नैरेटिव नेशनलिज़्म में फंसा नौजवान नौकरी के लिए व्हाट्स एप क्यों करता है?

Written by Ravish Kumar | Published on: August 8, 2019
मेरे व्हाट्स एप के इनबॉक्स में बधाइयों के मेसेज के बीच नौकरियों के मेसेज आने लगे हैं। मैं फिर से उन मेसेज में लोकतंत्र में ख़त्म होती संख्या के महत्व को देखता जा रहा हूं। मेसेज भेजने वाला अपनी नौकरी की समस्या के साथ हज़ारों या लाखों की संख्या को ज़रूर जोड़ता है। मैं यही सोचता हूं कि जब उनके पीछे इतनी संख्या है तो फिर उनकी बात क्यों नहीं सुनी जा रही है। क्यों वे इतने परेशान है और महीनों बाद भी उनकी समस्या जस की तस है।



बहुत दिनों से सी जी एल 2017 के पीड़ित छात्र लिखते रहते हैं। हज़ारों की संख्या में चुने जाने के बाद लिस्ट से बाहर कर दिए गए। इनकी कोई सुन नहीं रहा है।

आज पहले रेलवे के ग्रुप डी के बहुत सारे परीक्षार्थियों के फोन और मेसेज आए। फोटो या अन्य तकनीकि आधार पर उनके फार्म रिजेक्ट हो गए थे।

दूसरा मेसेज आया बिहार से। 2019 में वहां असिस्टेंट प्रोफेसर और लेक्चरर के 1600 पदों का विज्ञापन निकला था। सारी प्रक्रिया पूरी हो गई। लेकिन हाईकोर्ट ने निरस्त कर दिया। यह कह कर कि विज्ञापन में ग्रेजुएट एप्टीट्यूड टेस्ट फॉर इंजीनियरिंग यानि गेट को प्राथमिकता देना ग़लत है।

नौजवान कह रहे हैं कि सारी प्रक्रिया पूरी हो गई तो उन्होंने पुरानी नौकरी से इस्तीफा दे दिया या नए जगह पर नामांकन नहीं किया। लेकिन जब तक फाइनल लिस्ट नहीं आता है तब तक कैसे मान सकते हैं कि हो ही गया है। वो भी तब जब सरकारी नौकरी की भर्ती की प्रक्रिया की कोई विश्वसनीयता नहीं है।

मैंने नौकरी सीरीज़ बंद कर दी है। उसके कारण विस्तार से कई बार बता चुका हूं। यह समस्या विकराल है। मेरे पास अनगिनत परीक्षाओं को रिपोर्ट करने के लिए संसाधन नहीं हैं न ही कश्मीर जैसी समस्याओं के सामने यह संभवन है कि इन परीक्षाओं पर चर्चा करें। ख़ुद पीड़ित युवाओ के परिवार वाले भी टीवी पर वही देख रहे होंगे जो उन्हें दिखाया जा रहा होगा। ऐसा ही वो करते आए हैं।

मेरा मानना है कि हर युवा अलग-अलगे स्वार्थ समूह में बंटा हुआ है। सभी मिलकर ईमानदार परीक्षा व्यवस्था की मांग नहीं करते हैं। अगर हर परीक्षा के युवाओं का दावा सही है कि उनकी संख्या लाखों में है तो फिर यह लेख भी लाखों में पहुंच जाना चाहिए। पता चलेगा कि वे अपनी मांगों को लेकर कितने जागरूक हैं।

अब इसे ऐसे देखिए। जम्मू कश्मीर और लद्दाख राज्य का पुनर्गठन जिन कारणों के आधार पर हुआ उसमें रोज़गार भी प्रमुख है। यूपी, बिहार, राजस्थान, पंजाब और मध्य प्रदेश में रोज़गार का हाल बुरा है। नौजवानों ने नागरिक होने की हैसियत गंवा दी है। उनकी संख्या चाहे पांच लाख की हो या 69,000 की हो, बेमानी हो चुकी है। इन सभी ने अनगित प्रदर्शन किए। ट्विटर पर मंत्रियों को जमकर लिखा। फिर भी इनकी मांग अनसुनी रह गई।

मैंने प्राइम टाइम में अनगिनत प्रदर्शनों को कवर कर हुए देखा है। तब शो में कई बार कहा करता था कि संख्या शून्य होती जा रही है। लोकतंत्र में संख्या की एक ताक़त होती है। शून्य करने की प्रक्रिया दोतरफा थी। राज्य उदासीन हो गया और जनता समर्थक में बदल गई। लोगों ने राजनीतिक पसंद और मीडिया में फर्क करना बंद कर दिया। मीडिया ने लोगों को कवर करना बंद कर दिया और नेताओं ने लोगों की परवाह छोड़ दी।

जनता लगातार विमर्श के घेरे में हैं। जिसे मैं नैरेटिव नेशनलिज़्म कहता हूं। इस वक्त कश्मीर का नैरेटिव चल रहा है। किसी वक्त कुछ और नैरेटिव चलता रहता है। सारे नैरेटिव का एक राजनीतिक स्वर है। इसके बाहर निकलना मुश्किल है। जो जनता लाठी भी खा रही होती है, नौकरी गंवा रही होती है, वो तक़लीफ़ में तो होगी लेकिन इस नैरेटिव नेशनलिज़्म से बाहर नहीं जा सकेगी। सरकार हमेशा निश्चिंत रहेगी और जनता हमेशा सरकार की रहेगी। जनता जनता नहीं रही। सरकार के लिए जनता एक स्थायी समर्थक है। भले ही यह बात सौ फीसदी जनता पर लागू नहीं है लेकिन जनता अब एक है। वह संख्या नहीं है। वो सौ है लेकिन है एक। बीस लाख होकर भी वह एक सोच, एक रंग की है। इसलिए संख्या शून्य है।

कभी इस पर सोचिएगा। वर्ना इतनी बड़ी समस्या तो नहीं है ये सब। लेकिन इतने धरना प्रदर्शन और लाठी खाने के बाद या कोर्ट से जीतने के बाद भी उनकी हालत ऐसी क्यों हैं। सोचेंगे तो जवाब मिलेगा।

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