आज पूरे विश्व में वैशाख पूर्णिमा या बुद्ध पूर्णिमा मनाई जा रही है। इस अवसर पर सभी को शुभकामनाएं। बुद्ध ने दुनिया को न केवल वैज्ञानिक चिंतन सिखाया अपितु करुणा और मैत्री को अपनी विचार धारा का मुख्य बिंदु बनाकर दुनिया में बदलाव की एक नीव रखी। बुद्ध के सम्पूर्ण दर्शन के केंद्र में मानव कल्याण की भावना है और यही बात उन्हें अपने समय से पहले और बाद के 'विचारको' से अलग करती है. उन्होंने कभी स्वयं को न तो भगवान् बताया और न ही भगवान् की संतान। उन्होंने न कोई चमत्कार करने की बात कही और न ही ऐसा कुछ किया.
भारत जैसे देश को आज बुद्ध के विचारों की पहले से ज्यादा जरूरत है। इसलिए नहीं कि एक और 'संगठित' पंथ आधारित विचार रखने के लिए बल्कि इसलिए कि मानवता को बचाने की जरूरत है। भारत बुद्ध का जन्म स्थान है और हमें इस पर गर्व महसूस करने की आवश्यकता है। हां, पहले मुझे यह सुनकर काफी आश्चर्य हुआ जब मैं नागपुर में भदंत नागार्जुन सुरई ससाई के साथ बात चीत कर रहा था। मैंने उनसे पूछा कि बुद्ध का जन्म स्थल तो लुम्बिनी में है जो नेपाल में है। 'नहीं', सुसाई ने कहा। लुम्बिनी में जन्म लेने वाला व्यक्ति सिद्धार्थ था जो राजा शुद्धोधन का पुत्र था, लेकिन बुद्ध का जन्म भारत में हुआ था, गया में, जहा उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हुआ था.।
यह विडंबना है कि दुनिया भर के बौद्ध लोगों के लिए उनका सबसे पवित्र स्थल उनके हाथ में नहीं है और यह पवित्र भूमि आज भी ब्राह्मणवादी नियंत्रण में है। अयोध्या में ऐतिहासिक भूल 'को' सही करने की इच्छा रखने वाले 'भक्तों' की टोली और अन्य सभी, बोधगया में महा बोधि मंदिर के बारे में एक शब्द भी नहीं बोलते हैं। हमें उम्मीद है कि एक दिन बौद्धों को इसके मामलों का प्रबंधन करने के लिए सौंप दिया जाएगा। हमारी न्यायिक प्रणाली इस मुद्दे को कैसे देखती है ये तो अब तक दिखाई दिया है लेकिन उम्मीद करते है के देर सवेर वे इस अन्याय को दूर करेंगे।
बुद्ध और उनकी शिक्षा अब और अधिक प्रासंगिक हो गए हैं जब नफरत और पूर्वाग्रह कोरोना वायरस की तुलना में बहुत तेजी से फैल रहे हैं। आज हम इन महामारियों में भी खलनायक ढूंढने के प्रयास कर रहे है और लोगों को अंधविश्वासी’ बना रहे हैं। कोरोना के खिलाफ लड़ाई को हमने लोगों और समुदायों के खिलाफ में बदल दिया है जो बेहद खतरनाक है। आज अति उग्रता और कठोरता से बाहर निकलने का समय है। बुद्ध ने हर समय जो बात की वह मध्य मार्ग था। जीवन में सफल होने के लिए, यह मध्य मार्ग समय की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। मुझे यकीन है कि इस मध्य मार्ग के लिए बुद्ध की सीख हमें उम्र के पुराने पूर्वाग्रहों को दूर करने में मदद करेगी और उन्हें आत्मनिरीक्षण करने में मदद मिलेगी जो पारंपरिक दर्शन का हिस्सा है। जब भी और जहां संभव हो, आत्मनिरीक्षण और सुधार करने की आवश्यकता होती है। मानव गलतियों को करने के लिए प्रवृत्त होता है और यह मानव की आत्म शक्ति है कि वे उसे स्वीकारता है और सुधारता भी है । गलतिया करने में कोई बुराई नहीं यदि वो अनजाने में हुई. उसे स्वीकारने में कोई हर्ज नहीं अपितु हमें बढ़ने की हिम्मत मिलती है और दिल पर रखा बोझ ख़त्म हो जाता है. गलतिया स्वीकारने में किसी की हार नहीं होती अपितु आपके मज़बूत व्यक्तित्व के दर्शन होते है.
'कारण' के लिए तर्क हमें कहीं नहीं ले जाएगा। हमें साथी नागरिकों के प्रति करुणा और संवेदनशीलता का निर्माण करने की आवश्यकता है। 'विज्ञान' के विकास से लाभ को प्राप्त करने का विचार एक वाणिज्यिक हो सकता है और आज दक्षिण पंथी धार्मिक शक्तियो ने हमेशा 'पूंजीवाद' के जरिये विज्ञान के व्यवायीकरण से खुद को लाभान्वित किया है। स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए, जो असंतोष और असफलताओं का भी सम्मान करता है, हमें गंभीरता से 'वैज्ञानिक सोच' और 'जांच की भावना' का निर्माण करने की आवश्यकता है। जब हम पैदा होते हैं तो हममें से हर एक में ये तार्किक मानववादी भावना होती है लेकिन हमारा सामाजिक परिवेश हमें अंध विश्वासी बना देता है और कई बार ऐसी बातों का पालन करने के लिए मजबूर करता है जो तर्कहीन और अमानवीय हैं और इस प्रकार धीरे-धीरे, एक तर्कसंगत इंसान एक 'वफादार' 'आस्तिक' के रूप में परिवर्तित हो जाता है, जो ज्यादातर समय उन सभी को संदेह की नज़र से देखता है जो उसकी बातो से असहमत रहते है या उसकी सोच से भिन्नता रखते है। वह दूसरों के विश्वास के संदर्भ में यह नहीं सोच सकता है के वे भी अपने विचारों के प्रति वफादार हो सकते हैं।
मानव धीरे धीरे विकसित होता है और ऐसे ही धर्म भी विकसित होता है, हालांकि हम में से कोई भी अपनी धार्मिक 'गाइडबुक' को नहीं बदल सकता है। कोई भी धार्मिक पुस्तक जांच के लिए खुली नहीं है और यही कारण है कि जब लोकतंत्र हमारे जीवन का हिस्सा बन गया तो हमें भी नियमावली चाहिए थी जो हमारे धार्मिक ग्रंथों से भिन्न हो. हमें एहसास हुआ कि हमें अपनी पवित्र कानून की पुस्तकों की आवश्यकता है, जिसे समय और आवश्यकता के अनुसार संशोधित किया जा सकता है। । इसलिए हमारे पास इतने सारे संशोधन हैं और कानून बनाने के अधिकार है जबक़ि हम अपनी धार्मिक पुस्तकों से एक भी अल्पविराम या एक पंक्ति नहीं बदल सकते। हमें बताया गया है कि 'सभी' धर्मों में 'महान' गुण हैं। मैं सहमत हूं लेकिन मैं यहां एक राइडर जोड़ना चाहता हूं, सभी धर्मों में जबरदस्त सामंती, पितृसत्तात्मक, अतार्किक, जनविरोधी विचार भी हैं। जिस दिन हम धर्मों की आलोचना करना सीखेंगे और इन आलोचनाओं को स्वीकार करेंगे और जिसे किसी को किसी के वर्चस्व को चुनौती देना नहीं समझा जाएगा या किसी 'वफादार' के खिलाफ साजिश कोई साजिश के आरोप नहीं लगेंगे , तो दुनिया बेहतर होगी।
बुद्ध ने हमारी जन्म आधारित जाति व्यवस्था के पीड़ितों लाखों लोगों को गरिमा की अस्मिता प्रदान की है. बाबा साहेब अम्बेडकर बताते है के इसमें तर्क और करुणा के साथ साथ व्यक्ति के स्वाभिमान के साथ पहचान है इसीलिये वह प्रबुद्ध भारत करने लगे क्योंकि वह जानते थे जाति का निर्मूलन जाति के अंदर रहने से सफल नहीं होगा और हमें इससे बाहर आना होगा. उसके लिए उन्होंने हमें धम्म का रास्ता दिखाया ताके हमारे सामने कोई संशय न हो। उन मार्गदर्शक सिद्धांतों को याद करने के लिए हम सभी को 22 प्रतिज्ञाएँ अपने दिलो में उतार लेनी चाहिए जो उन्होंने लाखो लोगों के सामने 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में दीक्षा ग्रहण कराने के समय पढ़ी थी, भारतीय स्थिति में जाति का उन्मूलन बुद्ध के तर्क और मानववाद के माध्यम से ही संभव है, जब आप 'जन्म आधारित' व्यवस्था की सर्वोच्चता चुनौती देते है और स्वयं ईश्वर के विचार को चुनौती देते हैं। बुद्ध ने उस ज्ञान प्रणाली का लोकतांत्रिकरण किया जो ब्राह्मणवादी अभिजात वर्ग द्वारा संस्कृत को देव भाषा बनाने के नाम पर केवल ब्राह्मणवादी शकितयों तक सीमित थी और यहाँ के बहुजन समाज को उससे दूर रखती थी । बुद्ध ने लोगों की भाषा में उपदेश दिया इसलिए पाली का इस्तेमाल किया ताकि ज्ञान जनभाषा में हो। इसलिए एक मजबूत लोकतंत्र के निर्माण के लिए ज्ञान प्रणाली का लोकतंत्रीकरण आवश्यक है। ज्ञान के लोकतंत्रीकरण से समाज का लोकतांत्रिकरण होगा जो केवल राजनीतिक लोकतंत्र को मजबूत करेगा। भारत राजनीतिक लोकतंत्र में विफल हो रहा है क्योंकि हमारी सामाजिक सांस्कृतिक परम्पराये और नैतिक मूल्य अभी भी वर्णाश्रम धर्म की जातिवादी नैतिकता से प्रभावित है जिसने भारत के बहुजन समाज को शिक्षा के अधिकार से वंचित किया है। बुद्ध ने उन्हें तोड़ दिया और जो लोग उनके मार्ग का अनुसरण करते थे या उनके विचारों के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त करते है , वे वास्तव में आगे बढ़े और बेहतर समाजों का निर्माण किया, जबकि हमने एक असमान सामाजिक व्यवस्था के अत्याचार का सामना किया।
एक प्रबुद्ध भारत विविध विश्वासों और कानून या संविधान के शासन आधारित प्रणाली का सम्मान करेगा जहां सभी नागरिक समान हैं लेकिन एक ही समय में, यह केवल एक कानून आधारित मजबूरी नहीं है अपितु हम सबके अंदर बसी सांस्कृतिक वैचारिक चेतना से होगा जिसके मूल में समता और भ्रातृत्व है । जबकि हम संवैधानिक नैतिकता के बारे में बात करते हैं, यह भी महत्वपूर्ण है कि एक समाज के रूप में हमें एक साथ रहना, असंतोष और खाद्य संस्कृति की विविधता का सम्मान करना सीखना होगा। हम चमत्कारों की प्रतीक्षा नहीं कर रहे हैं और न ही हमारे पास 'सुपरमैन' और 'सुपर गॉड्स' हैं जो लोगों की 'रक्षा' करते हैं, लोगों की वास्तविक शक्ति और मुक्ति केवल आत्मज्ञान, आत्मनिरीक्षण, तर्क, मानवता, करुणा और मैत्री के साथ रहने से संभव है।
बुद्ध पूर्णिंमा के अवसर पर सभी को शुभकामनायें !!
भारत जैसे देश को आज बुद्ध के विचारों की पहले से ज्यादा जरूरत है। इसलिए नहीं कि एक और 'संगठित' पंथ आधारित विचार रखने के लिए बल्कि इसलिए कि मानवता को बचाने की जरूरत है। भारत बुद्ध का जन्म स्थान है और हमें इस पर गर्व महसूस करने की आवश्यकता है। हां, पहले मुझे यह सुनकर काफी आश्चर्य हुआ जब मैं नागपुर में भदंत नागार्जुन सुरई ससाई के साथ बात चीत कर रहा था। मैंने उनसे पूछा कि बुद्ध का जन्म स्थल तो लुम्बिनी में है जो नेपाल में है। 'नहीं', सुसाई ने कहा। लुम्बिनी में जन्म लेने वाला व्यक्ति सिद्धार्थ था जो राजा शुद्धोधन का पुत्र था, लेकिन बुद्ध का जन्म भारत में हुआ था, गया में, जहा उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हुआ था.।
यह विडंबना है कि दुनिया भर के बौद्ध लोगों के लिए उनका सबसे पवित्र स्थल उनके हाथ में नहीं है और यह पवित्र भूमि आज भी ब्राह्मणवादी नियंत्रण में है। अयोध्या में ऐतिहासिक भूल 'को' सही करने की इच्छा रखने वाले 'भक्तों' की टोली और अन्य सभी, बोधगया में महा बोधि मंदिर के बारे में एक शब्द भी नहीं बोलते हैं। हमें उम्मीद है कि एक दिन बौद्धों को इसके मामलों का प्रबंधन करने के लिए सौंप दिया जाएगा। हमारी न्यायिक प्रणाली इस मुद्दे को कैसे देखती है ये तो अब तक दिखाई दिया है लेकिन उम्मीद करते है के देर सवेर वे इस अन्याय को दूर करेंगे।
बुद्ध और उनकी शिक्षा अब और अधिक प्रासंगिक हो गए हैं जब नफरत और पूर्वाग्रह कोरोना वायरस की तुलना में बहुत तेजी से फैल रहे हैं। आज हम इन महामारियों में भी खलनायक ढूंढने के प्रयास कर रहे है और लोगों को अंधविश्वासी’ बना रहे हैं। कोरोना के खिलाफ लड़ाई को हमने लोगों और समुदायों के खिलाफ में बदल दिया है जो बेहद खतरनाक है। आज अति उग्रता और कठोरता से बाहर निकलने का समय है। बुद्ध ने हर समय जो बात की वह मध्य मार्ग था। जीवन में सफल होने के लिए, यह मध्य मार्ग समय की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। मुझे यकीन है कि इस मध्य मार्ग के लिए बुद्ध की सीख हमें उम्र के पुराने पूर्वाग्रहों को दूर करने में मदद करेगी और उन्हें आत्मनिरीक्षण करने में मदद मिलेगी जो पारंपरिक दर्शन का हिस्सा है। जब भी और जहां संभव हो, आत्मनिरीक्षण और सुधार करने की आवश्यकता होती है। मानव गलतियों को करने के लिए प्रवृत्त होता है और यह मानव की आत्म शक्ति है कि वे उसे स्वीकारता है और सुधारता भी है । गलतिया करने में कोई बुराई नहीं यदि वो अनजाने में हुई. उसे स्वीकारने में कोई हर्ज नहीं अपितु हमें बढ़ने की हिम्मत मिलती है और दिल पर रखा बोझ ख़त्म हो जाता है. गलतिया स्वीकारने में किसी की हार नहीं होती अपितु आपके मज़बूत व्यक्तित्व के दर्शन होते है.
'कारण' के लिए तर्क हमें कहीं नहीं ले जाएगा। हमें साथी नागरिकों के प्रति करुणा और संवेदनशीलता का निर्माण करने की आवश्यकता है। 'विज्ञान' के विकास से लाभ को प्राप्त करने का विचार एक वाणिज्यिक हो सकता है और आज दक्षिण पंथी धार्मिक शक्तियो ने हमेशा 'पूंजीवाद' के जरिये विज्ञान के व्यवायीकरण से खुद को लाभान्वित किया है। स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए, जो असंतोष और असफलताओं का भी सम्मान करता है, हमें गंभीरता से 'वैज्ञानिक सोच' और 'जांच की भावना' का निर्माण करने की आवश्यकता है। जब हम पैदा होते हैं तो हममें से हर एक में ये तार्किक मानववादी भावना होती है लेकिन हमारा सामाजिक परिवेश हमें अंध विश्वासी बना देता है और कई बार ऐसी बातों का पालन करने के लिए मजबूर करता है जो तर्कहीन और अमानवीय हैं और इस प्रकार धीरे-धीरे, एक तर्कसंगत इंसान एक 'वफादार' 'आस्तिक' के रूप में परिवर्तित हो जाता है, जो ज्यादातर समय उन सभी को संदेह की नज़र से देखता है जो उसकी बातो से असहमत रहते है या उसकी सोच से भिन्नता रखते है। वह दूसरों के विश्वास के संदर्भ में यह नहीं सोच सकता है के वे भी अपने विचारों के प्रति वफादार हो सकते हैं।
मानव धीरे धीरे विकसित होता है और ऐसे ही धर्म भी विकसित होता है, हालांकि हम में से कोई भी अपनी धार्मिक 'गाइडबुक' को नहीं बदल सकता है। कोई भी धार्मिक पुस्तक जांच के लिए खुली नहीं है और यही कारण है कि जब लोकतंत्र हमारे जीवन का हिस्सा बन गया तो हमें भी नियमावली चाहिए थी जो हमारे धार्मिक ग्रंथों से भिन्न हो. हमें एहसास हुआ कि हमें अपनी पवित्र कानून की पुस्तकों की आवश्यकता है, जिसे समय और आवश्यकता के अनुसार संशोधित किया जा सकता है। । इसलिए हमारे पास इतने सारे संशोधन हैं और कानून बनाने के अधिकार है जबक़ि हम अपनी धार्मिक पुस्तकों से एक भी अल्पविराम या एक पंक्ति नहीं बदल सकते। हमें बताया गया है कि 'सभी' धर्मों में 'महान' गुण हैं। मैं सहमत हूं लेकिन मैं यहां एक राइडर जोड़ना चाहता हूं, सभी धर्मों में जबरदस्त सामंती, पितृसत्तात्मक, अतार्किक, जनविरोधी विचार भी हैं। जिस दिन हम धर्मों की आलोचना करना सीखेंगे और इन आलोचनाओं को स्वीकार करेंगे और जिसे किसी को किसी के वर्चस्व को चुनौती देना नहीं समझा जाएगा या किसी 'वफादार' के खिलाफ साजिश कोई साजिश के आरोप नहीं लगेंगे , तो दुनिया बेहतर होगी।
बुद्ध ने हमारी जन्म आधारित जाति व्यवस्था के पीड़ितों लाखों लोगों को गरिमा की अस्मिता प्रदान की है. बाबा साहेब अम्बेडकर बताते है के इसमें तर्क और करुणा के साथ साथ व्यक्ति के स्वाभिमान के साथ पहचान है इसीलिये वह प्रबुद्ध भारत करने लगे क्योंकि वह जानते थे जाति का निर्मूलन जाति के अंदर रहने से सफल नहीं होगा और हमें इससे बाहर आना होगा. उसके लिए उन्होंने हमें धम्म का रास्ता दिखाया ताके हमारे सामने कोई संशय न हो। उन मार्गदर्शक सिद्धांतों को याद करने के लिए हम सभी को 22 प्रतिज्ञाएँ अपने दिलो में उतार लेनी चाहिए जो उन्होंने लाखो लोगों के सामने 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में दीक्षा ग्रहण कराने के समय पढ़ी थी, भारतीय स्थिति में जाति का उन्मूलन बुद्ध के तर्क और मानववाद के माध्यम से ही संभव है, जब आप 'जन्म आधारित' व्यवस्था की सर्वोच्चता चुनौती देते है और स्वयं ईश्वर के विचार को चुनौती देते हैं। बुद्ध ने उस ज्ञान प्रणाली का लोकतांत्रिकरण किया जो ब्राह्मणवादी अभिजात वर्ग द्वारा संस्कृत को देव भाषा बनाने के नाम पर केवल ब्राह्मणवादी शकितयों तक सीमित थी और यहाँ के बहुजन समाज को उससे दूर रखती थी । बुद्ध ने लोगों की भाषा में उपदेश दिया इसलिए पाली का इस्तेमाल किया ताकि ज्ञान जनभाषा में हो। इसलिए एक मजबूत लोकतंत्र के निर्माण के लिए ज्ञान प्रणाली का लोकतंत्रीकरण आवश्यक है। ज्ञान के लोकतंत्रीकरण से समाज का लोकतांत्रिकरण होगा जो केवल राजनीतिक लोकतंत्र को मजबूत करेगा। भारत राजनीतिक लोकतंत्र में विफल हो रहा है क्योंकि हमारी सामाजिक सांस्कृतिक परम्पराये और नैतिक मूल्य अभी भी वर्णाश्रम धर्म की जातिवादी नैतिकता से प्रभावित है जिसने भारत के बहुजन समाज को शिक्षा के अधिकार से वंचित किया है। बुद्ध ने उन्हें तोड़ दिया और जो लोग उनके मार्ग का अनुसरण करते थे या उनके विचारों के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त करते है , वे वास्तव में आगे बढ़े और बेहतर समाजों का निर्माण किया, जबकि हमने एक असमान सामाजिक व्यवस्था के अत्याचार का सामना किया।
एक प्रबुद्ध भारत विविध विश्वासों और कानून या संविधान के शासन आधारित प्रणाली का सम्मान करेगा जहां सभी नागरिक समान हैं लेकिन एक ही समय में, यह केवल एक कानून आधारित मजबूरी नहीं है अपितु हम सबके अंदर बसी सांस्कृतिक वैचारिक चेतना से होगा जिसके मूल में समता और भ्रातृत्व है । जबकि हम संवैधानिक नैतिकता के बारे में बात करते हैं, यह भी महत्वपूर्ण है कि एक समाज के रूप में हमें एक साथ रहना, असंतोष और खाद्य संस्कृति की विविधता का सम्मान करना सीखना होगा। हम चमत्कारों की प्रतीक्षा नहीं कर रहे हैं और न ही हमारे पास 'सुपरमैन' और 'सुपर गॉड्स' हैं जो लोगों की 'रक्षा' करते हैं, लोगों की वास्तविक शक्ति और मुक्ति केवल आत्मज्ञान, आत्मनिरीक्षण, तर्क, मानवता, करुणा और मैत्री के साथ रहने से संभव है।
बुद्ध पूर्णिंमा के अवसर पर सभी को शुभकामनायें !!