भारत की संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अंबेडकर की आज 130वीं जयंती हैं। इस मौके पर देश उन्हें संविधान निर्माता के तौर पर याद कर रहा है लेकिन डॉ अंबेडकर सिर्फ संविधान निर्माता नहीं थे। नि:संदेह वे ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन थे और विराट बहुमत से चुने गए थे। संविधान में उनके विजन नजरिये का महत्वपूर्ण योगदान है। किन्तु उन्हें यहीं तक सीमित रखना उनके वास्तविक रूप को छुपाने की साजिश का हिस्सा बनना होगा। आज भले गांव गांव डॉ अम्बेडकर के पुतले खड़े कर दिए गए हों जिसमें उनके हाथ में संविधान की किताब पकड़ा दी गई है। वह किताब जिसके बारे में बाद के वर्षों में, खासकर मृत्यु के 3-4 वर्ष पहले से ही उन्होंने काफी कुछ कहना शुरू कर दिया था। असली अंबेडकर जाति व वर्ण आधारित शोषण और गैर बराबरी के सदियों तक शिकार रहे तबकों की मुक्ति की छटपटाहट और उसके लिए किये गए संघर्षों की अनुगूंज थे।
अंबेडकर जाति व्यवस्था का सबसे सुव्यवस्थित अध्ययन करने वाले व्यक्ति हैं। जाति शोषण के अंत व जातियों के विध्वंस की बात करने वाले ‘बाबा साहेब’ हैं। (प्रसंगवश बाबा साहेब का यह संबोधन उन्हें कामरेड आरबी मोरे ने दिया था। कामरेड मोरे कम्युनिस्ट थे, बाद में सीपीएम के नेता व विधायक रहे।) बाबा साहेब का अनोखा योगदान यह है कि उन्होंने जाति और वर्ण के द्वैत की अद्वैतता यानि इनके रूप में अलग अलग होने के साथ, एक-सा होने को समझा और दोनों तरह के शोषण के खिलाफ लड़ाई को ही सामाजिक मुक्ति की गारंटी माना।
डॉ अंबेडकर भारत में आर्थिक और सामाजिक शोषण के शिकार तबकों की वर्गीय बनावट के प्रति सजग थे। तभी 1936 में उन्होंने अपनी इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के घोषणापत्र में भी साफ़ साफ कहा था कि “भारतीय जनता की बेड़ियों को तोड़ने का काम तभी संभव होगा जब आर्थिक और सामाजिक दोनों तरह की असमानता और गुलामी के खिलाफ एक साथ लड़ा जाये।” बाबा साहब ने भारतीय समाज के मामले में वर्ण और वर्ग की पारस्परिक पूरकता (ओवरलेपिंग) को समझा था। इसी आधार पर उन्होंने अपनी सक्रियता के दायरे तय किये। यही वजह है कि महाड़ के सत्याग्रह, चावदार तालाब के पानी की लड़ाई लड़ने के साथ, मनु की किताब जलाने और गांधी जी से तीखी बहस करने के बीच वे ट्रेड यूनियन बनाने और मजदूरों की लड़ाई लड़ने का भी समय निकाल लेते थे।
बाबा साहेब ने जाति का वर्ग ही नहीं, जेंडर भी पहचाना और यही कारण था कि उनका सबसे अधिक योगदान इस देश की महिलाओं के अधिकारों के लिये उनका संघर्ष था। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अपनी थीसिस में उन्होंने लिखा कि “जाति की मुख्य विशेषता जाति के अंदर ही शादी करना है। कोई स्त्री अपनी इच्छा से शादी नहीं कर सकती। इसके लिए प्रेम पर भी रोक लगा दी गयी। बाल विवाह की कुरीति और विधवाओं के साथ सलूक तथा विधवा विवाह पर रोक इसी के लिए हैं।”
जाति शोषण की दीर्घायुता के जेंडर की पहचान उनका एक बड़ा मौलिक काम था। भारत के इस पहले कानून मंत्री ने महिलाओं के हक़ों के प्रति अपने समर्पण की वजह से अपने पद से इस्तीफा दे दिया था जब लोकसभा में हिंदू कोड बिल के खिलाफ तमाम जनसंघी और तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल सहित तथाकथित प्रगतिशील कांग्रेस के नेता भी खड़े हो गये।
भारत में दर्शन और समृद्ध साहित्य की विपुल सम्पदा से इतर ''भारत का संविधान'' कई मामलों में अनोखी किताब है। 5000 वर्ष के इतिहास में संविधान वह पहली किताब है जो हर तरह के श्रेणीक्रम, जाति, वर्ण, लिंग, भाषा, क्षेत्र के आधार पर ऊंच नीच, गैरबराबरी को प्रतिबंधित करती है। उसे दंडनीय अपराध बनाती है। उन असमानताओं को आपराधिक और अमानवीय बताती है जिन्हें कुछ शातिर धूर्तों ने धर्म का बाना पहना दिया था। भगवानों की सील मोहर ठप्पा लगवाकर बाध्यकारी बना दिया था।
यह कोई मामूली काम नहीं था। यह बहुत बड़ा काम था। इसने भारतीय समाज सोये, ठहरे हुए, जड़ संबंधों में जकड़े समाज के रूपान्तरण की सीढ़ियों का सदियों से बंद दरवाजा खोला था। जैसे एक ही बात, महिलाओं को मतदान देने की ले लें। संविधान में यह अधिकार उस समय दिया गया जब अनेक कथित विकसित देशों में भी यह नहीं था। जैसे स्वयं में और समाज में वैज्ञानिक रुझान और चेतना विकसित करने का काम धारा 51 ए (एच) के रूप में नागरिक कर्तव्यों (फंडामेंटल ड्यूटी) में शामिल किया गया। जैसे आमदनियों में 1/10 से अधिक अनुपात न होने, संपत्ति और दौलत का केन्द्रीकरण न होने देने वाली नीतियां बनाने के निर्देश सरकारों पर आयद किये गए। लेकिन आज सब उलटा हो रहा है।
मौजूदा समय विडम्बना का समय है। बिना किसी अतिशयोक्ति के कहा जाए तो देश और समाज एक ऐसे वर्तमान से गुजर रहा है जिसमें प्राचीन और ताजे इतिहास में, अंग्रेजों की गुलामी से आजादी के लिए लड़ते लड़ते जो भी सकारात्मक उपलब्धि हासिल की गयी थी वह दांव पर है। भविष्य में समाज को धकेल कर उसे मध्ययुग में पहुंचाने पर आमादा अन्धकार के पुजारी पूरे उरूज़ पर हैं। संविधान और संसदीय लोकतंत्र निशाने पर है। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा उलटी जा रही है। मनुष्यों के बीच समानता और हर तरह की गैरबराबरी को मिटा देने की संविधान प्रदत्त समझदारी को अपराध यहां तक कि राष्ट्रद्रोह बताया जा रहा है। एक अम्बानी के 90 करोड़, एक अडानी की 112 करोड़ प्रति घंटे कमाई देख स्पष्ट है कि संपत्ति के केन्द्रीकरण की तो कोई सीमा ही नहीं बची। कमाई और लूट समानार्थी शब्द बन गए हैं। लोकतंत्र के चारों खम्भे डगमग कर रहे हैं। न्यायपालिका तक अछूती नहीं रही है।
इधर बाकी सब को अधीनस्थ दास बनाने को ही राज चलाने का सही तरीका मानने वाले चतुर दुनिया के खुदगर्ज बड़े दानवों के मातहत सेवक बनने पर गर्वित और गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। अंधविश्वास के घंटे घड़ियाल खुद संवैधानिक पदों पर बैठे लोग बजा रहे हैं। असहमतियों को कुचल कर, विमर्श को प्रतिबंधित करके आज को घुटन भरा बनाकर आगामी कल को आशंकाओं भरा बना दिया गया है। संविधान के फंडामेंटल राइट्स मूलभूत अधिकार छीने जा रहे हैं।
सवाल ऐसी स्थिति क्यों आईं, पर आने से पहले संविधान को जानना होगा? क्या संविधान सभा की बहसों से संविधान निकला है? नहीं! कोई भी बहस या मंथन या चर्चा शून्य में नहीं होती। वास्तविक परिस्थितियों की बुनियाद पर खड़ी होती है। हर विमर्श की एक निरंतरता होती है। यह किताब 1857 के महाविप्लव से शुरू हुए महामंथन का नतीजा थी जिसे 1919 के जलियांवाला बाग़ से तेज और व्यवस्थित रफ़्तार मिली। क्रांतिकारी और स्वतन्त्रता संग्राम की अनेक धाराएं लड़ती भी थीं, फांसी भी चढ़ती थीं, जेल भी जाती थीं और इसी के साथ बहस भी करती थीं। भगतसिंह की धारा, कांग्रेस में चली बहसें, गांधी, नेहरू, अंबेडकर, पेरियार, कम्युनिस्ट, समाजवादी, मजदूर किसान छात्र व सांस्कृतिक आंदोलन, अनेक जागरण इसी तरह की धाराएं थीं।
सबसे बढ़कर रूस की समाजवादी क्रान्ति से पैदा हुयी चकाचौंध का असर था। इस मंथन के तीन आयाम थे। (एक) गुलाम कैसे बने, (दो) आजाद कैसे होंगे, (तीन) आजादी के बाद ऐसा क्या करेंगे ताकि भविष्य में कभी गुलाम न बनें। मोटे तौर पर भारत का संविधान इस बहस का आम स्वीकार्य सार है।
आज संविधान और उसमें निहित लोकतंत्र सहित बाकी समझदारियों पर जो खतरे मंडरा रहे हैं वे अनायास नहीं हैं। वे अप्रत्याशित भी नहीं हैं। इनके बारे में संविधान निर्माता सजग थे। उन्हें इसकी आशंका थी। खुद डॉ. बीआर अंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में दिए अपने आख़िरी भाषण में कहा था कि “संविधान कितना भी अच्छा बना लें, इसे लागू करने वाले अच्छे नहीं होंगे तो यह भी बुरा साबित हो जाएगा।’”
हालांकि इस बात की संभवत: उन्होंने कल्पना तक नहीं की होगी कि ऐसे भी दिन आएंगे जब संविधान लागू करने का जिम्मा ही उन लोगों के हाथ में चला जाएगा जो मूलत: इस संविधान के ही खिलाफ होंगे। जो सैकड़ों वर्षों के सुधार आंदोलनों और जागरणों की उपलब्धि में हासिल सामाजिक चेतना को दफनाकर उस पर मनुस्मृति की प्राण प्रतिष्ठा के लिए कमर कसे होंगे। मगर आज स्थिति यही है। वह आरएसएस जिसने संविधान बनाने का ही विरोध किया। खुलकर कहा कि मनुस्मृति ही भारत का संविधान है, वह सत्ता में बैठा है और उसी मनुस्मृति के अनुरूप देश चलाने, प्रशासन को ढालने, समाज मरोड़ने की कोशिश में है। अभी औपचारिक रूप से संविधान को बनाये रखते हुए, इसके बाद संविधान को ही बदलने की तरफ बढ़ते हुए। आज के दौर का सबसे बड़ा संकट यह है।
इसी भाषण में बाबा साहब ने कहा था कि “अपनी शक्तियां किसी व्यक्ति भले वह कितना ही महान क्यों न हो, के चरणों में रख देना या उसे इतनी ताकत दे देना कि वह संविधान को ही पलट दे, संविधान और लोकतंत्र’ के लिए खतरनाक स्थिति है। इसे और साफ़ करते हुए उन्होंने कहा था कि ‘’राजनीति में भक्ति या व्यक्ति पूजा संविधान के पतन और नतीजे में तानाशाही का सुनिश्चित रास्ता है।’’ 1975 से 77 के बीच आतंरिक आपातकाल भुगत चुका देश पिछले छह वर्षों से जिस भक्त-काल और एकल पदपादशाही को अपनी नंगी आँखों से देख रहा है उसे इसकी और अधिक व्याख्या की जरूरत नहीं है। यह बर्बर तानाशाही का रास्ता है जो संविधान ही नहीं, मनुष्यता के निषेध का रास्ता है।
सवाल सिर्फ इतना भर नहीं है कि अंग्रेजों के भेदियों और बर्बरता के भेड़ियों के साथ सहअस्तित्व करते करते ये हम कहां आ गए हैं? सवाल इससे आगे का क्यों और कैसे आ गये, का भी है। इसके रूपों को अंबेडकर की ऊपर लिखी चेतावनी व्यक्त करती है तो इसके सार की व्याख्या उन्होंने इसी भाषण में दी अपनी तीसरी और बुनियादी चेतावनी में की थी। उन्होंने कहा था कि; ‘’हमने राजनीतिक लोकतंत्र तो कायम कर लिया मगर हमारा समाज लोकतांत्रिक नहीं है। भारतीय सामाजिक ढाँचे में दो बातें अनुपस्थित हैं, एक स्वतन्त्रता (लिबर्टी), दूसरी भाईचारा-बहनापा (फेटर्निटी)’। उन्होंने चेताया था कि ‘यदि यथाशीघ्र सामाजिक लोकतंत्र कायम नहीं हुआ तो राजनीतिक लोकतंत्र भी सलामत नहीं रहेगा।’’
मनु दोबारा लौट रहे हैं यह झूठी बात है। सच्ची बात यह है कि यह बंदा कभी कहीं गया ही नहीं था। कभी भेष बदलकर तो अक्सर बिना भेष बदले ही घूम रहा था यत्र तत्र सर्वत्र। समाज, संस्थाओं, भाषा, बर्ताव यहां तक कि हमारे घर, परिवार, संगठन, आंदोलन तक में बैठा रहा धूनी रमाकर, अपने पाँव छुआता हुआ, ढोक लगवाता हुआ। कभी कथित रीति रिवाजों परम्पराओं की चादर ओढ़ कर तो कभी पर्वों, उत्सवों, त्यौहारों के दुशाले लपेटकर। अक्सर देश के नेताओं और प्रमुख व्यक्तियों को अपने आगोश में चपेटकर।
जाहिर सी बात है यदि एक जगह अन्धेरा पाल पोस कर रखा जाए तो दुनिया में कहीं भी रोशनी सलामत और निरापद नहीं है। सरल सी बात है कि यदि समाज लोकतांत्रिक नहीं है तो राजनीति और प्रशासनिक व्यवस्था कैसे लोकतांत्रिक बनी रह पाएगी। और इससे आगे की थोड़ी सी कर्कश लगने वाली बात यह है कि यदि परिवार लोकतांत्रिक नहीं है तो भला समाज कैसे लोकतांत्रिक बनेगा।
इसलिए बिलाशक भारत को उसके संविधान और लोकतंत्र पर झपट रही भेड़ियों की फ़ौज से लड़ना होगा। समानता की धारणा संविधान सम्मत समझ की तरफ लपक रही लपटों को बुझाने के लिए राजनीतिक मोर्चे पर लड़ना होगा। इसी के साथ, इसके बाद नहीं, इसी के साथ लड़ना होगा इस भारत विरोधी हिंदुत्व के पालनहार कारपोरेट से। वैसे ही जैसे 3 कृषि कानूनों के खिलाफ किसान और 4 लेबर कोड के खिलाफ मजदूर डटे हैं।
मगर सबसे अहम इसी के साथ-साथ मनु को देश निकाला देने के लिए विशेष जिद के साथ लड़ना होगा। यह लड़ाई बाद में फुर्सत से, अलग से नहीं लड़ी जाएगी। एक साथ लड़ी जायेगी। और यह भी कि यह लड़ाई समाज में ही नहीं लड़ी जाएगी। यह घर, परिवार और अपने खुद के भीतर भी लड़ी जाएगी। आज यदि बाबा साहब होते तो उनके मिशन का भी यही अर्थ होता। इसलिए इसे लड़ना और जीतना होगा। साथ-साथ। क्या ऐसा होगा? होगा क्योंकि इतिहास हादसों के नहीं निर्माणों के होते हैं।
(नोट- यह लेख बादल सरोज के ''बाबा साहब, भारतीय संविधान और मौजूदा खतरे'' पर आधारित है।)
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सबरीमाला में महिलाओं का प्रवेश और समानता का अधिकार
डॉ. अंबेडकर एवं कार्ल मार्क्स - वर्ण बनाम वर्ग
अंबेडकर जाति व्यवस्था का सबसे सुव्यवस्थित अध्ययन करने वाले व्यक्ति हैं। जाति शोषण के अंत व जातियों के विध्वंस की बात करने वाले ‘बाबा साहेब’ हैं। (प्रसंगवश बाबा साहेब का यह संबोधन उन्हें कामरेड आरबी मोरे ने दिया था। कामरेड मोरे कम्युनिस्ट थे, बाद में सीपीएम के नेता व विधायक रहे।) बाबा साहेब का अनोखा योगदान यह है कि उन्होंने जाति और वर्ण के द्वैत की अद्वैतता यानि इनके रूप में अलग अलग होने के साथ, एक-सा होने को समझा और दोनों तरह के शोषण के खिलाफ लड़ाई को ही सामाजिक मुक्ति की गारंटी माना।
डॉ अंबेडकर भारत में आर्थिक और सामाजिक शोषण के शिकार तबकों की वर्गीय बनावट के प्रति सजग थे। तभी 1936 में उन्होंने अपनी इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के घोषणापत्र में भी साफ़ साफ कहा था कि “भारतीय जनता की बेड़ियों को तोड़ने का काम तभी संभव होगा जब आर्थिक और सामाजिक दोनों तरह की असमानता और गुलामी के खिलाफ एक साथ लड़ा जाये।” बाबा साहब ने भारतीय समाज के मामले में वर्ण और वर्ग की पारस्परिक पूरकता (ओवरलेपिंग) को समझा था। इसी आधार पर उन्होंने अपनी सक्रियता के दायरे तय किये। यही वजह है कि महाड़ के सत्याग्रह, चावदार तालाब के पानी की लड़ाई लड़ने के साथ, मनु की किताब जलाने और गांधी जी से तीखी बहस करने के बीच वे ट्रेड यूनियन बनाने और मजदूरों की लड़ाई लड़ने का भी समय निकाल लेते थे।
बाबा साहेब ने जाति का वर्ग ही नहीं, जेंडर भी पहचाना और यही कारण था कि उनका सबसे अधिक योगदान इस देश की महिलाओं के अधिकारों के लिये उनका संघर्ष था। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अपनी थीसिस में उन्होंने लिखा कि “जाति की मुख्य विशेषता जाति के अंदर ही शादी करना है। कोई स्त्री अपनी इच्छा से शादी नहीं कर सकती। इसके लिए प्रेम पर भी रोक लगा दी गयी। बाल विवाह की कुरीति और विधवाओं के साथ सलूक तथा विधवा विवाह पर रोक इसी के लिए हैं।”
जाति शोषण की दीर्घायुता के जेंडर की पहचान उनका एक बड़ा मौलिक काम था। भारत के इस पहले कानून मंत्री ने महिलाओं के हक़ों के प्रति अपने समर्पण की वजह से अपने पद से इस्तीफा दे दिया था जब लोकसभा में हिंदू कोड बिल के खिलाफ तमाम जनसंघी और तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल सहित तथाकथित प्रगतिशील कांग्रेस के नेता भी खड़े हो गये।
भारत में दर्शन और समृद्ध साहित्य की विपुल सम्पदा से इतर ''भारत का संविधान'' कई मामलों में अनोखी किताब है। 5000 वर्ष के इतिहास में संविधान वह पहली किताब है जो हर तरह के श्रेणीक्रम, जाति, वर्ण, लिंग, भाषा, क्षेत्र के आधार पर ऊंच नीच, गैरबराबरी को प्रतिबंधित करती है। उसे दंडनीय अपराध बनाती है। उन असमानताओं को आपराधिक और अमानवीय बताती है जिन्हें कुछ शातिर धूर्तों ने धर्म का बाना पहना दिया था। भगवानों की सील मोहर ठप्पा लगवाकर बाध्यकारी बना दिया था।
यह कोई मामूली काम नहीं था। यह बहुत बड़ा काम था। इसने भारतीय समाज सोये, ठहरे हुए, जड़ संबंधों में जकड़े समाज के रूपान्तरण की सीढ़ियों का सदियों से बंद दरवाजा खोला था। जैसे एक ही बात, महिलाओं को मतदान देने की ले लें। संविधान में यह अधिकार उस समय दिया गया जब अनेक कथित विकसित देशों में भी यह नहीं था। जैसे स्वयं में और समाज में वैज्ञानिक रुझान और चेतना विकसित करने का काम धारा 51 ए (एच) के रूप में नागरिक कर्तव्यों (फंडामेंटल ड्यूटी) में शामिल किया गया। जैसे आमदनियों में 1/10 से अधिक अनुपात न होने, संपत्ति और दौलत का केन्द्रीकरण न होने देने वाली नीतियां बनाने के निर्देश सरकारों पर आयद किये गए। लेकिन आज सब उलटा हो रहा है।
मौजूदा समय विडम्बना का समय है। बिना किसी अतिशयोक्ति के कहा जाए तो देश और समाज एक ऐसे वर्तमान से गुजर रहा है जिसमें प्राचीन और ताजे इतिहास में, अंग्रेजों की गुलामी से आजादी के लिए लड़ते लड़ते जो भी सकारात्मक उपलब्धि हासिल की गयी थी वह दांव पर है। भविष्य में समाज को धकेल कर उसे मध्ययुग में पहुंचाने पर आमादा अन्धकार के पुजारी पूरे उरूज़ पर हैं। संविधान और संसदीय लोकतंत्र निशाने पर है। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा उलटी जा रही है। मनुष्यों के बीच समानता और हर तरह की गैरबराबरी को मिटा देने की संविधान प्रदत्त समझदारी को अपराध यहां तक कि राष्ट्रद्रोह बताया जा रहा है। एक अम्बानी के 90 करोड़, एक अडानी की 112 करोड़ प्रति घंटे कमाई देख स्पष्ट है कि संपत्ति के केन्द्रीकरण की तो कोई सीमा ही नहीं बची। कमाई और लूट समानार्थी शब्द बन गए हैं। लोकतंत्र के चारों खम्भे डगमग कर रहे हैं। न्यायपालिका तक अछूती नहीं रही है।
इधर बाकी सब को अधीनस्थ दास बनाने को ही राज चलाने का सही तरीका मानने वाले चतुर दुनिया के खुदगर्ज बड़े दानवों के मातहत सेवक बनने पर गर्वित और गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। अंधविश्वास के घंटे घड़ियाल खुद संवैधानिक पदों पर बैठे लोग बजा रहे हैं। असहमतियों को कुचल कर, विमर्श को प्रतिबंधित करके आज को घुटन भरा बनाकर आगामी कल को आशंकाओं भरा बना दिया गया है। संविधान के फंडामेंटल राइट्स मूलभूत अधिकार छीने जा रहे हैं।
सवाल ऐसी स्थिति क्यों आईं, पर आने से पहले संविधान को जानना होगा? क्या संविधान सभा की बहसों से संविधान निकला है? नहीं! कोई भी बहस या मंथन या चर्चा शून्य में नहीं होती। वास्तविक परिस्थितियों की बुनियाद पर खड़ी होती है। हर विमर्श की एक निरंतरता होती है। यह किताब 1857 के महाविप्लव से शुरू हुए महामंथन का नतीजा थी जिसे 1919 के जलियांवाला बाग़ से तेज और व्यवस्थित रफ़्तार मिली। क्रांतिकारी और स्वतन्त्रता संग्राम की अनेक धाराएं लड़ती भी थीं, फांसी भी चढ़ती थीं, जेल भी जाती थीं और इसी के साथ बहस भी करती थीं। भगतसिंह की धारा, कांग्रेस में चली बहसें, गांधी, नेहरू, अंबेडकर, पेरियार, कम्युनिस्ट, समाजवादी, मजदूर किसान छात्र व सांस्कृतिक आंदोलन, अनेक जागरण इसी तरह की धाराएं थीं।
सबसे बढ़कर रूस की समाजवादी क्रान्ति से पैदा हुयी चकाचौंध का असर था। इस मंथन के तीन आयाम थे। (एक) गुलाम कैसे बने, (दो) आजाद कैसे होंगे, (तीन) आजादी के बाद ऐसा क्या करेंगे ताकि भविष्य में कभी गुलाम न बनें। मोटे तौर पर भारत का संविधान इस बहस का आम स्वीकार्य सार है।
आज संविधान और उसमें निहित लोकतंत्र सहित बाकी समझदारियों पर जो खतरे मंडरा रहे हैं वे अनायास नहीं हैं। वे अप्रत्याशित भी नहीं हैं। इनके बारे में संविधान निर्माता सजग थे। उन्हें इसकी आशंका थी। खुद डॉ. बीआर अंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में दिए अपने आख़िरी भाषण में कहा था कि “संविधान कितना भी अच्छा बना लें, इसे लागू करने वाले अच्छे नहीं होंगे तो यह भी बुरा साबित हो जाएगा।’”
हालांकि इस बात की संभवत: उन्होंने कल्पना तक नहीं की होगी कि ऐसे भी दिन आएंगे जब संविधान लागू करने का जिम्मा ही उन लोगों के हाथ में चला जाएगा जो मूलत: इस संविधान के ही खिलाफ होंगे। जो सैकड़ों वर्षों के सुधार आंदोलनों और जागरणों की उपलब्धि में हासिल सामाजिक चेतना को दफनाकर उस पर मनुस्मृति की प्राण प्रतिष्ठा के लिए कमर कसे होंगे। मगर आज स्थिति यही है। वह आरएसएस जिसने संविधान बनाने का ही विरोध किया। खुलकर कहा कि मनुस्मृति ही भारत का संविधान है, वह सत्ता में बैठा है और उसी मनुस्मृति के अनुरूप देश चलाने, प्रशासन को ढालने, समाज मरोड़ने की कोशिश में है। अभी औपचारिक रूप से संविधान को बनाये रखते हुए, इसके बाद संविधान को ही बदलने की तरफ बढ़ते हुए। आज के दौर का सबसे बड़ा संकट यह है।
इसी भाषण में बाबा साहब ने कहा था कि “अपनी शक्तियां किसी व्यक्ति भले वह कितना ही महान क्यों न हो, के चरणों में रख देना या उसे इतनी ताकत दे देना कि वह संविधान को ही पलट दे, संविधान और लोकतंत्र’ के लिए खतरनाक स्थिति है। इसे और साफ़ करते हुए उन्होंने कहा था कि ‘’राजनीति में भक्ति या व्यक्ति पूजा संविधान के पतन और नतीजे में तानाशाही का सुनिश्चित रास्ता है।’’ 1975 से 77 के बीच आतंरिक आपातकाल भुगत चुका देश पिछले छह वर्षों से जिस भक्त-काल और एकल पदपादशाही को अपनी नंगी आँखों से देख रहा है उसे इसकी और अधिक व्याख्या की जरूरत नहीं है। यह बर्बर तानाशाही का रास्ता है जो संविधान ही नहीं, मनुष्यता के निषेध का रास्ता है।
सवाल सिर्फ इतना भर नहीं है कि अंग्रेजों के भेदियों और बर्बरता के भेड़ियों के साथ सहअस्तित्व करते करते ये हम कहां आ गए हैं? सवाल इससे आगे का क्यों और कैसे आ गये, का भी है। इसके रूपों को अंबेडकर की ऊपर लिखी चेतावनी व्यक्त करती है तो इसके सार की व्याख्या उन्होंने इसी भाषण में दी अपनी तीसरी और बुनियादी चेतावनी में की थी। उन्होंने कहा था कि; ‘’हमने राजनीतिक लोकतंत्र तो कायम कर लिया मगर हमारा समाज लोकतांत्रिक नहीं है। भारतीय सामाजिक ढाँचे में दो बातें अनुपस्थित हैं, एक स्वतन्त्रता (लिबर्टी), दूसरी भाईचारा-बहनापा (फेटर्निटी)’। उन्होंने चेताया था कि ‘यदि यथाशीघ्र सामाजिक लोकतंत्र कायम नहीं हुआ तो राजनीतिक लोकतंत्र भी सलामत नहीं रहेगा।’’
मनु दोबारा लौट रहे हैं यह झूठी बात है। सच्ची बात यह है कि यह बंदा कभी कहीं गया ही नहीं था। कभी भेष बदलकर तो अक्सर बिना भेष बदले ही घूम रहा था यत्र तत्र सर्वत्र। समाज, संस्थाओं, भाषा, बर्ताव यहां तक कि हमारे घर, परिवार, संगठन, आंदोलन तक में बैठा रहा धूनी रमाकर, अपने पाँव छुआता हुआ, ढोक लगवाता हुआ। कभी कथित रीति रिवाजों परम्पराओं की चादर ओढ़ कर तो कभी पर्वों, उत्सवों, त्यौहारों के दुशाले लपेटकर। अक्सर देश के नेताओं और प्रमुख व्यक्तियों को अपने आगोश में चपेटकर।
जाहिर सी बात है यदि एक जगह अन्धेरा पाल पोस कर रखा जाए तो दुनिया में कहीं भी रोशनी सलामत और निरापद नहीं है। सरल सी बात है कि यदि समाज लोकतांत्रिक नहीं है तो राजनीति और प्रशासनिक व्यवस्था कैसे लोकतांत्रिक बनी रह पाएगी। और इससे आगे की थोड़ी सी कर्कश लगने वाली बात यह है कि यदि परिवार लोकतांत्रिक नहीं है तो भला समाज कैसे लोकतांत्रिक बनेगा।
इसलिए बिलाशक भारत को उसके संविधान और लोकतंत्र पर झपट रही भेड़ियों की फ़ौज से लड़ना होगा। समानता की धारणा संविधान सम्मत समझ की तरफ लपक रही लपटों को बुझाने के लिए राजनीतिक मोर्चे पर लड़ना होगा। इसी के साथ, इसके बाद नहीं, इसी के साथ लड़ना होगा इस भारत विरोधी हिंदुत्व के पालनहार कारपोरेट से। वैसे ही जैसे 3 कृषि कानूनों के खिलाफ किसान और 4 लेबर कोड के खिलाफ मजदूर डटे हैं।
मगर सबसे अहम इसी के साथ-साथ मनु को देश निकाला देने के लिए विशेष जिद के साथ लड़ना होगा। यह लड़ाई बाद में फुर्सत से, अलग से नहीं लड़ी जाएगी। एक साथ लड़ी जायेगी। और यह भी कि यह लड़ाई समाज में ही नहीं लड़ी जाएगी। यह घर, परिवार और अपने खुद के भीतर भी लड़ी जाएगी। आज यदि बाबा साहब होते तो उनके मिशन का भी यही अर्थ होता। इसलिए इसे लड़ना और जीतना होगा। साथ-साथ। क्या ऐसा होगा? होगा क्योंकि इतिहास हादसों के नहीं निर्माणों के होते हैं।
(नोट- यह लेख बादल सरोज के ''बाबा साहब, भारतीय संविधान और मौजूदा खतरे'' पर आधारित है।)
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डॉ. अंबेडकर एवं कार्ल मार्क्स - वर्ण बनाम वर्ग