बाजारवादी कॉरपोरेट एजेंडे को धराशायी करता किसान आन्दोलन

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: December 23, 2020
“जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप होंहि नरक अधिकारी” अर्थात जिस राजा के राज्य में प्रजा दुखी रहती है वह नरकगामी होता है मतलब राज्य के कल्याणकारी तत्व का पैमाना जनता का सुख होना चाहिए. रामराज्य का गुणगान करने वाले भारतीय सत्ताधारी राजा के राज्य को, जो कॉर्पोरेट की गोद में बैठ के जनविरोधी फैसले ले रहा है, उनके जहन से तुलसीदास की यह लाइन नदारद है. दिल्ली के लगभग सभी बॉर्डर पर पंजाब हरियाणा सहित अन्य राज्यों से आए किसान 4 डिग्री तापमान की कड़कडाती ठंड और कोरोना महामारी के बीच पिछले 28 दिनों से आंदोलनरत हैं. ये संसद में पारित 3 कृषि विरोधी कानूनों को रद्द करवाने के लिए संकल्पबद्ध हैं. संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में चल रहे किसान आन्दोलन और सरकार के बीच गतिरोध ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा है. इस आन्दोलन को पूरे देश से लगातार बढ़ते समर्थन और सरकार पर कानून को बनाए रखने के बढ़ते कॉरपोरेट के दबाब से सत्ता पक्ष पेशोपेश में है. 



कानून की आड़ में ख़तरनाक बाजारवादी प्रसार:
ग्लोबलाइजेशन का आज का यह दौर बाजारवाद और मुनाफ़े पर आधारित है. मुनाफ़ा आधारित वर्तमान वैश्विक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को भारतीय परिपेक्ष्य में समझने की जरुरत है. यूरोप और अमेरिका के पास विस्तृत भूमि है और वहां की जनसंख्या कम है. वे कृषि उत्पाद के निर्यातक देश हैं जिन्हें दुनिया के सारे ही बाजार खुले चाहिए और भारत एक बृहद बाजार है जिसे इस कानून के देशी-विदेशी कृषि व्यापारियों के हवाले किया जा रहा है. इसे सिलसिलेवार तरीके से समझा जा सकता है. सरकार द्वारा पारित तीन कानून इस प्रकार हैं:

1.    कृषि मंडी के बाहर भी किसानों के फसलों को खरीदने और बेचने की छूट.
2.    कृषि उत्पाद का व्यापार करने वाली देशी और विदेशी कॉरपोरेट कंपनियों को भारत में कांट्रेक्ट फार्मिंग (अनुबंध कृषि) करने की स्वतंत्रता.
3.    फसलों या कृषि उत्पादों का किसी भी मात्रा में भंडारण करने की कॉरपोरेट व्यापारी कंपनियों को अनुमति.

किसान को लोकल मंडी में उचित दाम न देकर कहीं भी फसलों को ख़रीदने और बेचने की छूट देना महज एक प्रलोभन भर है. इस कानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) सरकार ने लिखित रूप से दिया है लेकिन उसे क़ानूनी दर्जा नहीं दिया गया. विश्व व्यापार संगठन में फसलों की कीमत का अनुदान मंजूर नहीं है. सरकार की यह मंशा साफ़ जाहिर करती है कि भविष्य में कॉरपोरेट कृषि व्यापारियों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम पर फसलों को खरीदने का द्वार खुला रखा गया है. बड़ी ही चालाकी से सरकार के नेतागण यह बोल रहे हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) आन्दोलन में मुद्दा ही नहीं होना चाहिए. बिना सुरक्षित MSP का कानून बनाए किसान हित की बात करना किसान हितों के साथ धोखा भर ही है. 

कानून में अनुबंध खेती (कांट्रेक्ट फ़ार्मिंग) का मुद्दा महत्वपूर्ण है. कानून में प्रावधान जरुर है कि ऐसी खेती से खेतों का मालिकाना अधिकार किसान की ही रहेगी. किसानों को यह डर है कि धीरे-धीरे उनकी ख़ुद की ज़मीन पर उनका मालिकाना हक़ ख़त्म हो जाएगा और वो अपने ही खेतों में मजदुर बन कर रह जाएँगे. दुनिया के अन्य देशों में अनुबंध खेती का अनुभव यह बताता है कि वहां पर कंपनियों की तरफ़ से खाद, बीज, कीटनाशक, मशीनें इतनी अधिक कीमत पर किसानों को दी जाती है कि किसान को खेती से मुनाफ़ा कम हो जाता है ऐसी स्थिति में उन्हें कृषि का व्यवसाय छोड़ने को मजबूर होना पड़ता है. मतलब कि अनुबंध खेती से कोई किसी की जमीन छीनता नहीं है बल्कि किसानों को खेती में लगातार होने वाले घाटे की वजह से वो ख़ुद ही खेती करना छोड़ देता है. इस बात को भारतीय किसान बेहतर तरीके से समझ रहे हैं और सरकार इस चर्चा को सामने नहीं आने देना चाहती. देश के आम किसानों के लिए अनुबंध खेती का यह प्रावधान घातक है और इसे ख़त्म होना आम जन के हित में होगा.  

कृषि उत्पादों के भंडारण के लिए कॉरपोरेट घरानों अडानी अंबानी के द्वारा बड़े पैमाने पर बनाए जा रहे साइलो सरकार को सवाल के घेरे में खड़ा करती है. पानीपत के नौल्था में हजारों टन अनाज के भंडारण के लिए बनायी जा रही अडानी की साइलो इस बात का गवाह हैं कि निजीकरण के मद में चूर सरकार ने किसान हितों की अनदेखी की है. 

आन्दोलन से भयभीत सरकार:
सरकार द्वारा किसान आन्दोलन को दमन कर तोड़ने, बदनाम करने, अन्य राज्यों से अलग थलग दिखाने, खालिस्तानी करार देने से लेकर उनके प्रति उदासीनता की चरम सीमा पार करने के बाबजूद आन्दोलन पूरी मजबूती से दिल्ली के द्वार पर डटा है. सरकार भयभीत है कि इस देश के मजदूर, कर्मचारी, आदिवासी, अल्पसंख्यक, महिलाऐं बड़ी संख्यां में इस आन्दोलन के समर्थन में सड़कों पर न उतर जाएं. सरकार यह जानती है कि सारे जनसंघर्ष यदि एकीकृत हो गए तो किसान आन्दोलन को कमजोर करना असंभव हो जाएगा. हालाँकि आन्दोलनकारियों के बारे में दुष्प्रचार बदस्तूर जारी है. वैश्वीकरण और उदारीकरण की उपभोक्तावादी संस्कृति ने जिन नए व्यवसायों और रोजगारों को जन्म दिया है उनमें अमानवीयता, अवसरवाद व् प्रतिस्पर्धा का भाव कूट कूट कर भरा है जो एक संवेदनशून्य समाज की रचना कर रही है. यह तबका तर्कविहीन होकर मोदी सरकार की भक्ति में लीन है और इन्हें सरकार का विरोध करना देश का विरोध करना नजर आता है. दीगर बात यह है कि चुनावी गुणा गणित को भी अगर देखा जाए तो देश की 70 प्रतशत जनता मोदी सरकार के ख़िलाफ़ थी. ऐसे में सरकार का जनता की एकजुटता से भयभीत होना लाज़िमी है. 

सरकार की दलील है कि देश कृषि संकट से गुजर रहा है और उसमें सुधार की जरुरत है. बेशक सुधार होना चाहिए लेकिन वह किसके हितों के लिए होगा? कृषि क्षेत्र में बढ़ते कॉरपोरेटीकरण से लाखों किसान खेती से बेदख़ल होंगे, पहले से ही देश बेरोजगारी की मार झेल रहा है फिर गाँव में जो बेरोजगारों की विराट फ़ौज तैयार होगी उसे कहां रोजगार मिलेगा? कृषि उत्पादन, भंडारण और व्यापार पर मुट्ठी भर देशी-विदेशी कॉरपोरेट कंपनियों के एकाधिकार होने का दुष्परिणाम केवल किसानों पर ही नहीं पड़ेगा. इसका असर मेहनतकश गरीब वर्ग व् आम मध्यवर्ग के लोगों पर भी पड़ेगा. देश की खाद्य सुरक्षा जिसे राष्ट्रीय सुरक्षा से भी जोड़कर देखा जाता है और जो इस देश की अर्थवयवस्था का आधार स्तंभ है वह आज गंभीर खतरे में है. यह बात देश के आंदोलनरत किसान बखूबी समझ रहे हैं. इस कानून से कृषि और ग्रामीण ढांचे में बुनियादी बदलाव आएगा जिससे देश के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक संरचना में उथल पुथल मच जाएगा और देश में अवसाद, भूखमरी, आत्महत्या, बेरोजगारी की बाढ़ आ जाएगी. देश के आंदोलनरत किसान बाजारवाद को बढ़ावा देने के सरकारी एजेंडे के ख़िलाफ़ लड़ाई में आज एक मजबूत स्तंभ की भांति पहली कतार में खड़े हैं.

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