जयंती विशेष: प्रेमचंद के आधुनिकता और वैज्ञानिकता के विचार आज भी प्रासंगिक हैं

Written by स्वदेश कुमार सिन्हा | Published on: July 31, 2023
प्रेमचंद का दायरा साहित्य से लेकर समाज तक है, उनका उद्देश्य केवल आर्थिक और शारीरिक दासता से ही मुक्ति नहीं था, बल्कि वे जनसाधारण को मानसिक दासता से भी मुक्त करना चाहते थे, इसलिए वे जनता को शिक्षित करना चाहते थे।



"जो लड़ाई प्रेमचंद ने शुरू की थी राजनीतिक जीवन में, सामाजिक जीवन में और सांस्कृतिक जीवन में- वह लड़ाई आज भी चालू है और प्रेमचंद आज भी अपने साहित्य के द्वारा, अपनी कृतियों के द्वारा हमारे साथ खड़े हैं।" - नामवर सिंह (प्रेमचंद : विविध आयाम)

आज समूचे राजनीतिक और सामाजिक परिवेश में फासीवादी मूल्य हावी हैं। आज़ादी के बाद नेहरू सहित उन सभी नेताओं ने एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य का स्वप्न देखा था तथा इन मूल्यों को संविधान में लागू भी किया, जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी। आज संघ परिवार देश में फासीवादी राज्य की स्थापना के साथ-साथ संविधान में दिए गए धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक अवधारणा को उलटकर इसे एक धार्मिक राज्य में बदलना चाहता है। यह धार्मिक राज्य न केवल अल्पसंख्यकों के लिए बल्कि दलित,पिछड़े, जनजाति समाज तथा सभी प्रबुद्ध लोगों के लिए विनाशकारी होगा, इसी का एक रूप आज हम मणिपुर में देख रहे हैं।

वास्तव में संघ परिवार के फासीवाद की जड़ें इस देश की ज़मीन : विशेषकर हिन्दी प्रदेशों में पहले से ही मौज़ूद हैं, वो चाहे दलित-पिछड़े समाज तथा स्त्रियों का उत्पीड़न हो या फिर तरह-तरह के अंधविश्वासों का प्रचार-प्रसार हो, जादू-टोना और तंत्र-मंत्र हो। यही कारण है कि हमारे यहाँ नित नये-नये ढोंगी-पाखंडी बाबा पैदा हो रहे हैं, जिन्हें फासीवादी निज़ाम का व्यापक समर्थन प्राप्त है और जनता में इनकी व्यापक लोकप्रियता है।

प्रेमचंद ने अपनी पैनी अंतर्दृष्टि से आज़ादी से पहले ही यह जान लिया था, कि भारतीय समाज में व्याप्त पिछड़ी और अवैज्ञानिक सोच एवं जीवनदृष्टि के ख़िलाफ़ एक आधुनिक और वैज्ञानिक जीवनदृष्टि के लिए संघर्ष किए बिना भारतीय समाज में कोई व्यापक बदलाव नहीं किया जा सकता,यही कारण है कि उनके उपन्यासों, कहानियों और लेखों में हम पिछड़ी और अवैज्ञानिक जीवन दृष्टि के ख़िलाफ़ आधुनिक तर्कसंगत तथा वैज्ञानिकता को स्थापित करने के लिए संघर्ष देखते हैं। चाहे वो विधवा विवाह का समर्थन हो, दहेज, बालविवाह, जातिवाद, छुआछूत और धार्मिक कट्टरवाद हो, या फिर किसानों और श्रमिकों का पिछड़े जीवनमूल्यों के ख़िलाफ़ संघर्ष हो।

प्रेमचंद का दायरा साहित्य से लेकर समाज तक है, उनका उद्देश्य केवल आर्थिक और शारीरिक दासता से ही मुक्ति नहीं था, बल्कि वे जनसाधारण को मानसिक दासता से भी मुक्त करना चाहते थे, इसलिए वे जनता को शिक्षित करना चाहते थे।

1934 में इन्द्रनाथ मदान द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर में उन्होंने लिखा था, कि "मैं सामाजिक विकास में विश्वास रखता हूँ। हमारा उद्देश्य जनमत को शिक्षित करना है।" जनता को शिक्षित करने का उनका माध्यम साहित्य था, इसके लिए उन्होंने ढेरों कहानियाँ, लेख, उपन्यास और नाटक लिखे। उन्होंने हंस और जागरण पत्रिका निकाली तथा उन्होंने माधुरी का भी संपादन किया। एक ओर जहाँ उन्होंने वैज्ञानिक और शोषणमुक्त समाज के लिए अपने साहित्य के माध्यम से इसका प्रचार-प्रसार किया, दूसरी ओर सांस्कृतिक मोर्चे पर सदियों से चली आ रही कुरीतियों और अंधविश्वासों का विरोध कर समाज विकास के वैज्ञानिक मत को अपनाने पर ज़ोर दिया। पंडे-पुरोहितों,मौलवी तथा अन्य धर्मों के प्रचारकों ने जनता में तरह-तरह के अंधविश्वास फैला रखा था, वैज्ञानिक विवेक का अभाव इस अंधविश्वास का कारण था।

एक लेख में उन्होंने एक जगह लिखा है,"जो निर्जीव है,गलित है,जो हमें विवेकहीनता की ओर प्रेरित करता है, उसे विमुखी‌-वाम समझकर ठुकरा देना चाहिए।"

हमारे समाज में कुछ ऐसी प्रथाएँ प्रचलित हैं, जिन्होंने हमारी आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि को धुंधला कर दिया था, जिससे हम वैज्ञानिक दृष्टि से विचार नहीं कर पाते थे, न आज ही कर पा रहे हैं। आज हम भले ही ग्रह-नक्षत्रों पर पहुँच गए हैं, मगर अभी भी अनेक पुरानी गाथाओं और प्रथाओं के हम शिकार हैं। सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के समय हमें ऐसा लगता है कि जैसे सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण हमें ही लग गया है। विविध प्रसंग भाग-3 में राहु के शिकार लेख में प्रेमचंद लिखते हैं,"साल में दो-चार बार सूर्य पर राहु के हमले होते हैं,पर जिन पर हमले होते हैं, उनका तो बाद में बाल भी बाँका नहीं होता। हाँ! सौ दो सौ आदमियों पर उनका कोप उतर जाता है। जिसके पेट में सूर्य और चंद्र को निगल जाने शक्ति है,वह तो भूमंडल के निवासियों को इस तरह चट कर सकता है, जैसे ऊँट के मुँह में जीरा। सौ दो सौ को ही वह निगलकर संतोष कर लेता है, यह उसकी भलमनसी है। ग्रहण स्नान, सोमवती स्नान और लाखों तरह के स्नानों की बला हिन्दुस्तान के सिर से कभी उतरेगी या नहीं। समझ में नहीं आता, लाखों आदमी अपनी गाढ़े ख़ून-पसीने की कमाई ख़र्च करके धक्के खाकर पशुओं की भाँति रेल में जाकर, रेले में जान गँवाकर या नदी में डूबकर स्नान करते हैं, केवल अंधविश्वास में पड़कर कितने बच्चे और स्त्रियाँ खो जाते हैं, कितनी स्त्रियाँ गुंडों का शिकार हो जाती हैं और कितनों के गहनों लुट जाते हैं,यह देव ही जानें।"

26 मार्च 1934 में जागरण में प्रेमचंद का अंधविश्वास नाम से एक लेख छपा था, जिसमें वे लिखते हैं, "हिन्दू समाज में पूजे जाने के लिए केवल लंगोट बाँध लेने और देह में राख़ मल लेने की ज़रूरत है, अगर गाँजा और चरस उड़ाने का अभ्यास हो जाए, तो और उत्तम। यह स्वांग भर लेने के बाद बाबाजी देवता बन जाते हैं। मूर्ख हैं, धूर्त हैं, नीच हैं फिर इससे कोई प्रयोजन नहीं। वह बाबा हैं,बाबा ने संसार को त्याग दिया है, माया पर लात मार दी और क्या चाहिए? कोई यह नहीं सोचता कि एक मूर्ख, दुराचारी, लंपट आदमी क्योंकर लंगोटी लगाने से सिद्ध हो सकता है? सिद्धि क्या इतनी आसान चीज़ है? हममें मस्तिष्क से काम लेने की मानवशक्ति ही नहीं रही। भेड़ों की तरह एक-दूसरे के पीछे चले जाते हैं, कुएँ में गिरें या खंदक में इसका गम नहीं। जिस समाज में विचारमंदता का ऐसा प्रकोप हो, उसको संभलते बहुत दिन लगेंगे।" (विविध प्रसंग, भाग-3,पृष्ठ-157)

"हमारे तीर्थस्थान क्या हैं? ठगों के अड्डे और पाखंडियों के अखाड़े, जिधर देखिए उधर ढोंग का बाज़ार गर्म है। जनता ने असली धर्म छोड़कर; जिसका मूल तत्त्व समाज की उपयोगिता है, उसको छोड़कर धर्म के ढोंग को धर्म मान लिया है, उसकी मनोवृत्ति जब तक ऐसी है, तब तक केवल राजनीतिक अधिकारों से उसका कल्याण नहीं हो सकता।"(विविध प्रसंग,भाग-2 पृष्ठ-233)

किसी भी पारलौकिक सत्ता के निर्देश पर सृष्टि के संचालन या मनुष्य के भाग्य निर्धारण में प्रेमचंद का विश्वास नहीं था, न ही गंडा-ताबीज़ और भस्म-भभूत में उनकी आस्था थी। प्रेमचंद ने इन्द्रनाथ मदान को 1934 में लिखा था, कि "पहले मैं एक परम सत्ता में विश्वास करता था, विचारों के निष्कर्ष के रूप में नहीं, केवल चले आते हुए रूढ़िवादी विश्वास के नाते। वह विश्वास अब खंडित हो गया है, नि:संदेह विश्व के पीछे कोई हाथ है, लेकिन मैं नहीं समझता कि उसका मानव व्यापारों से कुछ लेना-देना है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-2, पृष्ठ-238)

प्रेमचंद ने अपने लेखन में वर्ण व्यवस्था और उसके पाखंड पर खुला हमला किया था, फलस्वरूप प्रेमचंद को वर्ण व्यवस्था के हिमायती वर्ग का तीखा विरोध झेलना पड़ा। प्रेमचंद को घृणा का प्रचारक कहा गया। सद्गति, दूध का दाम और ठाकुर का कुआँ आदि इसी तरह की कहानियाँ हैं। कफ़न जैसी कहानी एक ओर सामाजिक संरचना की उन ख़ामियों को उजागर करती है जिनका आधार आर्थिक है, तो दूसरी ओर यह कहानी वर्ण व्यवस्था के मूलाधारों पर चोट करती है। प्रेमचंद ने अपने समय में 1934-35 के आसपास जो लिखा था, वे चीज़ें आज और भी विकृत रूप में हमारे सामने आ रही हैं। हत्यारे, बलात्कारी साधु, ओझा और संत समाज में खुलेआम घूम रहे हैं तथा करोड़ों लोगों की उन पर आस्था भी है। इनमें से जिनको सज़ा भी मिल जाती है, वे भी सत्ताधारी दल के चुनाव प्रचार-प्रसार के लिए जेलों से पैरोल पर रिहा कर दिए जाते हैं। आज फासीवाद से लड़ने के लिए राजनीतिक संघर्षों के अलावा एक सांस्कृतिक नवजागरण की भी ज़रूरत है। आज सामाजिक पिछड़ेपन के ख़िलाफ़ आधुनिकता की लड़ाई में प्रेमचंद का साहित्य हमारे लिए बहुत प्रासंगिक हो गया है, क्योंकि आज हमारी सारी सामाजिक कुरीतियाँ अंधविश्वास, चमत्कारवाद, भाग्यवाद और चढ़ावावाद धर्म की खाल ओढ़कर प्रजातंत्र पर हावी हो गया है, इससे उबरने के लिए हमें एक बार फिर प्रेमचंद की परम्परा को जीवित करना होगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

साभार- न्यूजक्लिक

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