म्यांमार में स्वतंत्रता बाद के अधिकतर सालों में लोकतंत्र के बजाय तानाशाही सैन्य शासन ही रहा है. इस देश में लोकतंत्र की सबसे बड़ी उम्मीद बन चुकीं आंग सान सू की को एक बार फिर से सत्ता से बेदख़ल कर दिया गया है और सत्ता पर सेना ने कब्ज़ा कर लिया है. दशकों के संघर्ष के बाद म्यांमार में लोकतंत्र बहाली का आन सान सू की का प्रयास सफल हुआ था और लोकतंत्र पसंद लोगों में इस देश के हालात सुधर जाने की एक उम्मीद जगी थी. 5 दशक के सैन्य शासन के बाद 2016 में म्यांमार में लोकतंत्र बहाल हुआ था. उस समय म्यांमार के सांसदों द्वारा आन सान सू की के क़रीबी “तिन क्यां” को देश का पहला असैन्य राष्ट्रपति चुना गया.
म्यांमार में चुनावी प्रक्रिया शुरू जरुर हुई थी लेकिन उस समय भी सत्ता के दोनों सदनों में सेना ने मजबूत पकड़ बना रखी थी. वर्तमान में लोकतंत्र बहाली के लिए और सैन्य प्रशासन के ख़िलाफ़ जारी विरोध प्रदर्शनों में अब तक 400 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है. म्यांमार में रोहिंग्या मामले को लेकर आंग सान सू की का कार्यकाल भी आलोचनाओं से भरा रहा है. फ़रवरी 2021 में म्यांमार में एक बार फिर सैन्य तख्तापलट की घटना सामने आई जिस पर अमेरिका, ब्रिटेन, संयुक्त राष्ट्र समेत दुनिया के कई देशों नें सेना के कार्यवाही की निंदा करते हुए प्रतिक्रिया दी. सैन्य कार्यवाही के बाद पुरे देश में लोग सड़कों पर उतरकर सेना के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं.
म्यांमार की शक्तिशाली सेना का इतिहास
म्यांमार में सेना एक शक्तिशाली संस्थान है. यह भी अन्य दक्षिण एशियाई देशों की तरह अंग्रेजों का उपनिवेश था. साल 1937 से पहले औपनिवेशिक सत्ता ने इस देश को भारत का ही एक राज्य घोषित कर रखा था. बाद में यह देश एक स्वतंत्र उपनिवेश बना. 1980 से पहले इसका नाम वर्मा था जो 4 जनवरी 1948 को ब्रिटिश शासन से मुक्त हुआ. 1962 तक वर्मा में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के तहत सरकारें चुनी जाती रही हैं मगर 2 मार्च 1962 को सेना के तत्कालीन जनरल ने चुनी हुई सरकार का तख्ता पलट कर सैन्य शासन की शुरुआत की. उस समय वहां तत्कालीन संविधान को निलंबित कर नया संविधान लाया गया. म्यांमार में सैन्य शासन को “मिलिट्री जुंटा” के नाम से जाना जाता है. सैनिक शासन के दौरान देश भर में मानवाधिकार उलंघन व जनता में असंतोष के भी मामले सामने आते रहे. फ़िर आखिरकार लम्बे संघर्ष और राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बाद म्यांमार में लोकतंत्र बहाल हुआ जिसका श्रेय तीन दशकों से संघर्षरत उस समय की नेता आंग सांग सू की को जाता है.
5 दशक के सैन्य शासन के बाद 2015 में यहाँ चुनाव हुए जिसमें आन सान सू ची की पार्टी ने 80 फ़ीसदी से अधिक वोट हासिल किए. म्यांमार के संविधान के अनुसार, जिसे 2008 में सेना के शासकों ने बदल दिया था के मुताबिक़ ‘आन सान सू की’ की पार्टी सभी सीटें हासिल नहीं कर सकती थी. वे तीन अहम् मंत्रालय गृह, सीमा और रक्षा मंत्रालय भी अपने पास नहीं रख सकते थे. इस देश की जनता बदलाव जरुर चाहती है लेकिन आन सान सू ची के कार्यकाल से भी जनता में असंतोष व्याप्त रहा है. 10 लाख़ रोहिंग्या मुसलामानों के विस्थापन और उनके साथ हुए अत्याचार को लेकर विश्व स्तर पर आन सान सू की की निंदा हुई. हालांकि सैन्य शासन के बाद वह बदलाव के नए युग की शुरुआत जरुर थी. 2016 में म्यांमार में फ़िर से लोकतंत्र बहाल हुआ था जो वर्तमान में सैन्य तख्ता पलट से ख़त्म हो गया. ये हालात म्यांमार के पड़ोसी देशों सहित दुनिया भर के देशों की चिंताएं बढ़ा रहे हैं.
म्यांमार की अर्थव्यवस्था में सेना का दख़ल
म्यांमार की भौगोलिक स्थिति व यहाँ पाए जाने वाली संपदाएं इस देश को अंतर-राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक रूप से अवसरों के केंद्र में रखती हैं. म्यांमार के पश्चिम में बंगाल की खाड़ी है जो भारत को जोड़ता है और पूर्व में यह चीन से जुड़ा हुआ है. इस देश में प्राकृतिक संसाधनों का भरमार है. यहाँ के लोग भी दक्षिण एशिया के अन्य देशों की तरह मेहनती व कारोबार में दिलचस्पी रखने वाले हैं. यहाँ इस देश की ज़रूरतों के अनुसार तेल के पर्याप्त भंडार हैं. म्यांमार की अर्थव्यवस्था सहित देश के अन्य संस्थानों पर सेना की मजबूत पकड़ है. म्यांमार में आर्थिक स्थिरता और विकास का रास्ता लोकतंत्र की मजबूती से जुड़ा है जो सेना की कार्यवाहियों से समय-समय पर बाधित होता रहा है. म्यांमार की अर्थव्यवस्था के सुधार और विकास में चीन की दिलचस्पी और भागीदारी वर्षों से रही है. चीन की साझेदारी आधारभूत ढांचे से जुड़ी म्यांमार की हर परियोजनाओं में होता है. सेना समर्थित पूंजीपति वर्ग का बोलबाला म्यांमार की अर्थव्यवस्था में रहा है.
भारत पर असर
म्यांमार में हुए सैन्य तख्तापलट को लेकर वर्तमान भारतीय सरकार असमंजस में है. सेना द्वारा लोकतान्त्रिक सरकार को हटा कर सत्ता का हस्तांतरण सैनिकों के हाथों में करने को लेकर चिंतित होना लाज़िमी है. इतिहास गवाह है सैनिक कानून का शासन व लोकतंत्र को भंग कर तानाशाही का म्यांमार में होना मानवता के हित में नहीं है. भारत का वर्षों से मानना रहा है कि लोकतंत्र समर्थक शक्तियों को अलोकतांत्रिक तरीके से दबाया व कुचला नहीं जाना चाहिए हालाँकि सैन्य तख्तापलट के बाद म्यांमार में सेना द्वारा आयोजित कार्यक्रम में भारत के प्रतिनिधि की उपस्थिति कई सवाल खड़ा करता है. म्यांमार की लम्बी सीमा रेखा भारत की सीमा से लगती है. इन क्षत्रों से विद्रोही गतिविधियाँ अक्सर सामने आती रही है.
2017 में आन सान सू की समर्थित सेना द्वारा म्यांमार के रखाइन प्रान्त में रोहिंग्या मुसलामानों के साथ जातीय हिंसा तेज हो गयी थी और लाखों रोहिंग्या मुसलमान को देश से बाहर जाना पड़ा. आज भी 10 लाख से अधिक रोहिंग्या अपने परिवार सहित अलग-अलग देशों में रहने को मजबूर हैं. भारत में भी हजारों रोहिंग्या मुसलमान तंग हालत में भारत की राजधानी दिल्ली में रह रहे हैं जिसे म्यांमार वापस भेजने को लेकर संयुक्त राष्ट्र की मुहिम चलायी जाने की बात थी. इस सैन्य तख्तापलट की वजह से यह परियोजना भी खटाई में पड़ गयी है और रोहिंग्या मुसलमान बदहाली का जीवन जीने को मजबूर हैं.
फ़िलहाल साल 2021 म्यांमार के लिए हितकारी सिद्ध नहीं हुआ है. इसमें भी दो राय नहीं है कि इस बार म्यांमार में लोकतंत्र बहाली को लेकर पूरी दुनिया चिंतित है. म्यांमार में महीनों से चल रहे प्रदर्शन यह बता रहे हैं कि वहां की जनता किसी भी सूरत में अब सैन्यशासन को मानने के लिए तैयार नहीं है. सफ़ल लोकतंत्र वहीं माना जाता है जहाँ अल्पसंख्यक समाज के लोग भी सुरक्षा, सुकून, समानता और स्वतंत्रता के साथ जीवन यापन कर सकें और इस तरह के हालात को पैदा करने में म्यांमार की नेता आन सान सू की भी असफ़ल रहीं.
अब सत्ता की क्रूरता के ख़िलाफ़ विरोध का ज़ज्बा और लोगों का हौसला जगजाहिर है. म्यांमार की तानाशाही सरकार के लिए लोकतंत्र, मानवाधिकार, सहमति, विकास, स्वतंत्रता व् समानता जैसे शब्द बेमानी हैं इतिहास गवाह है कि जब स्टूडेंट और देश के आम नागरिक सत्ता के ख़िलाफ़ उठ खड़े होते हैं तो मजबूत तानशाह को भी उखाड़ फेकते हैं.
ऐसे वक्त में जब दुनिया में तानाशाही सोच का विस्तार हो रहा है, विश्व के सभी लोकतान्त्रिक देशों को मिलकर म्यांमार में नए तरीके से लोकतंत्र बहाल करने के लिए एकजुटता दिखानी चाहिए. इसमें भारत की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है. इसमें ही भारत, म्यांमार सहिंत दुनिया के अन्य देशों का हित निहित है.
म्यांमार में चुनावी प्रक्रिया शुरू जरुर हुई थी लेकिन उस समय भी सत्ता के दोनों सदनों में सेना ने मजबूत पकड़ बना रखी थी. वर्तमान में लोकतंत्र बहाली के लिए और सैन्य प्रशासन के ख़िलाफ़ जारी विरोध प्रदर्शनों में अब तक 400 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है. म्यांमार में रोहिंग्या मामले को लेकर आंग सान सू की का कार्यकाल भी आलोचनाओं से भरा रहा है. फ़रवरी 2021 में म्यांमार में एक बार फिर सैन्य तख्तापलट की घटना सामने आई जिस पर अमेरिका, ब्रिटेन, संयुक्त राष्ट्र समेत दुनिया के कई देशों नें सेना के कार्यवाही की निंदा करते हुए प्रतिक्रिया दी. सैन्य कार्यवाही के बाद पुरे देश में लोग सड़कों पर उतरकर सेना के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं.
म्यांमार की शक्तिशाली सेना का इतिहास
म्यांमार में सेना एक शक्तिशाली संस्थान है. यह भी अन्य दक्षिण एशियाई देशों की तरह अंग्रेजों का उपनिवेश था. साल 1937 से पहले औपनिवेशिक सत्ता ने इस देश को भारत का ही एक राज्य घोषित कर रखा था. बाद में यह देश एक स्वतंत्र उपनिवेश बना. 1980 से पहले इसका नाम वर्मा था जो 4 जनवरी 1948 को ब्रिटिश शासन से मुक्त हुआ. 1962 तक वर्मा में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के तहत सरकारें चुनी जाती रही हैं मगर 2 मार्च 1962 को सेना के तत्कालीन जनरल ने चुनी हुई सरकार का तख्ता पलट कर सैन्य शासन की शुरुआत की. उस समय वहां तत्कालीन संविधान को निलंबित कर नया संविधान लाया गया. म्यांमार में सैन्य शासन को “मिलिट्री जुंटा” के नाम से जाना जाता है. सैनिक शासन के दौरान देश भर में मानवाधिकार उलंघन व जनता में असंतोष के भी मामले सामने आते रहे. फ़िर आखिरकार लम्बे संघर्ष और राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बाद म्यांमार में लोकतंत्र बहाल हुआ जिसका श्रेय तीन दशकों से संघर्षरत उस समय की नेता आंग सांग सू की को जाता है.
5 दशक के सैन्य शासन के बाद 2015 में यहाँ चुनाव हुए जिसमें आन सान सू ची की पार्टी ने 80 फ़ीसदी से अधिक वोट हासिल किए. म्यांमार के संविधान के अनुसार, जिसे 2008 में सेना के शासकों ने बदल दिया था के मुताबिक़ ‘आन सान सू की’ की पार्टी सभी सीटें हासिल नहीं कर सकती थी. वे तीन अहम् मंत्रालय गृह, सीमा और रक्षा मंत्रालय भी अपने पास नहीं रख सकते थे. इस देश की जनता बदलाव जरुर चाहती है लेकिन आन सान सू ची के कार्यकाल से भी जनता में असंतोष व्याप्त रहा है. 10 लाख़ रोहिंग्या मुसलामानों के विस्थापन और उनके साथ हुए अत्याचार को लेकर विश्व स्तर पर आन सान सू की की निंदा हुई. हालांकि सैन्य शासन के बाद वह बदलाव के नए युग की शुरुआत जरुर थी. 2016 में म्यांमार में फ़िर से लोकतंत्र बहाल हुआ था जो वर्तमान में सैन्य तख्ता पलट से ख़त्म हो गया. ये हालात म्यांमार के पड़ोसी देशों सहित दुनिया भर के देशों की चिंताएं बढ़ा रहे हैं.
म्यांमार की अर्थव्यवस्था में सेना का दख़ल
म्यांमार की भौगोलिक स्थिति व यहाँ पाए जाने वाली संपदाएं इस देश को अंतर-राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक रूप से अवसरों के केंद्र में रखती हैं. म्यांमार के पश्चिम में बंगाल की खाड़ी है जो भारत को जोड़ता है और पूर्व में यह चीन से जुड़ा हुआ है. इस देश में प्राकृतिक संसाधनों का भरमार है. यहाँ के लोग भी दक्षिण एशिया के अन्य देशों की तरह मेहनती व कारोबार में दिलचस्पी रखने वाले हैं. यहाँ इस देश की ज़रूरतों के अनुसार तेल के पर्याप्त भंडार हैं. म्यांमार की अर्थव्यवस्था सहित देश के अन्य संस्थानों पर सेना की मजबूत पकड़ है. म्यांमार में आर्थिक स्थिरता और विकास का रास्ता लोकतंत्र की मजबूती से जुड़ा है जो सेना की कार्यवाहियों से समय-समय पर बाधित होता रहा है. म्यांमार की अर्थव्यवस्था के सुधार और विकास में चीन की दिलचस्पी और भागीदारी वर्षों से रही है. चीन की साझेदारी आधारभूत ढांचे से जुड़ी म्यांमार की हर परियोजनाओं में होता है. सेना समर्थित पूंजीपति वर्ग का बोलबाला म्यांमार की अर्थव्यवस्था में रहा है.
भारत पर असर
म्यांमार में हुए सैन्य तख्तापलट को लेकर वर्तमान भारतीय सरकार असमंजस में है. सेना द्वारा लोकतान्त्रिक सरकार को हटा कर सत्ता का हस्तांतरण सैनिकों के हाथों में करने को लेकर चिंतित होना लाज़िमी है. इतिहास गवाह है सैनिक कानून का शासन व लोकतंत्र को भंग कर तानाशाही का म्यांमार में होना मानवता के हित में नहीं है. भारत का वर्षों से मानना रहा है कि लोकतंत्र समर्थक शक्तियों को अलोकतांत्रिक तरीके से दबाया व कुचला नहीं जाना चाहिए हालाँकि सैन्य तख्तापलट के बाद म्यांमार में सेना द्वारा आयोजित कार्यक्रम में भारत के प्रतिनिधि की उपस्थिति कई सवाल खड़ा करता है. म्यांमार की लम्बी सीमा रेखा भारत की सीमा से लगती है. इन क्षत्रों से विद्रोही गतिविधियाँ अक्सर सामने आती रही है.
2017 में आन सान सू की समर्थित सेना द्वारा म्यांमार के रखाइन प्रान्त में रोहिंग्या मुसलामानों के साथ जातीय हिंसा तेज हो गयी थी और लाखों रोहिंग्या मुसलमान को देश से बाहर जाना पड़ा. आज भी 10 लाख से अधिक रोहिंग्या अपने परिवार सहित अलग-अलग देशों में रहने को मजबूर हैं. भारत में भी हजारों रोहिंग्या मुसलमान तंग हालत में भारत की राजधानी दिल्ली में रह रहे हैं जिसे म्यांमार वापस भेजने को लेकर संयुक्त राष्ट्र की मुहिम चलायी जाने की बात थी. इस सैन्य तख्तापलट की वजह से यह परियोजना भी खटाई में पड़ गयी है और रोहिंग्या मुसलमान बदहाली का जीवन जीने को मजबूर हैं.
फ़िलहाल साल 2021 म्यांमार के लिए हितकारी सिद्ध नहीं हुआ है. इसमें भी दो राय नहीं है कि इस बार म्यांमार में लोकतंत्र बहाली को लेकर पूरी दुनिया चिंतित है. म्यांमार में महीनों से चल रहे प्रदर्शन यह बता रहे हैं कि वहां की जनता किसी भी सूरत में अब सैन्यशासन को मानने के लिए तैयार नहीं है. सफ़ल लोकतंत्र वहीं माना जाता है जहाँ अल्पसंख्यक समाज के लोग भी सुरक्षा, सुकून, समानता और स्वतंत्रता के साथ जीवन यापन कर सकें और इस तरह के हालात को पैदा करने में म्यांमार की नेता आन सान सू की भी असफ़ल रहीं.
अब सत्ता की क्रूरता के ख़िलाफ़ विरोध का ज़ज्बा और लोगों का हौसला जगजाहिर है. म्यांमार की तानाशाही सरकार के लिए लोकतंत्र, मानवाधिकार, सहमति, विकास, स्वतंत्रता व् समानता जैसे शब्द बेमानी हैं इतिहास गवाह है कि जब स्टूडेंट और देश के आम नागरिक सत्ता के ख़िलाफ़ उठ खड़े होते हैं तो मजबूत तानशाह को भी उखाड़ फेकते हैं.
ऐसे वक्त में जब दुनिया में तानाशाही सोच का विस्तार हो रहा है, विश्व के सभी लोकतान्त्रिक देशों को मिलकर म्यांमार में नए तरीके से लोकतंत्र बहाल करने के लिए एकजुटता दिखानी चाहिए. इसमें भारत की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है. इसमें ही भारत, म्यांमार सहिंत दुनिया के अन्य देशों का हित निहित है.