तालीम या पर्दा ?

Written by हसन पाशा | Published on: March 20, 2022
इंडियन एक्सप्रेस के अपने एक लेख में सोशल ऐक्टिविस्ट ज़किया सोमन ने कहा है कि यूनिफॉर्म से ज़्यादा तालीम अहम है. उनकी इस बात को गंभीरता से लिया जाना चाहिए. उनका NGO अखिल भारतीय मुस्लिम महिला सम्मेलन कई सालों से मुस्लिम समाज की वंचित महिलाओं के लिए बड़ी कामयाबी से काम कर रहा है.



ज़किया सोमन के उपरोक्त शब्द कर्नाटक की उन मुस्लिम लड़कियों के लिए हैं जिन्होंने स्कूलों में पर्दे पर पाबंदी और कर्नाटक हाईकोर्ट के इस फ़ैसले के समर्थन में जजमेंट आने के बाद घर में रह कर पढ़ने का निर्णय लिया. बहुत मुमकिन है कि उन पर उनके परिवार के पुरुषों और मज़हबी रहनुमाओं का दबाव हो जिनके लिए औरतों की शिक्षा कई दूसरी बातों के बाद आती है.

उनको एहसास होना चाहिए कि सत्ता की ओर से स्कूलों में पर्दे पर पाबंदी हिन्दुत्ववादी शक्तियों की मुस्लिम विरोधी साज़िश का एक हिस्सा है. बेहतर ज़िंदगी के लिए होने वाली प्रतियोगिताओं से ये शक्तियाँ इन्हें बाहर कर देना चाहती हैं. कोई नेता अगर मुस्लिम सम्प्रदाय को पंक्चर बनाने वाला कहता है तो ये बयान यूँ ही नहीं है बल्कि सोचा-समझा है. सत्ता आपको बस ऐसे ही कामों तक सीमित देखना चाहती है. औरतों का स्कूल छोड़ कर घर बैठ जाने या उन्हें बैठा दिए जाने का फ़ैसला इन मुस्लिम विरोधी शक्तियों के हाथों में खेलना है.

इस फ़ैसले का समर्थन करने वालों के पास क्या ऐसा कोई डेटा या रिकार्ड है जो ये बताता हो कि स्कूल की बजाय घर में पढ़ाई करके कितनी औरतें ऊँचे स्तर की इंजीनियर, टेक्नोक्रेट, डाक्टर, पाइलट, IAS या IPS अफ़सर बनीं? निश्चित रूप से ऐसा कोई रिकार्ड होगा ही नहीं क्योंकि ऐसी चीजें हुई ही नहीं. अगर किसी औरत ने ऐसी उपलब्धि हासिल भी की हो, मान लें, तो इसे सिर्फ़ अपवाद ही कहा जाएगा. या चमत्कार.

एक हिन्दुत्ववादी टीवी चैनल ने कुछ वक़्त पहले मुस्लिम युवकों का IAS और IPS में कामयाब होना एक जिहाद कहा था. लव जिहाद के बाद upsc जिहाद और उसके बाद उनका iim, IIT, aims जैसे ऊँचे स्तर के संस्थानों में दाख़िला पाने में सफ़ल होना भी जिहाद के रूप देखा जाने लगा. उस वख़्त इसे एक fringe element की शरारत के तौर पर लिया गया था.

आरएसएस के एक हालिया बयान ने ग़लतफ़हमी दूर कर दी. इसके मुताबिक़ सरकारी मशीनरी में मुस्लिम युवकों और युवतियों के दाख़िल होने की कोशिश एक साज़िश है जिसे रोकना ज़रूरी है.

समझना मुश्किल नहीं है कि हालात कितने कठिन हैं. लेकिन अगर ज़िंदगी जीने लायक बनाना है तो कठिनाई को जीतना ही पड़ेगा और इसके लिए एक ही तरीक़ा है: अच्छी से अच्छी और ऊँची शिक्षा हासिल करना और इसके ज़रिए बेहतरीन आर्थिक, सामाजिक ,वैज्ञानिक और राजनीतिक शिखर की ओर पहुँचने के लिए संघर्ष करना. मुश्किल बेहद है मगर नामुमकिन नहीं है .
पिछले कुछ सालों में मुस्लिम औरतों में अपने हममज़हब मर्दों के मुक़ाबले शिक्षा के लिए ज़्यादा रुझान आया है. बार बार वो उनसे आगे निकलती नज़र आ रही हैं. इसकी वजह से एक तरफ़ पुरुष सत्ता वादी मुस्लिम समाज में बेचैनी पैदा हो रही है तो दूसरी तरफ़ मुस्लिम विरोधी ताक़तों की भी इस बदलाव पर नज़र है. इस बदलाव को रोकने के लिए पर्दे के रूप में एक औज़ार उनके हाथ आया है. उन्हें लगता है कि इस औज़ार को इस्तेमाल करके मुस्लिम औरतों को वापस चारदीवारियों के अंदर क़ैद किया जा सकता है.

अफ़सोस कि मुस्लिम औरतों और उनके रूढ़िवादी समाज ने इस चाल को नहीं समझा. पर्दे पर पाबंदी को उन्होंने मज़हब से जोड़ लिया. शिक्षा से ज़्यादा उन्हें पर्दा या बुर्क़ा को ज़रूरी समझ लिया. आरएसएस ख़ुश है. आसार बताते हैं कि यह सफ़ल प्रयोग आने वाले दिनों में बहुत सारे स्कूलों और कालेजों में दोहराया जाएगा. जिनकी सत्ता है उन्हीं का सब कुछ है. देश के सारे संस्थान भी.

बहुत बड़ी विडम्बना ये है कि अपने सारे जिस्म को ऊपर से नीचे तक पर्दे या बुर्के से ढँक लेने की इस रवायत का क़ुरान से कोई ताल्लुक़ नहीं है जिसके नाम पर ये किया जा रहा है. अपने समाज पर अपना नियंत्रण रखने के ख़्वाहिशमंद कुछ मौलवी हैं जो आयतों और सूरों की अपने हित के हिसाब से व्याख्या करके औरतों के पर्दे को क़ुरान के मुताबिक़ बताते हैं वरना इस्लाम के जो सीरियस स्कॉलर दुनिया भर में हैं जिन्होंने अपनी सारी ज़िंदगी इस्लाम को समझने में लगाई है वो बताते हैं कि क़ुरान कपड़ों के मामले में सिर्फ़ मॉडरेशन की बात करता है. औरत और मर्द दोनों के लिए कहता है कि अपने आप की नुमाइश मत करो.

अक्सर मौलवी साहबान पर्दे की बात सूरा हिजाब के हवाले से करते हैं. पहली बात तो हिजाब का मतलब चादर या बुर्क़ा नहीं बल्कि खिड़की और दरवाज़े पर लटकाया जाने वाला पर्दा या curtain है. इस सूरे के आने की ख़ास वजह ये है कि अक्सर लोग जो रसूल अल्लाह से मिलने या मशविरा लेने उनके घर आते थे वो घर में लगे पर्दे को पार करके अंदर पहुँच जाते थे जहां रसूल अल्लाह की बीवियां भी होती थीं. ये सूरा उनकी प्राइवेसी की हिफ़ाज़त के लिए आया.

अरब में बेहिसाब गर्मी उस वक़्त भी होती थी, आज भी होती है. तब कूलर या एसी तो होते नहीं थे. घर के अंदर औरत मर्द दोनों ही कमर के ऊपर कभी कभी कुछ नहीं पहनते थे. कभी कभी बेख़याली में बाहर निकल जाते थे. औरत मर्द दोनों ही नित्यकर्म के लिए बाहर झाड़ी या पत्थर के पीछे बैठ जाते थे और उधर से गुज़ारने वालों को नज़र भी आ जाते थे. इसी मसले के तहत क़ुरान में हुक्म हुआ कि अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करो. ये हुक्म सिर्फ़ औरतों के लिए नहीं था. ये तो बाद में चल कर सलाफ़ी मुल्लों और पुरुष सत्तावादियों ने औरतों पर पर्दा इस्लाम के नाम पर लादना शुरू कर दिया.

क़ुरान जो ये कहता है कि इल्म के लिए दूर दूर तक तक जाओ तो ये सिर्फ़ मर्दों के लिए नहीं है.

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