नागरिकता के बारे में स्पष्ट सोच रखते थे संविधान निर्माता

Written by Dunu Roy | Published on: February 19, 2020
दिल्ली का चुनाव भाजपा हार ज़रूर गयी है लेकिन, जहां 2015 में 10 मतदाता में से 3 ने भाजपा को वोट दिया था, वहीं इस बार लगभग 4 ने दिया। यानि कि हिंदुत्व के वे अनुयायी बढ़ गए हैं जो 'गद्दारों' को गोली मारना चाहते हैं, खासतौर से उनको जो नागरिकता बदलने के कानून पर सवालिया निशान लगा रहे हैं।
  


ऐसे वक़्त पर आज से 70 साल पहले के उस बहस पर ध्यान देना रोचक होगा जब संविधान बनाया जा रहा था और 10 से 12 अगस्त 1949 के बीच नागरिकता पर संविधान सभा में ज़ोरदार टिप्पणियां हुईं।
 
बहस की मुख्य धाराएं आज भी मौज़ू हैं, जबकि उस समय देश पर बंटवारे का घोर अँधेरा छाया हुआ था और पाकिस्तान की बड़ी चर्चा थी। संविधान के निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर की प्रस्तुति में पांच प्रकार के नागरिक थे: जिनका जन्म और निवास भारत में हुआ; जिनका जन्म नहीं लेकिन निवास भारत में हुआ; जो भारत से पाकिस्तान चले गए; जो पाकिस्तान से भारत आ गए; और जिनका, या उनके माँ बाप का, जन्म भारत में हुआ लेकिन रहते भारत के बाहर थे।
 
कुछ सभासदों के विचार अलग थे। पहला सवाल था कि हिन्दू और सिख़ को छोड़कर- किसको भारत को लौटकर नागरिक बनने का 'परमिट' मिलेगा? अम्बेडकर का कहना था कि पाकिस्तान से केवल उन लोगों को लौटने की इजाज़त मिलेगी जिनके पास पुनर्वास या स्थायी वापसी का परमिट होगा। परन्तु डॉ. देशमुख ने पूछा, "आपको कैसे मालूम कि वो देशद्रोही नहीं होगा?" प्रो.शाह ने मांग रख डाली, "कानून ऐसा बने कि मीरजाफ़र जैसे लोग ना आ पाएं।" और ठाकुरदास भार्गव ने ऐसे लोगों से सावधान किया जो "ज़मीन हड़पकर असली मालिकों को आतंकित करके इस देश में बहुसंख्यक बनना चाहते हैं।" बनारसी प्रसाद झुनझुनवाला सहमत थे, "असम में पूर्वी पाकिस्तान से घुसपैठिये अपनी आबादी बढ़ाने के कपटी मकसद के लिए आ रहे हैं।" रोहिणी कुमार चौधरी भी उनको बाहर करना चाहते थे "जो चुपके से घुसकर असम का शोषण करना चाहते हैं।" और मौलाना हिफजुररेहमान ने उन "षड्यंत्रकारियों और चोरों" को कटघरे में खड़ा कर दिया "जो केवल अपना धंधा बढ़ाने आये हैं।"

प्रधानमंत्री नेहरू ने इस सबका मुखर जवाब देते हुए कहा कि नागरिकता का 'तुष्टिकरण', या कुछ लोगों को मनाने, के साथ कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि परमिट निष्पक्ष नियमों के मुताबिक दिया जा रहा है। महबूब अली बेग साहिब ने भी  सभासदों को तीखा सवाल पूछा, "आप क्या करोगे अगर आपके ही लोग गद्दार या कम्युनिस्ट बनकर सरकार को पलटने की कोशिश  करेंगे?" ब्रजेश्वर प्रसाद ने भी अपनी असहमति जताते हुए कहा, "भारत की सुरक्षा मुसलमान से नहीं, हिन्दू से खतरे में है।" आखिर में जब मतदान हुआ तब सभा ने अम्बेडकर के पांच नागरिक प्रकारों का ही पक्ष लिया। केवल एक और धारा जोड़ दिया - 'जिन्होंने विदेशी नागरिकता स्वीकारा है, वे भारत के नागरिक नहीं बन सकते।' 

मुसलमान "गद्दार" के अलावा सभासदों के सामने दूसरी समस्या थी नागरिकता और रोज़गार के बीच की कड़ी। जसपतराय कपूर ने उन सरकारी कर्मचारियों का ज़िक्र किया जो "पाकिस्तान जाकर लौट आये क्योंकि पाकिस्तान में जीना मुश्किल था।" अलीबेग भी उन लोगों के बारे में चिंतित थे जो "पाकिस्तान के प्रदेशों में नौकरी करते हुए भारत लौट आये हैं।" और सरदार भूपिंदर सिंह मान का तर्क था कि परमिट केवल "भारत  में व्यापार और धंधा करने से जुड़े सफर के लिए नहीं, बल्कि नागरिकता के हक़ के लिए भी होना चाहिए।" 

भार्गव उन बंधुआ मज़दूरों की तरफ ध्यान खींचना चाहते थे जो वापस आकर "उद्योगपति, व्यवसायी, और उत्साही मज़दूर बनकर देश की सम्पदा बनाना चाहते हैं।" अल्लादिकृष्णस्वामी अय्यर भी उनके हितैषी थे जो गोवा, फ्रांसीसी इलाकों और अन्य जगहों से "भारत आकर घर बसाये हैं और व्यवसाय को बढ़ाया है।" चौधरी उनको नागरिकता देने को तैयार थे जो "असम सरकारी नौकर और व्यवसायी बनकर आये थे", परन्तु उनका मत था, "हर प्रदेश सम्पन्न होना चाहता है लेकिन दूसरों की की तपर नहीं।" गोपालस्वामी अय्यंगार सहमत थे, "बड़ी संख्या में मुस्लिम पाकिस्तान से भारत आकर पंजीकृत हो जायेंगे और असम... और पश्चिम बंगाल... की अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी।" सिर्फ शाह ने विदेशी पूंजीपतियों के बारे में चेतावनी दी, "जो केवल हमारे औद्योगिक और वित्तीय नीति का फायदा उठाते हैं और जिनका देश से कोई प्यार नहीं है।" अंत तक सभासद इस मामले का निपटारा नहीं कर पाए कि किसको सुरक्षा दें? - जो देश के लिए धन पैदा करते हैं, या देश का धन चूस लेते हैं? 

सभा में तीसरा मसला उनके बारे में था जिनके लिए कोई प्रावधान नहीं था - शादी के बाद महिलाएं, बच्चे, जिनका जन्म भारत में नहीं हुआ, जिनके माँ-बाप दादा-नाना भारतीय थे, जो पाकिस्तान से लौटकर पाकिस्तान वापस नहीं जाना चाहते थे, या जो दोहरी नागरिकता चाहते थे। वक़्त कम था; एक समझ नहीं बन पायी; कारण जो भी रहा होगा, संविधान सभा ने इन मुद्दों को आगे के लिए बढ़ा दिया: "संसद बाद में इन विषयों पर कानून बनाएगी।"

इसी बहाव में 1955 में संसद ने नागरिकता कानून पारित कर दिया जिसमें नागरिकता जन्म, पितृत्व, पंजीकरण, देशीकरण, या देश के फैलाव पर आधारित है। इन पांचों में ज़मीन बुनियादी है। 1949 में "भारतीय कौन है?" सवाल का जवाब नहीं मिल पाया था। जब प्रो. सक्सेना ने डॉ.देशमुख से यही सवाल पूछा, तब देशमुख बोले, "मैंने तो सोचा था की भारतीय बहुत आसानी से पहचाना जा सकता है। ज़मीन के साथ जोड़ देंगे तो और आसान हो जायेगा।"  

पांच बार संशोधित होने के बाद नागरिकता कानून इन सवालों का जवाब दे पाया है या नहीं, यह तो अलग बहस है। लेकिन एक सूत्र है जिसको बिलकुल ही छोड़ दिया गया है, वो है नागरिक और रोज़गार के बीच की कड़ी। जो व्यक्ति भारत की ज़मीन पर जन्मे थे लेकिन भारत में बनाया हुआ सारा धन बटोर कर विदेश भाग गए, क्या उनको नागरिक का दर्जा देना उचित होगा? 2014 और 2018 के बीच ऐसे 23,000 करोड़पति हैं जो भगोड़े बन गए, और उनमे से केवल 36 ने देश को 40,000 करोड़ रूपये का चूना लगा दिया। क्या नेहरू, ब्रजेश्वर प्रसाद और प्रो. शाह की बात सही निकली?

उन लगभग 2 करोड़ लोगों के बारे में क्या सोचा जाये, जो भारत में पैदा होते हुए भी, विदेश में (ज़्यादातर मुस्लिम देशों में) काम करते हुए 2019 में भारत को 5,70,000 करोड़ रूपये भेज पाए थे? और उन "गैर-कानूनी" 55 लाख इंसानों तथा 10 करोड़ प्रवासियों को नागरिकता की कौन सी छाया मिलेगी जो राष्ट्रिय सम्पदा को अपनी मेहनत से बढ़ाते हैं?

गणतंत्र के भीतर सत्ता और गण के बीच एक निर्णायक समझौता है जिसके तहत जनता, वोट के अलावा, कर (टैक्स) देती है, तब सरकार देश की व्यवस्था सम्हालती है। टैक्स वही दे पायेगा जो अपनी मेहनत से, अपनी रोज़गार या व्यवसाय से कमा पाएगा, बाजार से कुछ खरीद पायेगा - और जो नागरिकता के बल पर अपनी आजीविका की रक्षा कर सकेगा।  जो समाज की सम्पन्नता में योगदान करते हैं, चाहे उनका काम कितना ही "नीच" क्यों न माना जाये, क्या वे नागरिकता के हक़ और ज़िम्मेदारी के पात्र नहीं हैं?

यदि नागरिकता कानून को बदलना ही है, तो 'मेहनत' की बात इस बार टाली नहीं जा सकती है। 

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