राहुल गांधी की न्याय योजना के बारे में मैं नहीं जानता। मैंने घोषणा से संबंधित प्रेस कांफ्रेंस नहीं देखी। इस योजना के बारे में मेरी राय इतनी भर है कि यह चुनावी घोषणा है और अखबारों को अगर यह व्यावहारिक लगता है तो जैसे बताया गया वैसे छाप देना चाहिए। अगर कोई सवाल हैं तो वह पूछकर उसका जवाब भी छापा जा सकता है और पूरा मामला जस का तस रखकर निर्णय पाठकों पर छोड़ देना चाहिए। इसका मतलब यह भी नहीं है कि विपक्षी नेताओं की प्रतिक्रिया नहीं छापी जाए। उसे भी जगह मिलनी चाहिए पर दोनों को बिल्कुल अलग होना चाहिए। योजना को पढ़ और जान लेने के बाद जिसे जरूरत होगी वह उसपर प्रतिक्रिया ढूंढ़ेगा और जरूरत हुई तो कांग्रेस पार्टी या राहुल गांधी से पूछेगा। लोकतंत्र में यही होना चाहिए। आम आदमी चूंकि नेताओं तक नहीं पहुंच सकता है इसलिए इस काम की अपेक्षा मीडिया से रहती है।
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मुझे लगता है कि अखबारों की आजादी के नाम पर संपादकीय विवेक का उपयोग मिलावटी खबर देने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। खासकर तब जब भिन्न विचारों वाले राजनीतिक दलों के मिलने पर सत्तारूढ़ दल को एतराज है और वे उसे मिलावट कह रहे हैं। ऐसे में दैनिक जागरण का आज का शीर्षक गौरतलब है। अखबार ने इस खबर को अपने संवाददाता संजय मिश्र की बाईलाइन के साथ छापा है और शीर्षक है, “राहुल का बड़ा दांव, हर गरीब को सालाना 72,000 रुपए”। मेरा मानना है कि कौन नहीं जानता कि यह राहुल का चुनावी दांव हैं। क्या दैनिक जागरण के नहीं बताने से किसी को समझने में दिक्कत होती? मुझे लगता है कि ऐसे मामले में अखबार को अपनी ओर से टिप्पणी करने की कोई जरूरत नहीं है। सिर्फ सूचना रख दी जाए तो भी पाठक समझता है। जहां तक विश्लेषण की बात है वह अलग चीज है। और अलग रहना चाहिए।
खबर की पहली प्रस्तुति ही संपादकीय मिलावट के साथ हो - यह संपादकीय अनैतिकता है। आजादी और विवेक का दुरुपयोग है। जहां तक जागरण के शीर्षक की बात है, ऐसे शीर्षक का वैसे भी कोई मतलब नहीं है क्योंकि पाठक ही नहीं, दुनिया जानती है कि जागरण खुलकर भाजपा और सरकार का समर्थन करता है। इतिहास भूगोल सब सर्वविदित है। यही नहीं, अखबार जो खरीदकर पढ़ता है उसके पास दूसरा अखबार खरीदने का विकल्प है। पर उन्हें यही पसंद है पर इसका मतलब यह नहीं है कि आप पाठकों को मिलावटी खबरें दें। उन्हें आप इस घोषणा का नफा-नुकसान अलग से बताते तो वह भी पसंद किया जाता। अखबार की एक साख बनती एक ब्रांड बनता और लोग जागरण की प्रतिक्रिया की बात करते। पर जागरण अलग तरह की पत्रकारिता कर रहा है।
इसमें शीर्षक ही नहीं, तथ्यात्मक चूक भी है। मुख्य खबर के साथ जागरण ने दो कॉलम के शीर्षक के साथ एक खबर छापी है, "राहुल के चुनावी वादे से डेढ़ से दो फीसद तक बढ़ेगी महंगाई"। क्या यह संभव है? वादे से महंगाई कैसे बढ़ जाएगी। जाहिर है, अखबार कहना चाहता है कि इसे लागू किया गया तो महंगाई डेढ़-दो फीसदी बढ़ जाएगी और कह रहा है कि घोषणा से ही बढ़ जाएगी। यह चूक है। कहने की जरूरत नहीं है कि इससे राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी का नुकसान हुआ जो अखबार का मकसद नहीं होना चाहिए। या अखबार की आड़ में नहीं किया जाना चाहिए। खासकर तब जब उसी पन्ने पर एक और खबर चार कॉलम में छापी गई है।
वित्त मंत्री अरुण जेटली की फोटो के साथ छपी इस खबर का शीर्षक है, मोदी सरकार दे रही है सालाना एक लाख से ज्यादा : जेटली। राहुल गांधी ने सत्ता में आने पर देने की बात की है तो सरकार सत्ता में रहकर उससे ज्यादा दे रही है यह बताने का क्या मतलब? क्या राहुल (या कांग्रेस पार्टी को) अपनी योजना बताने का भी हक नहीं है। और वह अपनी योजना न बनाए, इसलिए न बताए कि सरकार वह काम कर रही है। क्या सरकार एक लाख से ज्यादा दे रही है तो 72,000 और देने की जरूरत नहीं है? दिया जाएगा तो लोग मना कर देंगे? क्या विदेश से आने वाले काले धन में से जो 15 लाख मिलना था वह सरकार के एक लाख के बराबर होता है? ऐसे में जेटली के इस विलाप का क्या मतलब है और वैसे भी वे अपने घर से नहीं दे रहे हैं। इससे महंगाई नहीं बढ़ी होगी? कौन बताएगा? इसपर अखबार क्यों शांत है?
दिलचस्प यह है कि इंडियन एक्सप्रेस में भी यह खबर लगभग ऐसे ही है। वहां महंगाई बढ़ने की खबर की जगह अरुण जेटली का विलाप है। एक जैसी सभी खबरें एक साथ छापने की प्रवृत्ति भी ऐसा कराती है। लेकिन मेरा मानना है कि चुनावी घोषणा (या दांव भी) पेश करने वाले के शब्दों में प्रस्तुत कर दिया जाना चाहिए। राय बिल्कुल अलग हो। ऐसे नहीं कि राय के नाम पर कह दिया जाए कि घोषणा भर से महंगाई बढ़ जाएगी। यहां तो अरुण जेटली कह रहे हैं कि कांग्रेस का इतिहास ही ऐसा रहा है और वह गरीबी दूर करने के नाम पर लोगों को ठगती रही है। मेरा मानना है कि कांग्रेस को इसकी सजा मिल चुकी है और ठगने की बात हो तो भाजपा ने गरीबों को ही नहीं, पढ़े-लिखे मध्यम वर्ग को भी ठगा है। शायद इसीलिए हिन्दुस्तान टाइम्स और टाइम्स ऑफ इंडिया ने जेटली की खबर को इतनी प्रमुखता नहीं दी है।
वैसे भी, जेटली के इस विलाप का संबंध राहुल की घोषणा से नहीं होना चाहिए। उनका रोना जायज है और राजनीतिक है। इसे एक अलग राजनीतिक खबर की तरह छापा जाना चाहिए। खासकर इंडियन एक्सप्रेस में जब ‘एक्सप्रेस एक्सप्लेन्ड’ जैसी व्यवस्था है। एक आर्थिक योजना अगर देश के वित्त मंत्री और खुद अखबार की राय में दमदार नहीं है तो उसे लीड बनाने का कोई मतलब नहीं है और अगर देश के दूसरे प्रमुख राजनीतिक दल की घोषणा होने के कारण लीड है तो इसे शीर्षक में ही कहा जाना चाहिए कि कांग्रेस की योजना लचर या घटिया या अव्यावहारिक है।
मुझे अंग्रेजी दैनिक द टेलीग्राफ इसीलिए पसंद है। टेलीग्राफ ने आज इस खबर को लगभग राहुल गांधी के शब्दों में छापा है और शीर्षक भी वही है, "राहुल ने गरीबी के खिलाफ 'आखिरी कार्रवाई' का खुलासा किया"। मेरे ख्याल से इसमें पहले की योजनाएं सफल न होने की स्वीकारोक्ति है और अरुण जेटली अगर राहुल के ऐसा कहने के बाद भी कह रहे हैं कि कांग्रेस गरीबों को ठगती रही है तो वे इस खबर या घोषणा के संबंध में गलतबयानी कर रहे हैं। यह गरीबी के खिलाफ कांग्रेस की एक और कोशिश या नया नारा नहीं है बल्कि अंतिम कार्रवाई है। और मीडिया को ईमानदारी से इसे ऐसे ही पेश करना चाहिए था। विश्लेषण अलग से कर सकते थे कि योजना में क्या कमजोरी है या यह कैसे अव्यावहारिक है।
इस खबर के साथ सबसे खास बात यह है कि राहुल ने एक परिवार के लिए न्यूनतम आय 12,000 रुपए प्रतिमाह तय की है जो 2000 रुपए किसानों को देने की भाजपा सरकार की चुनावी घोषणा की धज्जियां उड़ा दे रहा है और भाजपा नेताओं के तिलमिलाने का कारण भी यही लगता है। जहां तक टेलीग्राफ में खबरों की प्रस्तुति का सवाल है, अखबार में जेटली का बयान भी है। अंदर दो कॉलम में यह खबर बड़ी सी छपी है और शीर्षक है, "कांग्रेस के न्याय में जेटली को 'ब्लफ' नजर आ रहा है"। इसमें ब्लफ अंग्रेजी का शब्द है और इसका मतलब है धोखा या ठगी।
अमर उजाला में यह खबर ज्यादा संतुलित ढंग से छपी है। फ्लैग शीर्षक है, 47 साल बाद कांग्रेस फिर गरीबी हटाओ के साथ चुनाव मैदान में। 1971 में दादी इंदिरा गांधी ने दिया था यह नारा, अब पोते राहुल ने। मुख्य शीर्षक है, कांग्रेस का वादा - सत्ता में आए तो गरीबों को न्यूनतम आय 12 हजार। इससे कम मासिक आय हुई तो सरकार देगी अधिकतम 72,000 रुपए तक सालाना। अखबार ने यह सवाल और इसका जवाब भी प्रमुखता से छापा है कि इसके लिए पैसे कहा से आएंगे। जवाब है - पैसे की कमी नहीं है, देश में आपसे हर रोज चोरी की जा रही है। आपके पास कितना क्या है, सब डिटेल है। पीएम किसानों को साढ़े तीन रुपए रोजाना देकर गुमराह कर रहे हैं। यहीं निजी कंपनियों को लाखों करोड़ बांटे जा रहे हैं। यहां इसके साथ भाजपा की भी बात है - महज चुनावी धोखा जिसका श्रेय वित्त मंत्री अरुण जेटली को दिया गया है।
दैनिक भास्कर में भी अरुण जेटली को शीर्षक समेत आठ लाइनों में निपटा दिया गया है। यहां नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पबलिक फाइनेंस एंड पॉलिसी की राधिका राय का एक्सपर्ट व्यू है। इसका शीर्षक है, सैद्धांतिक रूप से यह संभव, पर 3.6 लाख करोड़ रुपए कहां से आएंगे यह साफ नहीं है। नवोदय टाइम्स में यह खबर लीड है, "कांग्रेस का फिर नारा - गरीबी हाटाओ"। अखबार ने इसके नीचे तीन कॉलम में छापा है, "जीतने के लिए गरीबों से बड़ा छल-कपट : जेतली"। नवभारत टाइम्स में यह खबर लीड है, 12 हजार की सैलरी से गरीबी हटाओ। उपशीर्षक है, राहुल ने खेला मिनिमम इनकम का बड़ा चुनावी दांव। अखबार में पहले पन्ने पर जेटली की खबर नहीं है।
हिन्दुस्तान ने इसे राहुल का दांव और जेटली का वार के रूप में छापा है। दोनों खबरें पहले पन्ने पर साथ हैं। राजस्थान पत्रिका में यह खबर न्याय का वादा के तहत, "सरकार में आए तो गरीबों को हर माह 12,000 आय की गारंटी : राहुल गांधी" शीर्षक से दो कॉलम में छपी है। इसके साथ किसको मिलेगा न्याय और खबर के नीचे दो कॉलम में ही एक खबर है जिसका एक कॉलम का शीर्षक है, कांग्रेस का इतिहास छल का : जेटली। खबर और शीर्षक समेत इसे छह लाइन में निपटा दिया गया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, अनुवादक व मीडिया समीक्षक हैं।)
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मुझे लगता है कि अखबारों की आजादी के नाम पर संपादकीय विवेक का उपयोग मिलावटी खबर देने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। खासकर तब जब भिन्न विचारों वाले राजनीतिक दलों के मिलने पर सत्तारूढ़ दल को एतराज है और वे उसे मिलावट कह रहे हैं। ऐसे में दैनिक जागरण का आज का शीर्षक गौरतलब है। अखबार ने इस खबर को अपने संवाददाता संजय मिश्र की बाईलाइन के साथ छापा है और शीर्षक है, “राहुल का बड़ा दांव, हर गरीब को सालाना 72,000 रुपए”। मेरा मानना है कि कौन नहीं जानता कि यह राहुल का चुनावी दांव हैं। क्या दैनिक जागरण के नहीं बताने से किसी को समझने में दिक्कत होती? मुझे लगता है कि ऐसे मामले में अखबार को अपनी ओर से टिप्पणी करने की कोई जरूरत नहीं है। सिर्फ सूचना रख दी जाए तो भी पाठक समझता है। जहां तक विश्लेषण की बात है वह अलग चीज है। और अलग रहना चाहिए।
खबर की पहली प्रस्तुति ही संपादकीय मिलावट के साथ हो - यह संपादकीय अनैतिकता है। आजादी और विवेक का दुरुपयोग है। जहां तक जागरण के शीर्षक की बात है, ऐसे शीर्षक का वैसे भी कोई मतलब नहीं है क्योंकि पाठक ही नहीं, दुनिया जानती है कि जागरण खुलकर भाजपा और सरकार का समर्थन करता है। इतिहास भूगोल सब सर्वविदित है। यही नहीं, अखबार जो खरीदकर पढ़ता है उसके पास दूसरा अखबार खरीदने का विकल्प है। पर उन्हें यही पसंद है पर इसका मतलब यह नहीं है कि आप पाठकों को मिलावटी खबरें दें। उन्हें आप इस घोषणा का नफा-नुकसान अलग से बताते तो वह भी पसंद किया जाता। अखबार की एक साख बनती एक ब्रांड बनता और लोग जागरण की प्रतिक्रिया की बात करते। पर जागरण अलग तरह की पत्रकारिता कर रहा है।
इसमें शीर्षक ही नहीं, तथ्यात्मक चूक भी है। मुख्य खबर के साथ जागरण ने दो कॉलम के शीर्षक के साथ एक खबर छापी है, "राहुल के चुनावी वादे से डेढ़ से दो फीसद तक बढ़ेगी महंगाई"। क्या यह संभव है? वादे से महंगाई कैसे बढ़ जाएगी। जाहिर है, अखबार कहना चाहता है कि इसे लागू किया गया तो महंगाई डेढ़-दो फीसदी बढ़ जाएगी और कह रहा है कि घोषणा से ही बढ़ जाएगी। यह चूक है। कहने की जरूरत नहीं है कि इससे राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी का नुकसान हुआ जो अखबार का मकसद नहीं होना चाहिए। या अखबार की आड़ में नहीं किया जाना चाहिए। खासकर तब जब उसी पन्ने पर एक और खबर चार कॉलम में छापी गई है।
वित्त मंत्री अरुण जेटली की फोटो के साथ छपी इस खबर का शीर्षक है, मोदी सरकार दे रही है सालाना एक लाख से ज्यादा : जेटली। राहुल गांधी ने सत्ता में आने पर देने की बात की है तो सरकार सत्ता में रहकर उससे ज्यादा दे रही है यह बताने का क्या मतलब? क्या राहुल (या कांग्रेस पार्टी को) अपनी योजना बताने का भी हक नहीं है। और वह अपनी योजना न बनाए, इसलिए न बताए कि सरकार वह काम कर रही है। क्या सरकार एक लाख से ज्यादा दे रही है तो 72,000 और देने की जरूरत नहीं है? दिया जाएगा तो लोग मना कर देंगे? क्या विदेश से आने वाले काले धन में से जो 15 लाख मिलना था वह सरकार के एक लाख के बराबर होता है? ऐसे में जेटली के इस विलाप का क्या मतलब है और वैसे भी वे अपने घर से नहीं दे रहे हैं। इससे महंगाई नहीं बढ़ी होगी? कौन बताएगा? इसपर अखबार क्यों शांत है?
दिलचस्प यह है कि इंडियन एक्सप्रेस में भी यह खबर लगभग ऐसे ही है। वहां महंगाई बढ़ने की खबर की जगह अरुण जेटली का विलाप है। एक जैसी सभी खबरें एक साथ छापने की प्रवृत्ति भी ऐसा कराती है। लेकिन मेरा मानना है कि चुनावी घोषणा (या दांव भी) पेश करने वाले के शब्दों में प्रस्तुत कर दिया जाना चाहिए। राय बिल्कुल अलग हो। ऐसे नहीं कि राय के नाम पर कह दिया जाए कि घोषणा भर से महंगाई बढ़ जाएगी। यहां तो अरुण जेटली कह रहे हैं कि कांग्रेस का इतिहास ही ऐसा रहा है और वह गरीबी दूर करने के नाम पर लोगों को ठगती रही है। मेरा मानना है कि कांग्रेस को इसकी सजा मिल चुकी है और ठगने की बात हो तो भाजपा ने गरीबों को ही नहीं, पढ़े-लिखे मध्यम वर्ग को भी ठगा है। शायद इसीलिए हिन्दुस्तान टाइम्स और टाइम्स ऑफ इंडिया ने जेटली की खबर को इतनी प्रमुखता नहीं दी है।
वैसे भी, जेटली के इस विलाप का संबंध राहुल की घोषणा से नहीं होना चाहिए। उनका रोना जायज है और राजनीतिक है। इसे एक अलग राजनीतिक खबर की तरह छापा जाना चाहिए। खासकर इंडियन एक्सप्रेस में जब ‘एक्सप्रेस एक्सप्लेन्ड’ जैसी व्यवस्था है। एक आर्थिक योजना अगर देश के वित्त मंत्री और खुद अखबार की राय में दमदार नहीं है तो उसे लीड बनाने का कोई मतलब नहीं है और अगर देश के दूसरे प्रमुख राजनीतिक दल की घोषणा होने के कारण लीड है तो इसे शीर्षक में ही कहा जाना चाहिए कि कांग्रेस की योजना लचर या घटिया या अव्यावहारिक है।
मुझे अंग्रेजी दैनिक द टेलीग्राफ इसीलिए पसंद है। टेलीग्राफ ने आज इस खबर को लगभग राहुल गांधी के शब्दों में छापा है और शीर्षक भी वही है, "राहुल ने गरीबी के खिलाफ 'आखिरी कार्रवाई' का खुलासा किया"। मेरे ख्याल से इसमें पहले की योजनाएं सफल न होने की स्वीकारोक्ति है और अरुण जेटली अगर राहुल के ऐसा कहने के बाद भी कह रहे हैं कि कांग्रेस गरीबों को ठगती रही है तो वे इस खबर या घोषणा के संबंध में गलतबयानी कर रहे हैं। यह गरीबी के खिलाफ कांग्रेस की एक और कोशिश या नया नारा नहीं है बल्कि अंतिम कार्रवाई है। और मीडिया को ईमानदारी से इसे ऐसे ही पेश करना चाहिए था। विश्लेषण अलग से कर सकते थे कि योजना में क्या कमजोरी है या यह कैसे अव्यावहारिक है।
इस खबर के साथ सबसे खास बात यह है कि राहुल ने एक परिवार के लिए न्यूनतम आय 12,000 रुपए प्रतिमाह तय की है जो 2000 रुपए किसानों को देने की भाजपा सरकार की चुनावी घोषणा की धज्जियां उड़ा दे रहा है और भाजपा नेताओं के तिलमिलाने का कारण भी यही लगता है। जहां तक टेलीग्राफ में खबरों की प्रस्तुति का सवाल है, अखबार में जेटली का बयान भी है। अंदर दो कॉलम में यह खबर बड़ी सी छपी है और शीर्षक है, "कांग्रेस के न्याय में जेटली को 'ब्लफ' नजर आ रहा है"। इसमें ब्लफ अंग्रेजी का शब्द है और इसका मतलब है धोखा या ठगी।
अमर उजाला में यह खबर ज्यादा संतुलित ढंग से छपी है। फ्लैग शीर्षक है, 47 साल बाद कांग्रेस फिर गरीबी हटाओ के साथ चुनाव मैदान में। 1971 में दादी इंदिरा गांधी ने दिया था यह नारा, अब पोते राहुल ने। मुख्य शीर्षक है, कांग्रेस का वादा - सत्ता में आए तो गरीबों को न्यूनतम आय 12 हजार। इससे कम मासिक आय हुई तो सरकार देगी अधिकतम 72,000 रुपए तक सालाना। अखबार ने यह सवाल और इसका जवाब भी प्रमुखता से छापा है कि इसके लिए पैसे कहा से आएंगे। जवाब है - पैसे की कमी नहीं है, देश में आपसे हर रोज चोरी की जा रही है। आपके पास कितना क्या है, सब डिटेल है। पीएम किसानों को साढ़े तीन रुपए रोजाना देकर गुमराह कर रहे हैं। यहीं निजी कंपनियों को लाखों करोड़ बांटे जा रहे हैं। यहां इसके साथ भाजपा की भी बात है - महज चुनावी धोखा जिसका श्रेय वित्त मंत्री अरुण जेटली को दिया गया है।
दैनिक भास्कर में भी अरुण जेटली को शीर्षक समेत आठ लाइनों में निपटा दिया गया है। यहां नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पबलिक फाइनेंस एंड पॉलिसी की राधिका राय का एक्सपर्ट व्यू है। इसका शीर्षक है, सैद्धांतिक रूप से यह संभव, पर 3.6 लाख करोड़ रुपए कहां से आएंगे यह साफ नहीं है। नवोदय टाइम्स में यह खबर लीड है, "कांग्रेस का फिर नारा - गरीबी हाटाओ"। अखबार ने इसके नीचे तीन कॉलम में छापा है, "जीतने के लिए गरीबों से बड़ा छल-कपट : जेतली"। नवभारत टाइम्स में यह खबर लीड है, 12 हजार की सैलरी से गरीबी हटाओ। उपशीर्षक है, राहुल ने खेला मिनिमम इनकम का बड़ा चुनावी दांव। अखबार में पहले पन्ने पर जेटली की खबर नहीं है।
हिन्दुस्तान ने इसे राहुल का दांव और जेटली का वार के रूप में छापा है। दोनों खबरें पहले पन्ने पर साथ हैं। राजस्थान पत्रिका में यह खबर न्याय का वादा के तहत, "सरकार में आए तो गरीबों को हर माह 12,000 आय की गारंटी : राहुल गांधी" शीर्षक से दो कॉलम में छपी है। इसके साथ किसको मिलेगा न्याय और खबर के नीचे दो कॉलम में ही एक खबर है जिसका एक कॉलम का शीर्षक है, कांग्रेस का इतिहास छल का : जेटली। खबर और शीर्षक समेत इसे छह लाइन में निपटा दिया गया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, अनुवादक व मीडिया समीक्षक हैं।)