गाड़ी तेज गति से दुकान के सामने आकर रुकी, पर आवाज न आई। जिस स्पीड से वह आकर सीधे रुक गई और आवाज भी न हुआ इससे यह तो पता चल गया कि वह महंगे ब्रांड की है। कोई आम गाड़ी होती तो ब्रेक लगने की आवाज पूरे मार्किट में सुनाई देती। गाड़ी का दरवाजा थोड़ा खुला। एक पैर जूते और काले पेंट के साथ बाहर निकला। पैर जमीन पर रख दिया गया। इस रखने में पृथ्वी के प्रति सम्मान था। आहिस्ता से रखा गया था पैर। जूते के निचले हिस्से की बनावट भी कुछ ऐसे ही थी कि जमीन को तकलीफ न हो। दरवाजा अब पूरा खुला। एक सज्जन से दिखने वाले व्यक्ति ने पूरी तरह से बाहर निकलने की प्रक्रिया आरम्भ की। उन्होंने अपने गोद में रखी किताब सामने रख दी। अपने कपड़े को ससम्मान सीधा किया। दूसरे पैर को गाड़ी से बाहर रख वह सज्जन सीधे खड़े हो गए। ड्राइवर ने दरवाजा बंद किया।
इस पूर्ण होती प्रक्रिया के दौरान मैंने किताब देखने का सफल प्रयास कर लिया था। कोई धार्मिक किताब थी। मैं अक्सर देखता हूँ सज्जन लोग, सम्पन्न लोग,साहब से दिखने वाले लोग धार्मिक किताबें पढ़ते हैं। मैं ढूंढता हूँ कि कोई सज्जन अपनी गोद से सामने ऐसी किताब रखता दिख जाए जो कश्मीर पर लिखी हो, दंतेवाड़ा की बात करती हो, दलित विमर्श पर हो या फिर फेमिनिज्म पर हो। पर ऐसा कभी न दिखा। मैं इस बात को लेकर दुखी होना चाहता हूं। पर नहीं होता। लोकतंत्र है सबकी अपनी पसंद है।
तो सज्जन जो अभी अभी गाड़ी से बाहर निकले थे जो महंगी थी उन्होंने मेरी तरफ देखा। मैंने उनकी तरफ देखा। उन्होंने टमाटर की तरफ देखा, फिर मेरी तरफ देखा। उनके इस तरह से देखने का आशय यह था कि मैं टमाटर के भाव बता दूं। मैंने नहीं बताया। मैं उनके मुंह से निकले शब्द सुनना चाहता था। पर इस मामले में वह बहुत कंजूस नजर आए। मेरा अनुभव रहा है कि बड़ा आदमी छोटे लोगों से बात करने में शब्द खर्च नहीं करता है या बहुत कम शब्द खर्च करता है। मेरे सामने खड़े सज्जन मेरे इस अनुभव की पुष्टि करते नजर आ रहे थे।
उन्होंने भाव पूछने की अगली चाल चली। टमाटर की तरफ हाथ दिखाकर उन्होंने हवा में भाव पूछने वाले अंदाज में हाथ हिलाया। उन्होंने एक भी शब्द न कहने की अपनी चाल चल दी थी। अब मेरी बारी थी। मैंने भी अपने अनुभव का इस्तेमाल किया और दो बार चार उंगलियां दिखा दी। उन्होंने मुंह को ऐसा बनाया कि मैं समझ जाऊं कि वह कह रहे हैं यह महंगा है। मैंने हां में सिर हिलाकर उनकी बात का समर्थन किया कि आप सही कह रहे हैं। मेरे सिर हिलाने पर जैसे वह विजयी हो गए। थोड़ी सी मुस्कान उनके होंठो पर रेंगी। पर उस सज्जन से ढीठ इंसान के मुख से अबतक एक भी शब्द न फूटे थे।
उन्होंने अगला प्रयास शुरू किया। दाहिने हाथ की चारों उंगलियों को दो बार नीचे किया। उनके इस तरह से कहने का मतलब यह था कि मैं भाव कुछ कम कर लूं। पर मैंने सिर को न कहने की स्टाइल में हिला दिया। वे उदास हुए। मैं भी उदास हुआ। उनके उदास होने का कारण अलग था, मेरे उदास होने का कारण अलग था। वे उदास इसलिए हुए कि मैंने टमाटर के भाव कम नहीं किए और मैं उदास इसलिए हुआ कि उस सज्जन के मुंह से अभीतक एक भी शब्द न फूटे थे।
मेरी उदासी दूर हुई। उस सज्जन ने मुंह खोला और कहा- इट्स टू कॉस्टली।
आवाज मधुर थी। उसमें नम्रता भी थी। पर शब्द मुझे चुभे। मैं बड़े और साहब टाइप के लोगों से इस बात कि उम्मीद नहीं करता कि वह कहे 'इट्स टू कॉस्टली'। पर मैं अधिकतर बार धोका खा जाता हूँ और साहब लोग मेरा दिल तोड़ देते हैं।
इस भाव पूछने, मोल करने की प्रक्रिया के दौरान सज्जन जो अभी गाड़ी से उतरे थे जो महंगी थी उनके गाड़ी की AC चालू थी। मैं सोचता कि साहब को बता दूं कि पेट्रोल का बाजार लगातार पिछले हफ्ते बढ़ा है AC बन्द कर दीजिए। पर मैंने नहीं कहा। सज्जन से दिखने वाले व्यक्ति के पास इसको डिफेंड करने हजारों तर्क होंगे मैंने ऐसा मान लिया। मैं नहीं चाहता कि इसपर बहस हो। बहस करने के हजारों विषय हो सकते हैं। मैं चाहता हूं कि कोई सम्पन्न सज्जन बड़ी गाड़ी से उतरे और मुझसे तमाम सामाजिक, राजनैतिक मुद्दों पर बहस करे। कोई सज्जन कहे- हे सब्जी वाले, सरकार रेलवे में निजी क्षेत्र को बढ़ावा दे रही है, इससे मिडिल क्लास किस तरह प्रभावित होगा, नौकरियों पर इसका क्या असर होगा ?
कोई सज्जन बड़ी गाड़ी से पत्नी के साथ उतरे और मुझसे फेमिनिज्म पर ही बात करने लगे। कोई मुझसे बस्तर, दंतेवाड़ा, सोनभद्र, कश्मीर पर ही बहस शुरू कर दे। या फ़िल्म की चर्चा करने लगे कि किस तरह से पिछले चार सालों में फिल्मों बॉलीवुड में कहानियों के चयन में बदलाव हुआ है। पर ऐसा होता नहीं है। लोग मुझसे टमाटर और नींबू के भाव को लेकर बहस करते हैं। सबका उद्देश्य मात्र दाम कम करा लेना होता है।
वो सज्जन टू कॉस्टली कहने के बाद मेरी तरफ देखे जा रहे थे। मैंने भाव कम करने का मन बना लिया था। तबतक पुलिस की गाड़ी आकर दुकान से थोड़ा आगे रुकी। गाड़ी के अंदर से एक पुलिस वाले ने मुझे इशारे से बुलाया। मैं गया। तीन सेकेंड की बातचीत के बाद मैं वापस आ गया। पुलिस की गाड़ी चली गई। उस सामने खड़े सज्जन ने मुझसे पूछा;- क्या कह रहा था वह ?
मैंने उन्हें उनके प्रश्न से भटकाने के उद्देश्य से कहा- ले लो टमाटर 75 का किलो लगा दूंगा।
पर वह सज्जन अपने शब्द एक सब्जी वाले पर खर्च करने पर उतारू हो गये। उन्होंने फिर कहा- बताओ न क्या बात हुई ?
मैंने कहा- ले लो 70 लगा देता हूँ।
उन्होंने फिर कहा- पुलिस वाले ने पैसे मांगे ?
मैंने कहा- तुम्हें कैसे पता ?
उनसे फिर कहा- वह और किसलिए आएगा तुम्हारे पास ?
मैंने कहा- और भी तो काम हो सकते हैं !
वह अब दृढ़ता से बोले- क्यों देते हो पैसे ?
मेरे अंदर एक उदासी छाई। मैंने धड़कते दिल से कहा- साहब पैसे न दें तो यहां तूतीकोरिन जैसी घटना रोज होने का डर बना रहता है।
उनकी आंखें फैल गई। तूतीकोरिन शब्द उनके लिए नया था। उन्होंने पूछा- तूतीकोरिन क्या है ?
मैंने कहा- मोबाइल तो है आपके पास गूगल कर लीजिए तूतीकोरिन करेंट न्यूज़।
वह सज्जन मोबाइल निकालर तूतीकोरिन सर्च करने लगे। करीब चार मिनट के बाद उन्होंने कहा ढाई किलो टमाटर तौल दो। मैंने उन्हें ढाई किलो टमाटर तौलकर दिए। सज्जन ने मेरी तरफ दो सौ की नोट बढ़ाई और सॉरी कहकर गाड़ी की तरफ मुड़ गए। ड्राइवर ने दरवाजा खोला सज्जन गाड़ी में समा गए। गाड़ी ने जगह से ही पिकअप बनाया और कुछ ही क्षण में आँखों से दूर निकल गई। तूतीकोरिन की घटना को याद कर मेरा दिल अब भी धड़क रहा था।
इस पूर्ण होती प्रक्रिया के दौरान मैंने किताब देखने का सफल प्रयास कर लिया था। कोई धार्मिक किताब थी। मैं अक्सर देखता हूँ सज्जन लोग, सम्पन्न लोग,साहब से दिखने वाले लोग धार्मिक किताबें पढ़ते हैं। मैं ढूंढता हूँ कि कोई सज्जन अपनी गोद से सामने ऐसी किताब रखता दिख जाए जो कश्मीर पर लिखी हो, दंतेवाड़ा की बात करती हो, दलित विमर्श पर हो या फिर फेमिनिज्म पर हो। पर ऐसा कभी न दिखा। मैं इस बात को लेकर दुखी होना चाहता हूं। पर नहीं होता। लोकतंत्र है सबकी अपनी पसंद है।
तो सज्जन जो अभी अभी गाड़ी से बाहर निकले थे जो महंगी थी उन्होंने मेरी तरफ देखा। मैंने उनकी तरफ देखा। उन्होंने टमाटर की तरफ देखा, फिर मेरी तरफ देखा। उनके इस तरह से देखने का आशय यह था कि मैं टमाटर के भाव बता दूं। मैंने नहीं बताया। मैं उनके मुंह से निकले शब्द सुनना चाहता था। पर इस मामले में वह बहुत कंजूस नजर आए। मेरा अनुभव रहा है कि बड़ा आदमी छोटे लोगों से बात करने में शब्द खर्च नहीं करता है या बहुत कम शब्द खर्च करता है। मेरे सामने खड़े सज्जन मेरे इस अनुभव की पुष्टि करते नजर आ रहे थे।
उन्होंने भाव पूछने की अगली चाल चली। टमाटर की तरफ हाथ दिखाकर उन्होंने हवा में भाव पूछने वाले अंदाज में हाथ हिलाया। उन्होंने एक भी शब्द न कहने की अपनी चाल चल दी थी। अब मेरी बारी थी। मैंने भी अपने अनुभव का इस्तेमाल किया और दो बार चार उंगलियां दिखा दी। उन्होंने मुंह को ऐसा बनाया कि मैं समझ जाऊं कि वह कह रहे हैं यह महंगा है। मैंने हां में सिर हिलाकर उनकी बात का समर्थन किया कि आप सही कह रहे हैं। मेरे सिर हिलाने पर जैसे वह विजयी हो गए। थोड़ी सी मुस्कान उनके होंठो पर रेंगी। पर उस सज्जन से ढीठ इंसान के मुख से अबतक एक भी शब्द न फूटे थे।
उन्होंने अगला प्रयास शुरू किया। दाहिने हाथ की चारों उंगलियों को दो बार नीचे किया। उनके इस तरह से कहने का मतलब यह था कि मैं भाव कुछ कम कर लूं। पर मैंने सिर को न कहने की स्टाइल में हिला दिया। वे उदास हुए। मैं भी उदास हुआ। उनके उदास होने का कारण अलग था, मेरे उदास होने का कारण अलग था। वे उदास इसलिए हुए कि मैंने टमाटर के भाव कम नहीं किए और मैं उदास इसलिए हुआ कि उस सज्जन के मुंह से अभीतक एक भी शब्द न फूटे थे।
मेरी उदासी दूर हुई। उस सज्जन ने मुंह खोला और कहा- इट्स टू कॉस्टली।
आवाज मधुर थी। उसमें नम्रता भी थी। पर शब्द मुझे चुभे। मैं बड़े और साहब टाइप के लोगों से इस बात कि उम्मीद नहीं करता कि वह कहे 'इट्स टू कॉस्टली'। पर मैं अधिकतर बार धोका खा जाता हूँ और साहब लोग मेरा दिल तोड़ देते हैं।
इस भाव पूछने, मोल करने की प्रक्रिया के दौरान सज्जन जो अभी गाड़ी से उतरे थे जो महंगी थी उनके गाड़ी की AC चालू थी। मैं सोचता कि साहब को बता दूं कि पेट्रोल का बाजार लगातार पिछले हफ्ते बढ़ा है AC बन्द कर दीजिए। पर मैंने नहीं कहा। सज्जन से दिखने वाले व्यक्ति के पास इसको डिफेंड करने हजारों तर्क होंगे मैंने ऐसा मान लिया। मैं नहीं चाहता कि इसपर बहस हो। बहस करने के हजारों विषय हो सकते हैं। मैं चाहता हूं कि कोई सम्पन्न सज्जन बड़ी गाड़ी से उतरे और मुझसे तमाम सामाजिक, राजनैतिक मुद्दों पर बहस करे। कोई सज्जन कहे- हे सब्जी वाले, सरकार रेलवे में निजी क्षेत्र को बढ़ावा दे रही है, इससे मिडिल क्लास किस तरह प्रभावित होगा, नौकरियों पर इसका क्या असर होगा ?
कोई सज्जन बड़ी गाड़ी से पत्नी के साथ उतरे और मुझसे फेमिनिज्म पर ही बात करने लगे। कोई मुझसे बस्तर, दंतेवाड़ा, सोनभद्र, कश्मीर पर ही बहस शुरू कर दे। या फ़िल्म की चर्चा करने लगे कि किस तरह से पिछले चार सालों में फिल्मों बॉलीवुड में कहानियों के चयन में बदलाव हुआ है। पर ऐसा होता नहीं है। लोग मुझसे टमाटर और नींबू के भाव को लेकर बहस करते हैं। सबका उद्देश्य मात्र दाम कम करा लेना होता है।
वो सज्जन टू कॉस्टली कहने के बाद मेरी तरफ देखे जा रहे थे। मैंने भाव कम करने का मन बना लिया था। तबतक पुलिस की गाड़ी आकर दुकान से थोड़ा आगे रुकी। गाड़ी के अंदर से एक पुलिस वाले ने मुझे इशारे से बुलाया। मैं गया। तीन सेकेंड की बातचीत के बाद मैं वापस आ गया। पुलिस की गाड़ी चली गई। उस सामने खड़े सज्जन ने मुझसे पूछा;- क्या कह रहा था वह ?
मैंने उन्हें उनके प्रश्न से भटकाने के उद्देश्य से कहा- ले लो टमाटर 75 का किलो लगा दूंगा।
पर वह सज्जन अपने शब्द एक सब्जी वाले पर खर्च करने पर उतारू हो गये। उन्होंने फिर कहा- बताओ न क्या बात हुई ?
मैंने कहा- ले लो 70 लगा देता हूँ।
उन्होंने फिर कहा- पुलिस वाले ने पैसे मांगे ?
मैंने कहा- तुम्हें कैसे पता ?
उनसे फिर कहा- वह और किसलिए आएगा तुम्हारे पास ?
मैंने कहा- और भी तो काम हो सकते हैं !
वह अब दृढ़ता से बोले- क्यों देते हो पैसे ?
मेरे अंदर एक उदासी छाई। मैंने धड़कते दिल से कहा- साहब पैसे न दें तो यहां तूतीकोरिन जैसी घटना रोज होने का डर बना रहता है।
उनकी आंखें फैल गई। तूतीकोरिन शब्द उनके लिए नया था। उन्होंने पूछा- तूतीकोरिन क्या है ?
मैंने कहा- मोबाइल तो है आपके पास गूगल कर लीजिए तूतीकोरिन करेंट न्यूज़।
वह सज्जन मोबाइल निकालर तूतीकोरिन सर्च करने लगे। करीब चार मिनट के बाद उन्होंने कहा ढाई किलो टमाटर तौल दो। मैंने उन्हें ढाई किलो टमाटर तौलकर दिए। सज्जन ने मेरी तरफ दो सौ की नोट बढ़ाई और सॉरी कहकर गाड़ी की तरफ मुड़ गए। ड्राइवर ने दरवाजा खोला सज्जन गाड़ी में समा गए। गाड़ी ने जगह से ही पिकअप बनाया और कुछ ही क्षण में आँखों से दूर निकल गई। तूतीकोरिन की घटना को याद कर मेरा दिल अब भी धड़क रहा था।