आज गुरु पूर्णिमा है। लोग बहुत बढ़िया-बढ़िया सोशल मीडिया पर लिखे जा रहे हैं। बड़ा अच्छा लगता है पढ़कर। मैं भी सोचता हूँ लिख दूं। पर अपने अनुभव गुरुओं के साथ बुरे वाले ज्यादा रहे हैं। जो मिले ज्यादातर अहंकारी, जातिवादी, नस्लभेदी, महिला विरोधी ही रहे हैं।
मेरे एक इतिहास के अध्यापक दसवीं में ऐसे थे जो इनमें से कुछ नहीं थे, पर बड़े आलसी थे। आलसपन इतना कि तम्बाखू भी बच्चों से मलवाते थे। बुजुर्ग थे, रिटायर होने वाले थे। मन किया तो कभी कभी पढ़ा देते थे। जब पढ़ाने को कहा जाता तो कह देते- इतिहास खुद पढ़ो, इसमें क्या पढ़ाएं? सब कहानी जैसा तो है।
मैं उनसे खुश था। प्रश्न उठता है कि न पढ़ाने वाले से कैसे खुश हुआ जा सकता है? मैं उनसे खुश इसलिए था कि उन्होंने कम से कम कच्चा इतिहास (फर्जी) नहीं पढ़ाया। नौंवी में जिन्होंने पढ़ाया था वे अच्छा पढ़ा लेते थे। पर उनकी एक खासियत थी, महीने में एक बार नेहरू को देश का सत्यानाश करने वाला जरूर बता देते। गांधी को भी आये दिन लपेटे में लेते रहते।
पिछली कक्षाओं में गांधी नेहरू के बारे में पढ़े होने के कारण नौंवी के गुरु जी गलत तो लगते। पर हम विरोध न कर पाते। कई बार कोशिश की पर वे गोल-गोल घुमा जाते। हमारे तर्कों पर उनका गुरु होना भारी पड़ जाता।
ग्यारहवीं की कक्षा में गणित के गुरु जी का नियम था कि जो सवाल बता रहे हैं वही समझ लो। अलग से पूछने या बताने के रिवाज में उनका भरोसा नहीं था। एक दिन एक बच्चे ने खड़े होकर एक सवाल समझाने की लिए कह दिया। गुरु जी ने उंसकी तरफ बड़ी प्रसन्नता से देखते हुए कहा था- हमारे कोचिंग में आना वहीं बताएंगे।
यह महज उनका ही जवाब नहीं था, भौतिक, रसायन और जीव विज्ञान के प्रत्येक अध्यापक सवाल पूछने पर यही रटा रटाया जवाब दिया करते थे। यह हाल सिर्फ हमारे विद्यालय का नहीं था। क्षेत्र के जितने भी सरकारी विद्यालय थे लगभग सब में यही हाल था।
प्रधानाध्यापक हमेशा मेहनती मिले हैं। जब भी मैंने देखा है दस्तख़त करते ही दिखे हैं। एक बार एक शिक्षक की न पढ़ाने पर प्रधानाध्यापक से शिकायत की गई थी। शिक्षक आखिर गुरु जी थे। कमजोर लड़कों को प्रधानाध्यापक के सामने खड़ा कराकर दूसरे चैप्टर से दो प्रश्न पूछ लिए। बेचारे जवाब न दे सके। गुरु जी ने कहा- ये उजड्ड (बदमाश, लापरवाह) लड़के हैं। पढ़ने पर ध्यान ही न देते। प्रधानाध्यापक ने समय का सदुपयोग किया। जो लड़के सवाल का जवाब बताने के लिए हाथ खड़े कर रहे थे उन्हें सुने बिना गुरु जी की बात पर मुहर लगा दी कि लड़के ही उजड्ड हैं।
जैसे तैसे परीक्षा देकर बारहवीं में पहुँचे। जिन बच्चों का परिवार सम्पन्न था, वे कोचिंग कर लेते थे। जो सरकारी विद्यालयों में लगने वाली 20 से 40 रुपये महीना फीस देने में असमर्थ थे दिक्कत उनके लिए थी। ग्यारहवीं में अंग्रेजी के प्रोज में पहला पाठ था- 'माय स्ट्रगल फ़ॉर ऐन एजुकेशन'। वह तो महज एक चैप्टर था लेकिन इसका अनुभव हम रोज ले रहे थे। घर से तीस किलोमीटर साइकिल चलाकर जाने पर जब पता चलता था कि आज हमारे सब्जेक्ट की एक भी क्लास नहीं चलने वाली तो वापसी के तीस किलोमीटर पहाड़ से दिखने लगते। दुख होता कि समय बर्बाद गया। इतनी देर खेत में माँ के साथ मदद कर दिया होता तो वह जल्दी घर जा जाती।
आठवीं के बाद मैंने अनुभव किया था कि कोई अध्यापक जातिवादी या नस्लभेदी टिप्पणी नहीं करता था। कक्षा 6वीं में एक गुरु जी संस्कृत पढ़ाते थे। वे अक्सर गुस्से में चमरकुट्ट शब्द का उपयोग करते थे। जब थोड़ा आगे की कक्षाओं में बढ़े तो समझ आया कि वे चमार जाति के लड़कों को कभी कभी झल्लाकर यह जातिवादी गाली देते थे।
एक गुरु जी सातवीं में विज्ञान पढ़ाते थे। ऊंची जाति से थे। गोरे थे। कोई सांवला या काला लड़का जब कभी पढ़ाते वक्त बात करता दिख जाता वे सीधा' हे कारियवा सारे (ओ काली शक्ल के साले)' कहते। यह सुनकर सब बच्चे हंस देते। कई लड़कियों को वे रंग की वजह से कलूटी कह देते। क्लास के अन्य बच्चों को मजा आ जाता। जिसे कहते वह बस सिर झुका लेती। जैसे काली शक्ल लेकर वह समाज पर धब्बा हो। यह आये दिन होता था इसलिए कॉमन था। जैसे मोब लिंचिंग अब कॉमन है।
पंडी जी आठवीं में संस्कृत पढ़ाते थे। अक्सर दिनेश नाम के लड़के से पानी मंगाते थे जो मिश्र था। दिनेश का एक दोस्त था जो निचली जाति से था जो अक्सर नल चलाने के लिए दिनेश के साथ पानी लेने जाता। एक दिन वह दिनेश का दोस्त हाथ में पानी लेकर आ रहा था। पंडी जी ने पानी फेंककर दिनेश से कहा- दूसरा लाओ और तुम ही लाना। वे वापस चले गए पानी लाने। जाते हुए दोस्त कह रहा था जो साफ सुनाई दे रहा था- मैनें तो पहले ही कहा था, नहीं पियेंगे।
मैं इन घटनाओं को याद करता हूँ और सोचता हूँ, एक गुरु तो ऐसे मिले होते जिनके नाम पर मैं गुरु पूर्णिमा मना लेता!
मेरे एक इतिहास के अध्यापक दसवीं में ऐसे थे जो इनमें से कुछ नहीं थे, पर बड़े आलसी थे। आलसपन इतना कि तम्बाखू भी बच्चों से मलवाते थे। बुजुर्ग थे, रिटायर होने वाले थे। मन किया तो कभी कभी पढ़ा देते थे। जब पढ़ाने को कहा जाता तो कह देते- इतिहास खुद पढ़ो, इसमें क्या पढ़ाएं? सब कहानी जैसा तो है।
मैं उनसे खुश था। प्रश्न उठता है कि न पढ़ाने वाले से कैसे खुश हुआ जा सकता है? मैं उनसे खुश इसलिए था कि उन्होंने कम से कम कच्चा इतिहास (फर्जी) नहीं पढ़ाया। नौंवी में जिन्होंने पढ़ाया था वे अच्छा पढ़ा लेते थे। पर उनकी एक खासियत थी, महीने में एक बार नेहरू को देश का सत्यानाश करने वाला जरूर बता देते। गांधी को भी आये दिन लपेटे में लेते रहते।
पिछली कक्षाओं में गांधी नेहरू के बारे में पढ़े होने के कारण नौंवी के गुरु जी गलत तो लगते। पर हम विरोध न कर पाते। कई बार कोशिश की पर वे गोल-गोल घुमा जाते। हमारे तर्कों पर उनका गुरु होना भारी पड़ जाता।
ग्यारहवीं की कक्षा में गणित के गुरु जी का नियम था कि जो सवाल बता रहे हैं वही समझ लो। अलग से पूछने या बताने के रिवाज में उनका भरोसा नहीं था। एक दिन एक बच्चे ने खड़े होकर एक सवाल समझाने की लिए कह दिया। गुरु जी ने उंसकी तरफ बड़ी प्रसन्नता से देखते हुए कहा था- हमारे कोचिंग में आना वहीं बताएंगे।
यह महज उनका ही जवाब नहीं था, भौतिक, रसायन और जीव विज्ञान के प्रत्येक अध्यापक सवाल पूछने पर यही रटा रटाया जवाब दिया करते थे। यह हाल सिर्फ हमारे विद्यालय का नहीं था। क्षेत्र के जितने भी सरकारी विद्यालय थे लगभग सब में यही हाल था।
प्रधानाध्यापक हमेशा मेहनती मिले हैं। जब भी मैंने देखा है दस्तख़त करते ही दिखे हैं। एक बार एक शिक्षक की न पढ़ाने पर प्रधानाध्यापक से शिकायत की गई थी। शिक्षक आखिर गुरु जी थे। कमजोर लड़कों को प्रधानाध्यापक के सामने खड़ा कराकर दूसरे चैप्टर से दो प्रश्न पूछ लिए। बेचारे जवाब न दे सके। गुरु जी ने कहा- ये उजड्ड (बदमाश, लापरवाह) लड़के हैं। पढ़ने पर ध्यान ही न देते। प्रधानाध्यापक ने समय का सदुपयोग किया। जो लड़के सवाल का जवाब बताने के लिए हाथ खड़े कर रहे थे उन्हें सुने बिना गुरु जी की बात पर मुहर लगा दी कि लड़के ही उजड्ड हैं।
जैसे तैसे परीक्षा देकर बारहवीं में पहुँचे। जिन बच्चों का परिवार सम्पन्न था, वे कोचिंग कर लेते थे। जो सरकारी विद्यालयों में लगने वाली 20 से 40 रुपये महीना फीस देने में असमर्थ थे दिक्कत उनके लिए थी। ग्यारहवीं में अंग्रेजी के प्रोज में पहला पाठ था- 'माय स्ट्रगल फ़ॉर ऐन एजुकेशन'। वह तो महज एक चैप्टर था लेकिन इसका अनुभव हम रोज ले रहे थे। घर से तीस किलोमीटर साइकिल चलाकर जाने पर जब पता चलता था कि आज हमारे सब्जेक्ट की एक भी क्लास नहीं चलने वाली तो वापसी के तीस किलोमीटर पहाड़ से दिखने लगते। दुख होता कि समय बर्बाद गया। इतनी देर खेत में माँ के साथ मदद कर दिया होता तो वह जल्दी घर जा जाती।
आठवीं के बाद मैंने अनुभव किया था कि कोई अध्यापक जातिवादी या नस्लभेदी टिप्पणी नहीं करता था। कक्षा 6वीं में एक गुरु जी संस्कृत पढ़ाते थे। वे अक्सर गुस्से में चमरकुट्ट शब्द का उपयोग करते थे। जब थोड़ा आगे की कक्षाओं में बढ़े तो समझ आया कि वे चमार जाति के लड़कों को कभी कभी झल्लाकर यह जातिवादी गाली देते थे।
एक गुरु जी सातवीं में विज्ञान पढ़ाते थे। ऊंची जाति से थे। गोरे थे। कोई सांवला या काला लड़का जब कभी पढ़ाते वक्त बात करता दिख जाता वे सीधा' हे कारियवा सारे (ओ काली शक्ल के साले)' कहते। यह सुनकर सब बच्चे हंस देते। कई लड़कियों को वे रंग की वजह से कलूटी कह देते। क्लास के अन्य बच्चों को मजा आ जाता। जिसे कहते वह बस सिर झुका लेती। जैसे काली शक्ल लेकर वह समाज पर धब्बा हो। यह आये दिन होता था इसलिए कॉमन था। जैसे मोब लिंचिंग अब कॉमन है।
पंडी जी आठवीं में संस्कृत पढ़ाते थे। अक्सर दिनेश नाम के लड़के से पानी मंगाते थे जो मिश्र था। दिनेश का एक दोस्त था जो निचली जाति से था जो अक्सर नल चलाने के लिए दिनेश के साथ पानी लेने जाता। एक दिन वह दिनेश का दोस्त हाथ में पानी लेकर आ रहा था। पंडी जी ने पानी फेंककर दिनेश से कहा- दूसरा लाओ और तुम ही लाना। वे वापस चले गए पानी लाने। जाते हुए दोस्त कह रहा था जो साफ सुनाई दे रहा था- मैनें तो पहले ही कहा था, नहीं पियेंगे।
मैं इन घटनाओं को याद करता हूँ और सोचता हूँ, एक गुरु तो ऐसे मिले होते जिनके नाम पर मैं गुरु पूर्णिमा मना लेता!