बिहार: कोरोना महामारी और चुनावी महापर्व के बीच जनता की जद्दोजहद

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: October 11, 2020
चुनाव लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व होता है जो लोकतंत्र और देश या राज्य की बेहतरी के लिए लिया गया सबसे मजबूत कदम होता है। कोरोना काल में बिहार विधान सभा चुनाव की घोषणा हो गयी, नामांकन की प्रकिया शुरू हो चुकी है। देशभर में लगभग 70 लाख लोगों को अपनी गिरफ्त में ले चुकी कोरोना महामारी भी थमने का नाम नहीं ले रही है ऐसे समय में बिहार में चुनाव करवाने की घोषणा जनता की जिन्दगी से खिलवाड़ साबित हो सकता है।



हालांकि अधिकांश दल कोरोना काल में चनाव को फिलहाल टाल देने के पक्ष में थे लेकिन ‘एक धर्म एक सरकार’ के पोषक दिल्ली की सत्ता पर आसीन अधिनायकवादी राजनीति के सामने संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग नतमस्तक है। वर्तमान बिहार महामारी के साथ-साथ बाढ़, गबन, घोटाला, पलायन, हत्याकांड, भ्रष्टाचार से लिप्त है। आज राजनीति की तीखी प्रतिस्पर्धा ने सामाजिक प्रबंधन के नियमों और सिद्धांतों को बदलकर वाक् चतुरता और व्यवहार कुशलता में तब्दील कर दिया है इसलिए सरकार के प्रति जनता में अविश्वास हर देश में बढ़ रहा है। 

वर्तमान बिहार की अनुमानित आबादी लगभग साढ़े बारह करोड़ से ज्यादा है इनमें अनुमानतः सात करोड़ बीस लाख लोग मतदान करने के हकदार हैं इन मतदाताओं में 20 से 30 साल के बीच के लोगों की संख्या डेढ़ करोड़ है और इतनी ही संख्या उन लोगों की है जो 40 से 50 साल के बीच की उम्र के हैं। 30 से 40 साल के बीच के मतदाताओं की संख्या करीब दो करोड़ है। सामंतवादी खाल ओढ़े समाज और लोगों को लगातार भ्रम में रखने की राजनीतिक प्रयास के बीच बिहार जनता अपनी समस्यायों और समाधान को लेकर जद्दोजहद कर रही है। 

ऐतिहासिक रूप से बिहार जमींदारी प्रथा, सामन्तवादी शोषक व् शोषित आधारित व्यवस्था रहा है लेकिन कालांतर में समानता के लिए किए गए वर्षों के संघर्ष ने बिहार की राजनीति में व्यापक बदलाव लाए परिणाम स्वरुप “अपनी जाति अपना समाज अपना नेता” की सोच ने जड़ जमाया। जिसे आज बखूबी समझा जा सकता है। कुछ समाजशास्त्री का मानना है कि जाति व्यवस्था मरणासन्न है और इसका आर्थिक आधार टूट चुका है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में औद्योगिक वस्तुओं के बढ़ते प्रवाह और उनकी उपलब्धता ने कृषि सेवा, कारीगर-शिल्प-सेवा श्रम की परस्पर आत्मनिर्भरता को तोड़ दिया है और विकास की गति ने सामाजिक संबधों को अप्रासंगिक बना दिया है

जबकि जाति हमारे देश की सच्चाई है और इस सच्चाई को दरकिनार कर देश की बहुसंख्यक आबादी को, राजनितिक व्यवस्था में उसकी मौजूदगी को नकारा नहीं जा सकता है। ये और बात है कि वर्षों तक जाति व्यवस्था को अप्रासंगिक बता कर साजिशन इस विमर्श को राजनीति से दूर रखा गया। आज जाति और समाज के नाम पर बनाए गए गठबंधन की भरमार बिहार चुनाव की पहचान बन चुकी है जहाँ यह देखना दिलचस्प होगा कि बिहार की क्रांतिकारी धरती से जनता का फैसला लोकतंत्र को किस दिशा में लेकर जाता है। 

सदी की सबसे बड़ी महामारी से जूझता देश और दुनिया से बिहार भी अछुता नहीं है कोरोना महामारी की वजह से देश भर से पलायन कर युवा और मजदूर बिहार में अपने घर वापस लौटे हैं जिसकी वजह से उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ा यहाँ तक कि कई लोगों ने पलायन के दौरान अपनी जान तक गवां दी ऐसे चुनौती भरे माहौल में बिहार का चुनाव हो रहा है जहाँ जनता का वर्तमान राजनीतिक दलों के रवैये की वजह से उनपर भरोशा कर पाना मुश्किल हो सकता है। एक तरफ क्षेत्रीय और जातिगत राजनीति हावी है तो दूसरी तरफ ‘नए भारत’ का सपना दिखाने वाले भारत के प्रधानमंत्री के नाम पर गठबंधन को जीत दिलाने का प्रयास जारी है। दीगर बात यह है कि जब कार्यों के मूल्यांकन का सवाल सामने आएगा तो राज्य और केंद्र से जुड़े तमाम आलमबरदार उसके घेरे में होंगे। 

नए भारत के नाम पर भारतीय शिक्षा प्रणाली में व्यापक बदलाव किए गए हैं ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि तार्किकता समाज के हित में नहीं है। शिक्षा में वैज्ञानिक सोच के बजाय पौराणिकता, अंधविश्वास को बढ़ावा दिया जा रहा है। भारतीय संस्कृति जो विविधता और बहुलतावाद की बात करता है उसे नकारने की तैयारी हो रही है। ऐसे नए भारत को बनाना तभी संभव हो सकता है जब नए तरह का इतिहास लिखा जाए जो अवैज्ञानिक आग्रहों को ऐतिहासिक साबित कर सके इसके लिए पुरातत्व को ऐसे नए प्रमाण जुटाने होंगे, नयी प्रतीकात्मकता पैदा करनी होगी।

आधुनिक भारत के अवधारणा के ख़िलाफ़ कोरोना काल में आर्थिक संकट के दौरान प्रधानमंत्री के व्यक्तिगत उपयोग के लिए 8600 करोड़ रूपये का विलासी विमान, मूर्तियाँ, बुलेट ट्रेन, सेन्ट्रल विस्टा का निर्माण आज विमर्श का हिस्सा है। ऐसे विमर्श को सरलता से देश के प्रत्येक आदमी तक पहुचाने के लिए फ़ेक और झूठे न्यूज चैनलों को शामिल किया जाता है जो जनता के आधारभूत असली मुद्दों की मांग को अपराध की श्रेणी तक में रखने में नहीं शर्माते हैं। सरकारी हाथों में बिकी हुई लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ मीडिया द्वारा दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नफरती बयानवाजी के द्वारा सामाजिक तनाव का माहौल पैदा करते हैं जो इनके नए भारत के लिए आवश्यक है। 

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के महासचिव सीताराम येचुरी का मानना है कि “ यह कथित नया भारत न सिर्फ भारतीय संविधान को तथा उसके साथ जुड़ी संस्थाओं को, प्राधिकारों को, जनता के लिए तथा जनता की जिन्दगी व् नागरिक स्वतंत्रता की गारंटियों को ध्वस्त करता है, बल्कि भारत के भविष्य को भी नष्ट करता है और यह सब समाज में नफरत और घृणा को बढाकर किया जा रहा है। यह तथाकथित नया भारत, भारत की आर्थिक आत्मनिर्भरता और जड़ों को खोखला करती है पिछले 6 साल में हुई भारतीय अर्थ व्यवस्था की तबाही इसका सबूत है। राष्ट्रीय परिसंपत्तियों की लूट का, सार्वजानिक क्षेत्र के व् भारत की खनिज सम्पदा, वन सम्पदा को थोक के भाव निजीकरण का और मजदुर वर्ग व् मेहनतकश जनता के संवैधानिक अधिकारों के खात्मे का ही नक्शा है।

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