उत्तर प्रदेश के बनारस में कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की साहित्यिक विरासत ताले में कैद है, जिसे अब कफन में लपेटने की कवायद चल रही है। खंडहर में बदलते जा रहे मुंशी प्रेमचंद की धरोहर को बचाने और उनकी यादों को चिरस्थायी बनाने के लिए न कोई चर्चा है, न कहीं बहस है, न कोई सुनवाई है और न ही सरकार के पास पैसा है। मुंशी जी के गांव लमही में अगर कुछ है तो सिर्फ घुप सन्नाटा और उदासी। यहां कथा सम्राट का एक छोटा सा स्मारक है। तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने 8 अक्टूबर 1959 को उसका उद्घाटन किया था।
हिंदी-उर्दू साहित्य में कथाकार मुंशी प्रेमचंद का स्थान एक ऐसे रचनाकार के रूप में है, जिन्होंने साहित्य की धारा को पूरी तरह बदल दिया। वे देश के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी साहित्य को रोमांस, तिलिस्म, ऐय्यारी, और जासूसी कथानकों से बाहर निकालकर आम जन की जिंदगी से जोड़ा। उन्होंने दलितों, अल्पसंख्यकों, और महिलाओं के अफसानों और जज्बातों को अपनी कहानियों में स्थान दिया और उन्हें अपनी आवाज दी। साहित्य को यथार्थ से जोड़ने और समाजोन्मुखी बनाने में मुंशी प्रेमचंद का अहम योगदान है।
बनारस-आजमगढ़ राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित मुंशी प्रेमचंद का गांव लमही अब शहर जैसा दिखता है, जहां उनकी कथा-कहानियों में दिखने वाला गांव का स्वरूप खो गया है। इस गांव के बियावान में तमाम आलीशान इमारतें खड़ी हैं, और अब यहाँ ईदगाह के हामिद का चिमटा, गोदान का होरी और नमक का दारोगा सरीखे नायक कहीं नजर नहीं आते। स्मारक घोषित होने के बावजूद मुंशी जी का पुश्तैनी मकान बदहाल है।
लमही ने आधुनिक हिंदी साहित्य को मुंशी प्रेमचंद जैसा कालजयी रचनाकार दिया, जिन्हें देश की आजादी के लिए सजा तक भुगतनी पड़ी थी। मुंशी प्रेमचंद हिंदी साझी विरासत के प्रतीक हैं, जिन्होंने आम जन-जीवन को अपनी कथा-कहानियों में पिरोकर समाज के सामने बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुत किया। इस जनवादी लेखक की कहानियां और उपन्यास आज भी एक साहित्यिक विरासत के तौर पर याद किए जाते हैं और दुनियाभर में पढ़े जाते हैं।
विरासत की हिफाजत नहीं
लमही गांव में मुंशी प्रेमचंद की बैठक मरम्मत के इंतजार में बूढ़ी हो गयी है, बिल्कुल बुजुर्ग इंसान की तरह उपेक्षित और विस्मृत। खिड़की, दरवाजों और दीवारों को दीमक चाट रहे हैं। वर्तमान समय में यह धरोहर टूटा-फूटा और उजाड़खंड नजर आता है। मुंशी जी जिस बैठके के बाहर रचनाएं लिखा करते थे, वहां एक कुआं है, जो पूरी तरह सूख चुका है। बैठक के ठीक पीछे वह घर भी है, जिसमें मुंशी प्रेमचंद का जन्म हुआ था, जिसे अब स्मारक के नाम से जाना जाता है।
मुंशी प्रेमचंद स्मारक परिसर में नीम के एक पेड़ के नीचे उनकी प्रतिमा स्थापित है, जो वीरान पड़ी है। स्मारक स्थल के पास दो छोटे-छोटे कमरे और बाहर एक बरामदा है। इन कमरों में धूल की मोटी परत जमी हुई है। यही वह स्थान है जहाँ संभवतः उनके प्रसिद्ध उपन्यास 'गबन', 'निर्मला', 'गोदान', 'कर्मभूमि', 'रंगभूमि' जैसी कृतियों का सृजन हुआ होगा, और जहाँ मुंशी प्रेमचंद ने 'पूस की रात', 'कफ़न', 'नमक का दारोगा' जैसी कहानियों के पात्रों की कल्पना की होगी।
लमही के लोग मुंशी प्रेमचंद को धनपत राय के नाम से भी जानते हैं, जो उनका मूल नाम है। मुंशी प्रेमचंद ने 'मंगलसूत्र', 'कर्मभूमि', 'निर्मला', 'गोदान', 'गबन', 'प्रतिज्ञा' जैसे 15 उपन्यास और लगभग 300 से ज्यादा कहानियाँ लिखीं। उन्होंने 10 पुस्तकों का अनुवाद, सात बाल साहित्य, तीन नाटक और कई अन्य किताबें भी लिखीं, जो आज भी मौजूद हैं। बनारस के लमही की पहचान मुंशी प्रेमचंद से है। उनकी कहानियों का मर्म इस गांव की आब-ओ-हवा में भी घुला हुआ है, लेकिन उनकी विरासत को बचाने की चिंता किसी को नहीं है।
मुख्य गेट पर प्रेमचंद के पात्र
जलसा या रस्मअदायगी?
मुंशी प्रेमचंद के जन्मदिन पर 31 जुलाई 2024 को लमही में संस्कृति विभाग की ओर से सरकारी पैसे से एक जलसा हुआ, जिसमें पारंपरिक तौर पर हिंदी साहित्य से जुड़े लोगों को बुलाया गया। उनका सम्मान हुआ, उनके भाषण हुए और एक छोटे से नाटक के बाद लमही महोत्सव को समेट दिया गया। लमही महोत्सव पर राजेश गौतम, प्रो.सदानंद शाही, दयानंद मिश्र, डा.रामसुधार सिंह, डा.दुर्गा प्रसाद श्रीवास्तव का अभिनंदन किया गया। बाद में स्मारक स्थल पर कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। समूचे कार्यक्रम को देखें तो लमही में मुंशी प्रेमचंद को याद करने की सिर्फ रस्मअदायगी ही की गई। इस सालाना जलसे के अलावा बनारस में कहीं भी मुंशी प्रेमचंद को याद नहीं किया गया।
लमही गांव में मुंशी प्रेमचंद को इस तरह याद किया गया
लमही महोत्सव में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार कुमार विजय को प्रेमचंद को याद करने की रस्मअदायगी नागवार गुजरी। "सबरंग इंडिया" से बात करते हुए उन्होंने अपने दर्द को साझा किया और कहा, ---लगता है कि कथा सम्राट की साहित्यिक विरासत "कफन" में लपेटी जा रही है। वह महज एक कथाकार नहीं थे, बल्कि वे इस देश की साझी विरासत के सबसे बड़े पैरोकार थे। उनकी विरासत खतरे में है। यूं भी कह सकते हैं कि उसे कफन में लपेटने का काम किया जा रहा है। प्रेमचंद ने अपने लेखन में हिंदू-मुस्लिम की साझी परंपरा को संजोने का प्रयास किया था। वह इस साझी विरासत को उसी खूबसूरती से बचाना चाहते थे जैसे आर्थिक कठिनाइयों से जूझती एक मां अपने बच्चे के लिए भरपेट खाना सहेजने का प्रयास करती है।
कुमार विजय ने प्रेमचंद की दूरदृष्टि को रेखांकित करते हुए कहा, "प्रेमचंद ने बहुत पहले ही भविष्य के खतरों को भांप लिया था और अपनी कलम से उन्हें उजागर भी किया था। उनकी दूरदृष्टि का प्रमाण उनके लेखन में मिलता है, जहां उन्होंने लिखा है- "साम्प्रदायिकता हमेशा संस्कृति को सम्मान देती है। शायद उसे अपने असली रूप में दिखने में शर्म आती है। जैसे गधा शेर की खाल पहनकर जंगल में जानवरों पर राज करता है, वैसे ही साम्प्रदायिकता भी संस्कृति का चोला ओढ़ लेती है।"
प्रेमचंद ने लिखा था, "हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहते हैं, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गये हैं कि अब न कहीं हिन्दू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति। अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्कृति। एक बेहतर देश निर्माण ही नहीं, बल्कि अपने भीतर के मनुष्य को उसकी मानवीय संवेदना के साथ बचाए रखने के लिए जरूरी है कि हम सब साझी पहल करें और मुंशी प्रेमचंद की धर्मनिरपेक्ष परंपरा और उनके साहित्य में मौजूद साझी विरासत के स्वर को बचाने का पुरजोर प्रयास करें।"
बनारस के लमही में मुंशी प्रेमचंद स्मृति द्वार
सूख गया है आंखों का पानी
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के आचार्य मनोज कुमार सिंह कथाकार मुंशी प्रेमचंद की ढह रही विरासत को लेकर खासे चिंतित हैं। वह कहते हैं, "मुंशी जी जनता के लेखक थे। जब देश की जनता सामंती व्यवस्था के भीतर पिस रही थी तब उसके दर्द को एक रचनात्मक स्वर देने की कोशिश की थी। सपनों की दुनिया से बाहर निकालकर साहित्य को यथार्थ की जमीन पर खड़ा किया। उनके बहुतेरे पात्र हैं जो रोजमर्रा और आम जिंदगी के भीतर से उठाए गए थे। उनके पात्रों के संघर्ष, गुलामी के दौर में आम जनता के संघर्ष की महागाथा बनकर उभरते हैं। गरीबी और भुखमरी उनकी रचनाओं में नारे, मुहावरे व संज्ञा की तरह नहीं, एक शब्द की तरह आते हैं। मुंशी प्रेमचंद राग के, बोध के, संघर्ष के और मुक्ति के आख्यानकार रहे हैं। उनकी रचनाओं में जहां साम्राज्यवाद की कड़ी आलोचनाएं हैं वहीं दूसरी ओर भारतीय समाज की जटिलता, उसके भीतरी संघर्ष भी रचनात्मक ढंग से उभरते हैं। ऐसे लेखक को हम कैसे याद कर रहे है? उसकी पूरी विरासत के साथ आज की पीढ़ी कैसे जुड़ रही है, यह गंभीर चिंता का विषय है।"
"अचरज की बात यह है कि मुंशी जी के साहित्यिक पीठ को लेकर सरकारें मौन हैं, जनता मौन है, लेखक-पत्रकार मौन हैं, सामाजिक संस्थाएं मौन हैं। बनारस मे सरकार सिर्फ मंदिरों को चमकाने और पुलों व इमारतों पर पेंटिंग कराने में व्यस्त हैं। पांडेयपुर चौराहे पर उनकी प्रतिमा का हाल देखकर संवेदनशील व्यक्ति के आंखों से खून टपकने लगते हैं। सरकारें हैं कि उनकी आंखों का पानी ही सूख गया है। मुंशी जी के स्मारकों को चिरस्थायी बनाने की चिंता किसी को नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह विश्वनाथ धाम की तरह कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की विरासत को भी सजाए-संवारे ताकि दुनिया भर के हिन्दी प्रेमी लमही आएं तो गर्व महसूस करें।"
मुंशी प्रेमचंद की यादों को चिरस्थायी बनाने के लिए दशकों से मुहिम चला रहे डॉ. दुर्गा प्रसाद श्रीवास्तव कहते हैं, "हिन्दी साहित्य प्रेमियों के लिए देश में लमही से बड़ा कोई तीर्थ नहीं है और मुंशी प्रेमचंद के स्मारक से बड़ा कोई साहित्य का मंदिर नहीं है। भाजपा सरकार में सांस्कृतिक मंत्री जयपाल रेड्डी ने कुछ साल पहले लमही पहुंचकर मुंशी प्रेमचंद के आवास और बैठक को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में विकसित करने का ऐलान किया था। दावा किया कि उनकी विरासत को शेक्सपियर, वर्ड्सवर्थ और कीट्स के स्मारकों की तरह संवारा जाएगा। सरकार, अफसर और नेता वादे पर वादे करते रहे, लेकिन लमही में मुंशी प्रेमचंद के स्मारक के दिन नहीं बहुरे। उनके घर और स्मारक में उनका कोई भी सामान सही-सलामत नहीं है। न घर रहने लायक है, न देखने लायक स्मारक।"
डा.दुर्गा प्रसाद बताते हैं,"लमही गांव की स़ड़क ऊंची होने के कारण मुंशी जी का बैठका और उसके सामने की गली जलमग्न हो जाती है। कमरों में महीनों पानी भरा रहता है। जल निकासी का यहां कोई इंतजाम नहीं है। तीन तल्ले वाले बैठके के कमरों की खिड़कियों और दरवाजों को दीमक तेजी से चाट रहे हैं। बैठका में लगे पंखे और बल्ब चोरी हो गए हैं। बिजली के स्विच तक उखाड़ लिए गए हैं। समूचा बैठका भुतहा हवेली नजर आता है। वहां बिजली-पानी का कोई इंतजाम नहीं है। बिजली का कनेक्शन कटा हुआ है। मीटर बिजली विभाग वाले ले गए हैं। पंखे, किताबें सहित कई अन्य कीमती चीजें चोरी हो गई हैं। प्रेमचंद के कुनबे के तमाम लोग भाजपा और आरएसएस के कार्यकर्ता बन गए हैं। ऐसे कार्यकर्ता जिनके खिलाफ मुंशी जी जीवन भर लड़ते रहे। ग्राम समाज की जमीनें खुर्द-बुर्द की जा रही हैं, लेकिन प्रशासन आंख बंद किए बैठा है। प्रेमचंद सरोवर बनाया गया है, उसके चारों तरफ अवैध कब्जे हो रहे हैं।"
मुंशी प्रेमचंद की बैठक का टूटा दरवाजा
उपेक्षित है शोध संस्थान
साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद के नाम पर लमही में स्थापित शोध संस्थान भी बदहाल है। सभा कक्ष की कुर्सियों पर धूल की मोटी सी परत जमी हुई है। बरामदा भी धूल से पटा है। शौचालय की स्थिति दयनीय है। यही हाल लाइब्रेरी का है। लाइब्रेरी के अंदर एक-दो अलमारियां हैं, लेकिन कोई किताब नहीं है। यहां कोई ऐसी व्यवस्था भी नहीं है जहां मुंशी प्रेमचंद पर शोध किया जा सके। शोध संस्थान के बाहर लगे पेड़ पौधे गर्मी के चलते झुलस रहे हैं। मुंशी प्रेमचंद शोध संस्थान को संचालित करने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने साल 2005 में पांच करोड़ रुपये मुहैया कराए थे। शोध संस्थान की स्थापना के समय तय किया गया था कि यहां अकादमिक कार्य, शोध, संगोष्ठी,व्याख्यान,परिचर्चा आदि का आयोजन किया जाएगा। प्रेमचंद के साहित्य पर आधारित प्रकाशन को बढ़ाना देना, प्रेमचंद पर वृत्तचित्र का निर्माण, उनकी कहानियों पर आधारित कोलाज बनाने के अलावा वाद-विवाद, निबंध, कहानी-लेखन, कहानी पाठ आदि प्रतियोगिताओं का आयोजन करने की योजना थी जो फाइलों में दफन हो गई और दावे हवा-हवाई हो गए।
मुंशी प्रेमचंद शोध संस्थान
बनारस शहर में पांडेयपुर चौराहे पर फ्लाईओवर के नीचे स्थापित मुंशी प्रेमचंद की प्रतिमा बदहाल है। प्रतिमा पूरी तरह उपेक्षित है और उस पर धूल की मोटी गर्द जमी हुई है। बारिश के दिनों में पुल से रिसने वाला गंदा पानी गिरता है जिसके चलते प्रतिमा का सफेद रंग बदरंग हो गया है। प्रतिमा को देखकर ऐसा लगता है कि लंबे समय से उसकी सफाई तक नहीं की गई है। प्रतिमास्थल पर भी गंदगी बिखरी हुई है। वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, "पांडेयपुर चौराहे पर मुंशी प्रेमचंद की प्रतिमा इसलिए भी उपेक्षा की शिकार है क्योंकि उसे संवारने से बीजेपी सरकार का वोट बैंक नहीं बढ़ने वाला है। यह सरकार तो सिर्फ सियासी नफा-नुकसान की परिभाषा समझती है और उसी के अनुरूप काम करती है।"
"काशी विश्वनाथ मंदिर को पर्यटन स्थल में बदलने से उसका वोटबैंक मजबूत हो रहा है तो लमही में साहित्य के मंदिर में मुंशी प्रेमचंद की विरासत को संवारने से उसे क्या मिलेगा? कालजयी रचनाकार भारतेंदु हरिश्चंद्र, मुंशी प्रेमचंद्र और जयशंकर बनारस की पहचान रहे हैं। इनकी पांडुलियों को सहेजने और लमही को हिन्दी के तीर्थ स्थल के रूप में विकसित करने की जरूरत है। मुंशी जी की विरासत को संवारने के लिए इतना बजट मिलना चाहिए ताकि देश-दुनिया से बनारस आने वाले लोगों को पता चल सके कि बनारस धर्म ही नहीं, साहित्य का भी पुरोधा रहा है।"
प्रेमचंद स्मारक में रखी पुस्तकें और उनकी कुछ स्मृतियां
साहित्य से किसे है खतरा?
काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष प्रदीप श्रीवास्तव कहते हैं, "बनारस में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर को चमकाया जा रहा है और पानी की तरह धन भी बहाया जा रहा है, लेकिन साहित्य के मंदिरों को दर्शनीय बनाने को कोशिश नहीं हो रही है। राजनीति के केंद्र में धर्म आ गया है, जिससे वोट की फसल पैदा की जा रही है। साहित्य से समाज को ताकत मिलती है। समाज को ताकत देना सत्ता के लिए खतरनाक है। हिन्दी साहित्य ने समाज में आत्मसम्मान और जागरूकता पैदा की। प्रेमचंद का पूरा साहित्य सत्ता और व्यवस्था के खिलाफ खड़ा है। ये चीजें सत्ता को बहुत खटकती हैं। मुंशी प्रेमचंद की उपेक्षा की सबसे बड़ी वजह भी यही है। काशी सिर्फ धर्म की नहीं, साहित्य और संस्कृति की राजधानी रही है। यह कहना गलत न होगा कि हिन्दी खड़ी बोली ने बनारस में ही आकार लिया। इसका श्रेय बनारस के साहित्यकार बाबू हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचंद, हजारी प्रसाद शुक्ला जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों की वजह से प्राप्त हुआ। साहित्यिक नजरिये से देखा जाए तो बनारस में मूर्त और अमूर्त दोनों तरह की धरोहरें हैं। लेकिन सरकारों ने इन धरोहरों को संरक्षित और संवर्धित करने का कोई उपाय नहीं किया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण,लमही में मुंशी प्रेमचंद का स्मारक है।"
वरिष्ठ पत्रकार राजीव मौर्य कहते हैं, "पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों के ऊपर कितनी सामाजिक बेड़ियां हैं, इनका मुंशी प्रेमचंद के साहित्य में जगह-जगह जिक्र मिलता है। ‘सेवासदन’, ‘निर्मला’ और ‘गोदान’ आदि उपन्यासों में प्रेमचंद ने बड़ी ही कुशलता से भारतीय समाज में स्त्री की दारुण स्थिति को चित्रित किया है। उन्होंने अपने साहित्य में वेश्यावृति, बाल विवाह, बेमेल विवाह और दहेज प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई, तो वहीं महिलाओं की शिक्षा एवं विधवा विवाह के पक्ष में भी लिखा। प्रेमचंद के महिला किरदार अन्याय सहन नहीं करते, उसका तीखा प्रतिकार करते हैं। उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ में वे जहां सामूहिक खेती और वर्गविहीन समाज की वकालत करते हैं, तो वहीं दूसरी ओर विदेशी शासन और शोषणकारी जमींदारी गठबंधन का असली चेहरा बेनकाब करते हैं।"
"कथा सम्राट प्रेमचंद की नजरों में आजादी का मतलब दूसरा ही था, जो शोषणकारी दमनचक्र से सर्वहारा वर्ग की मुक्ति के बाद ही मुमकिन था। उपन्यास ‘प्रेमाश्रम के माध्यम से प्रेमचंद एक ऐसे कानून की जरूरत बताते हैं जो, ‘‘जमींदारों से असामियों को बेदखल करने का अधिकार ले ले। प्रेमचंद ने हमें केवल जनता का ही साहित्य नहीं दिया, बल्कि वह साहित्य कैसी भाषा में लिखा जाए, उसका पथ निर्देश भी किया। जनता द्वारा बोले जाने वाले कितने ही शब्दों को उनकी कुटिया, मढ़ैया से घसीटकर सरस्वती मंदिर में लाए और यूं ही कितने अनधिकृत शब्दों को जो केवल बड़प्पन का बोझ लिए हमारे सिर पर सवार थे, इस मंदिर से बाहर किया।"
पत्रकार राजीव कहते हैं, "प्रेमचंद न केवल हमारे क्लासिक लेखक थे, बल्कि वे आधुनिक और संदर्भवान लेखक भी थे। उनका रचना संसार बाल्जाक या टोलस्तोय के साहित्य की तरह ही समाज के भीतर का रचना संसार है। घीसू, होरी, अमीना बी, जुम्मन, सूरदास, बूढ़ी काकी जैसे चरित्र हमारे समाज की देन और बेलाग चरित्र हैं, जिन्हें उन्होंने अपनी कहानियों का मुख्य किरदार बनाया। मुंशी प्रेमचंद का संपूर्ण साहित्य उत्तर भारत के गांवों और संघर्षशील किसानों का दर्पण है। उनके कथा संसार में गांव इतनी जीवंतता और प्रमाणिकता के साथ उभर कर सामने आता है कि उन्हें ग्राम्य जीवन का चितेरा भी कहा जाता है।
"प्रेमचंद न केवल किसानों की कहानी कहते हैं, बल्कि किसान की नजर से पूरी दुनिया की कहानी भी कहते हैं। वे किसानों के साथ रहे और उनके हर सुख-दुख में हिस्सेदारी की। जिस परिवेश में उनका जीवनयापन हुआ, उसमें गांव और किसान उनके चेतना का अमिट हिस्सा बन गए। उनके कई उपन्यास जैसे 'वरदान', 'सेवासदन', 'रंगभूमि', 'प्रेमाश्रम' और 'कर्मभूमि' किसानों, खेतिहर मजदूरों की जिंदगी और उनके संघर्षों के इर्द-गिर्द घूमते हैं। इन उपन्यासों में वे औपनिवेशिक शासन व्यवस्था, सामंतशाही, महाजनी सभ्यता और परजीवी समुदायों पर निशाना साधते हैं। साहित्य के इस महान पुरोधा को बीजेपी सरकर जिस तरह से खारिज करती जा रही है, उससे लगता है कि उत्तर भारत में एक साझी विरासत अब खतरे में हैं, जिसे बचाने के लिए कोई तैयार नहीं है।"
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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लमही के लोग मुंशी प्रेमचंद को धनपत राय के नाम से भी जानते हैं, जो उनका मूल नाम है। मुंशी प्रेमचंद ने 'मंगलसूत्र', 'कर्मभूमि', 'निर्मला', 'गोदान', 'गबन', 'प्रतिज्ञा' जैसे 15 उपन्यास और लगभग 300 से ज्यादा कहानियाँ लिखीं। उन्होंने 10 पुस्तकों का अनुवाद, सात बाल साहित्य, तीन नाटक और कई अन्य किताबें भी लिखीं, जो आज भी मौजूद हैं। बनारस के लमही की पहचान मुंशी प्रेमचंद से है। उनकी कहानियों का मर्म इस गांव की आब-ओ-हवा में भी घुला हुआ है, लेकिन उनकी विरासत को बचाने की चिंता किसी को नहीं है।
मुख्य गेट पर प्रेमचंद के पात्र
जलसा या रस्मअदायगी?
मुंशी प्रेमचंद के जन्मदिन पर 31 जुलाई 2024 को लमही में संस्कृति विभाग की ओर से सरकारी पैसे से एक जलसा हुआ, जिसमें पारंपरिक तौर पर हिंदी साहित्य से जुड़े लोगों को बुलाया गया। उनका सम्मान हुआ, उनके भाषण हुए और एक छोटे से नाटक के बाद लमही महोत्सव को समेट दिया गया। लमही महोत्सव पर राजेश गौतम, प्रो.सदानंद शाही, दयानंद मिश्र, डा.रामसुधार सिंह, डा.दुर्गा प्रसाद श्रीवास्तव का अभिनंदन किया गया। बाद में स्मारक स्थल पर कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। समूचे कार्यक्रम को देखें तो लमही में मुंशी प्रेमचंद को याद करने की सिर्फ रस्मअदायगी ही की गई। इस सालाना जलसे के अलावा बनारस में कहीं भी मुंशी प्रेमचंद को याद नहीं किया गया।
लमही गांव में मुंशी प्रेमचंद को इस तरह याद किया गया
लमही महोत्सव में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार कुमार विजय को प्रेमचंद को याद करने की रस्मअदायगी नागवार गुजरी। "सबरंग इंडिया" से बात करते हुए उन्होंने अपने दर्द को साझा किया और कहा, ---लगता है कि कथा सम्राट की साहित्यिक विरासत "कफन" में लपेटी जा रही है। वह महज एक कथाकार नहीं थे, बल्कि वे इस देश की साझी विरासत के सबसे बड़े पैरोकार थे। उनकी विरासत खतरे में है। यूं भी कह सकते हैं कि उसे कफन में लपेटने का काम किया जा रहा है। प्रेमचंद ने अपने लेखन में हिंदू-मुस्लिम की साझी परंपरा को संजोने का प्रयास किया था। वह इस साझी विरासत को उसी खूबसूरती से बचाना चाहते थे जैसे आर्थिक कठिनाइयों से जूझती एक मां अपने बच्चे के लिए भरपेट खाना सहेजने का प्रयास करती है।
कुमार विजय ने प्रेमचंद की दूरदृष्टि को रेखांकित करते हुए कहा, "प्रेमचंद ने बहुत पहले ही भविष्य के खतरों को भांप लिया था और अपनी कलम से उन्हें उजागर भी किया था। उनकी दूरदृष्टि का प्रमाण उनके लेखन में मिलता है, जहां उन्होंने लिखा है- "साम्प्रदायिकता हमेशा संस्कृति को सम्मान देती है। शायद उसे अपने असली रूप में दिखने में शर्म आती है। जैसे गधा शेर की खाल पहनकर जंगल में जानवरों पर राज करता है, वैसे ही साम्प्रदायिकता भी संस्कृति का चोला ओढ़ लेती है।"
प्रेमचंद ने लिखा था, "हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहते हैं, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गये हैं कि अब न कहीं हिन्दू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति। अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्कृति। एक बेहतर देश निर्माण ही नहीं, बल्कि अपने भीतर के मनुष्य को उसकी मानवीय संवेदना के साथ बचाए रखने के लिए जरूरी है कि हम सब साझी पहल करें और मुंशी प्रेमचंद की धर्मनिरपेक्ष परंपरा और उनके साहित्य में मौजूद साझी विरासत के स्वर को बचाने का पुरजोर प्रयास करें।"
बनारस के लमही में मुंशी प्रेमचंद स्मृति द्वार
सूख गया है आंखों का पानी
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के आचार्य मनोज कुमार सिंह कथाकार मुंशी प्रेमचंद की ढह रही विरासत को लेकर खासे चिंतित हैं। वह कहते हैं, "मुंशी जी जनता के लेखक थे। जब देश की जनता सामंती व्यवस्था के भीतर पिस रही थी तब उसके दर्द को एक रचनात्मक स्वर देने की कोशिश की थी। सपनों की दुनिया से बाहर निकालकर साहित्य को यथार्थ की जमीन पर खड़ा किया। उनके बहुतेरे पात्र हैं जो रोजमर्रा और आम जिंदगी के भीतर से उठाए गए थे। उनके पात्रों के संघर्ष, गुलामी के दौर में आम जनता के संघर्ष की महागाथा बनकर उभरते हैं। गरीबी और भुखमरी उनकी रचनाओं में नारे, मुहावरे व संज्ञा की तरह नहीं, एक शब्द की तरह आते हैं। मुंशी प्रेमचंद राग के, बोध के, संघर्ष के और मुक्ति के आख्यानकार रहे हैं। उनकी रचनाओं में जहां साम्राज्यवाद की कड़ी आलोचनाएं हैं वहीं दूसरी ओर भारतीय समाज की जटिलता, उसके भीतरी संघर्ष भी रचनात्मक ढंग से उभरते हैं। ऐसे लेखक को हम कैसे याद कर रहे है? उसकी पूरी विरासत के साथ आज की पीढ़ी कैसे जुड़ रही है, यह गंभीर चिंता का विषय है।"
"अचरज की बात यह है कि मुंशी जी के साहित्यिक पीठ को लेकर सरकारें मौन हैं, जनता मौन है, लेखक-पत्रकार मौन हैं, सामाजिक संस्थाएं मौन हैं। बनारस मे सरकार सिर्फ मंदिरों को चमकाने और पुलों व इमारतों पर पेंटिंग कराने में व्यस्त हैं। पांडेयपुर चौराहे पर उनकी प्रतिमा का हाल देखकर संवेदनशील व्यक्ति के आंखों से खून टपकने लगते हैं। सरकारें हैं कि उनकी आंखों का पानी ही सूख गया है। मुंशी जी के स्मारकों को चिरस्थायी बनाने की चिंता किसी को नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह विश्वनाथ धाम की तरह कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की विरासत को भी सजाए-संवारे ताकि दुनिया भर के हिन्दी प्रेमी लमही आएं तो गर्व महसूस करें।"
मुंशी प्रेमचंद की यादों को चिरस्थायी बनाने के लिए दशकों से मुहिम चला रहे डॉ. दुर्गा प्रसाद श्रीवास्तव कहते हैं, "हिन्दी साहित्य प्रेमियों के लिए देश में लमही से बड़ा कोई तीर्थ नहीं है और मुंशी प्रेमचंद के स्मारक से बड़ा कोई साहित्य का मंदिर नहीं है। भाजपा सरकार में सांस्कृतिक मंत्री जयपाल रेड्डी ने कुछ साल पहले लमही पहुंचकर मुंशी प्रेमचंद के आवास और बैठक को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में विकसित करने का ऐलान किया था। दावा किया कि उनकी विरासत को शेक्सपियर, वर्ड्सवर्थ और कीट्स के स्मारकों की तरह संवारा जाएगा। सरकार, अफसर और नेता वादे पर वादे करते रहे, लेकिन लमही में मुंशी प्रेमचंद के स्मारक के दिन नहीं बहुरे। उनके घर और स्मारक में उनका कोई भी सामान सही-सलामत नहीं है। न घर रहने लायक है, न देखने लायक स्मारक।"
डा.दुर्गा प्रसाद बताते हैं,"लमही गांव की स़ड़क ऊंची होने के कारण मुंशी जी का बैठका और उसके सामने की गली जलमग्न हो जाती है। कमरों में महीनों पानी भरा रहता है। जल निकासी का यहां कोई इंतजाम नहीं है। तीन तल्ले वाले बैठके के कमरों की खिड़कियों और दरवाजों को दीमक तेजी से चाट रहे हैं। बैठका में लगे पंखे और बल्ब चोरी हो गए हैं। बिजली के स्विच तक उखाड़ लिए गए हैं। समूचा बैठका भुतहा हवेली नजर आता है। वहां बिजली-पानी का कोई इंतजाम नहीं है। बिजली का कनेक्शन कटा हुआ है। मीटर बिजली विभाग वाले ले गए हैं। पंखे, किताबें सहित कई अन्य कीमती चीजें चोरी हो गई हैं। प्रेमचंद के कुनबे के तमाम लोग भाजपा और आरएसएस के कार्यकर्ता बन गए हैं। ऐसे कार्यकर्ता जिनके खिलाफ मुंशी जी जीवन भर लड़ते रहे। ग्राम समाज की जमीनें खुर्द-बुर्द की जा रही हैं, लेकिन प्रशासन आंख बंद किए बैठा है। प्रेमचंद सरोवर बनाया गया है, उसके चारों तरफ अवैध कब्जे हो रहे हैं।"
मुंशी प्रेमचंद की बैठक का टूटा दरवाजा
उपेक्षित है शोध संस्थान
साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद के नाम पर लमही में स्थापित शोध संस्थान भी बदहाल है। सभा कक्ष की कुर्सियों पर धूल की मोटी सी परत जमी हुई है। बरामदा भी धूल से पटा है। शौचालय की स्थिति दयनीय है। यही हाल लाइब्रेरी का है। लाइब्रेरी के अंदर एक-दो अलमारियां हैं, लेकिन कोई किताब नहीं है। यहां कोई ऐसी व्यवस्था भी नहीं है जहां मुंशी प्रेमचंद पर शोध किया जा सके। शोध संस्थान के बाहर लगे पेड़ पौधे गर्मी के चलते झुलस रहे हैं। मुंशी प्रेमचंद शोध संस्थान को संचालित करने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने साल 2005 में पांच करोड़ रुपये मुहैया कराए थे। शोध संस्थान की स्थापना के समय तय किया गया था कि यहां अकादमिक कार्य, शोध, संगोष्ठी,व्याख्यान,परिचर्चा आदि का आयोजन किया जाएगा। प्रेमचंद के साहित्य पर आधारित प्रकाशन को बढ़ाना देना, प्रेमचंद पर वृत्तचित्र का निर्माण, उनकी कहानियों पर आधारित कोलाज बनाने के अलावा वाद-विवाद, निबंध, कहानी-लेखन, कहानी पाठ आदि प्रतियोगिताओं का आयोजन करने की योजना थी जो फाइलों में दफन हो गई और दावे हवा-हवाई हो गए।
मुंशी प्रेमचंद शोध संस्थान
बनारस शहर में पांडेयपुर चौराहे पर फ्लाईओवर के नीचे स्थापित मुंशी प्रेमचंद की प्रतिमा बदहाल है। प्रतिमा पूरी तरह उपेक्षित है और उस पर धूल की मोटी गर्द जमी हुई है। बारिश के दिनों में पुल से रिसने वाला गंदा पानी गिरता है जिसके चलते प्रतिमा का सफेद रंग बदरंग हो गया है। प्रतिमा को देखकर ऐसा लगता है कि लंबे समय से उसकी सफाई तक नहीं की गई है। प्रतिमास्थल पर भी गंदगी बिखरी हुई है। वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, "पांडेयपुर चौराहे पर मुंशी प्रेमचंद की प्रतिमा इसलिए भी उपेक्षा की शिकार है क्योंकि उसे संवारने से बीजेपी सरकार का वोट बैंक नहीं बढ़ने वाला है। यह सरकार तो सिर्फ सियासी नफा-नुकसान की परिभाषा समझती है और उसी के अनुरूप काम करती है।"
"काशी विश्वनाथ मंदिर को पर्यटन स्थल में बदलने से उसका वोटबैंक मजबूत हो रहा है तो लमही में साहित्य के मंदिर में मुंशी प्रेमचंद की विरासत को संवारने से उसे क्या मिलेगा? कालजयी रचनाकार भारतेंदु हरिश्चंद्र, मुंशी प्रेमचंद्र और जयशंकर बनारस की पहचान रहे हैं। इनकी पांडुलियों को सहेजने और लमही को हिन्दी के तीर्थ स्थल के रूप में विकसित करने की जरूरत है। मुंशी जी की विरासत को संवारने के लिए इतना बजट मिलना चाहिए ताकि देश-दुनिया से बनारस आने वाले लोगों को पता चल सके कि बनारस धर्म ही नहीं, साहित्य का भी पुरोधा रहा है।"
प्रेमचंद स्मारक में रखी पुस्तकें और उनकी कुछ स्मृतियां
साहित्य से किसे है खतरा?
काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष प्रदीप श्रीवास्तव कहते हैं, "बनारस में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर को चमकाया जा रहा है और पानी की तरह धन भी बहाया जा रहा है, लेकिन साहित्य के मंदिरों को दर्शनीय बनाने को कोशिश नहीं हो रही है। राजनीति के केंद्र में धर्म आ गया है, जिससे वोट की फसल पैदा की जा रही है। साहित्य से समाज को ताकत मिलती है। समाज को ताकत देना सत्ता के लिए खतरनाक है। हिन्दी साहित्य ने समाज में आत्मसम्मान और जागरूकता पैदा की। प्रेमचंद का पूरा साहित्य सत्ता और व्यवस्था के खिलाफ खड़ा है। ये चीजें सत्ता को बहुत खटकती हैं। मुंशी प्रेमचंद की उपेक्षा की सबसे बड़ी वजह भी यही है। काशी सिर्फ धर्म की नहीं, साहित्य और संस्कृति की राजधानी रही है। यह कहना गलत न होगा कि हिन्दी खड़ी बोली ने बनारस में ही आकार लिया। इसका श्रेय बनारस के साहित्यकार बाबू हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचंद, हजारी प्रसाद शुक्ला जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों की वजह से प्राप्त हुआ। साहित्यिक नजरिये से देखा जाए तो बनारस में मूर्त और अमूर्त दोनों तरह की धरोहरें हैं। लेकिन सरकारों ने इन धरोहरों को संरक्षित और संवर्धित करने का कोई उपाय नहीं किया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण,लमही में मुंशी प्रेमचंद का स्मारक है।"
वरिष्ठ पत्रकार राजीव मौर्य कहते हैं, "पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों के ऊपर कितनी सामाजिक बेड़ियां हैं, इनका मुंशी प्रेमचंद के साहित्य में जगह-जगह जिक्र मिलता है। ‘सेवासदन’, ‘निर्मला’ और ‘गोदान’ आदि उपन्यासों में प्रेमचंद ने बड़ी ही कुशलता से भारतीय समाज में स्त्री की दारुण स्थिति को चित्रित किया है। उन्होंने अपने साहित्य में वेश्यावृति, बाल विवाह, बेमेल विवाह और दहेज प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई, तो वहीं महिलाओं की शिक्षा एवं विधवा विवाह के पक्ष में भी लिखा। प्रेमचंद के महिला किरदार अन्याय सहन नहीं करते, उसका तीखा प्रतिकार करते हैं। उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ में वे जहां सामूहिक खेती और वर्गविहीन समाज की वकालत करते हैं, तो वहीं दूसरी ओर विदेशी शासन और शोषणकारी जमींदारी गठबंधन का असली चेहरा बेनकाब करते हैं।"
"कथा सम्राट प्रेमचंद की नजरों में आजादी का मतलब दूसरा ही था, जो शोषणकारी दमनचक्र से सर्वहारा वर्ग की मुक्ति के बाद ही मुमकिन था। उपन्यास ‘प्रेमाश्रम के माध्यम से प्रेमचंद एक ऐसे कानून की जरूरत बताते हैं जो, ‘‘जमींदारों से असामियों को बेदखल करने का अधिकार ले ले। प्रेमचंद ने हमें केवल जनता का ही साहित्य नहीं दिया, बल्कि वह साहित्य कैसी भाषा में लिखा जाए, उसका पथ निर्देश भी किया। जनता द्वारा बोले जाने वाले कितने ही शब्दों को उनकी कुटिया, मढ़ैया से घसीटकर सरस्वती मंदिर में लाए और यूं ही कितने अनधिकृत शब्दों को जो केवल बड़प्पन का बोझ लिए हमारे सिर पर सवार थे, इस मंदिर से बाहर किया।"
पत्रकार राजीव कहते हैं, "प्रेमचंद न केवल हमारे क्लासिक लेखक थे, बल्कि वे आधुनिक और संदर्भवान लेखक भी थे। उनका रचना संसार बाल्जाक या टोलस्तोय के साहित्य की तरह ही समाज के भीतर का रचना संसार है। घीसू, होरी, अमीना बी, जुम्मन, सूरदास, बूढ़ी काकी जैसे चरित्र हमारे समाज की देन और बेलाग चरित्र हैं, जिन्हें उन्होंने अपनी कहानियों का मुख्य किरदार बनाया। मुंशी प्रेमचंद का संपूर्ण साहित्य उत्तर भारत के गांवों और संघर्षशील किसानों का दर्पण है। उनके कथा संसार में गांव इतनी जीवंतता और प्रमाणिकता के साथ उभर कर सामने आता है कि उन्हें ग्राम्य जीवन का चितेरा भी कहा जाता है।
"प्रेमचंद न केवल किसानों की कहानी कहते हैं, बल्कि किसान की नजर से पूरी दुनिया की कहानी भी कहते हैं। वे किसानों के साथ रहे और उनके हर सुख-दुख में हिस्सेदारी की। जिस परिवेश में उनका जीवनयापन हुआ, उसमें गांव और किसान उनके चेतना का अमिट हिस्सा बन गए। उनके कई उपन्यास जैसे 'वरदान', 'सेवासदन', 'रंगभूमि', 'प्रेमाश्रम' और 'कर्मभूमि' किसानों, खेतिहर मजदूरों की जिंदगी और उनके संघर्षों के इर्द-गिर्द घूमते हैं। इन उपन्यासों में वे औपनिवेशिक शासन व्यवस्था, सामंतशाही, महाजनी सभ्यता और परजीवी समुदायों पर निशाना साधते हैं। साहित्य के इस महान पुरोधा को बीजेपी सरकर जिस तरह से खारिज करती जा रही है, उससे लगता है कि उत्तर भारत में एक साझी विरासत अब खतरे में हैं, जिसे बचाने के लिए कोई तैयार नहीं है।"
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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