अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत: 7 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने बम्बई में अपनी बैठक में एक क्रांतिकारी प्रस्ताव पारित किया जिसमें अंग्रेज शासकों से तुरंत भारत छोड़ने की मांग की गयी थी। कांग्रेस का यह मानना था कि अंग्रेज सरकार को भारत की जनता को विश्वास में लिए बिना किसी भी जंग में भारत को झोंकने का नैतिक और कानूनी अधिकार नहीं है।
अंग्रेजों से भारत तुरंत छोड़ने का यह प्रस्ताव कांग्रेस द्वारा एक ऐसे नाजुक समय में लाया गया था जब दूसरे विश्वयुद्ध के चलते जापानी सेनाएं भारत के पूर्वी तट तक पहुंच चुकी थी और कांग्रेस ने अंग्रेज शासकों द्वारा सुझाई ‘क्रिप्स योजना’ को खारिज कर दिया था। ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ प्रस्ताव के साथ-साथ कांग्रेस ने गांधी जी को इस आंदोलन का सर्वेसर्वा नियुक्त किया और देश के आम लोगों से आह्वान किया कि वे हिंदू-मुसलमान का भेद त्याग कर सिर्फ हिदुस्तानी के तौर पर अंग्रेजी साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए एक हो जाएं। अंग्रेज शासन से लोहा लेने के लिए स्वयं गांधीजी ने ‘करो या मरो’ ब्रह्म वाक्य सुझाया और सरकार एवं सत्ता से पूर्ण असहयोग करने का आह्वान किया।
अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान देश-भक्त हिन्दुस्तानियों की क़ुर्बानियां
भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा के साथ ही पूरे देश में क्रांति की एक लहर दौड़ गयी। अगले कुछ महीनों में देश के लगभग हर भाग में अंग्रेज सरकार के विरुद्ध आम लोगों ने जिस तरह लोहा लिया उससे 1857 के भारतीय जनता के पहले मुक्ति संग्राम की यादें ताजा हो गईं। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन ने इस सच्चाई को एक बार फिर रेखांकित किया कि भारत की आम जनता किसी भी कुर्बानी से पीछे नहीं हटती है। अंग्रेज शासकों ने दमन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 9 अगस्त की सुबह से ही पूरा देश एक फौजी छावनी में बदल दिया गया। गांधीजी समेत कांग्रेस के बड़े नेताओं को तो गिरफ्तार किया ही गया दूरदराज के इलाकों में भी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को भयानक यातनाएं दी गईं।
सरकारी दमन और हिंसा का ऐसा तांडव देश के लोगों ने झेला जिसके उदाहरण कम ही मिलते हैं। स्वयं सरकारी आंकड़ों के अनुसार पुलिस और सेना द्वारा सात सौ से भी ज्यादा जगह गोलाबारी की गई जिसमें ग्यारह सौ से भी ज्यादा लोग शहीद हो गए। पुलिस और सेना ने आतंक मचाने के लिए बलात्कार और कोड़े लगाने का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया। भारत में किसी भी सरकार द्वारा इन कथकंडों का इस तरह का संयोजित प्रयोग 1857 के बाद शायद पहली बार ही किया गया था।
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन को ‘अगस्त क्रांति’ भी कहा जाता है। अंग्रेज सरकार के भयानक बर्बर और अमानवीय दमन के बावजूद देश के आम हिंदू मुसलमानों और अन्य धर्म के लोगों ने हौसला नहीं खोया और सरकार को मुंहतोड़ जवाब दिया।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार 208 पुलिस थानों, 1275 सरकारी दफ्तरों, 382 रेलवे स्टेशनों और 945 डाकघरों को जनता द्वारा नष्ट कर दिया गया। जनता द्वारा हिंसा बेकाबू होने के पीछे मुख्य कारण यह था कि पूरे देश में कांग्रेसी नेतृत्व को जेलों में डाल दिया गया था और कांग्रेस संगठन को हर स्तर पर गैर कानूनी घोषित कर दिया गया था। कांग्रेसी नेतृत्व के अभाव में अराजकता का होना बहुत गैर स्वाभाविक नहीं था। यह सच है कि नेतृत्व का एक बहुत छोटा हिस्सा गुप्त रूप से काम कर रहा था परंतु आमतौर पर इस आंदोलन का स्वरूप स्वतः स्फूर्त बना रहा।
भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ सावरकर के नेतृत्व में हिन्दू महासभा ने खुले-आम दमनकारी अंग्रेज़ शासकों की मदद की घोषणा की
जब पूरा देश देशभक्तों के खून से लहूलुहान था, समस्त देश को एक जेल में बदल दिया गया था, देशभक्त लोग सरकारी संस्थाओं को छोड़कर बाहर आ रहे थे; इनमें बड़ी संख्या उन नौजवान छात्र-छात्राओं की थी जो कांग्रेस के आह्वान पर सरकारी शिक्षा संस्थानों को त्याग कर यानी अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर आंदोलन में शामिल हो गए थे। ऐसे दमन काल में अंग्रेज़ों का साथ देने के लिए सावरकर जो हिन्दू महासभा के अध्यक्ष थे ने एक शर्मनाक पहल की। कांग्रेस पर अंग्रेज़ सरकार दुवारा प्रतिबन्ध का जश्न मानते हुए, हिंदू महासभा के सर्वेसर्वा वीर सावरकर ने 1942 में हिन्दू महासभा के कानपुर अधिवेशन गोरे शासकों के साथ 'उत्साहपूर्वक अनुकूल सहयोग' नीति की घोषणा करते हुए कहा: "सरकारी प्रतिबंध के तहत जैसे ही कांग्रेस एक खुले संगठन के तौर पर राजनीतिक मैदान से हटा दी गयी है तो अब राष्ट्रीय कार्यवाहियों के संचालन के लिए केवल हिंदू महासभा ही मैदान में रह गयी है...हिंदू महासभा के मतानुसार व्यावहारिक राजनीति का मुख्य सिद्धांत अंग्रेज सरकार के साथ उत्साहपूर्वक अनुकूल सहयोग की नीति है। जिसके अंतर्गत बिना किसी शर्त के अंग्रेजों के साथ सहयोग जिसमें हथियार बंद प्रतिरोध भी शामिल है।"
भारत छोड़ो आंदोलन के साथ ग़द्दारी में सावरकर किस हद तक अंग्रेज़ों के दमन का साथ देने का तय कर चुके थे इसका अंदाज़ा उनके इन शब्दों से लगाया जा सकता है: "हिंदू महासभा का मानना है कि उत्साहपूर्वक अनुकूल सहयोग की नीति ही हर तरह की व्यावहारिक राजनीति का प्रमुख सिद्धांत हो सकती है। और इस लिहाज़ से इसका मानना है कि पार्षद, मंत्री, विधायक, नगरपालिका या किसी सार्वजनिक संस्था के किसी भी पद पर काम करने वाले जो हिंदू संगाठनवादी दूसरों के जायज़ हितों को चोट पहुंचाए बिना हिंदुओं के जायज़ हितों को आगे बढ़ाने के लिए या उनकी सुरक्षा के लिए सरकारी सत्ता के केंद्रों का उपयोग करते हैं, वे देश की बहुत बड़ी सेवा कर रहे हैं। वे जिन सीमाओं में रहते हुए काम करते हैं उसे समझते हुए, महासभा यही उम्मीद करती है कि वे परिस्थितियों के मद्देनजर जो कर सकते हैं, करें और अगर वे ऐसा करने में विफल नहीं होते हैं तो महासभा उन्हें धन्यवाद देगी कि उन्होंने अपने आप को दोष मुक्त ठहराया है। सीमाएँ क़दम-दर-क़दम सिमटती जाएँगी जब तक कि वे पूरी तरह ख़त्म नहीं हो जातीं। सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की नीति, जो बिना शर्त सहयोग से लेकर सशस्त्रा प्रतिरोध तक तमाम तरह की देशभक्ति की गतिविधियों का रूप ले सकती है, हमारे पास उपलब्ध समय और साधन और राष्ट्रहित के तक़ाजों के अनुसार बदलती रह सकती है। (तिरछे शब्दों दुवारा विशेष ज़ोर मूल पाठ में ही दिया गया है)।
सावरकर ने यह तक घोषणा कर डाली कि उन्हें ‘‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खि़लाफ़ तथाकथित संयुक्त मोर्चे को तोड़ने’’ में भी परेशानी नहीं होगी। इससे उनका तात्पर्य यह था कि कांग्रेस के नेतृत्व में अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ जो भारत छोड़ो आंदोलन चलाया जा रहा था उसे तहस-नहस करने से भी उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल में मुस्लिम लीग के नेतृत्व वाली सरकार में गृह और उप-मुख्यमंत्री रहते हुए अंग्रेज़ो भारत छोड़ो आंदोलन को दबाने के लिए गोरे आक़ाओं को उपाए सुझाए।
हिन्दू महासभा के नेता नंबर दो श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तो हद ही कर दी। आरएसएस के प्यारे इस महान हिन्दू राष्ट्रवादी ने बंगाल में मुस्लिम लीग के मंत्री मंडल में गृहमंत्री और उप-मुख्यमंत्री रहते हुए अनेक पत्रों दुवारा बंगाल के ज़ालिम अंग्रेज़ गवर्नर को दमन के वे तरीक़े सुझाये जिनसे बंगाल में भारत छोड़ो आंदोलन को पूरे तौर पर दबाया जा सकता था। मुखर्जी ने अंग्रेज़ शासकों को भरोसा दिलाया कि कांग्रेस अंग्रेज़ शासन को देश के लिया अभिशाप मानती है लेकिन उनकी मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की मिलीजुली सरकार इसे देश के लिए वरदान मानती है।
अंग्रेज़ गवर्नर को एक पत्र में इस राष्ट्र-व्यापी आंदोलन को कुचलने के लिए ठोस तरीक़े सुझाते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने यह तक लिखा, "भारतवासियों को अंग्रेज़ों पर भरोसा करना चाहिए- इंग्लैंड की खातिर नहीं, और ना ही ऐसे किसी लाभ की खातिर जो अंग्रेज़ों को इस से होगा-बल्कि प्रान्त की सुरक्षा और स्वतंत्रता बरक़रार रखने के लिए।"
आरएसएस/भाजपा शासकों को देश को बताना चाहिए की क्या इस ग़द्दारी के लिए ही सावरकर भारत रत्न पाएंगे?
नोट- शम्सुल इस्लाम के अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, मराठी, मलयालम, कन्नड़, बंगाली, पंजाबी, गुजराती में लेखन और कुछ वीडियो साक्षात्कार/बहस के लिए देखें :
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अंग्रेजों से भारत तुरंत छोड़ने का यह प्रस्ताव कांग्रेस द्वारा एक ऐसे नाजुक समय में लाया गया था जब दूसरे विश्वयुद्ध के चलते जापानी सेनाएं भारत के पूर्वी तट तक पहुंच चुकी थी और कांग्रेस ने अंग्रेज शासकों द्वारा सुझाई ‘क्रिप्स योजना’ को खारिज कर दिया था। ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ प्रस्ताव के साथ-साथ कांग्रेस ने गांधी जी को इस आंदोलन का सर्वेसर्वा नियुक्त किया और देश के आम लोगों से आह्वान किया कि वे हिंदू-मुसलमान का भेद त्याग कर सिर्फ हिदुस्तानी के तौर पर अंग्रेजी साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए एक हो जाएं। अंग्रेज शासन से लोहा लेने के लिए स्वयं गांधीजी ने ‘करो या मरो’ ब्रह्म वाक्य सुझाया और सरकार एवं सत्ता से पूर्ण असहयोग करने का आह्वान किया।
अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान देश-भक्त हिन्दुस्तानियों की क़ुर्बानियां
भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा के साथ ही पूरे देश में क्रांति की एक लहर दौड़ गयी। अगले कुछ महीनों में देश के लगभग हर भाग में अंग्रेज सरकार के विरुद्ध आम लोगों ने जिस तरह लोहा लिया उससे 1857 के भारतीय जनता के पहले मुक्ति संग्राम की यादें ताजा हो गईं। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन ने इस सच्चाई को एक बार फिर रेखांकित किया कि भारत की आम जनता किसी भी कुर्बानी से पीछे नहीं हटती है। अंग्रेज शासकों ने दमन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 9 अगस्त की सुबह से ही पूरा देश एक फौजी छावनी में बदल दिया गया। गांधीजी समेत कांग्रेस के बड़े नेताओं को तो गिरफ्तार किया ही गया दूरदराज के इलाकों में भी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को भयानक यातनाएं दी गईं।
सरकारी दमन और हिंसा का ऐसा तांडव देश के लोगों ने झेला जिसके उदाहरण कम ही मिलते हैं। स्वयं सरकारी आंकड़ों के अनुसार पुलिस और सेना द्वारा सात सौ से भी ज्यादा जगह गोलाबारी की गई जिसमें ग्यारह सौ से भी ज्यादा लोग शहीद हो गए। पुलिस और सेना ने आतंक मचाने के लिए बलात्कार और कोड़े लगाने का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया। भारत में किसी भी सरकार द्वारा इन कथकंडों का इस तरह का संयोजित प्रयोग 1857 के बाद शायद पहली बार ही किया गया था।
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन को ‘अगस्त क्रांति’ भी कहा जाता है। अंग्रेज सरकार के भयानक बर्बर और अमानवीय दमन के बावजूद देश के आम हिंदू मुसलमानों और अन्य धर्म के लोगों ने हौसला नहीं खोया और सरकार को मुंहतोड़ जवाब दिया।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार 208 पुलिस थानों, 1275 सरकारी दफ्तरों, 382 रेलवे स्टेशनों और 945 डाकघरों को जनता द्वारा नष्ट कर दिया गया। जनता द्वारा हिंसा बेकाबू होने के पीछे मुख्य कारण यह था कि पूरे देश में कांग्रेसी नेतृत्व को जेलों में डाल दिया गया था और कांग्रेस संगठन को हर स्तर पर गैर कानूनी घोषित कर दिया गया था। कांग्रेसी नेतृत्व के अभाव में अराजकता का होना बहुत गैर स्वाभाविक नहीं था। यह सच है कि नेतृत्व का एक बहुत छोटा हिस्सा गुप्त रूप से काम कर रहा था परंतु आमतौर पर इस आंदोलन का स्वरूप स्वतः स्फूर्त बना रहा।
भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ सावरकर के नेतृत्व में हिन्दू महासभा ने खुले-आम दमनकारी अंग्रेज़ शासकों की मदद की घोषणा की
जब पूरा देश देशभक्तों के खून से लहूलुहान था, समस्त देश को एक जेल में बदल दिया गया था, देशभक्त लोग सरकारी संस्थाओं को छोड़कर बाहर आ रहे थे; इनमें बड़ी संख्या उन नौजवान छात्र-छात्राओं की थी जो कांग्रेस के आह्वान पर सरकारी शिक्षा संस्थानों को त्याग कर यानी अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर आंदोलन में शामिल हो गए थे। ऐसे दमन काल में अंग्रेज़ों का साथ देने के लिए सावरकर जो हिन्दू महासभा के अध्यक्ष थे ने एक शर्मनाक पहल की। कांग्रेस पर अंग्रेज़ सरकार दुवारा प्रतिबन्ध का जश्न मानते हुए, हिंदू महासभा के सर्वेसर्वा वीर सावरकर ने 1942 में हिन्दू महासभा के कानपुर अधिवेशन गोरे शासकों के साथ 'उत्साहपूर्वक अनुकूल सहयोग' नीति की घोषणा करते हुए कहा: "सरकारी प्रतिबंध के तहत जैसे ही कांग्रेस एक खुले संगठन के तौर पर राजनीतिक मैदान से हटा दी गयी है तो अब राष्ट्रीय कार्यवाहियों के संचालन के लिए केवल हिंदू महासभा ही मैदान में रह गयी है...हिंदू महासभा के मतानुसार व्यावहारिक राजनीति का मुख्य सिद्धांत अंग्रेज सरकार के साथ उत्साहपूर्वक अनुकूल सहयोग की नीति है। जिसके अंतर्गत बिना किसी शर्त के अंग्रेजों के साथ सहयोग जिसमें हथियार बंद प्रतिरोध भी शामिल है।"
भारत छोड़ो आंदोलन के साथ ग़द्दारी में सावरकर किस हद तक अंग्रेज़ों के दमन का साथ देने का तय कर चुके थे इसका अंदाज़ा उनके इन शब्दों से लगाया जा सकता है: "हिंदू महासभा का मानना है कि उत्साहपूर्वक अनुकूल सहयोग की नीति ही हर तरह की व्यावहारिक राजनीति का प्रमुख सिद्धांत हो सकती है। और इस लिहाज़ से इसका मानना है कि पार्षद, मंत्री, विधायक, नगरपालिका या किसी सार्वजनिक संस्था के किसी भी पद पर काम करने वाले जो हिंदू संगाठनवादी दूसरों के जायज़ हितों को चोट पहुंचाए बिना हिंदुओं के जायज़ हितों को आगे बढ़ाने के लिए या उनकी सुरक्षा के लिए सरकारी सत्ता के केंद्रों का उपयोग करते हैं, वे देश की बहुत बड़ी सेवा कर रहे हैं। वे जिन सीमाओं में रहते हुए काम करते हैं उसे समझते हुए, महासभा यही उम्मीद करती है कि वे परिस्थितियों के मद्देनजर जो कर सकते हैं, करें और अगर वे ऐसा करने में विफल नहीं होते हैं तो महासभा उन्हें धन्यवाद देगी कि उन्होंने अपने आप को दोष मुक्त ठहराया है। सीमाएँ क़दम-दर-क़दम सिमटती जाएँगी जब तक कि वे पूरी तरह ख़त्म नहीं हो जातीं। सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की नीति, जो बिना शर्त सहयोग से लेकर सशस्त्रा प्रतिरोध तक तमाम तरह की देशभक्ति की गतिविधियों का रूप ले सकती है, हमारे पास उपलब्ध समय और साधन और राष्ट्रहित के तक़ाजों के अनुसार बदलती रह सकती है। (तिरछे शब्दों दुवारा विशेष ज़ोर मूल पाठ में ही दिया गया है)।
सावरकर ने यह तक घोषणा कर डाली कि उन्हें ‘‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खि़लाफ़ तथाकथित संयुक्त मोर्चे को तोड़ने’’ में भी परेशानी नहीं होगी। इससे उनका तात्पर्य यह था कि कांग्रेस के नेतृत्व में अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ जो भारत छोड़ो आंदोलन चलाया जा रहा था उसे तहस-नहस करने से भी उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल में मुस्लिम लीग के नेतृत्व वाली सरकार में गृह और उप-मुख्यमंत्री रहते हुए अंग्रेज़ो भारत छोड़ो आंदोलन को दबाने के लिए गोरे आक़ाओं को उपाए सुझाए।
हिन्दू महासभा के नेता नंबर दो श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तो हद ही कर दी। आरएसएस के प्यारे इस महान हिन्दू राष्ट्रवादी ने बंगाल में मुस्लिम लीग के मंत्री मंडल में गृहमंत्री और उप-मुख्यमंत्री रहते हुए अनेक पत्रों दुवारा बंगाल के ज़ालिम अंग्रेज़ गवर्नर को दमन के वे तरीक़े सुझाये जिनसे बंगाल में भारत छोड़ो आंदोलन को पूरे तौर पर दबाया जा सकता था। मुखर्जी ने अंग्रेज़ शासकों को भरोसा दिलाया कि कांग्रेस अंग्रेज़ शासन को देश के लिया अभिशाप मानती है लेकिन उनकी मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की मिलीजुली सरकार इसे देश के लिए वरदान मानती है।
अंग्रेज़ गवर्नर को एक पत्र में इस राष्ट्र-व्यापी आंदोलन को कुचलने के लिए ठोस तरीक़े सुझाते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने यह तक लिखा, "भारतवासियों को अंग्रेज़ों पर भरोसा करना चाहिए- इंग्लैंड की खातिर नहीं, और ना ही ऐसे किसी लाभ की खातिर जो अंग्रेज़ों को इस से होगा-बल्कि प्रान्त की सुरक्षा और स्वतंत्रता बरक़रार रखने के लिए।"
आरएसएस/भाजपा शासकों को देश को बताना चाहिए की क्या इस ग़द्दारी के लिए ही सावरकर भारत रत्न पाएंगे?
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