राजनीति की एक महीन बात यह है कि वैचारिक मकसद हासिल करने के लिए वह गवर्नेस का सहरा लेती है। कहती है कि अगर ऐसा नहीं होगा तो लोककल्याण और सुशासन के लिहाज से दिक्कत आएगी।
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : पीटीआई
जब भी मदरसा का नाम आता है तो आमतौर पर लोगों के दिमाग में यह छवि बनती है कि कुर्ता-पैजामा पहने कुछ उलेमा मुस्लिम बच्चों को उर्दू पढ़ा रहे हैं, कुरान पढ़ा रहे हैं। अगर कोई कट्टर स्वाभाव का होता है तो यह सोचता है कि यहां धार्मिक शिक्षा के नाम पर धर्मान्धता की पढ़ाई करवाई जा रही है और अगर कोई उदार स्वाभाव का होगा तो सोचता है कि मुस्लिम समाज अपने बच्चों को इस्लाम धर्म की शिक्षा दे रहा है। उन सीखों को अपने बच्चों को बता रहा है जो सीख उसे उसका धर्म देता है। इन्हीं दोनों धारणाओं के बीच मदरसा की समझ फंसी रहती है। यहीं पर राजनीति की जमीन तैयार होती है।
मदरसा को लेकर भाजपा ने कई बार चिंता जिताई है। असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा ने यहां तक कहा था कि मदरसा जैसे शब्द अस्तित्व में ही नहीं होना चाहिए। भाजपा समर्थक कई लोग इसी तरह की बात करते हुए मिल जाएंगे। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने कहा कि प्रदेश में ज्यादातर मदरसे गैर मान्यता प्राप्त हैं। उन्होंने इसका सर्वे करवाया। यह सर्वे पूरा हो गया है। मदरसा शिक्षा परिषद चेयरमैन डॉक्टर इफ्तिखार जावेद के मुताबिक उत्तरप्रदेश राज्य भर में करीबन 7500 गैर मान्यता प्राप्त मदरसा हैं। उन्होंने यह बात कही है कि मदरसा का सर्वे केवल डाटा के लिए है। न कोई जांच है और न कोई मदरसा अवैध है।
जबकि सरकार ने जब मदरसा के सर्वे की शुरुआत की थी, तब 11 बिंदु गिनवाए थे। यह 11 बिंदु है - इनमें मदरसे का नाम, मदरसे को संचालित करने वाली संस्था का नाम, मदरसा कब बना था? मदरसे का पता क्या है? मदरसा निजी भवन में चल रहा है या किराए के भवन में? इनके अलावा क्या मदरसे का भवन छात्र-छात्राओं के लिए ठीक-ठाक है या नहीं है? छात्रों को क्या-क्या सुविधाएं मिल रही हैं? मदरसे में पढ़ रहे छात्र- छात्राओं की कुल संख्या। मदरसे में कुल शिक्षकों की संख्या कितनी है ? मदरसे में लागू पाठ्यक्रम ? मतलब किस पाठ्यक्रम के आधार पर बच्चों को शिक्षा दी जा रही है। मदरसे की आय का स्रोत क्या है ? क्या इन मदरसों में पढ़ रहे छात्र-छात्राएं किसी और शिक्षण संस्थान या स्कूल में नामांकित हैं या नहीं ? गैर सरकारी संस्था या समूह से मदरसे की जुड़ाव है या नहीं?
तो चलिए इसी खबर की पृष्ठभूमि पर मदरसा की राजनीति समझते हैं। राजनीति की एक महीन बात यह है कि वैचारिक मकसद हासिल करने के लिए वह गवर्नेस का सहरा लेती है। कहती है कि अगर ऐसा नहीं होगा तो लोककल्याण और सुशासन के लिहाज से दिक्कत आएगी। जैसे जब बंगाल का विभाजन हुआ था तब कहा जाता था कि इस विभाजन का मकसद सुशासन है, जब बंगाल का बंटवारा होगा तो बंगाल का प्रशासन ढंग से किया जा सकेगा। जबकि इसके पीछे की बात हिन्दू-मुस्लिम बंटवारें से जुडी थी। ठीक ऐसे ही भाजपा ने राम के नाम पर बहुत लम्बे समय तक राम जन्म भूमि आंदोलन चलाया मगर पूरी कवायद हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण करके सत्ता तक पहुंचने की थी। इस तरह के अनगिनत उदाहरण मिलेंगे जिनकी बुनियाद में किसी ना किसी तरह की वैचारिक संकीर्णता है मगर नाम लोक कल्याण और प्रशासनिक सुधार का दे दिया गया है।
ठीक इसी बिसात मदरसों की राजनीति की जाती है। कहा जाता है कि मदरसों में आधुनिक शिक्षा नहीं दी जाती है, धार्मिक शिक्षा दी जाती हैं, ऐसी शिक्षा नहीं दी जाती जो नौकरी दिलाने में मदद करें बल्कि ऐसी शिक्षा दी जाती है जो धर्म के प्रति आग्रह पैदा करती है इसलिए ऐसी शिक्षा का कोई मतलब नहीं है। मदरसा का अस्तित्व खत्म हो जाना चाहिए। मगर क्या वाकई यही बात सच है? या सच का महज एक सिरा है जिसे बढ़ा चढ़ा कर पेश किया जाता है।
जानकार कहते हैं कि मदरसा से वैसा भाव पैदा नहीं होता जैसा स्कूल से होता है। स्कूल से लगता है कि ऐसी पढ़ाई लिखाई जो इस जगत से जुड़ी हुई है। इस जगत की व्याख्याओ से जुड़ी हुई है। मगर मदरसा से लगता है कि ऐसी पढ़ाई लिखाई जो इस जगत से परे की बात बताती है। सवाल उठता है कि यह भाव पैदा कहां से हुआ? यह भाव अंग्रेजों के आने के बाद पैदा हुआ।
अंग्रेजों ने भारत में पहले से चली आ रही गुरुकुल और मदरसे की पढ़ाई को आधुनिक शिक्षा के खिलाफ बताया। उन्होंने बताया कि वेदों, पुराण और कुरान में जो बात पढ़ाई जाती है, उसका इस दुनिया के सवालों को हल करने में कोई महत्व नहीं है। यह आधुनिक शिक्षा के खिलाफ है। गुरुओं के द्वारा संस्कृत में और उलेमा और आलिम के जरिए उर्दू और फारसी में दिया जाने वाला ज्ञान उपयोगी नहीं है। यह रूढ़ीपरस्ती सिखाता है और इस दुनिया के सवालों का हल नहीं देता। दुनिया का बाजार जिस शिक्षा की मांग करता है वह शिक्षा मदरसों और संस्कृत विद्यालयों से नहीं मिल सकती।
इसका मतलब यह नहीं है कि मदरसों को लेकर मुस्लिम समाज ने सोचा नहीं। मुस्लिम समाज ने सोचा। इसी का परिणाम अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय था। जब अंग्रेजों ने मदरसों पर सवाल उठाया तो दो तरह के विचार विकसित हुए। पहले वह जो मानते थे कि धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ उपयोगी शिक्षा भी पढ़ाई जानी चाहिए। दूसरे वह जो मानते थे कि धार्मिक शिक्षा से भटकने का मतलब है इस्लाम से भटक जाना। अगर इस्लाम से भटक जाएंगे तो इंसानी जीवन अर्थहीन हो जाएगा। इसी विचार को इस्लाम की देवबंद की शाखा आगे बढ़ाती है। देवबंदी और वहाबी आंदोलन इसी से जुड़ा हुआ है। शुरुआत में तो इस आंदोलन ने कहा कि अगर वह अंग्रेजों द्वारा बताई जा रही शिक्षा को हासिल करेगी तो अंग्रेजो की गुलाम बनेगी। इसलिए इस्लाम की शिक्षा को वह छोड़ नहीं सकती। इसलिए इस खेमे ने शुरू से ही उपयोगी शिक्षा को नकार दिया।
अब सवाल उठता है कि मौजूदा वक्त में मदरसों को किस तरह से देखा जाता है? साल 1990 के बाद दुनिया के प्रभुत्वशाली देशों के बीच यह धारणा बनती चली गई कि दुनिया में हो रहे आतंकवादी गतिविधियों के पीछे देवबंदी और वहाबी मदरसों का भी हाथ है। यहां पर कट्टरता और रूढ़िवादिता सिखाई जाती है। इसका इस्तेमाल इस्लामी आतंकवाद करता है।
मगर इन सबके बीच एक खेमा वह है जो हमेशा से रहा है, और मदरसों का इसलिए वकालत करता है क्योंकि यह अल्पसंख्यकों के धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने का एक अच्छा तरीका है। बिहार बंगाल और उत्तर प्रदेश राज्य में तो राज्य सरकार के कोष पर कई मदरसे चलते हैं। भारत के संविधान का अनुच्छेद 30 भी इसकी वकालत करता है कि अल्पसंख्यक अपने धार्मिक मान्यताओं की रक्षा के लिए शिक्षण संस्थान चला सकते हैं।
जब ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में मदरसों को नहीं देखा जाता तो विरोधभासी स्थिति पैदा होती है। बहुसंख्यकवादी आबादी खेमा कहता है कि मदरसे आधुनिक शिक्षा के खिलाफ हैं। रूढ़िवादिता और कट्टरता पैदा करते हैं। जबकि अल्पसंख्यक अधिकारों को तरजीह देने वाला खेमा कहता है कि अपनी धार्मिक मान्यताओं को अपने समाज में फैलाने का यह एक अच्छा तरीका है। इसमें कोई गलत बात नहीं।
आंकड़ों के हिसाब से देखें तो सच्चर कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि मदरसा में स्कूल जाने वाले मुस्लिम बच्चों में केवल तकरीबन 3% के बच्चे जाते हैं। इन मदरसों में धार्मिक शिक्षा की पढ़ाई होती है साथ ही साथ आधुनिक शिक्षा की भी पढ़ाई होती है। मगर मस्जिद के बगल में जो मकतब बने होते हैं, जहां धार्मिक शिक्षा पर बहुत अधिक जोर दिया जाता है, उसे भी जोड़ दिया जाए तो मुश्किल से 6% के आसपास मुस्लिम बच्चे मदरसा और मकतब में पढ़ने जाते हैं। यह बच्चे होते हैं जो आर्थिक तौर पर बहुत कमजोर होते हैं। मुस्लिमों से सवाल करने पर यह पता चलता है कि वह अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में भेजना चाहते हैं मगर आर्थिक तंगी उन्हें ऐसा करने से रोकती है।
इन्हीं सब के बीच मदरसों की राजनीति फंसी हुई है। देखने वाली बात यह है कि भाजपा आने वाले समय में हिन्दू मुस्लिम विभाजन में इसका आने वाले समय में कितना जोर से इस्तेमाल करती है।
Courtesy: Newsclick
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : पीटीआई
जब भी मदरसा का नाम आता है तो आमतौर पर लोगों के दिमाग में यह छवि बनती है कि कुर्ता-पैजामा पहने कुछ उलेमा मुस्लिम बच्चों को उर्दू पढ़ा रहे हैं, कुरान पढ़ा रहे हैं। अगर कोई कट्टर स्वाभाव का होता है तो यह सोचता है कि यहां धार्मिक शिक्षा के नाम पर धर्मान्धता की पढ़ाई करवाई जा रही है और अगर कोई उदार स्वाभाव का होगा तो सोचता है कि मुस्लिम समाज अपने बच्चों को इस्लाम धर्म की शिक्षा दे रहा है। उन सीखों को अपने बच्चों को बता रहा है जो सीख उसे उसका धर्म देता है। इन्हीं दोनों धारणाओं के बीच मदरसा की समझ फंसी रहती है। यहीं पर राजनीति की जमीन तैयार होती है।
मदरसा को लेकर भाजपा ने कई बार चिंता जिताई है। असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा ने यहां तक कहा था कि मदरसा जैसे शब्द अस्तित्व में ही नहीं होना चाहिए। भाजपा समर्थक कई लोग इसी तरह की बात करते हुए मिल जाएंगे। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने कहा कि प्रदेश में ज्यादातर मदरसे गैर मान्यता प्राप्त हैं। उन्होंने इसका सर्वे करवाया। यह सर्वे पूरा हो गया है। मदरसा शिक्षा परिषद चेयरमैन डॉक्टर इफ्तिखार जावेद के मुताबिक उत्तरप्रदेश राज्य भर में करीबन 7500 गैर मान्यता प्राप्त मदरसा हैं। उन्होंने यह बात कही है कि मदरसा का सर्वे केवल डाटा के लिए है। न कोई जांच है और न कोई मदरसा अवैध है।
जबकि सरकार ने जब मदरसा के सर्वे की शुरुआत की थी, तब 11 बिंदु गिनवाए थे। यह 11 बिंदु है - इनमें मदरसे का नाम, मदरसे को संचालित करने वाली संस्था का नाम, मदरसा कब बना था? मदरसे का पता क्या है? मदरसा निजी भवन में चल रहा है या किराए के भवन में? इनके अलावा क्या मदरसे का भवन छात्र-छात्राओं के लिए ठीक-ठाक है या नहीं है? छात्रों को क्या-क्या सुविधाएं मिल रही हैं? मदरसे में पढ़ रहे छात्र- छात्राओं की कुल संख्या। मदरसे में कुल शिक्षकों की संख्या कितनी है ? मदरसे में लागू पाठ्यक्रम ? मतलब किस पाठ्यक्रम के आधार पर बच्चों को शिक्षा दी जा रही है। मदरसे की आय का स्रोत क्या है ? क्या इन मदरसों में पढ़ रहे छात्र-छात्राएं किसी और शिक्षण संस्थान या स्कूल में नामांकित हैं या नहीं ? गैर सरकारी संस्था या समूह से मदरसे की जुड़ाव है या नहीं?
तो चलिए इसी खबर की पृष्ठभूमि पर मदरसा की राजनीति समझते हैं। राजनीति की एक महीन बात यह है कि वैचारिक मकसद हासिल करने के लिए वह गवर्नेस का सहरा लेती है। कहती है कि अगर ऐसा नहीं होगा तो लोककल्याण और सुशासन के लिहाज से दिक्कत आएगी। जैसे जब बंगाल का विभाजन हुआ था तब कहा जाता था कि इस विभाजन का मकसद सुशासन है, जब बंगाल का बंटवारा होगा तो बंगाल का प्रशासन ढंग से किया जा सकेगा। जबकि इसके पीछे की बात हिन्दू-मुस्लिम बंटवारें से जुडी थी। ठीक ऐसे ही भाजपा ने राम के नाम पर बहुत लम्बे समय तक राम जन्म भूमि आंदोलन चलाया मगर पूरी कवायद हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण करके सत्ता तक पहुंचने की थी। इस तरह के अनगिनत उदाहरण मिलेंगे जिनकी बुनियाद में किसी ना किसी तरह की वैचारिक संकीर्णता है मगर नाम लोक कल्याण और प्रशासनिक सुधार का दे दिया गया है।
ठीक इसी बिसात मदरसों की राजनीति की जाती है। कहा जाता है कि मदरसों में आधुनिक शिक्षा नहीं दी जाती है, धार्मिक शिक्षा दी जाती हैं, ऐसी शिक्षा नहीं दी जाती जो नौकरी दिलाने में मदद करें बल्कि ऐसी शिक्षा दी जाती है जो धर्म के प्रति आग्रह पैदा करती है इसलिए ऐसी शिक्षा का कोई मतलब नहीं है। मदरसा का अस्तित्व खत्म हो जाना चाहिए। मगर क्या वाकई यही बात सच है? या सच का महज एक सिरा है जिसे बढ़ा चढ़ा कर पेश किया जाता है।
जानकार कहते हैं कि मदरसा से वैसा भाव पैदा नहीं होता जैसा स्कूल से होता है। स्कूल से लगता है कि ऐसी पढ़ाई लिखाई जो इस जगत से जुड़ी हुई है। इस जगत की व्याख्याओ से जुड़ी हुई है। मगर मदरसा से लगता है कि ऐसी पढ़ाई लिखाई जो इस जगत से परे की बात बताती है। सवाल उठता है कि यह भाव पैदा कहां से हुआ? यह भाव अंग्रेजों के आने के बाद पैदा हुआ।
अंग्रेजों ने भारत में पहले से चली आ रही गुरुकुल और मदरसे की पढ़ाई को आधुनिक शिक्षा के खिलाफ बताया। उन्होंने बताया कि वेदों, पुराण और कुरान में जो बात पढ़ाई जाती है, उसका इस दुनिया के सवालों को हल करने में कोई महत्व नहीं है। यह आधुनिक शिक्षा के खिलाफ है। गुरुओं के द्वारा संस्कृत में और उलेमा और आलिम के जरिए उर्दू और फारसी में दिया जाने वाला ज्ञान उपयोगी नहीं है। यह रूढ़ीपरस्ती सिखाता है और इस दुनिया के सवालों का हल नहीं देता। दुनिया का बाजार जिस शिक्षा की मांग करता है वह शिक्षा मदरसों और संस्कृत विद्यालयों से नहीं मिल सकती।
इसका मतलब यह नहीं है कि मदरसों को लेकर मुस्लिम समाज ने सोचा नहीं। मुस्लिम समाज ने सोचा। इसी का परिणाम अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय था। जब अंग्रेजों ने मदरसों पर सवाल उठाया तो दो तरह के विचार विकसित हुए। पहले वह जो मानते थे कि धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ उपयोगी शिक्षा भी पढ़ाई जानी चाहिए। दूसरे वह जो मानते थे कि धार्मिक शिक्षा से भटकने का मतलब है इस्लाम से भटक जाना। अगर इस्लाम से भटक जाएंगे तो इंसानी जीवन अर्थहीन हो जाएगा। इसी विचार को इस्लाम की देवबंद की शाखा आगे बढ़ाती है। देवबंदी और वहाबी आंदोलन इसी से जुड़ा हुआ है। शुरुआत में तो इस आंदोलन ने कहा कि अगर वह अंग्रेजों द्वारा बताई जा रही शिक्षा को हासिल करेगी तो अंग्रेजो की गुलाम बनेगी। इसलिए इस्लाम की शिक्षा को वह छोड़ नहीं सकती। इसलिए इस खेमे ने शुरू से ही उपयोगी शिक्षा को नकार दिया।
अब सवाल उठता है कि मौजूदा वक्त में मदरसों को किस तरह से देखा जाता है? साल 1990 के बाद दुनिया के प्रभुत्वशाली देशों के बीच यह धारणा बनती चली गई कि दुनिया में हो रहे आतंकवादी गतिविधियों के पीछे देवबंदी और वहाबी मदरसों का भी हाथ है। यहां पर कट्टरता और रूढ़िवादिता सिखाई जाती है। इसका इस्तेमाल इस्लामी आतंकवाद करता है।
मगर इन सबके बीच एक खेमा वह है जो हमेशा से रहा है, और मदरसों का इसलिए वकालत करता है क्योंकि यह अल्पसंख्यकों के धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने का एक अच्छा तरीका है। बिहार बंगाल और उत्तर प्रदेश राज्य में तो राज्य सरकार के कोष पर कई मदरसे चलते हैं। भारत के संविधान का अनुच्छेद 30 भी इसकी वकालत करता है कि अल्पसंख्यक अपने धार्मिक मान्यताओं की रक्षा के लिए शिक्षण संस्थान चला सकते हैं।
जब ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में मदरसों को नहीं देखा जाता तो विरोधभासी स्थिति पैदा होती है। बहुसंख्यकवादी आबादी खेमा कहता है कि मदरसे आधुनिक शिक्षा के खिलाफ हैं। रूढ़िवादिता और कट्टरता पैदा करते हैं। जबकि अल्पसंख्यक अधिकारों को तरजीह देने वाला खेमा कहता है कि अपनी धार्मिक मान्यताओं को अपने समाज में फैलाने का यह एक अच्छा तरीका है। इसमें कोई गलत बात नहीं।
आंकड़ों के हिसाब से देखें तो सच्चर कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि मदरसा में स्कूल जाने वाले मुस्लिम बच्चों में केवल तकरीबन 3% के बच्चे जाते हैं। इन मदरसों में धार्मिक शिक्षा की पढ़ाई होती है साथ ही साथ आधुनिक शिक्षा की भी पढ़ाई होती है। मगर मस्जिद के बगल में जो मकतब बने होते हैं, जहां धार्मिक शिक्षा पर बहुत अधिक जोर दिया जाता है, उसे भी जोड़ दिया जाए तो मुश्किल से 6% के आसपास मुस्लिम बच्चे मदरसा और मकतब में पढ़ने जाते हैं। यह बच्चे होते हैं जो आर्थिक तौर पर बहुत कमजोर होते हैं। मुस्लिमों से सवाल करने पर यह पता चलता है कि वह अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में भेजना चाहते हैं मगर आर्थिक तंगी उन्हें ऐसा करने से रोकती है।
इन्हीं सब के बीच मदरसों की राजनीति फंसी हुई है। देखने वाली बात यह है कि भाजपा आने वाले समय में हिन्दू मुस्लिम विभाजन में इसका आने वाले समय में कितना जोर से इस्तेमाल करती है।
Courtesy: Newsclick