उमर खालिद केस में अदालत ने मीडिया को याद दिलाए रिपोर्टिंग के मूल सिद्धांत

Written by Sabrangindia Staff | Published on: January 25, 2021
नई दिल्ली। राष्ट्रीय राजधानी की एक स्थानीय अदालत ने उत्तरपूर्वी दिल्ली दंगों के मामले में, खासकर उमर खालिद के कथित इकाबालिया बयान से जुड़ीं, मीडिया की खबरों पर सख्त ऐतराज़ जताया है और कहा है कि मीडिया ट्रायल्स से ‘बेगुनाही की अवधारणा’ को तबाह नहीं किया जा सकता।



उत्तरपूर्व के चीफ मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट दिनेश कुमार ने शुक्रवार को अपने आदेश में कहा कि पुलिस को दिए गए खालिद के बयान की खबरें, बिना इस स्पष्टीकरण के दी गईं कि ऐसे बयान सबूत के तौर पर स्वीकार्य नहीं होते। कोर्ट ने आगे कहा कि एक रिपोर्टर को, कानून की बुनियादी जानकारी होनी चाहिए और उसे पाठकों या दर्शकों को ऐसे बयानात की वास्तविक कानूनी हैसियत से अवगत कराना चाहिए।

आदेश में दोहराया गया कि किसी भी व्यक्ति की प्रतिष्ठा, उसकी सबसे कीमती संपत्ति होती है और संविधान की धारा 21 के तहत, उसके अधिकार का एक पहलू होती है। उसमें कहा गया कि ऐसी कोई भी खबर, जो अभियुक्त को उसके सम्मान से वंचित करती है, उसके अधिकारों पर विपरीत प्रभाव डालती है।

कोर्ट का ये आदेश कार्यकर्ता द्वारा डाली गई एक अर्ज़ी के सिलसिले में आया, जिसमें उसने मीडिया में छपी खबरों की शिकायत की थी, जिनमें कहा गया था कि उसने फरवरी 2020 में हुए सांप्रदायिक दंगों की साज़िश में, लिप्त होने का इकरार कर लिया था। ये पहली बार नहीं है कि उत्तरपूर्वी दिल्ली दंगा मामले में किसी अभियुक्त ने, उसके मुताबिक सांप्रदायिक हिंसा से जुड़ी ‘एकतरफा’ खबरों के खिलाफ, अदालत का दरवाज़ा खटखटाया है।

इससे पहले, दिल्ली दंगों के एक अभियुक्त छात्र नेता, आसिफ़ इकबाल तन्हा की ओर से दर्ज याचिका पर दिल्ली हाई कोर्ट ने अक्टूबर 2020 में, उसके कथित इकबालिया बयान को सार्वजनिक करने के लिए, ज़ी न्यूज़ पर सवाल खड़े किए, और कहा कि चैनल कोई अभियोजन एजेंसी नहीं है और मुकदमे के दौरान सबूत के तौर पर, उस दस्तावेज़ की कोई अहमियत नहीं है। हाई कोर्ट ने ये भी कहा था कि खबर में बयान को ऐसे दिखाया गया था, जैसे वो ‘किसी को पूरी तरह दोषी ठहराती हो’।

इसी तरह, पिछले साल जून में हाई कोर्ट ने दिल्ली पुलिस पर रोक लगा दी कि पिंजरा तोड़ कार्यकर्ता देवांगना कलिता से जुड़े दंगा मामले में, जब तक आरोप तय नहीं होते और मुकदमा शुरू नहीं हो जाता, तब तक किसी भी अभियुक्त या गवाह का नाम सार्वजनिक न किया जाए।

अपनी याचिका में कलिता ने कोर्ट से गुहार लगाई कि एक मैंडेमस रिट के ज़रिए वो दिल्ली पुलिस को निर्देश दे कि जांच पूरी होने और मुकदमा जारी रहने के दौरान, उनसे जुड़े किसी भी आरोप की जानकारी मीडिया को न दे। ताज़ा आदेश आने से कुछ दिन पहले ही, बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक निर्णय दिया कि आपराधिक जांच के दौरान किया गया मीडिया ट्रायल, ‘आपराधिक अवमानना’ समझा जाएगा।

बाकी ख़बरें