अपनी दुकान की पहरेदारी करती मछली वाली मउशी और मौके की तलाश में बैठा बगुला। मुंबई के किसी भी मछली बाजार का यह एक आम दृश्य है। इधर मउशी का ध्यान हटा और उधर बगुला महंगा बिकने वाला एक झींगा ले उड़ा। मुंबई की सड़कें तंग हैं। मछली की दुकान जहां खत्म होती है, वहीं से सीधी सड़क शुरू हो जाती है। पानी की छीटें उड़ाती गाड़ियां गुजर रही हैं। इन गाड़ियों से बचकर मछली के खरीदार खड़े हैं और उन्ही के बीच बगुले भी। चोरी की इरादे से आये बगुलों को एक-दूसरे के पीछे लाइन में खड़े देखकर लगता है कि इंसान ही नहीं जीव-जंतुओं को भी इस शहर ने अपने कायदे में ढाल लिया है।
एक बगुला झपट्टा मारता है, मछली वाली उसे उड़ाती। अब कतार में ठीक पीछे खड़ा दूसरा बगुला अपनी किस्मत आजमाने आगे आ जाता है। `बको ध्यानम’ का क्या मतलब होता है, यह दृश्य देखकर समझ में आता है। लेकिन मुंबई में मुझे श्वान निद्रा और काग चेष्टा उस तरह दिखाई नहीं देते। यहां के कुत्ते निहायत ही आलसी हैं। अपनी बिल्डिंग के गेट पर सोये कुत्ते को हटाने के लिए बकायदा हॉर्न बजाना पड़ता है। वह आंखे खोलता है और पूरी ढिठाई बरतते हुए आपको उनकी ही जगह देता है कि आप किसी तरह गाड़ी निकाल सकें।
मुंबई में कौव्वो की तादाद बहुत ज्यादा है। लेकिन दरियादिल शहर उनका भरपूर ध्यान रखता है। लिहाजा उन्हे पेट भरने के लिए अलग से कोई काग चेष्टा नहीं करनी पड़ती। सुबह किसी भी स्टेशन वाले इलाके में चले जाइये। वहां कई ऐसे लोग मिल जाएंगे जो नियमित रूप से कौव्वो को दाना खिलाने आते हैं।
बिल्लियों से भी इस शहर का रिश्ता अजीब है। बिल्ली के रास्ता काटते ही मुंबइकर लखनवी हो जाते हैं। वे इंतजार करते हैं कि उनसे पहले कोई गुजर जाये तब वे कदम बढ़ायें। इतना होते हुए भी बिल्लियों को लेकर कोई हिकारत का भाव नहीं है। जिस तरह बाकी शहरों में आवरा कुत्तों को देखभाल करने वाली संस्थाएं होती हैं, उसी तरह मुंबई में बहुत से लोग सड़क पर पलने वाली बिल्लियों की हिफाजत भी करते हैं। बड़े-बड़े कैट फूड के पैकेट लिये बिल्लियों को बुलाते लोग यहां आपको आसानी से नज़र आ जाएंगे।
मुंबई के कबूतर और मॉल में पलने वाली गौरेयोकी बारे में पहले भी लिख चुका हूं। मुंबई अपनी क्षमता से ज्यादा इंसान ही नहीं बल्कि जीव-जंतुओं को भी ढो रही है। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व ही शायद इस शहर की सबसे बड़ी ताकत है।
एक बगुला झपट्टा मारता है, मछली वाली उसे उड़ाती। अब कतार में ठीक पीछे खड़ा दूसरा बगुला अपनी किस्मत आजमाने आगे आ जाता है। `बको ध्यानम’ का क्या मतलब होता है, यह दृश्य देखकर समझ में आता है। लेकिन मुंबई में मुझे श्वान निद्रा और काग चेष्टा उस तरह दिखाई नहीं देते। यहां के कुत्ते निहायत ही आलसी हैं। अपनी बिल्डिंग के गेट पर सोये कुत्ते को हटाने के लिए बकायदा हॉर्न बजाना पड़ता है। वह आंखे खोलता है और पूरी ढिठाई बरतते हुए आपको उनकी ही जगह देता है कि आप किसी तरह गाड़ी निकाल सकें।
मुंबई में कौव्वो की तादाद बहुत ज्यादा है। लेकिन दरियादिल शहर उनका भरपूर ध्यान रखता है। लिहाजा उन्हे पेट भरने के लिए अलग से कोई काग चेष्टा नहीं करनी पड़ती। सुबह किसी भी स्टेशन वाले इलाके में चले जाइये। वहां कई ऐसे लोग मिल जाएंगे जो नियमित रूप से कौव्वो को दाना खिलाने आते हैं।
बिल्लियों से भी इस शहर का रिश्ता अजीब है। बिल्ली के रास्ता काटते ही मुंबइकर लखनवी हो जाते हैं। वे इंतजार करते हैं कि उनसे पहले कोई गुजर जाये तब वे कदम बढ़ायें। इतना होते हुए भी बिल्लियों को लेकर कोई हिकारत का भाव नहीं है। जिस तरह बाकी शहरों में आवरा कुत्तों को देखभाल करने वाली संस्थाएं होती हैं, उसी तरह मुंबई में बहुत से लोग सड़क पर पलने वाली बिल्लियों की हिफाजत भी करते हैं। बड़े-बड़े कैट फूड के पैकेट लिये बिल्लियों को बुलाते लोग यहां आपको आसानी से नज़र आ जाएंगे।
मुंबई के कबूतर और मॉल में पलने वाली गौरेयोकी बारे में पहले भी लिख चुका हूं। मुंबई अपनी क्षमता से ज्यादा इंसान ही नहीं बल्कि जीव-जंतुओं को भी ढो रही है। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व ही शायद इस शहर की सबसे बड़ी ताकत है।