कोरोना महामारी के दौरान होने वाले दुनिया के पहले चुनाव के पहले चरण का मतदान आज बिहार में हो रहा है. इंद्रधनुष के रंगों के समान ही बिहार में अलग अलग रंगों के मेलमिलाप से बने गठबंधन सहित कई पार्टियां चुनाव मैदान में किस्मत आजमा रही है। मुंगेर में दुर्गा पूजा विसर्जन के अवसर पर प्रशासन द्वारा की गई हत्या न्याय और कानूनी व्यवस्था पर कई तरह के सवाल खड़े करता है। हत्याओं और गुंडागर्दी का सिलसिला चुनाव के दौरान भी बदस्तूर जारी है. कहीं उम्मीदवार को जबरन नामांकन नहीं करने दिया गया है तो कहीं भय दिखा कर चुनाव में आने वाले उम्मीदवारों को नामांकन वापस लेने को कहा जा रहा है हद तो यह है कि ऐसे हिंसक लोग हत्या करने तक से भी परहेज नही कर रहे हैं इसके बाबजूद भी इस चुनाव में जनहित के मुद्दे शामिल हो चुके हैं.
एक तरफ राज्य भर में कोरोना महामारी से जनता की जंग जारी है तो दूसरी तरफ जनता अपने भविष्य की सुरक्षा को लेकर भी काफी चिंतित हैं. रोजगार, शिक्षा, भ्रष्टाचार, भुखमरी, पलायन, महंगाई, महिला सुरक्षा इस बार के चुनाव का मुद्दा जरूर है लेकिन किसी एक दल पर भरोसा कर पाना इस बार बिहार की जनता के लिए मुश्किल साबित हो रहा है. बिहार विधान सभा चुनाव 2020 में 15 साल की सत्ता के यथास्थितिवाद में बदलाव के संकेत जरुर नजर आ रहे हैं लेकिन चुनावी जोड़-तोड़ का सही आकलन परिणाम के साथ ही निश्चित हो पाएगा. पहली बार बिहार विधान सभा चुनाव धर्म व् जाति पर पूरी तरह से आश्रित नहीं है और न ही भाषणों के जुमलों व् अन्धविश्वास की गिरफ्त में है. इस चुनाव में न तो मंदिर मस्जिद मुद्दा है, न सहानुभूति, न लोकलुभावने पैकेजों का आकर्षण है, और न सहानुभूति का कार्ड चल रहा है बल्कि यह चुनाव बिहार के आधारभूत सुविधाओं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, सुरक्षा को लेकर हो रहा है और यह बदलाव स्वागतयोग्य है. ऐसे मुद्दे सामान्यतः चुनावी प्रक्रिया में भाषणों के जुमले बन कर ही रह जाते थे क्यूंकि जनता इस मुद्दे पर अडिग होती दिखाई नहीं देती थी लेकिन इस चुनाव के हालात अलग हैं. बिहार चुनाव से उठने वाले व्यापक लोकहित के मुद्दे अगर अन्य राज्यों और देश के संसदीय चुनाव ने भी महत्वपूर्ण स्थान बनाए रखते हैं तो यह लोकतंत्र की मजबूती के लिए शुभ संकेत है.
देश भर में बिहार की जनता को राजनितिक रूप से परिपक्व माना जाता है हालाँकि हर बार चुनावी प्रक्रिया में जाति के सवाल पर आकर बिहार की जनता जनार्दन कमजोर हो जाती थी लेकिन इस बार के हालत बिलकुल अलग जान पड़ते हैं और जनता के मुद्दे और सवाल जनता द्वारा मुखरता से उठाया जाना राजनीतिक परिपक्वता की निशानी है जो लोकतंत्र के लिए हितकारी है. दीगर बात यह है कि बीते वर्षों में सरकार द्वारा किए गए कार्यों पर जनता की तरफ से सवाल खड़ा कर देना और उसका हिसाब करना चुनावी प्रक्रिया में जनता की ताकत को बयां कर रहा है जो संविधान और लोकतान्त्रिक देश की मजबूती के लिए जरुरी कदम साबित होगा. इस चुनाव में सभी दल अपने-अपने वादों और नीतियों के साथ जनता के सामने नतमस्तक हैं. नए वादों में लोकलुभावने सपने दिखाने के साथ साथ इस चुनाव में शामिल दलों के लिए किए गए कार्यों का जवाब जनता को देना भी अनिवार्य शर्तों में से एक बन कर सामने आया है. हर बार के चुनाव में अक्सर यह देखा गया है कि वादों के बीच चुनाव ख़त्म हो जाते हैं लेकिन गाँव की समस्याएँ और तस्वीर जस की तस बनी रहती है न वादे बदलते हैं, न समस्याएँ बदलती है और न ही वादे करके चुनाव जीतेने वाले के इरादे परिवर्तन को लालायित दीखते हैं. राजनीतिक दलों द्वारा किए जा रहे वादों से जनता में उम्मीदें जरुर बढ़ जाती है जो आश्वासन पर टिकी होती है.
लोकतान्त्रिक देश भारत में सरकार जनता द्वारा चुनी जाती है और जनता के मुद्दे को चुनावी घोषणापत्र में शामिल भी किया जाता है पर चुनावी राजनीति की विडंबना यह है कि चुनाव के बाद राजनीतिक दल जनता के आधारभूत मुद्दों व् सवालों पर बात करने से कतराते हुए ही नजर आते हैं जिससे जनता का भरोसा इस पूरी प्रक्रिया पर घटता है. सत्तासीन सरकार इतनी भी जवाबदेहि का निर्वहन नहीं करते हैं कि बीते वर्षों में जनता के लिए किए गए कार्यों का ब्यौरा जनता के सामने प्रस्तुत करे. चुनावी मुद्दों को मूल समस्याओं से जानबूझ कर भटकाने की कोशिश होती है जिससे असल मुद्दे नेपथ्य में चले जाएं और धर्म और जाति के मुद्दे हावी हो जाएं लेकिन इस बार बिहार चुनाव में जनता की जागरूकता ने राजनीतिक दलों का खेल बिगाड़ कर रख दिया है.
ऐतिहासिक रूप से अगर आकलन किया जाए तो संसदीय चुनाव में 1947 से सत्ता पर कमोवेश कांग्रेस का अधिपत्य रहा है जो 1977 के जनांदोलन के साथ बदला और बाद में 2014 का चुनाव भी तत्कालीन सरकार की विफलता, सरकार के प्रति जनाक्रोश और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर हुए जनांदोलन का ही नतीजा था जिसमे कांग्रेस सहित अन्य तमाम पार्टियों की करारी शिकस्त हुई और किसी एक दल को विपक्षी पार्टी का दर्जा तक प्राप्त नहीं हुआ जिसका भुगतान देश की जनता सहित तमाम राजनीतिक दल कर रहे हैं.
2014 में संघ समर्थित एनडीए की सरकार के सत्ता में आने के बाद देश की जनता नोटबंदी से कोरोना महामारी की तालाबंदी तक, संस्थानों, सड़कों, स्टेशनों से एयरपोर्ट के निजीकरण तक, हत्या, हिंसा से लेकर वीभत्स बलात्कार तक, भुखमरी,महंगाई से लेकर भात-भात करके के मरते बच्चे तक, आक्सीजन की कमी से लेकर चमकी बुखार से जान गवाते नवजात बच्चों तक, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शर्मशार होते देश की छवि तक, जाति, धर्म के झगड़े से लेकर दंगा व् गुंडागर्दी की बढ़ोतरी तक, कोरोना महामारी में भूख और पलायन से मरते बेकसूर आम नागरिक तक त्रस्त हो चुके हैं. सत्ता के प्रति अविश्वास बड़ा कारण है कि बिहार के जागरूक नागरिकों द्वारा अपने संवैधानिक अधिकारों को अपनी आवाज दिया जा हैं जो भी हो बदलते राजनीतिक परिवेश के बीच और चुनावी जदोजहद के साथ बिहार चुनाव परिवर्तन की और अग्रसर है जो नये बिहार के परिवतन की कहानी कर रहा है.
एक तरफ राज्य भर में कोरोना महामारी से जनता की जंग जारी है तो दूसरी तरफ जनता अपने भविष्य की सुरक्षा को लेकर भी काफी चिंतित हैं. रोजगार, शिक्षा, भ्रष्टाचार, भुखमरी, पलायन, महंगाई, महिला सुरक्षा इस बार के चुनाव का मुद्दा जरूर है लेकिन किसी एक दल पर भरोसा कर पाना इस बार बिहार की जनता के लिए मुश्किल साबित हो रहा है. बिहार विधान सभा चुनाव 2020 में 15 साल की सत्ता के यथास्थितिवाद में बदलाव के संकेत जरुर नजर आ रहे हैं लेकिन चुनावी जोड़-तोड़ का सही आकलन परिणाम के साथ ही निश्चित हो पाएगा. पहली बार बिहार विधान सभा चुनाव धर्म व् जाति पर पूरी तरह से आश्रित नहीं है और न ही भाषणों के जुमलों व् अन्धविश्वास की गिरफ्त में है. इस चुनाव में न तो मंदिर मस्जिद मुद्दा है, न सहानुभूति, न लोकलुभावने पैकेजों का आकर्षण है, और न सहानुभूति का कार्ड चल रहा है बल्कि यह चुनाव बिहार के आधारभूत सुविधाओं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, सुरक्षा को लेकर हो रहा है और यह बदलाव स्वागतयोग्य है. ऐसे मुद्दे सामान्यतः चुनावी प्रक्रिया में भाषणों के जुमले बन कर ही रह जाते थे क्यूंकि जनता इस मुद्दे पर अडिग होती दिखाई नहीं देती थी लेकिन इस चुनाव के हालात अलग हैं. बिहार चुनाव से उठने वाले व्यापक लोकहित के मुद्दे अगर अन्य राज्यों और देश के संसदीय चुनाव ने भी महत्वपूर्ण स्थान बनाए रखते हैं तो यह लोकतंत्र की मजबूती के लिए शुभ संकेत है.
देश भर में बिहार की जनता को राजनितिक रूप से परिपक्व माना जाता है हालाँकि हर बार चुनावी प्रक्रिया में जाति के सवाल पर आकर बिहार की जनता जनार्दन कमजोर हो जाती थी लेकिन इस बार के हालत बिलकुल अलग जान पड़ते हैं और जनता के मुद्दे और सवाल जनता द्वारा मुखरता से उठाया जाना राजनीतिक परिपक्वता की निशानी है जो लोकतंत्र के लिए हितकारी है. दीगर बात यह है कि बीते वर्षों में सरकार द्वारा किए गए कार्यों पर जनता की तरफ से सवाल खड़ा कर देना और उसका हिसाब करना चुनावी प्रक्रिया में जनता की ताकत को बयां कर रहा है जो संविधान और लोकतान्त्रिक देश की मजबूती के लिए जरुरी कदम साबित होगा. इस चुनाव में सभी दल अपने-अपने वादों और नीतियों के साथ जनता के सामने नतमस्तक हैं. नए वादों में लोकलुभावने सपने दिखाने के साथ साथ इस चुनाव में शामिल दलों के लिए किए गए कार्यों का जवाब जनता को देना भी अनिवार्य शर्तों में से एक बन कर सामने आया है. हर बार के चुनाव में अक्सर यह देखा गया है कि वादों के बीच चुनाव ख़त्म हो जाते हैं लेकिन गाँव की समस्याएँ और तस्वीर जस की तस बनी रहती है न वादे बदलते हैं, न समस्याएँ बदलती है और न ही वादे करके चुनाव जीतेने वाले के इरादे परिवर्तन को लालायित दीखते हैं. राजनीतिक दलों द्वारा किए जा रहे वादों से जनता में उम्मीदें जरुर बढ़ जाती है जो आश्वासन पर टिकी होती है.
लोकतान्त्रिक देश भारत में सरकार जनता द्वारा चुनी जाती है और जनता के मुद्दे को चुनावी घोषणापत्र में शामिल भी किया जाता है पर चुनावी राजनीति की विडंबना यह है कि चुनाव के बाद राजनीतिक दल जनता के आधारभूत मुद्दों व् सवालों पर बात करने से कतराते हुए ही नजर आते हैं जिससे जनता का भरोसा इस पूरी प्रक्रिया पर घटता है. सत्तासीन सरकार इतनी भी जवाबदेहि का निर्वहन नहीं करते हैं कि बीते वर्षों में जनता के लिए किए गए कार्यों का ब्यौरा जनता के सामने प्रस्तुत करे. चुनावी मुद्दों को मूल समस्याओं से जानबूझ कर भटकाने की कोशिश होती है जिससे असल मुद्दे नेपथ्य में चले जाएं और धर्म और जाति के मुद्दे हावी हो जाएं लेकिन इस बार बिहार चुनाव में जनता की जागरूकता ने राजनीतिक दलों का खेल बिगाड़ कर रख दिया है.
ऐतिहासिक रूप से अगर आकलन किया जाए तो संसदीय चुनाव में 1947 से सत्ता पर कमोवेश कांग्रेस का अधिपत्य रहा है जो 1977 के जनांदोलन के साथ बदला और बाद में 2014 का चुनाव भी तत्कालीन सरकार की विफलता, सरकार के प्रति जनाक्रोश और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर हुए जनांदोलन का ही नतीजा था जिसमे कांग्रेस सहित अन्य तमाम पार्टियों की करारी शिकस्त हुई और किसी एक दल को विपक्षी पार्टी का दर्जा तक प्राप्त नहीं हुआ जिसका भुगतान देश की जनता सहित तमाम राजनीतिक दल कर रहे हैं.
2014 में संघ समर्थित एनडीए की सरकार के सत्ता में आने के बाद देश की जनता नोटबंदी से कोरोना महामारी की तालाबंदी तक, संस्थानों, सड़कों, स्टेशनों से एयरपोर्ट के निजीकरण तक, हत्या, हिंसा से लेकर वीभत्स बलात्कार तक, भुखमरी,महंगाई से लेकर भात-भात करके के मरते बच्चे तक, आक्सीजन की कमी से लेकर चमकी बुखार से जान गवाते नवजात बच्चों तक, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शर्मशार होते देश की छवि तक, जाति, धर्म के झगड़े से लेकर दंगा व् गुंडागर्दी की बढ़ोतरी तक, कोरोना महामारी में भूख और पलायन से मरते बेकसूर आम नागरिक तक त्रस्त हो चुके हैं. सत्ता के प्रति अविश्वास बड़ा कारण है कि बिहार के जागरूक नागरिकों द्वारा अपने संवैधानिक अधिकारों को अपनी आवाज दिया जा हैं जो भी हो बदलते राजनीतिक परिवेश के बीच और चुनावी जदोजहद के साथ बिहार चुनाव परिवर्तन की और अग्रसर है जो नये बिहार के परिवतन की कहानी कर रहा है.