वनाधिकार : बाघ अभयारण्य की आड़ में आदिवासियों को उजाड़ने की साज़िश मंजूर नहीं- कैमूर मुक्ति मोर्चा

Written by Navnish Kumar | Published on: March 30, 2022
‘‘जल-जंगल-जमीन हमारा आपका, नहीं किसी के बाप का’’, ’‘ये धरती सारी हमारी, जंगल-पहाड़ हमारे’’, वन विभाग की जागीर नहीं’’, ‘‘लोकसभा न विधानसभा, सबसे बड़ी ग्रामसभा’’, ‘‘बाघ अभ्यारण्य हटाना है, जल-जंगल जमीन बचाना है’’। ये महज नारे भर नहीं है बल्कि बिहार के कैमूर क्षेत्र के आदिवासियों के अस्तित्व के सवाल है। इन्हीं सवालों को लेकर 26-28 मार्च में कैमूर के हजारों आदिवासियों ने अधौरा से भभुआ ज़िला मुख्यालय तक 3 दिन पैदल मार्च किया और शासन प्रशासन को चेताया कि बाघ अभयारण्य की आड़ में जंगलों से आदिवासियों को उजाड़ने की साज़िश उन्हें मंजूर नहीं हैं। उनके हक-हकूक को ग्राम सभा का निर्णय ही सर्वोपरि होगा। यही नहीं, आंदोलनकारियों ने चेतावनी दी कि अगर अधौरा को बाघ अभ्यारण्य बनाने से नहीं रोका गया तो संघर्ष तेज होगा। कहा वह हर दमन का सामना करने को तैयार हैं लेकिन, वन विभाग के रहमोकरम पर वनवासियों की जिंदगी कटे, यह अब और सहन नहीं कर सकते हैं। 



कैमूर मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में अधौरा से 26 मार्च सुबह 5 बजे पदयात्रा शुरू हुई और ताला, सुअरा नदी के तट, सीवों में पड़ाव डालने के बाद 28 मार्च को भभुआ शहर पहुंची। पदयात्रा की शुरुआत मोर्चा के झंडे के साथ ‘ले मशालें चल पड़े हैं, लोग मेरे गांव के’ गीत से की गई जिससे आदिवासियों के तेवरों को समझा व जाना जा सकता है। जुलूस का नेतृत्व कैमूर मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष बालकेश्वर सिंह खरवार व सचिव राजालाल खरवार ने किया। वह अपने अधिकारों के साथ सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ भी नारे लगा रहे थे। जुलूस में किसान एकता मंच चंदौली के कन्हैया, भगत सिंह छात्र मोर्चा बीएचयू की आकांक्षा, महिलाकश संग्राम समिति झारखंड की सुमित्रा मुर्मू, झारखंड मजदूर संघर्ष समिति अध्यक्ष बच्चा सिंह, अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन की राजकुमारी गोंड, राजा व पंकज आदि शामिल हुए।

कैमूर मुक्ति मोर्चा नेताओं ने बताया कि उनकी प्रमुख मांगों में कैमूर पठार से बाघ अभ्यारण्य को तत्काल खत्म करने, वनाधिकार कानून 2006 को तत्काल प्रभाव से लागू करने, कैमूर पहाड़ का प्रशासनिक पुर्नगठन करते हुए पांचवीं अनुसूची क्षेत्र घोषित करने, छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम को लागू करने, पेसा कानून को तत्काल प्रभाव से लागू करने, बिना ग्रामसभा की अनुमति के गांव के सिवान में घुसना बंद करने, वन विभाग द्वारा आदिवासियों से जंगल में टांगी (कुल्हाड़ी) छीनना बंद करने, खेती की जमीन से लोगों को उजाड़ना और उसमें वृक्ष रोपना बंद करने, हमारे वन उत्पाद पर रोक लगाना बंद करने, जनता पर लादे गए सारे फर्जी मुकदमे वापस लेने व वन विभाग के द्वारा जनता से लकड़ी छीनना बंद करने की मांग शामिल हैं। 

खास है कि कैमूर पठार जंगलों, पहाड़ों, नदियों, घाटियों से घिरा है और अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है। समुद्र तल से लगभग 1800 से 3000 फुट ऊंचाई वाले कैमूर पठार, क्षेत्रफल के हिसाब से बिहार राज्य का सबसे बड़ा जंगली पहाड़ी इलाका है। कैमूर पठार के तहत दो जिले आते हैं, कैमूर और रोहतास। यह आदिवासी बाहुल्य इलाका है। यहां खरवार, उरांव, चेरो, अगरिया, कोरवा आदिवासी समुदाय के लोग ज्यादा संख्या में निवास करते हैं। इसके आलावा यहां गैर परम्परागत वन निवासी(अन्य जाति के लोग) भी रहते हैं। यहां जाकर आदिवासियों की अलग भाषा, संस्कृति, परंपरा से आप रूबरू हो सकते हैं।

कहावत भी है कि जहां आदिवासी हैं वहीं जंगल है या यूं कहें कि जहां जंगल है वहीं आदिवासी हैं। तो इसकी वजह जल-जंगल-जमीन बचाने की जद्दोजहद आदिवासियों की परंपरा और संस्कृति में निहित है। इसलिए आदिवासियों और जंगलों की कल्पना हम एक दूसरे के बिना नहीं कर सकते। भारत या पुरी दुनिया में जहां आदिवासी नहीं हैं या जबरन विस्थापित कर दिये गये वहां आज ज्यादातर जंगल, पहाड़, पशु, पक्षी नहीं बचे हैं। भारत में आजादी से लेकर आज तक कभी बांध के नाम पर तो कभी खान -खदान के नाम पर तो कभी और किसी बहाने से पूंजीपतियों के फायदे के लिए अब तक 3-4 करोड़ आदिवासियों को विस्थापित किया जा चुका है। लेकिन आज सरकार अदिवासियों को कैमूर से ये कहकर हटाना चाहती है कि आदिवासी जंल-जंगल-जमीन और वन्यजीवों के लिए खतरा हैं।

कैमूर मुक्ति मोर्चा अध्यक्ष बालकेश्वर सिंह व सचिव राजालाल खेरवार ने बताया कि कैमूर पहाड़ को 1982 में सरकार ने वन्यजीव अभ्यारण्य घोषित किया था। उस समय यहां छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम लागू था, जिस के अनुसार कोई भी गैर-आदिवासी न तो आदिवासियों की जमीन खरीद सकता है और न बेच सकता है। लेकिन अभ्यारण्य बनाने के बाद से सरकार ने विभिन्न तरह के प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिए। यहां तक कि सरकार ने टेंडर खत्म करके तेंदू पत्ता के व्यापार पर रोक लगा दी और आदिवासियों की आजीविका को भी छीन लिया। वे आगे बताते हैं कि कैमूर वन्यजीव अभ्यारण्य से जनता आक्रांत थी ही, लेकिन अगस्त 2020 में कैमूर बाघ अभ्यारण्य बनाने को सुगबुगाहट शुरू हो गई तो लोगों में रोष फैल गया। 

संसद के मानसून सत्र (सितंबर 2020) में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकार के अध्यक्ष भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूड़ी ने इसका प्रस्ताव रखा। आदिवासियों को पता चला कि 2020 के मानसून सत्र में कैमूर अभ्यारण्य का प्रस्ताव लाया जा सकता है, तो कैमूर मुक्ति मोर्चा ने 10-11 सितम्बर, 2020 को अधौरा बंद का आह्वान करते हुए प्रखंड मुख्यालय पर दो दिन धरना प्रदर्शन किया। हजारों लोग शामिल हुए लेकिन दूसरे दिन यानी 11 सितंबर, को जब कोई पदाधिकारी उनसे मिलने नहीं आया, तो लोगों ने बीडीओ, सीआई, फाॅरेस्टर आदि के दफ्तरों में तालाबंदी कर दी। नतीजा प्रशासन ने उन पर लाठी व गोली चलवाई, जिसमें हमारे 8-10 कार्यकर्ता घायल हो गये और चफना गांव के रहने वाले आदिवासी युवक दीपक अगरिया के बायें कान को छेदते हुए गोली पार कर गई। फाॅरेस्टर ने 32 प्रदर्शनकारियों पर नामजद व 400 अज्ञात पर मुकदमा दर्ज किया था। सभी को 15 से 60 दिनों तक जेल में रहना पड़ा था। अभी 8 मार्च, 2022 को भी कैमूर व रोहतास के डीएफओ ने अधौरा प्रखंड में सभी पंचायत जनप्रतिनिधियों की बैठक की और कैमूर बाघ अभ्यारण्य के प्रति अपनी सहमति देने का दबाव बनाया, लेकिन कोई भी जनप्रतिनिधि अपनी सहमति देने को तैयार नहीं हुआ। 

बिहार के कैमूर व रोहतास जिले के लगभग 1342 वर्ग किमी क्षेत्र को कैमूर बाघ अभ्यारण्य का प्रस्ताव लोकसभा से पास किया गया है। जानकारी के मुताबिक करीब 450 वर्ग किमी क्षेत्र को कोर एरिया व 850 वर्ग किमी क्षेत्र को बफर एरिया बनाने का प्रस्ताव है। कोर एरिया में 52 गांव व कुल मिलाकर 131 गांव के लोग प्रभावित होंगे। इसमें कैमूर जिले के अधौरा, चैनपुर व भगवानपुर प्रखंड एवं रोहतास जिले के रोहतास, नौहट्टा, चेनारी, शिवसागर व तिलौथू प्रखंड के गांव शामिल हैं। करीब 50 हजार परिवारों के प्रभावित होने की आशंका है। 

इन 131 प्रभावित गांवों में आदिवासी समुदाय के खेरवार, चेरो, उरांव, अगरिया, कोरबा, दलित समुदाय के तुरिया, पासवान, हरिजन, मुसहर, रजक व ओबीसी समुदाय के यादव व बनिया जाति के साथ-साथ मुस्लिम आबादी भी है, लेकिन 70 प्रतिशत आबादी सिर्फ खेरवार आदिवासियों की ही है। बाकी 30 प्रतिशत में अन्य आदिवासी समुदाय एवं अन्य जाति के लोग हैं। जंगल के वनोत्पाद से (जैसे महुआ, पियार, जंगी, सूखी लकड़ी, आंवला, तेंदू पत्ता, लासा, पौरेया व विभिन्न तरह की जड़ी-बूटी आदि से ) उनकी आय का 90 प्रतिशत आता है, लेकिन अब वन विभाग सूखी लकड़ी और वनोत्पाद लेने से रोकता है। जंगल में जाने पर कुल्हाड़ी छीन लिया जाता है। महिलाओं के साथ वन विभाग के सिपाही बदतमीजी करते हैं। विरोध पर आदिवासियों पर फर्जी मुकदमे लाद दिए गए लेकिन लोग लड़ रहे हैं। ग्रामीणों का कहना है कि हम किसी कीमत पर अपने घर को बाघ का घर बनने नहीं देंगे, चाहे इसके लिए हमें कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। 

कैमूर बाघ अभ्यारण्य के विरोध में तीन दिवसीय पदयात्रा का समापन करते हुए कैमूर मुक्ति मोर्चा के सचिव राजालाल सिंह खेरवार ने कहा कि बिहार की भाजपा-जद(यू) सरकार आदिवासियों की दुश्मन बन गई है। हम प्रकृति पूजक हैं, प्रकृति के रक्षक हैं। हमें प्रकृति से, जंगल से दुनिया की कोई भी ताकत अलग नहीं कर सकती है। कैमूर पहाड़ की आदिवासी व मूलनिवासी जनता सदियों से लड़ती आयी है और आगे भी लड़ती रहेगी, लेकिन बाघ अभ्यारण्य जैसे आदिवासी विरोधी प्रोजेक्ट को कभी बर्दाश्त नहीं करेगी।

चूंकि जंगल आदिवासियों की जीविका का भी मुख्य स्रोत है। अगर जीविका नहीं रहेगी तो जीव कैसे रहेगा। जंगल के उत्पाद महुआ, पियार, जंगी, लाशा, भेला, लकड़ी व औषधियों को चुनकर ही आदिवासियों का जीवन चलता है। जंगल ही इनकी खेती है। आदिवासियों को जंगल से विस्थापित करना तो दूर अगर केवल उन्हें जंगल में जाने से रोक दिया जाए तो उनका जीवन खत्म हो जायेगा। अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी कहते हैं कि टाईगर रिजर्व तो बहाना है। असल तो जंगलों-पहाड़ों में दबे प्राकृतिक संसाधनों को पूंजीपतियों के हाथों कौड़ियों के भाव बेचना सरकार का लक्ष्य है। तेलंगाना के अमराबाद टाईगर रिजर्व से सरकार ने आदिवासियों को पहले साजिश के तहत हटाया और अब उसे माइनिंग के लिए पूंजीपतियों को सौंप रही है। इसी तरह उत्तराखण्ड़ में हाथी पार्क के नाम पर जल, जंगल जमीन पर कब्जा किया गया और अब वहां पावर प्रोजेक्ट के नाम पर हाथी पार्क को खत्म किया जा रहा है। कई बाघ अभ्यारण्य ऐसे हैं जहां अदिवासियों को हटाने के बाद वहां खनन का काम सरकार द्वारा कराया जा रहा है।

चौधरी कहते हैं कि वनाधिकार कानून 2006 आने के बाद जंगल में ग्राम सभा सर्वोच्च होती है। लेकिन सरकार येन केन प्रकारेण जमीन हड़पना चाहती है। तभी कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए बिना ग्राम सभा की अनुमति के ही टाइगर रिजर्व जैसे प्रोजेक्ट लाए जा रहे हैं जो पूरी तरह असंवैधानिक है। बावजूद इसके, वन विभाग, आदिवासियों को जंगल में खेती करने से रोक रहा है, लोगों के घर गिरा रहा है। लकड़ी आदि लाने से रोक रहा है। उनके परंपरागत हथियार टांगी को भी जंगल में ले जाने पर छीन रहा है। टाईगर रिजर्व हो जाने के बाद तो जंगल में घुसना ही अपराध माना जाएगा। मछली मारने, लकड़ी आदि लाने तक पर वन विभाग केस करने की बात कर रहा है। ऐसे में आदिवासियों व यहां रहने वाले अन्य लोगों का जीवन कैसे चलेगा, यह अपने आप में बड़ा सवाल है जिसका जवाब सरकार को देना होगा।

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