संविधान और सियासत: क्या पांच राज्यों के चुनाव टाले भी जा सकते हैं!

Published on: September 8, 2023
‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ का जैसा शोर मचा है, उसमें किसी भी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।


प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : गूगल

अगर मोदी जी अपनी ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ परियोजना को लागू करने पर वाकई आमादा हैं तो सबसे पहले उन्हें नवंबर-दिसंबर में होने जा रहे पांच राज्यों के चुनाव को टालना होगा। या फिर आम चुनाव ही पहले कराने होंगे।

‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ का जैसा शोर मचा है, उसमें किसी भी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

आइए सभी संभावनाओं पर विचार करते हैं —

पहले बात इसी साल होने जा रहे पांच राज्यों के चुनाव की। अगर यह चुनाव समय पर होते हैं तो फिर जल्दी से जल्दी ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ की परियोजना कैसे परवान चढ़ेगी। जिसके लिए आनन फानन में कमेटियां बना दी गईं। और इन चुनावों में हारकर तो मोदी जी अगले चुनावों में नहीं जाना चाहेंगे तो अगर यह चुनाव टाले जा सकते हैं तो कैसे?

नवंबर-दिसंबर में होने जा रहे पांच राज्यों के चुनावों को टाले जाने के मुद्दे के दो पहलू हैं। एक संवैधानिक और दूसरा राजनीतिक।

पहले बात करते हैं कि क्या संवैधानिक रूप से ऐसा संभव है। तो पहला सीधा जवाब तो यही है— नहीं। सामान्य परिस्थितियों में तो ऐसा संभव नहीं है।

इसे विस्तार में समझने से पहले यह देख लेते हैं कि 2023 में किन-किन राज्यों में चुनाव होने हैं। और 2024 का भी जायजा ले लेते हैं कि अगर एक चुनाव कराना है तो किन राज्यों के चुनाव समय से पहले कराने पड़ेंगे—

2023 के नवंबर-दिसंबर महीने में 5 राज्यों के चुनाव प्रस्तावित हैं। यह राज्य हैं-

1. राजस्थान, 2. मध्यप्रदेश, 3. छत्तीसगढ़, 4. तेलंगाना, 5. मिजोरम।

2024 में 7 राज्यों में चुनाव होने हैं। यह राज्य हैं—

1. हरियाणा, 2. महाराष्ट्र, 3. अरुणाचल प्रदेश, 4. आंध्र प्रदेश, 5. ओडिशा, 6. सिक्किम, 7. झारखंड

इस तरह 12 राज्यों के चुनाव तो 2023-24 में ही है। इसके अलावा जम्मू-कश्मीर के चुनाव तो पहले से ही ड्यू हैं। जब चाहे करा लीजिए। और अगर मोदी जी चाहेंगे तो अपने चार-छह राज्यों के मुख्यमंत्रियों से इस्तीफा दिलाकर, समय से पहले विधानसभा भंग करवाकर चुनाव की व्यवस्था कर सकते हैं।

‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ के लिए अगर इतनी भी पहल हो जाए तो मोदी जी और उनका मीडिया इसे एक बड़ी जीत ही कहेंगे।

तो अब क्या संभव है कि पांच राज्य जिनके चुनाव आने वाली नवंबर-दिसंबर में तय हैं, उन्हें टाला जा सके।

अभी तक विधानसभा का कार्यकाल बढ़ाना या समय से पहले भंग करने की व्यवस्था तो संविधान में है। लेकिन दोनों के लिए आपात या असाधारण स्थितियों का साफ़ उल्लेख हमारे संविधान में है।

संविधान के आर्टिकल 172 के तहत आपात परिस्थितियों में विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है।

आर्टिकल 172 कहता है—

(1) प्रत्येक राज्य की प्रत्येक विधानसभा, यदि पहले ही विघटित नहीं कर दी जाती है तो, अपने प्रथम अधिवेशन के लिए नियत तारीख से पांच वर्ष तक बनी रहेगी, इससे अधिक नहीं और पांच वर्ष की उक्त अवधि की समाप्ति का परिणाम विधानसभा का विघटन होगा:

परंतु उक्त अवधि को, जब आपात्‌ की उद्‍घोषणा प्रवर्तन (operation) में है, तब संसद विधि द्वारा, ऐसी अवधि के लिए बढ़ा सकेगी, जो एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं होगी और उद्‍घोषणा के प्रवर्तन में न रह जाने के पश्चात्‌ किसी भी दशा में उसका विस्तार छह मास की अवधि से अधिक नहीं होगा।

समय पूर्व राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए आर्टिकल 356 में व्यवस्था है।

आर्टिकल 356 कहता है—

भारतीय संविधान के आर्टिकल या अनुच्छेद 356 के अनुसार, भारत के राष्ट्रपति को राष्ट्र के किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने और राज्य सरकार को निलंबित करने का अधिकार है “यदि वह संतुष्ट है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें राज्य की सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुसार नहीं चलाई जा सकती है।”

इसमें राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर और केंद्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिश पर राष्ट्रपति अनुच्छेद-356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाने की मंजूरी दे सकते हैं। इसे संसद के दोनों सदनों की मंज़ूरी भी लेनी होती है।

यह अनुच्छेद एक साधन है जो केंद्र सरकार को किसी नागरिक अशांति जैसे कि दंगे जिनसे निपटने में राज्य सरकार विफल रही हो की दशा में किसी राज्य सरकार पर अपना अधिकार स्थापित करने में सक्षम बनाता है (ताकि वो नागरिक अशांति के कारणों का निवारण कर सके)।

लेकिन ये दोनों ही मामले आपात यानी असाधारण स्थितियों के लिए हैं। हालांकि राष्ट्रपति शासन लागू करते समय हमेशा इसकी शर्तों को पूरा नहीं किया जाता और अब तक उदाहरण बताते हैं कि राजनीतिक कारणों से केंद्र सरकार मनमाने ढंग से विपक्ष की राज्य सरकारों को बर्ख़ास्त कर राष्ट्रपति शासन के जरिये राज्य का संचालन अपने हाथों में लेती रही है। जिसे समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती दी जाती रही है।

एक प्रावधान और है जो चुनाव आयोग को कुछ अधिकार देता है—

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 153

कानून के तहत चुनाव आयोग (ईसी) को लोकसभा या विधानसभा का पांच साल का कार्यकाल समाप्त होने से पहले छह महीने के भीतर किसी भी समय चुनाव कराना अनिवार्य है।

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 153 के तहत, चुनाव आयोग चुनाव पूरा करने के लिए "समय बढ़ा सकता है", लेकिन ऐसा विस्तार लोकसभा या विधानसभा के सामान्य विघटन की तारीख से आगे नहीं जाना चाहिए।

लेकिन, धारा 153 के तहत शक्तियों का प्रयोग केवल चुनाव कार्यक्रम अधिसूचित होने के बाद ही किया जा सकता है।

यदि चुनाव कार्यक्रम अधिसूचित नहीं किया गया है तो चुनाव आयोग अनुच्छेद 324 के तहत अपनी असाधारण शक्तियों के माध्यम से चुनाव स्थगित कर सकता है।

आयोग को समय पर चुनाव कराने में अपनी असमर्थता के बारे में सरकार को सूचित करना होगा।

इसके बाद सरकार और राष्ट्रपति भविष्य का फैसला करेंगे - राष्ट्रपति शासन लगाना या मौजूदा मुख्यमंत्री को छह महीने तक पद पर बने रहने की अनुमति देना।

इस प्रावधान के इस्तेमाल पर कोविड के समय काफी चर्चा रही थी।

इसके अनुसार अधिसूचना जारी होने से पहले या फिर संविधान में संशोधन कर ही ऐसा संभव है कि चुनाव टाले जा सकें। इन दोनों ही परिस्थितियों में राज्य सरकार का कार्यकाल बढ़ाने की बजाय राष्ट्रपति शासन मोदी जी के लिए ज़्यादा अनुकूल है। क्योंकि दो अहम राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है। तेलंगाना में भी विपक्षी केसीआर यानी के चंद्रशेखर राव की सरकार है, हालांकि केसीआर, विपक्षी गठबंधन का हिस्सा नहीं बने हैं। मिजोरम में एमएनएफ यानी मिजो नेशनल फ्रंट की सरकार है। तो विपक्ष को वे आगे और क्यों मौका देना चाहेंगे।

मध्यप्रदेश का जहां तक सवाल है तो वहां भाजपा की ही सरकार है लेकिन वहां मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के ख़िलाफ़ काफी माहौल दिख रहा है। ‘मामा’ यानी शिवराज की सरकार को 20 साल हो रहे हैं, पिछली बार 2018 के चुनाव में हालांकि उन्हें हार मिली और कांग्रेस के कमलनाथ मुख्यमंत्री बने लेकिन एक साल बाद ही शिवराज ने फिर सरकार हथिया ली। इसलिए इन 20 सालों की एंटी-इनकम्बेंसी उनके ही हिस्से है। अगर चुनाव मोदी जी के नाम पर लड़ा जाए तो शायद कुछ राहत मिल जाए।

2024 में जिन राज्यों में चुनाव हैं उनमें हरियाणा, महाराष्ट्र, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में भाजपा गठबंधन की सरकार है। और सभी जगह हालात खराब हैं। आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस की सरकार है। और ओडिशा में बीजू जनता दल (बीजेडी) की सरकार है। बीजेडी हर मौके पर केंद्र सरकार के फेवर में दिखती रही है। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा के हेमंत सोरेन के नेतृत्व में गठबंधन सरकार है, जो विपक्षी गठबंधन का हिस्सा हैं।

इन 7 राज्यों में से आंध्र, ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम यानी चार राज्यों में अप्रैल 2024 तक चुनाव होने हैं, इसलिए इनमें भी थोड़ा समय पूर्व या समय से चुनाव कराने में कोई दिक्कत नहीं होगी।

हरियाणा और महाराष्ट्र में अक्टूबर 2024 तक चुनाव होने हैं लेकिन जैसा सब जानते हैं कि यहां भाजपा गठबंधन की ही सरकार है और हालात भी डांवाडोल है इसलिए प्री-पोल में इन्हें भी कोई दिक्कत नहीं होगी।

बाकी बचा झारखंड। झारखंड में दिसंबर 2024 तक चुनाव होने हैं। उसकी विधानसभा का कार्यकाल 5 जनवरी 2025 को ख़त्म हो रहा है। लेकिन जैसे हेमंत सोरेन के पीछे एजेंसी लगी हैं, उसमें उनकी सरकार भी कभी भी गिराई जा सकती है।

तो इसलिए अगर फरवरी-मार्च में एक राष्ट्र-एक चुनाव के नुक़्ते के तहत चुनाव कराए जाएं तो 12-13 राज्य तो ये तैयार हैं ही, और जैसे ऊपर कहा कि अपने कुछ और राज्यों की विधानसभा समय से पहले भंग कराकर कार्यवाहक मुख्यमंत्री या राष्ट्रपति शासन के तहत आम चुनाव के साथ चुनाव कराए जा सकते हैं। मणिपुर के भी ऐसे हालात हैं कि वहां मुख्यमंत्री का इस्तीफ़ा लेकर दोबारा भी चुनाव कराए जा सकते हैं।

विपक्ष शासित राज्यों में भी सरकार गिराने और बनाने का खेल भाजपा से ज़्यादा कौन जानता है। इसलिए बहुत संभव है कि 2023 के अंत के चुनाव टालकर अगले साल 2024 में आम चुनाव कुछ पहले घोषित कर कई राज्यों के साथ करा लिए जाएं।

अपने (भाजपा शासित) और विपक्ष के कुछ राज्यों को जहां अभी साल-दो साल या कुछ महीने पहले चुनाव हुए हैं उन्हें अगले चुनाव तक छोड़ा भी जा सकता है। वैसे गुजरात और यूपी को लेकर भी मोदी को भरोसा होगा कि फिर बंपर वापसी की जा सकती है। इसलिए ये भी शामिल हो जाएं तो कोई हैरत नहीं।

इसके अलावा एक संभावना यह भी हो सकती है कि 2024 में आम चुनाव हो ही न और इसे 2025 या 26 तक खींचकर ले जाया जाए। इसके लिए भी संविधान में आपात व्यवस्था है।

संविधान के आर्टिकल 83 के अनुसार—

लोकसभा, जब तक कि जल्दी भंग न हो जाए, अपनी पहली बैठक के लिए नियुक्त तिथि से पांच साल तक जारी रहेगी और इससे अधिक नहीं और पांच साल की उक्त अवधि की समाप्ति सदन के विघटन के रूप में कार्य करेगी:

बशर्ते उक्त अवधि, जब आपातकाल की उद्घोषणा लागू हो, तब संसद विधि द्वारा, ऐसी अवधि के लिए बढ़ा सकेगी जो एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं होगी। और किसी भी मामले में उद्घोषणा समाप्त होने के बाद छह महीने की अवधि से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती है।

आपको याद ही होगा कि सन् 1975 में इंदिरा गांधी इमरजेंसी लागू कर एक बार लोकसभा की अवधि बढ़ा चुकी हैं। उन्होंने तो क़ानून में संशोधन कर लोकसभा की अवधि ही 6 साल कर दी थी, जिसे बाद में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद रद्द कर दिया गया।

लेकिन इस समय जैसा माहौल है उसमें मोदी जी के लिए चुनाव बाद की बजाय थोड़ा पहले फरवरी-मार्च में कराना ज़्यादा मुफ़ीद है। वैसे अगर चुनाव समय से भी होते हैं तो भी बहुत दूर नहीं है। नियम अनुसार इन्हें मई 2024 तक संपन्न हो ही जाना है। तो लोकसभा चुनाव समय से हों और कुछ राज्यों के चुनाव टाल दिए जाए और कुछ के पहले करा लिए जाएं, ऐसा भी हो सकता है।

लेखक यहां साफ़ कर दे कि वह चुनाव या संविधान का कोई विशेषज्ञ नहीं है। लेकिन जिस तरह आशंकाओं का दौर चल रहा है उसमें बस कुछ संभावनाओं और ख़बरों को टटोलने और उनका गुणा-गणित करने की कोशिश की है, जिनके ग़लत होने की पूरी संभावना है। लेकिन इस बारे में बिल्कुल स्पष्ट है कि आज की परिस्थिति में ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ की सारी कवायद न बेहतर चुनाव व्यवस्था के लिए है, न बेहतर लोकतंत्र के लिए।

सरकार और कॉरपोरेट मीडिया अब दिन रात ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ के फ़ायदे गिना रहा है। सर्वे करा रहा है, लेकिन यह नहीं बता रहा कि किस तरह यह ‘एक’ के नाम पर एकरूपता थोपने और देश के संघीय ढांचे पर हमला है।

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