केंद्र सरकार के खुली मार्केट, स्टॉक लिमिट व कॉन्ट्रैक्ट खेती के हालिया अध्यादेशों से उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के किसानों को यकायक बिहार (खुली मार्केट) मॉडल का डर सताने लगा हैं। या यूं कहें किसान बिहार की व्यवस्था से सबक लेते हुए, अपने यहां वैसी स्थिति नहीं बनने देना चाहते हैं। दरअसल बिहार में मंडी कानून डेढ़ दशक पहले खत्म कर दिया गया था जिसके चलते वहां किसानों को फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मिल पाना भी सपनों सरीखा है। अब मोदी सरकार ने पूरे देश में मंडी (एपीएमसी एक्ट) कानून को खत्म कर दिया है। इसी से बिहार मॉडल से सबक लेते हुए किसान आंदोलनरत हैं और एमएसपी से कम पर खरीद न होने को लेकर कानून (चौथा अध्यादेश) लाने की मांग कर रहे हैं। अन्यथा हालिया अध्यादेशों को वापस लेने की मांग है।
दरअसल, ये अध्यादेश भारत के करोड़ों किसान परिवारों के भविष्य से जुड़े हैं। दूसरा, जहां सरकार व अनेक अर्थशास्त्री मानते हैं कि कोरोना काल में किसानों की मेहनत/कृषि क्षेत्र के आधार पर ही देश की अर्थव्यवस्था का पहिया घूम रहा है। वहां सरकार के एमएसपी से पल्ला झाड़ने की कोशिशों पर चिंता स्वाभाविक है। वैसे देखें तो सी2+50% फार्मूले के अनुसार, किसानों को फसलों का एमएसपी भी नहीं मिल पा रहा है। उसके बावजूद वह किसी तरह जीवन यापन कर रहे हैं। लेकिन नए अध्यादेशों के बाद किसानों को डर है कि यदि खुली (एक देश एक बाजार) मार्केट के चक्कर में सरकार ने बिहार की तरह एमएसपी पर खरीद बंद कर दी तो खेती किसानी के साथ खाद्यान्न सुरक्षा का भी संकट में फंसना तय है।
खैर, तमाम डर और दावों के बीच अध्यादेशों पर नज़र डालें तो.. पहला अध्यादेश 'एक देश, एक कृषि बाजार यानि खुली मार्केट' का है। इस अध्यादेश के माध्यम से पैन कार्डधारक कोई व्यक्ति, कंपनी, सुपर मार्केट किसी भी किसान का माल किसी भी जगह खरीद सकते हैं। कृषि उत्पादों की बिक्री एपीएमसी यार्ड (मंडी) में होने की शर्त केंद्र सरकार ने खत्म कर दी है। महत्वपूर्ण यह है कि कृषि उपज की जो खरीद मंडी से बाहर होगी, उस पर किसी तरह का टैक्स या शुल्क भी नहीं लगेगा। जबकि मंडी में टैक्स व शुल्क लगते हैं। ऐसे में कोई क्यूंकर मंडी जाएगा। मंडी धीरे धीरे खुद ही अस्तित्व खो देंगी। हालांकि केंद्र सरकार का दावा है कि इस अध्यादेश से किसानों को लाभ होगा। किसान पूरे देश में कहीं भी किसी को भी फसल बेचने को स्वतंत्र होंगे।
अब सरकार लाख कहे लेकिन जमीनी हकीकत देखें तो किसान अपनी थोड़ी थोड़ी उपज को देश भर में कहां बेचने जाएंगे। 85% छोटे किसान हैं जो मशीनरी व बारदाने आदि की समस्या के चलते ज़िले या आसपास की मंडी तक नहीं जा पाते हैं। बड़ी कंपनी या बड़े व्यापारी ही दूसरे राज्यों में माल ले जा सकते हैं। उन्हीं को लाभ होगा। अध्यादेश में किसानों का माल खरीदने वाले पैन कार्ड धारक व्यक्ति व कंपनी को 3 दिन में किसानों की पेमेंट करनी होगी। भुगतान आदि विवाद पर डीएम व एसडीएम ही शिकायत सुन सकेंगे।
यहां ध्यान रखने योग्य बात यह है कि केंद्र सरकार ने इस बात की कोई गारंटी नहीं दी है कि प्राइवेट पैन कार्डधारक व्यक्ति, कम्पनी द्वारा किसानों के माल की खरीद, न्यूनतम समर्थन मूल्य पर की जाएगी। यही सबसे बड़ा डर किसानों को है कि जब फसल तैयार होंगी, उस समय बड़ी-बड़ी कम्पनियां जानबूझकर उपज का दाम गिरा देंगी और जमाखोरी कर बाद में उपभोक्ताओं (ग्राहकों) को ऊंचे दामों पर बेचेंगी।
दूसरा अध्यादेश आवश्यक वस्तु अधिनियम का है जिसमें आलू, प्याज़, दलहन, तिलहन व तेल के एक लिमिट से अधिक के भंडारण पर लगी रोक को हटा लिया गया है। यानि बड़ी बड़ी कंपनी कितना भी भंडारण करें, कोई रोक नहीं होगी। ऐसे में अनाड़ी से अनाड़ी भी बता देगा कि इससे कालाबाज़ारी बढ़ेगी। बड़ी कंपनी, बड़े पैमाने पर कृषि उत्पादों की खरीद व भंडारण करेंगी और बाद में ऊंचे दामों पर बेचकर मुहमांगा मुनाफा बनाएंगी।
तीसरा अध्यादेश कॉन्ट्रैक्ट खेती को बढ़ावा देने संबंधी है। किसान कहते हैं कि अध्यादेश के जरिये केंद्र सरकार, पश्चिमी मॉडल थोपना चाहती है। लेकिन सरकार यह भूल जाती है कि हमारे यहां खेती-किसानी जीवनयापन का साधन है जबकि पश्चिमी देशों में यह व्यवसाय है। कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में फसलों की बुआई से पहले कंपनियां एक निश्चित मूल्य पर उपज खरीदने का वादा करती हैं लेकिन फसल आने पर उपज की गुणवत्ता आदि को लेकर ना-नुकर आदि विवाद होता है। याद भी होगा। गुजरात में पेप्सिको कंपनी ने किसानों पर कई करोड़ का मुकदमा कर दिया था जिसे किसान संगठनों के विरोध के बाद वापस लेना पड़ा था।
किसान चिंतक व भारत कृषक समाज के राष्ट्रीय कन्वीनर रहे प्रीतम चौधरी कहते हैं कि खुली मार्केट व स्टॉक लिमिट हटाने के नए अध्यादेशों से न सिर्फ किसान को नुकसान होगा बल्कि आम उपभोक्ता को भी कोई लाभ होता नहीं दिख रहा है। किसान को उसकी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल सकेगा जबकि उपभोक्ता को भी सामान महंगा मिलेगा। वहीं, सरकार को भी मंडी राजस्व का बड़ा नुकसान होगा। यानि कारपोरेट घरानों और बड़ी कंपनियों के सिवा, किसी किसान व उपभोक्ता को कोई लाभ होता नहीं दिख रहा है। बल्कि यूं कहना ज्यादा सही होगा कि किसान के साथ उपभोक्ता और सरकार तीनों को नुकसान है।
ऐसे में सवाल मौजूं हो उठता है कि किसान व उपभोक्ता के नाम पर, सरकार यह सब क्या व क्यूं कर रही है? क्या निजीकरण ही एकमात्र रास्ता है। फिर भले इसकी जद में किसान से लेकर उपभोक्ता तक ही क्यों न आ जाएं।
दरअसल, ये अध्यादेश भारत के करोड़ों किसान परिवारों के भविष्य से जुड़े हैं। दूसरा, जहां सरकार व अनेक अर्थशास्त्री मानते हैं कि कोरोना काल में किसानों की मेहनत/कृषि क्षेत्र के आधार पर ही देश की अर्थव्यवस्था का पहिया घूम रहा है। वहां सरकार के एमएसपी से पल्ला झाड़ने की कोशिशों पर चिंता स्वाभाविक है। वैसे देखें तो सी2+50% फार्मूले के अनुसार, किसानों को फसलों का एमएसपी भी नहीं मिल पा रहा है। उसके बावजूद वह किसी तरह जीवन यापन कर रहे हैं। लेकिन नए अध्यादेशों के बाद किसानों को डर है कि यदि खुली (एक देश एक बाजार) मार्केट के चक्कर में सरकार ने बिहार की तरह एमएसपी पर खरीद बंद कर दी तो खेती किसानी के साथ खाद्यान्न सुरक्षा का भी संकट में फंसना तय है।
खैर, तमाम डर और दावों के बीच अध्यादेशों पर नज़र डालें तो.. पहला अध्यादेश 'एक देश, एक कृषि बाजार यानि खुली मार्केट' का है। इस अध्यादेश के माध्यम से पैन कार्डधारक कोई व्यक्ति, कंपनी, सुपर मार्केट किसी भी किसान का माल किसी भी जगह खरीद सकते हैं। कृषि उत्पादों की बिक्री एपीएमसी यार्ड (मंडी) में होने की शर्त केंद्र सरकार ने खत्म कर दी है। महत्वपूर्ण यह है कि कृषि उपज की जो खरीद मंडी से बाहर होगी, उस पर किसी तरह का टैक्स या शुल्क भी नहीं लगेगा। जबकि मंडी में टैक्स व शुल्क लगते हैं। ऐसे में कोई क्यूंकर मंडी जाएगा। मंडी धीरे धीरे खुद ही अस्तित्व खो देंगी। हालांकि केंद्र सरकार का दावा है कि इस अध्यादेश से किसानों को लाभ होगा। किसान पूरे देश में कहीं भी किसी को भी फसल बेचने को स्वतंत्र होंगे।
अब सरकार लाख कहे लेकिन जमीनी हकीकत देखें तो किसान अपनी थोड़ी थोड़ी उपज को देश भर में कहां बेचने जाएंगे। 85% छोटे किसान हैं जो मशीनरी व बारदाने आदि की समस्या के चलते ज़िले या आसपास की मंडी तक नहीं जा पाते हैं। बड़ी कंपनी या बड़े व्यापारी ही दूसरे राज्यों में माल ले जा सकते हैं। उन्हीं को लाभ होगा। अध्यादेश में किसानों का माल खरीदने वाले पैन कार्ड धारक व्यक्ति व कंपनी को 3 दिन में किसानों की पेमेंट करनी होगी। भुगतान आदि विवाद पर डीएम व एसडीएम ही शिकायत सुन सकेंगे।
यहां ध्यान रखने योग्य बात यह है कि केंद्र सरकार ने इस बात की कोई गारंटी नहीं दी है कि प्राइवेट पैन कार्डधारक व्यक्ति, कम्पनी द्वारा किसानों के माल की खरीद, न्यूनतम समर्थन मूल्य पर की जाएगी। यही सबसे बड़ा डर किसानों को है कि जब फसल तैयार होंगी, उस समय बड़ी-बड़ी कम्पनियां जानबूझकर उपज का दाम गिरा देंगी और जमाखोरी कर बाद में उपभोक्ताओं (ग्राहकों) को ऊंचे दामों पर बेचेंगी।
दूसरा अध्यादेश आवश्यक वस्तु अधिनियम का है जिसमें आलू, प्याज़, दलहन, तिलहन व तेल के एक लिमिट से अधिक के भंडारण पर लगी रोक को हटा लिया गया है। यानि बड़ी बड़ी कंपनी कितना भी भंडारण करें, कोई रोक नहीं होगी। ऐसे में अनाड़ी से अनाड़ी भी बता देगा कि इससे कालाबाज़ारी बढ़ेगी। बड़ी कंपनी, बड़े पैमाने पर कृषि उत्पादों की खरीद व भंडारण करेंगी और बाद में ऊंचे दामों पर बेचकर मुहमांगा मुनाफा बनाएंगी।
तीसरा अध्यादेश कॉन्ट्रैक्ट खेती को बढ़ावा देने संबंधी है। किसान कहते हैं कि अध्यादेश के जरिये केंद्र सरकार, पश्चिमी मॉडल थोपना चाहती है। लेकिन सरकार यह भूल जाती है कि हमारे यहां खेती-किसानी जीवनयापन का साधन है जबकि पश्चिमी देशों में यह व्यवसाय है। कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में फसलों की बुआई से पहले कंपनियां एक निश्चित मूल्य पर उपज खरीदने का वादा करती हैं लेकिन फसल आने पर उपज की गुणवत्ता आदि को लेकर ना-नुकर आदि विवाद होता है। याद भी होगा। गुजरात में पेप्सिको कंपनी ने किसानों पर कई करोड़ का मुकदमा कर दिया था जिसे किसान संगठनों के विरोध के बाद वापस लेना पड़ा था।
किसान चिंतक व भारत कृषक समाज के राष्ट्रीय कन्वीनर रहे प्रीतम चौधरी कहते हैं कि खुली मार्केट व स्टॉक लिमिट हटाने के नए अध्यादेशों से न सिर्फ किसान को नुकसान होगा बल्कि आम उपभोक्ता को भी कोई लाभ होता नहीं दिख रहा है। किसान को उसकी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल सकेगा जबकि उपभोक्ता को भी सामान महंगा मिलेगा। वहीं, सरकार को भी मंडी राजस्व का बड़ा नुकसान होगा। यानि कारपोरेट घरानों और बड़ी कंपनियों के सिवा, किसी किसान व उपभोक्ता को कोई लाभ होता नहीं दिख रहा है। बल्कि यूं कहना ज्यादा सही होगा कि किसान के साथ उपभोक्ता और सरकार तीनों को नुकसान है।
ऐसे में सवाल मौजूं हो उठता है कि किसान व उपभोक्ता के नाम पर, सरकार यह सब क्या व क्यूं कर रही है? क्या निजीकरण ही एकमात्र रास्ता है। फिर भले इसकी जद में किसान से लेकर उपभोक्ता तक ही क्यों न आ जाएं।