राजस्थान में कुल 59 सीट्स रिजर्व है, जिनमें 34 अनुसूचित जाति और 25 जनजाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित है ,शेष 141 विधानसभा क्षेत्र अनारक्षित है।
1952 से 2013 तक के 14 चुनावों पर नजर डालें तो इन सीटों पर टिकट देने का ट्रेंड यह है कि इन आरक्षित क्षेत्रों में आरक्षित समुदाय की राय कोई मायने नहीं रखती,यहां पर अनारक्षित सवर्ण अथवा लठैत पिछड़ों की इच्छानुसार ही कैंडिडेट तय किये जाते है, जिन्हें एक बार जीतने के बाद दूसरी बार या तो टिकट नहीं मिलता है, या सीट बदल दी जाती है अथवा उनको हरा दिया जाता है,ताकि इन वर्गों का कोई प्रभावी या सक्षम नेतृत्व न उभर पाये ,यह सिलसिला पहली विधानसभा से लेकर आज तक बदस्तूर जारी है।
यह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है कि अनुसूचित जाति वर्ग की सीटों पर पांच प्रमुख आधारों को ध्यान में रखते हुए टिकट दिए जाते है ,जिसके चलते आज तक किसी भी पार्टी में प्रादेशिक स्तर का भी कोई ढंग का नेतृत्व उभर कर नहीं आ पाया है।
रिजर्व सीटों पर टिकट पाने वालों में ये पांच प्रकार की विशेषताएं पाई जाती है,हालांकि यह विश्लेषण राजस्थान के संदर्भ में है,मगर कमोबेश इसी से मिलते जुलते आधारों या कारणों से ही अन्य राज्यों में भी दलित कैंडिडेट्स को मौका दिया जाता है।
आईये देखते है कि आखिर कौन है ये पांच तरह के टिकट लाभार्थी लोग?
1. सनातन मान्यताओं को मनाने वाले दब्बू व्यक्ति - सबसे ज्यादा डिमांड इस तरह के संस्कारित व्यक्ति की रहती है,जो लोगों के जूते खोलने की जगह में बैठ जाये,अपने कुर्ते की जेब मे चाय व पानी पीने का गिलास रखें, छुआछूत और भेदभाव की सनातनी मर्यादा को स्वीकारते हुए अपनी औकात में रहें, 1990 तक इस तरह के जीव बड़ी संख्या में पाए जाते थे,अब ये इक्का दुक्का ही मिलते है, फिर भी अनारक्षितों को इस तरह के 'सनातनी दब्बू' बहुत पसंद आते है।
2. सेवानिवृत्त अधिकारी, कर्मचारी - 60 साल की उम्र तक सरकारी नौकरी करके ढोल बजाकर विदा होकर पूरी पेंशन, ग्रेच्यूटी लेकर आने वाले कर्मचारी अधिकारी रिटायर्ड होने के बाद राजनीतिक नेताओं की परिक्रमा करने लगते है और चुनाव के वक़्त बायोडाटा देने लगते है,ये लोग वंचित समुदाय के राजनीतिक कार्यकर्ता का हक मार लेते है,आफ़्टर रिटायरमेंट जबकि इन्हें घर बैठना चाहिए, ये लोकसभा और विधानसभा में बैठना चाहते है।
3. अल्प शिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति - रिजर्व सीट पर नेताओं को अपना 'जेबी उम्मीदवार' चाहिए,इसलिए वह लगभग अशिक्षित या अल्प शिक्षित लोगों को पसन्द करते है,विगत तीन चुनावों में यह पाया गया कि भाजपा व अन्य दलों ने कांग्रेस के मुकाबले ज्यादा शिक्षित लोगों को प्रतिनिधित्व का मौका दिया है,जबकि भाजपा के लोग डॉक्टर्स,इंजीनियर्स ,टीचर्स आदि को पसंद करते है,वहीं कांग्रेस को पढ़े लिखे लोगों के बजाय आठवी या दसवीं पास लोग ही ज्यादा मिलते दिखाई पड़ते हैं।
4. अपनी विधानसभा तक सीमित रहने वाले व्यक्ति- स्थानिक अन्य समुदाय के नेता ऐसे व्यक्ति को टिकट दिलाना पसन्द करेंगे जो सिर्फ अपनी विधानसभा तक ही सीमित रहता हो और कभी भी अपने वर्ग या क्षेत्र की बातें सदन में नहीं रखता हो।
5- वंशानुगत और गैर सांगठनिक व्यक्ति - पांचवी प्रकार के इन लोगों को खानदानी लोग भी कहा जा सकता है,इनके बाप या दादा वहां से एमएलए थे,इसलिए उनको भी टोकन के रूप में कैंडिडेट बना दिया जाता है। ये वंशानुगत लोग किसी जनसंघर्ष से नहीं आते है ,इनमें से अधिकतर का कोई सांगठनिक बैक ग्राउंड नहीं होता है,उस दल या समाज के लिए इनका कोई योगदान नहीं होने के बावजूद भी इनको इनके बाप दादाओं की वजह से टिकट मिल जाते है और अक्सर ये लोग जीत भी जाते है, पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाते है।
आप अपने इर्दगिर्द की रिजर्व सीटों के दावेदार,टिकटार्थी या उम्मीदवारों की सोशल ऑडिट कीजियेगा, आप पायेंगे कि इसी तरह के लोग बरसों से चुने जा रहे !
ये क्यों चुने जा रहे है,क्योंकि हम लोग सवाल नहीं उठा रहे है, हम कुछ कर नहीं रहे है।
ऐसी स्थिति में अनुसूचित जाति वर्ग को क्या करना चाहिए? इस पर अवश्य विचार करने की आवश्यकता है।
गौरतलब है कि राजनीतिक दलों तथा प्रादेशिक स्तर पर जो धनबल और पारिवारिक बल के नेताओं का बोलबाला रहा है, वो दलित राजनेताओं के साथ भी है।
जो उपरोक्त पांच प्रकारों- दब्बू, गैर सांगठनिक व्यक्ति, सेवानिवृत्त, अल्प शिक्षित या अशिक्षित, अपनी विधानसभा तक सीमित रहने वाले तथा खानदानी व्यक्ति होता है,उसे आसानी से टिकट मिल जाता है, ऐसे अधिकतर नेता धनबल और पारिवारिक बल से आगे बढ़े है।
दलित नेताओं के साथ सबसे गंभीर समस्या यह रही है कि उनकी लड़ाई अन्य वर्गों से होने के बजाय सबसे ज्यादा अपने ही वर्ग के लोगों से होती है, क्योंकि उसके स्वयं के वर्ग के सामने ही उन्हें चुनाव लड़ना पड़ता है। ऐसे में यदि वो सामाजिक और जन आंदोलनों के भागीदार बनते है तो उन्हें चुनावों में हारना पड़ता है।
यदि वो समाज और आंदोलन का हिस्सा नहीं बनते हैं, तो ऐसे रबड़ स्टैंप नेता को दलित समाज कैसे अपना नेता मानेगा ? यह कशमकश एक बेहतर दलित वर्ग के नेता पैदा होने में सबसे बड़ा संकट पैदा करती है।
हमें मूल्यांकन करना चाहिए है कि हमारे वर्ग के लोग भले ही आरक्षित वर्ग से चुनाव लड़ते है, लेकिन अन्य वर्गों के नेताओं को दूसरी सीटों पर वोट भी देते है। दूसरी सीटों पर खड़े होने वाले उम्मीदवारों से अपने वर्ग के हितों के लिए कार्य करने वाले नेता के लिए वोट मांगने के लिए प्रतिबद्धता के साथ कार्य करवाने के लिए हमे एकजुट होने की आवश्यकता होती है।
जब तक हम राजनीतिक चतुराई नहीं सीखेंगे और अपने वास्तविक नेतृत्व को टिकट दिलाने से लगा कर चुनाव लड़वाने व जिताने का काम सामाजिक रूप से सामूहिक तौर पर नहीं स्वीकारेंगे,तब तक हमें आयातित,उधार का, गूंगा, बहरा और दब्बू नेतृत्व ही मिलेगा,जिसे हम पूना पैक्ट की खरपतवार कह कर कोसते रहेंगे और संतुष्ट हो जायेंगे।
1952 से 2013 तक के 14 चुनावों पर नजर डालें तो इन सीटों पर टिकट देने का ट्रेंड यह है कि इन आरक्षित क्षेत्रों में आरक्षित समुदाय की राय कोई मायने नहीं रखती,यहां पर अनारक्षित सवर्ण अथवा लठैत पिछड़ों की इच्छानुसार ही कैंडिडेट तय किये जाते है, जिन्हें एक बार जीतने के बाद दूसरी बार या तो टिकट नहीं मिलता है, या सीट बदल दी जाती है अथवा उनको हरा दिया जाता है,ताकि इन वर्गों का कोई प्रभावी या सक्षम नेतृत्व न उभर पाये ,यह सिलसिला पहली विधानसभा से लेकर आज तक बदस्तूर जारी है।
यह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है कि अनुसूचित जाति वर्ग की सीटों पर पांच प्रमुख आधारों को ध्यान में रखते हुए टिकट दिए जाते है ,जिसके चलते आज तक किसी भी पार्टी में प्रादेशिक स्तर का भी कोई ढंग का नेतृत्व उभर कर नहीं आ पाया है।
रिजर्व सीटों पर टिकट पाने वालों में ये पांच प्रकार की विशेषताएं पाई जाती है,हालांकि यह विश्लेषण राजस्थान के संदर्भ में है,मगर कमोबेश इसी से मिलते जुलते आधारों या कारणों से ही अन्य राज्यों में भी दलित कैंडिडेट्स को मौका दिया जाता है।
आईये देखते है कि आखिर कौन है ये पांच तरह के टिकट लाभार्थी लोग?
1. सनातन मान्यताओं को मनाने वाले दब्बू व्यक्ति - सबसे ज्यादा डिमांड इस तरह के संस्कारित व्यक्ति की रहती है,जो लोगों के जूते खोलने की जगह में बैठ जाये,अपने कुर्ते की जेब मे चाय व पानी पीने का गिलास रखें, छुआछूत और भेदभाव की सनातनी मर्यादा को स्वीकारते हुए अपनी औकात में रहें, 1990 तक इस तरह के जीव बड़ी संख्या में पाए जाते थे,अब ये इक्का दुक्का ही मिलते है, फिर भी अनारक्षितों को इस तरह के 'सनातनी दब्बू' बहुत पसंद आते है।
2. सेवानिवृत्त अधिकारी, कर्मचारी - 60 साल की उम्र तक सरकारी नौकरी करके ढोल बजाकर विदा होकर पूरी पेंशन, ग्रेच्यूटी लेकर आने वाले कर्मचारी अधिकारी रिटायर्ड होने के बाद राजनीतिक नेताओं की परिक्रमा करने लगते है और चुनाव के वक़्त बायोडाटा देने लगते है,ये लोग वंचित समुदाय के राजनीतिक कार्यकर्ता का हक मार लेते है,आफ़्टर रिटायरमेंट जबकि इन्हें घर बैठना चाहिए, ये लोकसभा और विधानसभा में बैठना चाहते है।
3. अल्प शिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति - रिजर्व सीट पर नेताओं को अपना 'जेबी उम्मीदवार' चाहिए,इसलिए वह लगभग अशिक्षित या अल्प शिक्षित लोगों को पसन्द करते है,विगत तीन चुनावों में यह पाया गया कि भाजपा व अन्य दलों ने कांग्रेस के मुकाबले ज्यादा शिक्षित लोगों को प्रतिनिधित्व का मौका दिया है,जबकि भाजपा के लोग डॉक्टर्स,इंजीनियर्स ,टीचर्स आदि को पसंद करते है,वहीं कांग्रेस को पढ़े लिखे लोगों के बजाय आठवी या दसवीं पास लोग ही ज्यादा मिलते दिखाई पड़ते हैं।
4. अपनी विधानसभा तक सीमित रहने वाले व्यक्ति- स्थानिक अन्य समुदाय के नेता ऐसे व्यक्ति को टिकट दिलाना पसन्द करेंगे जो सिर्फ अपनी विधानसभा तक ही सीमित रहता हो और कभी भी अपने वर्ग या क्षेत्र की बातें सदन में नहीं रखता हो।
5- वंशानुगत और गैर सांगठनिक व्यक्ति - पांचवी प्रकार के इन लोगों को खानदानी लोग भी कहा जा सकता है,इनके बाप या दादा वहां से एमएलए थे,इसलिए उनको भी टोकन के रूप में कैंडिडेट बना दिया जाता है। ये वंशानुगत लोग किसी जनसंघर्ष से नहीं आते है ,इनमें से अधिकतर का कोई सांगठनिक बैक ग्राउंड नहीं होता है,उस दल या समाज के लिए इनका कोई योगदान नहीं होने के बावजूद भी इनको इनके बाप दादाओं की वजह से टिकट मिल जाते है और अक्सर ये लोग जीत भी जाते है, पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाते है।
आप अपने इर्दगिर्द की रिजर्व सीटों के दावेदार,टिकटार्थी या उम्मीदवारों की सोशल ऑडिट कीजियेगा, आप पायेंगे कि इसी तरह के लोग बरसों से चुने जा रहे !
ये क्यों चुने जा रहे है,क्योंकि हम लोग सवाल नहीं उठा रहे है, हम कुछ कर नहीं रहे है।
ऐसी स्थिति में अनुसूचित जाति वर्ग को क्या करना चाहिए? इस पर अवश्य विचार करने की आवश्यकता है।
गौरतलब है कि राजनीतिक दलों तथा प्रादेशिक स्तर पर जो धनबल और पारिवारिक बल के नेताओं का बोलबाला रहा है, वो दलित राजनेताओं के साथ भी है।
जो उपरोक्त पांच प्रकारों- दब्बू, गैर सांगठनिक व्यक्ति, सेवानिवृत्त, अल्प शिक्षित या अशिक्षित, अपनी विधानसभा तक सीमित रहने वाले तथा खानदानी व्यक्ति होता है,उसे आसानी से टिकट मिल जाता है, ऐसे अधिकतर नेता धनबल और पारिवारिक बल से आगे बढ़े है।
दलित नेताओं के साथ सबसे गंभीर समस्या यह रही है कि उनकी लड़ाई अन्य वर्गों से होने के बजाय सबसे ज्यादा अपने ही वर्ग के लोगों से होती है, क्योंकि उसके स्वयं के वर्ग के सामने ही उन्हें चुनाव लड़ना पड़ता है। ऐसे में यदि वो सामाजिक और जन आंदोलनों के भागीदार बनते है तो उन्हें चुनावों में हारना पड़ता है।
यदि वो समाज और आंदोलन का हिस्सा नहीं बनते हैं, तो ऐसे रबड़ स्टैंप नेता को दलित समाज कैसे अपना नेता मानेगा ? यह कशमकश एक बेहतर दलित वर्ग के नेता पैदा होने में सबसे बड़ा संकट पैदा करती है।
हमें मूल्यांकन करना चाहिए है कि हमारे वर्ग के लोग भले ही आरक्षित वर्ग से चुनाव लड़ते है, लेकिन अन्य वर्गों के नेताओं को दूसरी सीटों पर वोट भी देते है। दूसरी सीटों पर खड़े होने वाले उम्मीदवारों से अपने वर्ग के हितों के लिए कार्य करने वाले नेता के लिए वोट मांगने के लिए प्रतिबद्धता के साथ कार्य करवाने के लिए हमे एकजुट होने की आवश्यकता होती है।
जब तक हम राजनीतिक चतुराई नहीं सीखेंगे और अपने वास्तविक नेतृत्व को टिकट दिलाने से लगा कर चुनाव लड़वाने व जिताने का काम सामाजिक रूप से सामूहिक तौर पर नहीं स्वीकारेंगे,तब तक हमें आयातित,उधार का, गूंगा, बहरा और दब्बू नेतृत्व ही मिलेगा,जिसे हम पूना पैक्ट की खरपतवार कह कर कोसते रहेंगे और संतुष्ट हो जायेंगे।