आजाद भारत में 26 जनवरी 2021, गणतन्त्र दिवस के अवसर पर देश की राजधानी दिल्ली में पहली बार ऐतिहासिक रूप से दो परेड निकाला जाना तय है. एक संविधान के सम्मान में सरकारी तंत्र द्वारा और दूसरा संविधान में दिए गए अधिकारों की मांग के लिए देश की जनता (किसानों) के द्वारा ट्रैक्टर परेड प्रस्तावित है. लगभग 60 दिनों से चल रहा यह आन्दोलन देश के एक बड़े मतदाता वर्ग किसान और केंद्र सरकार के बीच सीधी तकरार है. सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से भी सरकार ने किसान आन्दोलन को रोकने की कोशिश की जिसे किसानों ने एकजुटता के साथ ख़ारिज कर दिया.
कोरोना और शीतलहर के क़हर के बीच आंदोलनरत किसानों का बुलंद हौसला देश में संघर्ष का नया इतिहास लिख रहा है. देश के किसान सिर्फ़ अपने लिए नहीं लड़ रहे हैं. वो कॉरपोरेट घरानों और सियासत की साझी लूट के खिलाफ़ लड़ रहे हैं ताकि महंगाई आसमान न छूने लगे, कालाबाजारी वैध न हो जाए, ताकि देश के किसान कर्ज में दब कर आत्महत्या न कर लें, किसानों की रोजी-रोटी न छिन जाए, ताकि जनता की मेहनत पर उसका भी अधिकार हो, ताकि देश के संसाधनों पर चंद लोगों का अधिकार न हो जाए.
भारत सरकार कृषि कानून के रूप में देश के किसानों पर एक ऐसा कानून थोपना चाहती है जो अमेरिका और यूरोप में विफ़ल हो चुका है. अमेरिका की खेती सब्सिडी से चलती है, वहां सिर्फ़ 2 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर हैं. 2019 में अमेरिका ने कृषि को 867 बिलियन डॉलर की सब्सिडी दी. यूरोपीय यूनियन के देश अपने किसानों को सालाना 110 अरब डॉलर की मदद देते हैं हालांकि कोरोना महामारी की वजह से इन देशों के हालात पहले से बद्तर ही हुए हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि विकसित देशों ने किसानों को बाजार के रहमो-करम पर छोड़ने की तरकीब अपनाई थी जो नाकाम रही. मोदी सरकार दुनिया में नाकाम रहे ऐसे कानून की तरकीब को भारत की जनता पर जबरन थोपना चाहती है. देश की गोदी मीडिया आन्दोलनरत किसानों को बदनाम करना चाहता है. सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा किसानों की आपसी एकता को तोड़ कर उन्हें इस्तेमाल करना चाहती है और कॉरपोरेट घराना उनकी मेहनत पर डाका डालना चाहता है. सरकार लगातार राज्यों के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण कर तानाशाही रवैया अपनाने और कृषि कानून को थोपने का काम कर रही है.
किसानों द्वारा प्रस्तावित ट्रैक्टर परेड का कितना असर केंद्र सरकार और मीडिया सहित जनता पर पड़ेगा यह देखने का विषय है लेकिन उससे पहले दिल्ली बॉर्डर से सटे नजदीकी राज्यों की सरकारों की चिंता का बढ़ना स्वाभाविक है. किसान आन्दोलन अब अपने अगले पड़ाव पर पहुंच चुका है. भाजपा ने सोशल मीडिया के जरिये इस आंदोलन को खालिस्तानियों, आतंकवादियों से जोड़ने की हरसंभव कोशिश की, पर वो विफल रही. अब पंजाब और हरियाणा में बीजेपी विधायकों और नेताओं को सार्वजनिक कार्यक्रमों में भाग लेना मुश्किल होता जा रहा है. भाजपा का इन दोनों राज्यों में जो भी जनाधार है, वह लगातार ख़त्म होता जा रहा है. कांग्रेस या उनके नेताओं द्वारा 72 साल से किए गए कामों का डर दिखा कर अब तक इन राज्यों में भाजपा सत्ता में बनी रही. अब उनको जमीनी स्तर से सूचनाएं प्राप्त हो रही हैं कि किसान आंदोलन के साथ जिस तरह का बर्ताव किया जा रहा है, उससे क्षेत्र में उनका रहा-सहा राजनीतिक असर भी ख़त्म हो जाएगा. पंजाब में निचले स्तर पर कई बीजेपी नेताओं ने अपनी पार्टी से दूरी बनाते हुए आंदोलन को समर्थन देने की घोषणा तक कर दी है.
कृषि कानूनों के जरिए देश के कृषि क्षेत्र को उद्योगपतियों के हवाले किये जाने की मंशा से किसान दुखी है. पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों में कुछ बड़ी कंपनियों की पैकेटबंद खाद्य सामग्रियों की बिक्री पिछले दो माह के दौरान घटी है. इन कंपनियों के सामानों के बहिष्कार का कोई सीधा आंदोलन तो नहीं चल रहा है, पर इन क्षेत्रों के लोगों ने चुपचाप ही सही, इन सामानों को यथासंभव नहीं खरीदने का बड़े ही करीने से अभियान चला रखा है. यह संभव है कि उन्होंने ही अपने व्यवसाय के हित में इस आंदोलन को किसी भी तरह फिलहाल स्थगित करवाने का भाजपा के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व से आग्रह किया जो डेढ़ साल तक कानून स्थगन प्रस्ताव के रूप में सामने आया जिसे किसान नेताओं द्वारा ख़ारिज कर दिया गया. इस बात का भी कयास लगना शुरू हो गया है कि पंजाब हरियाणा से शुरू हुए किसान आन्दोलन की यह आग जल्दी ही नहीं बुझाई गयी तो राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से कई संकट पैदा हो सकते हैं. इस आन्दोलन के मद्देनजर सेना और सुरक्षा बलों में भी गृह मंत्री और गृहमंत्रालय को लेकर नकारात्मक भावनाएं फ़ैल रही हैं और यह देश की सुरक्षा के लिए अच्छा संकेत नहीं है.
नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) आंदोलन के समय अमित शाह ने जिन तरीकों का इस्तेमाल किया था, उन्हें भरोसा था कि उसी तरह की तिकड़मों के जरिये किसान आंदोलन से भी निबटने में कामयाबी मिल जाएगी. सीएए-एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) आंदोलन के समय सांप्रदायिक दंगों को आन्दोलन ख़त्म करने का हथियार बनाया और बाकि कसर कोविड के प्रकोप ने पूरी कर दी लेकिन इस आन्दोलन में वह हथियार काम नहीं आया.
कृषि कानून को लागू करवाने के लिए सरकार द्वारा किए जा रहे अथक प्रयास भाजपा और मोदी सरकार की कॉर्पोरेट घरानें के प्रति वफ़ादारी को इंगित करता है. असल बात यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से नष्ट हो चुकी है और उसे पटरी पर लाने के लिए पूंजीपतियों की तरफ हाथ फैलाए खड़े हैं. कॉर्पोरेट घरानों के द्वारा बिना अपना मुनाफ़ा तय किए सरकार की मदद करना असंभव है.
पिछले कई सालों से अकेला कृषि सेक्टर ही फ़ायदे में है बाकि सभी सार्वजानिक सेक्टर को मोदी जी ने या तो कॉर्पोरेट के हाथों बेच दिया है या उसे घाटे में बता कर बंद करने की तैयारी हो रही है. कृषि कानून न सिर्फ़ किसानों के बल्कि देश के नागरिक हितों के खिलाफ़ हैं. संविधान दिवस पर देश की और संविधान की मूल आत्मा को बचाने की बात करने वाले प्रत्येक व्यक्ति का संघर्ष किसान आन्दोलन में दिखाई देता है. देश के अन्नदाता किसान समाज का प्राथमिक उत्पादक हैं जो देश की तमाम जनता का पेट भरता है इसलिए उनका संघर्ष और उनका आन्दोलन पुरे समाज का आन्दोलन है.
कोरोना और शीतलहर के क़हर के बीच आंदोलनरत किसानों का बुलंद हौसला देश में संघर्ष का नया इतिहास लिख रहा है. देश के किसान सिर्फ़ अपने लिए नहीं लड़ रहे हैं. वो कॉरपोरेट घरानों और सियासत की साझी लूट के खिलाफ़ लड़ रहे हैं ताकि महंगाई आसमान न छूने लगे, कालाबाजारी वैध न हो जाए, ताकि देश के किसान कर्ज में दब कर आत्महत्या न कर लें, किसानों की रोजी-रोटी न छिन जाए, ताकि जनता की मेहनत पर उसका भी अधिकार हो, ताकि देश के संसाधनों पर चंद लोगों का अधिकार न हो जाए.
भारत सरकार कृषि कानून के रूप में देश के किसानों पर एक ऐसा कानून थोपना चाहती है जो अमेरिका और यूरोप में विफ़ल हो चुका है. अमेरिका की खेती सब्सिडी से चलती है, वहां सिर्फ़ 2 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर हैं. 2019 में अमेरिका ने कृषि को 867 बिलियन डॉलर की सब्सिडी दी. यूरोपीय यूनियन के देश अपने किसानों को सालाना 110 अरब डॉलर की मदद देते हैं हालांकि कोरोना महामारी की वजह से इन देशों के हालात पहले से बद्तर ही हुए हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि विकसित देशों ने किसानों को बाजार के रहमो-करम पर छोड़ने की तरकीब अपनाई थी जो नाकाम रही. मोदी सरकार दुनिया में नाकाम रहे ऐसे कानून की तरकीब को भारत की जनता पर जबरन थोपना चाहती है. देश की गोदी मीडिया आन्दोलनरत किसानों को बदनाम करना चाहता है. सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा किसानों की आपसी एकता को तोड़ कर उन्हें इस्तेमाल करना चाहती है और कॉरपोरेट घराना उनकी मेहनत पर डाका डालना चाहता है. सरकार लगातार राज्यों के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण कर तानाशाही रवैया अपनाने और कृषि कानून को थोपने का काम कर रही है.
किसानों द्वारा प्रस्तावित ट्रैक्टर परेड का कितना असर केंद्र सरकार और मीडिया सहित जनता पर पड़ेगा यह देखने का विषय है लेकिन उससे पहले दिल्ली बॉर्डर से सटे नजदीकी राज्यों की सरकारों की चिंता का बढ़ना स्वाभाविक है. किसान आन्दोलन अब अपने अगले पड़ाव पर पहुंच चुका है. भाजपा ने सोशल मीडिया के जरिये इस आंदोलन को खालिस्तानियों, आतंकवादियों से जोड़ने की हरसंभव कोशिश की, पर वो विफल रही. अब पंजाब और हरियाणा में बीजेपी विधायकों और नेताओं को सार्वजनिक कार्यक्रमों में भाग लेना मुश्किल होता जा रहा है. भाजपा का इन दोनों राज्यों में जो भी जनाधार है, वह लगातार ख़त्म होता जा रहा है. कांग्रेस या उनके नेताओं द्वारा 72 साल से किए गए कामों का डर दिखा कर अब तक इन राज्यों में भाजपा सत्ता में बनी रही. अब उनको जमीनी स्तर से सूचनाएं प्राप्त हो रही हैं कि किसान आंदोलन के साथ जिस तरह का बर्ताव किया जा रहा है, उससे क्षेत्र में उनका रहा-सहा राजनीतिक असर भी ख़त्म हो जाएगा. पंजाब में निचले स्तर पर कई बीजेपी नेताओं ने अपनी पार्टी से दूरी बनाते हुए आंदोलन को समर्थन देने की घोषणा तक कर दी है.
कृषि कानूनों के जरिए देश के कृषि क्षेत्र को उद्योगपतियों के हवाले किये जाने की मंशा से किसान दुखी है. पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों में कुछ बड़ी कंपनियों की पैकेटबंद खाद्य सामग्रियों की बिक्री पिछले दो माह के दौरान घटी है. इन कंपनियों के सामानों के बहिष्कार का कोई सीधा आंदोलन तो नहीं चल रहा है, पर इन क्षेत्रों के लोगों ने चुपचाप ही सही, इन सामानों को यथासंभव नहीं खरीदने का बड़े ही करीने से अभियान चला रखा है. यह संभव है कि उन्होंने ही अपने व्यवसाय के हित में इस आंदोलन को किसी भी तरह फिलहाल स्थगित करवाने का भाजपा के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व से आग्रह किया जो डेढ़ साल तक कानून स्थगन प्रस्ताव के रूप में सामने आया जिसे किसान नेताओं द्वारा ख़ारिज कर दिया गया. इस बात का भी कयास लगना शुरू हो गया है कि पंजाब हरियाणा से शुरू हुए किसान आन्दोलन की यह आग जल्दी ही नहीं बुझाई गयी तो राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से कई संकट पैदा हो सकते हैं. इस आन्दोलन के मद्देनजर सेना और सुरक्षा बलों में भी गृह मंत्री और गृहमंत्रालय को लेकर नकारात्मक भावनाएं फ़ैल रही हैं और यह देश की सुरक्षा के लिए अच्छा संकेत नहीं है.
नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) आंदोलन के समय अमित शाह ने जिन तरीकों का इस्तेमाल किया था, उन्हें भरोसा था कि उसी तरह की तिकड़मों के जरिये किसान आंदोलन से भी निबटने में कामयाबी मिल जाएगी. सीएए-एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) आंदोलन के समय सांप्रदायिक दंगों को आन्दोलन ख़त्म करने का हथियार बनाया और बाकि कसर कोविड के प्रकोप ने पूरी कर दी लेकिन इस आन्दोलन में वह हथियार काम नहीं आया.
कृषि कानून को लागू करवाने के लिए सरकार द्वारा किए जा रहे अथक प्रयास भाजपा और मोदी सरकार की कॉर्पोरेट घरानें के प्रति वफ़ादारी को इंगित करता है. असल बात यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से नष्ट हो चुकी है और उसे पटरी पर लाने के लिए पूंजीपतियों की तरफ हाथ फैलाए खड़े हैं. कॉर्पोरेट घरानों के द्वारा बिना अपना मुनाफ़ा तय किए सरकार की मदद करना असंभव है.
पिछले कई सालों से अकेला कृषि सेक्टर ही फ़ायदे में है बाकि सभी सार्वजानिक सेक्टर को मोदी जी ने या तो कॉर्पोरेट के हाथों बेच दिया है या उसे घाटे में बता कर बंद करने की तैयारी हो रही है. कृषि कानून न सिर्फ़ किसानों के बल्कि देश के नागरिक हितों के खिलाफ़ हैं. संविधान दिवस पर देश की और संविधान की मूल आत्मा को बचाने की बात करने वाले प्रत्येक व्यक्ति का संघर्ष किसान आन्दोलन में दिखाई देता है. देश के अन्नदाता किसान समाज का प्राथमिक उत्पादक हैं जो देश की तमाम जनता का पेट भरता है इसलिए उनका संघर्ष और उनका आन्दोलन पुरे समाज का आन्दोलन है.