूर्वाग्रह जिसे सार्वजनिक चर्चा में पनपने दिया गया है, जिसे अक्सर चुनौती नहीं दी जाती। न्यायालय ने माना कि उर्दू को लेकर दुश्मनी भाषाई तथ्य पर आधारित नहीं है, बल्कि विभाजन-युग की चिंताओं से पैदा हुई एक राजनीतिक कल्पना है और बहुसंख्यकवादी नैरेटिव द्वारा इसे कायम रखा गया है।

एक अहम हिस्से में न्यायालय ने उर्दू के विदेशी या गैर-भारतीय होने का खंडन किया कि है:

“उर्दू के प्रति पूर्वाग्रह इस गलत धारणा से उपजा है कि उर्दू भारत के लिए विदेशी है… मराठी और हिंदी की तरह उर्दू भी एक इंडो-आर्यन भाषा है। यह एक ऐसी भाषा है जिसका जन्म इसी जमीन पर हुआ है।” [पैरा 27]

यह कथन न केवल भाषाई वर्गीकरण - हिंदी और मराठी की तरह उर्दू भी प्राकृत और अपभ्रंश से विकसित हुई है और उसी इंडो-आर्यन परिवार से संबंधित है - के संदर्भ में सटीक है बल्कि यह इस गलत धारणा को खारिज करने के लिए भी जरूरी है कि उर्दू स्वाभाविक रूप से इस्लामी है। न्यायालय ने इस बात की पुष्टि की है कि एक बुनियादी और स्वीकृत सत्य क्या होना चाहिए: कि उर्दू अपनी उत्पत्ति में भारतीय है, अपने विकास में भारतीय है और अपने इस्तेमाल में भारतीय है।

यह हमें यह याद दिलाता है कि उर्दू भारत में लोगों के बीच वास्तविक, जीवंत बातचीत से पैदा हुई है - विशेष रूप से देश के उत्तर और मध्य में - जहां विभिन्न समुदायों को भाषाई और सांस्कृतिक रेखाओं के पार संवाद करने की आवश्यकता थी। सदियों से, इसने एक परिष्कृत, समावेशी और अनुकूलनीय भाषा का विकास किया, जो कई परंपराओं से समृद्ध हुई और कई क्षेत्रों में एक आम भाषा के रूप में काम कर रही है। वास्तव में, यह बहिष्कार से नहीं बल्कि सह-अस्तित्व से पैदा हुई थी।

इसके बाद न्यायालय ने उर्दू की रोजमर्रा की मौजूदगी के बारे में एक बारीक लेकिन शक्तिशाली टिप्पणी की, खासकर उन लोगों की बोली में जो इसकी उत्पत्ति को पहचान भी नहीं पाते:

“आज भी, देश के आम लोगों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा उर्दू भाषा के शब्दों से भरी हुई है, भले ही कोई इसके बारे में न जानता हो।” [पैरा 37]

यह गहरी समझ इस विचार को चुनौती देती है कि उर्दू का इस्तेमाल केवल एक खास धार्मिक या सामाजिक समूह द्वारा किया जाता है। इसके विपरीत, उर्दू की शब्दावली रोजमर्रा की हिंदी और भारतीय बोलचाल के ताने-बाने में इस कदर घुल-मिल गई है कि दोनों को बिगाड़े बिना दोनों को अलग करना असंभव है। दोस्ती और प्रेम की भाषा से लेकर राजनीति और सिनेमा तक उर्दू ने अपनी गहरी छाप छोड़ी है।

न्यायालय ने इस बात का एक बेहतर उदाहरण भी पेश किया कि उर्दू भारतीय कानूनी व्यवस्था में कितनी गहराई से समाई हुई है। इसने कई प्रमुख कानूनी शब्दों को सूचीबद्ध किया है जो उर्दू मूल के हैं और अभी भी देश भर की अदालतों में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किए जाते हैं - यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट में भी, जहां आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है। निर्णय में कहा गया है:

“उर्दू शब्दों का न्यायालय की भाषा पर बहुत प्रभाव है… अदालत, हलफनामा, पेशी, वकालतनामा, दस्ती…” [पैरा 38]

ये कोई मामूली या आकस्मिक शब्द नहीं हैं। ये मुख्य प्रक्रियात्मक और कार्यात्मक शब्द हैं जिनका इस्तेमाल सिविल और आपराधिक कार्यवाही दोनों में किया जाता है, जिन्हें भारत भर में हर वकील, न्यायाधीश और वादी जानते हैं। ‘अदालत’ (न्यायालय), ‘हलफनामा’ (शपथ पत्र), ‘पेशी’ (उपस्थिति), ‘वकालतनामा’ (पावर ऑफ अटॉर्नी), और ‘दस्ती’ (हाथ से) - ये कानूनी शब्दावली के आधारशिला हैं।

इस बिंदु को अगली लाइन में और बेहतर तरीके से लिखा गया है:

“भले ही सुप्रीम कोर्ट की आधिकारिक भाषा… अंग्रेजी है, फिर भी इस न्यायालय में आज भी कई उर्दू शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है।” [पैरा 38]

इस टिप्पणी में न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण विडंबना को रेखांकित किया है: भारत की न्यायपालिका के उच्चतम स्तरों पर उर्दू बोली, लिखी और उस पर भरोसा किया जा रहा है, जबकि कुछ क्षेत्रों में इसे कलंकित करने के प्रयास जारी हैं। यह वास्तविकता इस दावे को झूठा साबित करती है कि उर्दू किसी तरह से आधिकारिक या कानूनी इस्तेमाल के लिए विदेशी या अनुपयुक्त है।

ये सभी बिंदु मिलकर उर्दू से जुड़ी गलतफहमियों का एक व्यापक और प्रभावशाली खंडन पेश करते हैं। न्यायालय ने न केवल इस बात की पुष्टि की है कि उर्दू किसी भी अन्य क्षेत्रीय भाषा की तरह ही भारतीय है, बल्कि यह भी कि यह न केवल सांस्कृतिक रूप से बल्कि प्रशासनिक और न्यायिक रूप से भी सक्रिय, दृश्यमान और आवश्यक बनी हुई है।

भाषा एक पुल के रूप में है न कि हथियार

फैसले के एक खंड में न्यायालय ने इस विचार को चुनौती देने के लिए भाषाई विद्वता के साथ गहराई से शामिल किया कि हिंदी और उर्दू अलग-अलग भाषाएं हैं। निर्णय का यह भाग साइनेज के तात्कालिक सवाल से आगे बढ़कर बौद्धिक इतिहास और समाजभाषा विज्ञान के क्षेत्र में चला जाता है, यह दर्शाता है कि कैसे हिंदी और उर्दू के बीच द्विआधारी प्राकृतिक विकास नहीं था बल्कि एक जानबूझकर बनाया गया राजनीतिक विभाजन था।

इसका समर्थन करने के लिए न्यायालय ज्ञान चंद जैन, अमृत राय, रामविलास शर्मा और अब्दुल हक जैसे प्रमुख विद्वानों के कार्यों का हवाला देता है जिनमें से सभी ने हिंदी और उर्दू की उत्पत्ति, विकास और पारस्परिक प्रभाव का व्यापक अध्ययन किया है।

"यह बिल्कुल स्पष्ट है कि उर्दू और हिंदी दो अलग-अलग भाषाएं नहीं हैं... भले ही उर्दू साहित्य और हिंदी साहित्य दो अलग-अलग और स्वतंत्र साहित्य हैं, लेकिन उर्दू और हिंदी दो अलग-अलग भाषाएं नहीं हैं।" [पैरा 41]

"हिंदी-उर्दू दो अलग-अलग भाषाएं नहीं हैं; वे मूल रूप से एक ही हैं... दुनिया में ऐसी कोई दो अन्य भाषाएं नहीं हैं जिनके सर्वनाम और क्रियाएं सौ प्रतिशत एक जैसी हों।" [पैरा 42]

यह एक जोरदार और लगभग वैज्ञानिक रूप से तैयार किया गया अवलोकन है - हिंदी और उर्दू को जो चीज जोड़ती है वह सिर्फ काव्यात्मक भावना नहीं है बल्कि भाषा का संरचनात्मक आधार है। निर्णय में कहा गया है कि जबकि उनकी लिपि अलग-अलग हैं (हिंदी के लिए देवनागरी, उर्दू के लिए फारसी-अरबी) और जबकि प्रत्येक ने अलग-अलग शास्त्रीय स्रोतों (हिंदी के लिए संस्कृत, उर्दू के लिए फारसी और अरबी) से शब्दावली ली है, ऐसे में उत्तर भारत में रोजमर्रा के इस्तेमाल में उनके बोले जाने वाले रूप करीब करीब अभेद्य हैं।

अमृत राय के प्रभावशाली काम का संदर्भ देते हुए न्यायालय ने खुद को इस विचार के साथ जोड़ लिया कि हिंदी और उर्दू एक ही भाषाई मूल-हिंदवी या हिंदुस्तानी से उभरी हैं और उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दियों में उनके बीच विभाजन को प्राकृतिक विकास द्वारा नहीं बल्कि औपनिवेशिक भाषा नीतियों और विभाजन के बाद की सांप्रदायिक राजनीति द्वारा तेज किया गया था। अमृत राय की थीसिस, अ हाउस डिवाइडेड, ने दिखाया कि कैसे राजनीतिक ताकतें उन भाषाओं को सांप्रदायिक पहचान देने लगीं जो कभी पानी की तरह सह-अस्तित्व में थीं।

यह निर्णय ऐतिहासिक विश्लेषण तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह इस कृत्रिम रूप से निर्मित विभाजन के परिणामों को उजागर करने के लिए आगे बढ़ता है। भाषा को धार्मिक पहचान का प्रतीक बनाकर, एक साझा सांस्कृतिक और भाषाई विरासत को खंडित किया गया। उर्दू को गलत तरीके से "मुस्लिम" और हिंदी को "हिंदू" के रूप में देखा जाने लगा। यह एक ऐसा विभाजन जिसने सदियों के साझा व्याकरण, आपसी प्रभाव और सार्वजनिक क्षेत्र में द्विभाषी अभिव्यक्ति को नजरअंदाज कर दिया।

ये विद्वानों के उद्धरण निर्णय को एक दुर्लभ अकादमिक गहराई देते हैं। न्यायपालिका द्वारा साहित्यिक इतिहासकारों और भाषाविदों को इतनी प्रमुखता से उद्धृत करना असामान्य है - हालांकि ये स्वागत योग्य है। और फिर भी, ऐसा करने में, न्यायालय एक महत्वपूर्ण कार्य करता है: यह भाषा के बारे में बातचीत को तथ्य, विद्वत्ता और सूक्ष्मता के क्षेत्र में वापस लाता है, बजाय इसके कि इसे पूर्वाग्रह और राजनीतिक भावनाओं द्वारा परिभाषित होने के लिए छोड़ दिया जाए।

और फिर, कविता

इकबाल अशहर की नज़्म को उद्धृत करते हुए, जहां उर्दू खुद बोलती है, एक काव्यात्मक शैली के साथ निर्णय खत्म होता है:

"उर्दू है मीरा नाम मैं 'खुसरो' की पहेली

क्यूं मुझको बनाते हो ताअस्सुब का निशाना

मैंने तो कभी हद को मुसलमान नहीं माना

देखा था कभी मैंने भी खुशियों का ज़माना

अपने ही वतन में हूं मगर आज अकेली

उर्दू है मीरा नाम मैं 'खुसरो' की पहेली" [पैरा 48]


इसके बाद न्यायालय ने कहा:

“हमें उर्दू और हर भाषा से दोस्ती करनी चाहिए। अगर उर्दू को अपनी बात कहनी हो, तो वह कहे…” [पैरा 48]

एक श्लोक जो अपनेपन, अलगाव और पहचान की बात करता है - पाठक को याद दिलाता है कि उर्दू, किसी भी अन्य भारतीय भाषा की तरह, वर्चस्व नहीं, बल्कि अस्तित्व के लिए जगह मांगती है।

यह निर्णय क्यों महत्वपूर्ण है

यह एक कानूनी फैसला मात्र नहीं है, यह भारत की संवैधानिक आत्मा की गहन पुष्टि है। यह इस बात पर जोर देता है कि संविधान न केवल धर्म की स्वतंत्रता, बल्कि भाषा, पहचान और संस्कृति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है। बहुलवाद के प्रति भारत की प्रतिबद्धता केवल प्रतीकात्मक नहीं है - यह इसके संवैधानिक पाठ और ऐतिहासिक अनुभव में अंतर्निहित है। यह निर्णय स्पष्टता और साहस के साथ उस प्रतिबद्धता को क्रियान्वित करता है।

यह महत्वपूर्ण है क्योंकि:

● यह कानून को स्पष्ट करता है। यह पुष्टि करता है कि 2022 अधिनियम के तहत सार्वजनिक साइनबोर्ड पर उर्दू जैसी अन्य भाषाओं के इस्तेमाल पर कोई कानूनी रोक नहीं है।

● यह भाषाई और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा करता है, खास तौर पर अल्पसंख्यक समुदायों के और पुष्टि करता है कि राज्य की मान्यता के लिए दूसरों को बाहर करने की आवश्यकता नहीं है।

● यह इस मिथक को दूर करता है कि उर्दू विदेशी है, भारत की भाषाई विरासत और संवैधानिक कल्पना में इसकी गहरी जड़ें होने का दावा करता है।

● यह बहुसंख्यकवादी नैरेटिव का सामना करता है, भाषा को सांप्रदायिक या हथियारबंद होने की अनुमति देने से रोकता है।

यह निर्णय अपनी स्पष्टता, गहराई और दृढ़ विश्वास के लिए उल्लेखनीय है। यह केवल एक कानून की व्याख्या नहीं करता है या प्रक्रियात्मक दोष को ठीक नहीं करता है बल्कि यह मूलभूत संवैधानिक मूल्यों की पुष्टि करता है। भाषाई विविधता की वैधता को मान्यता देकर और भारत की मिट्टी में शामिल एक भाषा को मिटाने या हाशिए पर डालने के प्रयासों को अस्वीकार करके, न्यायालय ने इस बात को रेखांकित किया है कि शासन को सभी की सेवा करनी चाहिए, न कि केवल मुखर आवाज की। ऐसा करने में यह हमें याद दिलाता है कि संविधान न केवल अमूर्त अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि समुदायों, संस्कृतियों और भारत में बोली जाने वाली कई भाषाओं की गरिमा की भी रक्षा करता है।

पूरा फैसला यहां पढ़ा जा सकता है।

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