लालू प्रसाद: फ़िरकापरस्ती के फ़न को कुचल के रख देने वाला सामाजिक न्याय का योद्धा

Written by Jayant Jigyasu | Published on: June 12, 2018
सांप्रदायिक शक्तियों के ख़िलाफ़ अचल-अडिग डटे रहने वाले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व देश के पूर्व रेलमंत्री लालू प्रसाद का आज 71वाँ जन्मदिन है। मनुस्ट्रीम मीडिया जिन्हें ‘चाराचोर’ के नाम से बदनाम करती है, उन्हें मैं 6 विश्विद्यालय खोलने वाले मुख्यमंत्री के तौर पे जानता-मानता-सराहता हूँ। अगर रीढ़ वाले नेताओं की गिनती इस देश में होगी, तो लालू प्रसाद का नाम उस फ़ेहरिस्त में सबसे ऊपर आएगा। बिना डिगे फ़िरकापरस्ती से जूझने का माद्दा रखने वाले, पत्थर तोड़ने वाली भगवतिया देवी, जयनारायण निषाद, ब्रह्मानंद पासवान, आदि को संसद भेजने वाले, खगड़िया स्टेशन पर बीड़ी बनाने वाले विद्यासागर निषाद को मंत्री बनाने वाले, आज़ादी के 43 वर्षों के बीत जाने के बाद भी बिहार जैसे पिछड़े सूबे में समाज के बड़े हिस्से के युवाओं को उच्च शिक्षा से जोड़ने हेतु 6 नई युनिवर्सिटी खोलने वाले लोकप्रिय, मक़बूल व विवादास्पद नेता लालू प्रसाद की सियासत को 1995 से क़रीब से देखने-समझने की कोशिश करता रहा हूँ।



लालू प्रसाद ने 90 की शुरूआत में यह साबित किया कि जमात की राजनीति से अभिजात्य वर्ग के वर्चस्व को चुनौती देकर समाज में समता व बंधुत्व को स्थापित किया जा सकता है। मानसिक शोषण व गुलामी से बहुत हद तक निजात दिलाने में वे क़ामयाब रहे। जिनके पैर शूद्रों और दलितों को ठोकर मारते थे, उनके दर्प को तोड़ने का काम लालू प्रसाद ने किया। आरएसएस की उन्मादी, सांप्रदायिक, विभाजनकारी व राष्ट्रभंजक राजनीति करने वालों के ख़िलाफ़ खड़ी होनेवाली लोकतांत्रिक शक्तियों की भूमिका व हमारे संघर्ष में उनके अंशदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

बचपन से लालू प्रसाद की जनराजनीति व लोकसंवाद की अद्भुत कला को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। वे सूचना व प्रसारण मंत्रालय की स्वायत्त इकाई व जनसंचार का मक्का कहे जाने वाले एशिया के सबसे बड़े संस्थान के रूप में चर्चित भारतीय जनसंचार संस्थान कभी नहीं गए, न एशियन कॉलिज ऑफ़ जर्नलिज़म, पर किसी भी मंझे हुए कम्युनिकेटर से कहीं ज़्यादा कुशलता व दक्षता के साथ अपना असर छोड़ते हुए जनसामान्य से संवाद स्थापित करने की कला में छात्रजीवन से ही पारंगत नेता हैं।

हैं और भी दुनिया में सियासतदां बहुत अच्छे
कहते हैं कि लालू का है अंदाज़े-बयां और। (ग़ालिब से माज़रत के साथ)

तब दूसरी जमात में पढ़ता था। मुझे ठीकठीक ध्यान आता है, जो स्मृति आज भी धुंधली नहीं हुई है। माँ मेरी अंगुली थामे भीड़ में थीं। लालू प्रसाद बैरिकेड हटाने को बोल रहे हैं और पुलिस वालों को हड़का रहे हैं, महिलाओं को आगे आने के लिए कह रहे हैं। छोटे होने का फ़ायदा यह हुआ कि माँ के साथ मैं भी आगे बैठ गया औऱ नज़दीक से लालू प्रसाद के चेहरे पर आते-जाते भाव देख रहा था। वो रौन (अलौली) की एक विशाल जनसभा थी, और लालू प्रसाद अपनी रौ में बोल रहे थे :

ओ गाय चराने वालो, ओ भैंस चराने वालो,
ओ बकरी चरानेवालो, ओ भेड़ चराने वालो,
ओ घोंघा बीछने वालो, ओ तारी चुआने वालो
ओ मूस (चूहे) के बिल से दाना निकालने वालो,
पढ़ना-लिखना सीखो, पढ़ना-लिखना सीखो।

उनकी हर अभिव्यक्ति पर जोशीली भीड़ ताली बजा रही थी। वो आज भी हिन्दी बेल्ट के उन चंद धुरंधर वक्ताओं की फ़ेहरिस्त में शुमार हैं जिनकी ओरेटरी का कोई ज़ोर नहीं। क्राउड पुलिंग में आज भी उनका कोई मुक़ाबला नहीं।

मुझे यह कहने में कोई गुरेज़ और संकोच नहीं कि मेरे जैसे अति साधारण ग्राम्य पृष्ठभूमि के हज़ारों लड़के आज टीएनबी कॉलिज, आइआइएमसी, सेंट स्टीवन'स कॉलिज, हंसराज कॉलिज और जेएनयू में पढ़ पाए या पढ़ रहे हैं और कोलंबिया, ऑक्सफ़र्ड, कैंब्रिज, आदि जाने का ख़ाब देख पा रहे हैं, तो इसमें कहीं-न-कहीं कर्पूरी-लालू-शरद जैसे जननेताओं की बड़ी भूमिका रही है, नहीं तो कम-से-कम मेरे जैसा लड़का तो कहीं दियारा क्षेत्र के टीकारामपुर में गाय-भैंस ही चरा रहा होता जो मेरे दादाजी का पुश्तैनी काम था या गोली-बारूद बना रहा होता जो मेरे पैत्रिक गाँव के बहुत-से लोग आज भी करते हैं।

 मुख्यमंत्री बनने के बाद 90 में अलौली में लालू जी का पहला कार्यक्रम था मिश्री सदा कालिज, रौन में। पिताजी उसी कॉलिज में गणित के व्याख्याता थे। कर्पूरी जी को याद करते हुए लालू जी ने कहा, "जब कर्पूरी जी आरक्षण की बात करते थे, तो लोग उन्हें मां-बहन-बेटी की गाली देते थे। और, जब मैं रेज़रवेशन की बात करता हूं, तो लोग गाली देने के पहले अगल-बगल देख लेते हैं कि कहीं कोई पिछड़ा-दलित-आदिवासी सुन तो नहीं रहा है। ज़ादे भचर-भचर किये तो कुटैबो करेंगे। ये बदलाव इसलिए संभव हुआ कि कर्पूरी जी ने जो ताक़त हमको दी, उस पर आप सबने भरोसा किया है।"

बिहार में दस साल नीतीश ने संघ को अपना पैर पसारने का भरपूर अवसर मुहैया कराया व शासकीय संरक्षण दिया। मैंने लालू को लगातार पांच चुनाव में शिक़स्त खाते देखा है, पर विचारधारात्मक स्तर पर धर्मनिरपेक्षता के मामले में लड़खड़ाते कतई नहीं। लगातार पाँच चुनावों (फरवरी 05 व अक्टूबर 05 का विधानसभा चुनाव, 09 का लोस चुनाव, 10 का विस चुनाव एवं 14 का लोस चुनाव) में करारी हार के बाद आदमी सत्ता के गलियारे में अलबला के न जाने किस-किस से हाथ मिलाने को तैयार हो जाता है, मगर लालू प्रसाद ने भाजपा के साथ कभी कोई समझौता नहीं किया। इसीलिए, वे जॉर्ज फर्णांडिस, शरद यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार से कहीं ज़्यादा बड़े नेता के रूप में अक़्लियतों के बीच स्थापित हैं। ऐसा नहीं कि जॉर्ज-शरद-रामविलास-मुलायम की पहले की लड़ाई को लोग भूल गये हैं या उसकी क़द्र नहीं है। लेकिन, सामाजिक न्याय साम्प्रदायिक सौहार्द के बगैर अधूरा रहेगा। लालू प्रसाद के प्रति मेरी अपनी आलोचनाएँ हैं, पर सियासी मूल्यांकन सदैव निरपेक्ष नहीं हो सकता। देश की मौजूदा परिस्थिति में मेरी यही मान्यता है। यह भी सच है कि जम्हूरियत में चुनाव ही सबकुछ नहीं है, वह तो राजनीति की कई गतिविधियों में से एक गतिविधि है, दुर्भाग्य है कि चुनाव को ही संपूर्ण राजनीति मान लिया गया है। सामाजिक-सांस्कृतिक जागृति के लिए उत्तर भारत में व्यापक स्तर पर कोई पहल कम ही हुई है।


कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले
उस इंक़लाब का जो आज तक उधार-सा है।
(कैफ़ी आज़मी)

बाक़ी बातें एक तरफ, लालू प्रसाद का सेक्युलर क्रेडेंशियल एक तरफ। लालू जी की इसी धर्मनिरपेक्ष छवि का क़ायल रहा हूं। 89 के दंगे के बाद विषाक्त हो चुके माहौल में 90 में सत्ता संभालने के बाद बिहार में कोई बड़ा दंगा नहीं होने दिया। मौजूदा हालात में जहां धर्मनिरपेक्ष देश को हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करने की जबरन कोशिश की जा रही है, वैसे में सामाजिक फ़ासीवाद से जूझने का जीवट रखने वाले नेता कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकते। बिहार में किसी को अपना कार्यकाल पूरा करने क्यों नहीं दिया जाता था, इस पर कभी सोचिएगा। चाहे वो दारोगा राय हों, भोला पासवान शास्त्री हों, अब्दुल गफ़ूर हों या कोई और, किसी ने अपना टर्म पूरा नहीं किया। कई मामलों में तुलनात्मक रूप से मैं लालू प्रसाद को श्री कृष्ण सिंह,केदार पांडेय, विनोदानंद झा, बिंदेश्वरी दूबे, भागवत झा आज़ाद, जगन्नाथ मिश्र और के.बी. सहाय (इनकी कार्यशैली के बारे में साहित्यकार, ट्रेड युनियन लीडर व एमएलए रहीं रमणिका जी बेहतर बताएंगी) से बेहतर मुख्यमंत्री मानता हूँ।

बिहार में सरकारी स्तर पर सामंतशाही के संरक्षण पर बिहार के पहले सोशलिस्ट विधायक, सांसद व सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे बी. एन. मंडल चोट करते हैं, जब केदार पांडेय की सरकार के दौरान समाजवादी विधायक सूर्यनारायण सिंह को 1973 में इतनी बर्बरता से पीटा गया कि उनकी मौत हो गई। 2 मई, 73 को राज्यसभा में सवाल उठाते हुए भूपेंद्र बाबू ने कहा, “जब सूर्यनारायण सिंह को पुलिस लाठी से मार रही थी, उस समय पूंजीपति के घर पर बिहार का मुख्यमंत्री और एक युनियन का नेता बैठ कर चाय पी रहे थे। और, कहा जाता है कि इन लोगों के षड्यंत्र की वजह से ही उनको मार लगी। ... जलाने के समय में जब उनकी देह को खोला गया, तो समूची पीठ का चमड़ा लाठी की मार से फट गया था। ... ऐसी हालत में अगर लोग अहिंसा को छोड़कर हिंसा का मार्ग पकड़ते हैं, तो कौन-सी बेजा बात करते हैं”।

बिहार लेनिन बाबू जगदेव प्रसाद की किस बर्रबरता और अमानवीयता से हत्या की गई, वह किसी से छिपा नहीं है। उन्हें घसीटा गया, लाठियां बरसायी गईं, प्यास लगने पर उनके मुंह पर पेशाब करने की बात की गई, और साज़िश में जो रामाश्रय सिंह शामिल थे; 2005 में जब नीतीश कुमार लोजपा को तोड़कर गाय-माल की तरह 17-18 विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त कर रहे थे, उस वक़्त लोजपा से भागकर कथित रूप से एक करोड़ में जदयू के हाथों बिके उस आतताई को छविप्रिय 'बालगांधी' नीतीश जी ने अपने मंत्रीमंडल में संसदीय कार्य और जलसंसाधन मंत्री बना दिया।

कर्पूरी ठाकुर पर घोटाले का कहीं कोई आरोप नहीं था, पर दो-दो बार उनकी सरकार नहीं चलने दी गई। 70 के उत्तरार्ध में सिर्फ़ सिंचाई विभाग में वे 17000 वैकेंसिज़ लेकर आते हैं, और जनसंघी पृष्ठभूमि के लोग रामसुंदर दास को आगे करके एक हफ़्ते के अंदर सरकार गिरवा देते हैं। जहां एक साथ इतने बड़े पैमाने पर फेयर तरीक़े से ओपन रिक्रुटमेंट हो, वहां मास्टर रोल पर सजातीय लोगों को बहाल कर बाद में उन्हें नियमित कर देने की लत से लाचार जातिवादी लोग इस पहल को क्योंकर पचाने लगे!

 श्री कृष्ण सिंह के बाद अपना कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरा करने वाले लालू प्रसाद बिहार के पहले मुख्यमंत्री हैं। हां, अंतर्विरोधों से दो-चार होना भारतीय लोकतंत्र की नियति बनती जा रही है, जो कचोटता है। जिसने संचय-संग्रह की प्रवृत्ति से पार पा लिया, वह संसदीय राजनीतिक इतिहास में कर्पूरी ठाकुर-मधु लिमये की भांति अमर हो जाएगा। ऐसे त्याग की भावना के साथ  जनसेवा करने वाले जनता के नुमाइंदे विरले आते हैं। पर, मैं आश्वस्त हूं कि आज भी भले लोग हैं जो ओछी महत्वाकांक्षाओं से परे समाज में परिवर्तन के पहिए को घुमाना चाहते हैं ताकि व्यक्ति की गरिमा खंडित न हो, सब लोगों के लिए प्रतिष्ठापूर्ण जीवन सुनिश्चित हो सके।

 लालू और नीतीश में एक बड़ा फ़र्क यह भी है कि जहाँ लालू के समय में अफ़सरशाही को अपनी हद पता थी, वहीं नीतीश के काल में अफ़सर नंगा नाच करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। ग़रीब-ग़ुरबों, कमज़ोर वर्गों पर पूरी नीचता के साथ धौंस जमाने का कोई मौक़ा नहीं जाने देते।

पिछले दिनों जिस बेशर्मी के साथ एक सीओ एक महिला के साथ गालीगलौज कर रहा था, उससे लगता है कि वो सीओ न हुआ कि पूरा अंचल ही उसके अब्बाजान की जागीर हो गई। इस कॉलोनियल माइंडसेट के साथ आम जनता को भेड़-बकरी समझने वाले अफ़सरान के लिए लालू प्रसाद का स्टाइल ही ठीक था जो रोज़ाना डेमोक्रोसी को एक्सरसाइज करते थे, डेमोक्रेटिक प्रॉसेस को डीपेन करने के काम में लगे रहते थे। अब इसे कोई खैनी लटवाने के प्रसंग से जोड़कर आइएएस की तौहीन समझे, तो उनकी इच्छा। उसके पीछे जो सामाजिक जागृति के संदर्भ में राजनैतिक संदेश था, वो बेहद गहरा था। प्रवचन करने से पहले थोड़ा पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के पन्ने भी कभीकभार उलट लेना चाहिए।

लालू प्रसाद से पहले बिहार में कोई मुख्यमंत्री ही नहीं हुआ जो इतना भी संवेदनशील हो कि हर माह विशेष कष्ट के दिनों में कामकाजी महिलाओं के लिए दो दिन के विशेष अवकाश का प्रावधान करे। बहुधा मीडियानिर्मित धारणाप्रधान समाज में पुष्पित-पल्लवित महिलाएं भूल जाती हैं कि  महीने के विशेष कष्ट के दिनों में उनका विशेष ख़याल करते हुए लालू ने सत्ता में आने के दो साल के अंदर सेवारत खवातीन के लिए यह व्यवस्था कर दी। लालू को गरियाने से पहले ज़रा गूगल कर लें कि जो काम लालू ने आज से 25 साल पहले कर दिया था, वो काम आज भी इस देश के कितने सूबों के मुख्यमंत्री कर पाए हैं? यह तो सरासर कृतघ्नता है। कम-से-कम वो तो ‘गंवार’ सीएम रहे लालू का मज़ाक उड़ाना बंद कर दें। उन्हें तो क़ायदे से उनका शुक्रगुज़ार होना चाहिए।

सबसे अधिक ब्लॉक लालू ने बनाए, सबसे ज़्यादा प्राथमिक विद्यालय लालू ने खोले। इतना ही नहीं, लालू प्रसाद ने 5 स्टेट युनिवर्सिटी सत्ता में आने के 2 साल के अंदर और राबड़ी जी ने1 युनिवर्सिटी 8 माह के भीतर खोल दी। पर, इसकी चर्चा आपने किसी मीडिया चैनल पर आज तक नहीं सुनी होगी।  मोदी जी ने 4 साल में कितनी सेंट्रल युनिवर्सिटी खोली?ज़रा कोई पता करे, मुझे भी जिज्ञासा हो रही है। उल्टे, आए दिन ये पब्लिक फंडेड युनिवर्सिटिज़ पर गिद्धदृष्टि डालकर उन्हें प्राइवेट हाथों के हवाले कर देना चाहते हैं। आज़ादी के बाद के बिहार में  मुख्यमन्त्रियों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है जिसमें तथाकथित सुशासन बाबू का भी नाम शुमार है।  लेकिन किसी भी मुख्यमंत्री के नाम पाँच विश्वविद्यालयों की स्थापना का श्रेय नहीं है सिवाय लालू प्रसाद को छोड़ कर! नीतीश कुमार ने कितने विश्वविद्यालय की स्थापना की? लालू प्रसाद ने अपने पहले कार्यकाल के शुरूआती दो वर्षों मे बिहार को 5 नई यूनिवर्सिटी (छपरा, आरा, हज़ारीबाग, मधेपुरा & दुमका में) दीं। एक तुरंत उसके बाद राबड़ी देवी के कार्यकाल में 98 में पटना में मिली। इतना करने में पूर्ववर्ती सरकारों को आज़ादी के बाद 43 साल लग गए। लालू की रफ़्तार ख़ुद ही सारा क़िस्सा बयाँ करती है कि समाज के बहुत बड़े वंचित वर्गों के युवाओं को उच्च शिक्षा से जोड़ने के लिए उनके अंदर क्या उमंग थी। बाद में कब, कैसे, क्या जाल बुने गए, क्या खेल हुए, हम सब उससे वाकिफ़ हैं। ऐसे व्यक्ति को भी जाहिल, गंवार और दृष्टिविहीन नेता साबित करने में मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग द्वारा कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गई। ये रही सूची उन नये विश्वविद्यालयों की, मुझे कुछ नहीं कहना है :



1. जेपी विश्वविद्यालय, छपरा (90),


2. वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा (92),


3. बीएन मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा (92),


4. विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हज़ारीबाग़, (92),


5. सिदो कान्हू मुर्मु विश्वविद्यालय, दुमका (92), और


6. मौलाना मज़हरुल हक़ अरबी फ़ारसी विश्वविद्यालय, पटना (98)।


नीतीश जी ने पिछले बरस कहा था, “लालू जी का जीवन संघर्ष से भरा है। वे जिस तरह के बैकग्राउंड से निकलकर आए हैं और जिस ऊंचाई को हासिल किया है, वह बहुत बड़ी बात है”। और, वही नीतीश जी लालू प्रसाद की पीठ में छूरा भोंक कर संघ की गोद में जा बैठे और लालू प्रसाद की बात को ग़लत नहीं साबित कर पाए कि उनकी अतरी में दाँत है। बहरहाल, लालू प्रसाद ने कभी कोई वैयक्तिक कटुता किसी से नहीं रखी औऱ राजनीति में न्यूनतम अपेक्षित मर्यादा का ख़याल रखा।

90 के दौर में जब आडवाणी जी रथयात्रा पर निकले थे और बाबरी को ढहाने चले थे, तो लालू प्रसाद ने उन्हें समस्तीपुर में नाथ दिया था। सभी राष्ट्रीय नेताओं की मौजूदगी में पटना की एक विशाल रैली में वे कहते हैं, "चाहे सरकार रहे कि राज चला जाए, हम अपने राज्य में दंगा-फसाद को फैलने नहीं देंगे। जहां बावेला खड़ा करने की कोशिश हुई, तो सख्ती से निपटा जाएगा। 24 घंटे नज़र रखे हुए हूँ”।

पिछले कुछेक बरसों में इस देश की साझा विरासत को जिस तरह कुचला गया है, दंगाई माहौल में जिस तरह लोगों को झोंका जा रहा है औऱ उसी बीच कथित रूप से प्रधानमंत्री को जान से मारने की भी ख़बर आ जाती है;  वैसे में लालू प्रसाद औऱ भी प्रासंगिक हो जाते हैं। कोई 28 साल पहले देश के इस दूरदर्शी नेता ने कुछ कहा था, जो मोदीजी को सुनना चाहिए, जो उनके बहुत काम का है, "जितनी एक प्रधानमंत्री की जान की क़ीमत है, उतनी ही एक आम इंसान की जान की भी क़ीमत है। जब इंसान ही नहीं रहेगा, तो मंदिर में घंटी कौन बजाएगा, देशहित में जब इंसान ही नहीं रहेगा, तो मस्जिद में इबादत देने कौन जाएगा?" मोदीजी को अब भी कुछ नहीं बुझाया तो मार्गदर्शक मंडल से उन्हें कहना चाहिए कि वुजूद में आने के बाद वो अब तक की अपनी पहली बैठक आहूत करे। जितनी एक प्रधानमंत्री की जान की क़ीमत है, उतनी ही एक आम इंसान की जान की क़ीमत है। जब इंसान ही नहीं रहेगा, तो मंदिर में घंटी कौन बजाएगा, जब इंसान ही नहीं रहेगा तो मस्जिद में इबादत देने कौन जाएगा ?" लोग उस लालू प्रसाद के प्रति आभारी हैं, जिन्होंने बिहार में वर्षों से तिरस्कार झेल रही बड़ी आबादी को ग़ैरत के साथ प्रतिष्ठापूर्ण जीवन जीने का साहस दिया,जिनकी पहली प्राथमिकता 'विकास का हव्वा' नहीं, उपेक्षितों-अक़्लियतों की इज़्ज़त-आबरू-अस्मिता की हिफ़ाज़त थी। डिवलपमेंट सिंड्रोम के शिकार प्रधानमंत्री मोदी को अपने पद की गरिमा और ‘हम भारत के लोग’ का ख़याल रखना चाहिए।


 लालू प्रसाद अपने अंदाज़ में मीडिया को भी अपनी साख बचाए व बनाए रखने की सीख देते हैं। 'राष्ट्रीय पत्रकारिता' के हवनात्मक पहलू के उभार के दौर में बतौरे-ख़ास एक नज़र :

 मनोरंजन भारती: कुछ ज्ञानवर्धन कीजिए सर हमारा।
(Please, enlighten me on your ideals in life.)

लालू प्रसाद: ज्ञानवर्धने है, हरा-हरा सब्जी खाओ, दूध पियो, और सच्चा ख़बर छापा करो।
(Eat green vegetables, drink milk and tell the truth in your reports.)

(सौजन्य से: NDTV Classics)

उसी चारा घोटाले में फसने पर जगन्नाथ मिश्रा जगन्नाथ बाबू बने रहते हैं, पर लालू प्रसाद ललुआ हो जाते हैं। लालू प्रसाद से ललुआ तक की फिसलन भरी यात्रा में लालू प्रसाद की सारथी रही मीडिया का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तो करना पड़ेगा न...

एक बार श्री चंद्रशेखर ने सदन में कहा था, जो आज सत्ता पक्ष के लोगों को भूलना नहीं चाहिए, "एक बात हम याद रखें कि हम इतिहास के आख़िरी आदमी नहीं हैं। हम असफल हो जायेंगे, यह देश असफल नहीं हो सकता। देश ज़िंदा रहेगा, इस देश को दुनिया की कोई ताक़त तबाह नहीं कर सकती। ये असीम शक्ति जनता की, हमारी शक्ति है, और उस शक्ति को हम जगा सकें, तो ये सदन अपने कर्त्तव्य का पालन करेगा।"

जब अधिकांश लोग सेना बुला कर लालू प्रसाद को गिरफ़्तार करने के सवाल पर 'भ्रष्टाचार' की ढाल बनाकर चुप्पी ओढ़े हुए थे और नीतीश जी जैसे लोग उल्टे इस क़दम के पक्ष में सदन में हंगामा कर रहे थे, तो चंद्रशेखर ने लालू प्रसाद मामले में सीबीआइ द्वारा अपने अधिकार का अतिक्रमण करने, न्यायपालिका को अपने हाथ में लेने व व्यवस्थापिका को अंडरएस्टिमेट करने के अक्षम्य अपराध पर लोकसभा में बहस करते हुए जो कहा था, उसे आज याद किये जाने की ज़रूरत है -

 "लालू प्रसाद ने जब ख़ुद ही कहा कि आत्मसमर्पण कर देंगे, तो 24 घंटे में ऐसा कौन-सा पहाड़ टूटा जा रहा था कि सेना बुलाई गई ? ऐसा वातावरण बनाया गया मानो राष्ट्र का सारा काम बस इसी एक मुद्दे पर ठप पड़ा हुआ हो। लालू कोई देश छोड़कर नहीं जा रहे थे। मुझ पर आरोप लगे कि लालू को मैं संरक्षण दे रहा हूँ। मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मेरी दिलचस्पी किसी व्यक्ति विशेष में नहीं है, ऐसा करके मैं इस संसदीय संस्कृति की मर्यादा का संरक्षण कर रहा हूँ। जब तक कोई अपराधी सिद्ध नहीं हो जाता, उसे अपराधी कहकर मैं उसे अपमानित और ख़ुद को कलंकित नहीं कर सकता। यह संसदीय परंपरा के विपरीत है, मानव-मर्यादा के अनुकूल नहीं है।

किसी के चरित्र को गिरा देना आसान है, किसी के व्यक्तित्व को तोड़ देना आसान है। लालू को मिटा सकते हो, मुलायम सिंह को गिरा सकते हो, किसी को हटा सकते हो जनता की नज़र से, लेकिन हममें और आपमें सामर्थ्य नहीं है कि एक दूसरा लालू प्रसाद या दूसरा मुलायम बना दें। भ्रष्टाचार मिटना चाहिए, मगर भ्रष्टाचार केवल पैसे का लेन-देन नहीं है। एक शब्द है हिंदी में जिसे सत्यनिष्ठा कहा जाता है, अगर सत्यनिष्ठा (इंटेग्रिटी) नहीं है, तो सरकार नहीं चलायी जा सकती। और, सत्यनिष्ठा का पहला प्रमाण है कि जो जिस पद पर है, उस पद की ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए, उत्तरदायित्व को निभाने के लिए आत्मनियंत्रण रखे, कम-से-कम अपनी वाणी पर संयम रखें। ये नहीं हुआ अध्यक्ष महोदय। 

सीबीआइ अपनी सीमा से बाहर गयी है, ये भी बात सही है कि उस समय सेना के लोगों ने, अधिकारियों ने उसकी माँग को मानना अस्वीकार कर दिया था। ये भी जो कहा गया है कि पटना हाइ कोर्ट ने उसको निर्देश दिया था कि सेना बुलायी जाये; वो बुला सकते हैं, इसको भी सेना के लोगों ने अस्वीकार किया था। ऐसी परिस्थिति में ये स्पष्ट था कि सीबीआइ के एक व्यक्ति, उन्होंने अपने अधिकार का अतिक्रमण किया था। मैं नहीं जानता कि कलकत्ता हाइ कोर्ट का क्या निर्णय है। उस बारे में मैं कुछ नहीं कहना चाहता। लेकिन ये प्रश्न ज़्यादा मौलिक है जिसका ज़िक्र अभी सोमनाथ चटर्जी ने किया। अगर पुलिस के लोग सेना बुलाने का काम करने लगेंगे, तो इस देश का सारा ढाँचा ही टूट जायेगा।

 सेना बुलाने के बहुत-से तरीके हैं। वहाँ पर अगर मान लीजिए मुख्यमंत्री नहीं बुला रहे थे, वहाँ पर राज्यपाल जी हैं, यहाँ पर रक्षा मंत्री जी हैं, होम मिनिस्ट्री थी, बहुत-से साधन थे, जिनके ज़रिये उस काम को किया जा सकता था। लेकिन किसी पुलिस अधिकारी का सीधे सेना के पास पहुँचना एक अक्षम्य अपराध है। मैं नहीं जानता किस आधार पर कलकत्ता हाइ कोर्ट ने कहा है कि उनको इस बात के लिए सजा नहीं मिलनी चाहिए। मैं अध्यक्ष महोदय आपसे निवेदन करूँगा और आपके ज़रिये इस सरकार से निवेदन करूँगा कि कुछ लोगों के प्रति हमारी जो भी भावना हो, उस भावना को देखते हुए हम संविधान पर कुठाराघात न होने दें, और सभी अधिकारियों को व सभी लोगों को, चाहे वो राजनीतिक नेता हों, चाहे वो अधिकारी हों; उन्हें संविधान के अंदर काम करने के लिए बाध्य करें।

और, अगर कोई विकृति आयी है, तो उसके लिए उच्चतम न्यायालय का निर्णय लेना आवश्यक है, और मुझे विश्वास है कि हमारे मंत्री, हमारे मित्र श्री खुराना साहेब इस संबंध में वो ज़रा छोटी बातों से ऊपर उठकर के एक मौलिक सवाल के ऊपर बात करेंगे।"

आख़िर क्या वजह है कि घनघोर शुद्धतावादियों की निर्मम-निष्ठुर आलोचनाओं का दायरा लालू-मुलायम के चंदन-टीका करने से नवब्राह्मणवाद की उत्पत्ति तक ही सीमित रहता है ? यह आरोप भी दुराग्रहग्रस्त ही है कि शिक्षा व्यवस्था का बंटाधार बस लालू ने ही किया, मानो उनके आने के पहले ओक्सफ़र्ड,कैम्ब्रिज, कैलिफ़ोर्निया और कोलंबिया युनिवर्सिटिज़ की शाखाएं बिहार में चल रही हों। वीर कुंवर सिंह वि. वि., आरा, जयप्रकाश नारायण युनिवर्सिटी, छपरा, बी.एन. मंडल युनिवर्सिटी, मधेपुरा,विनोबा भावे युनिवर्सिटी, हज़ारीबाग़, सिदो-कान्हु-मुर्मू युनिवर्सिटी,दुमका, मौलाना मजहरूल हक़ अरबी फ़ारसी विश्वविद्यालय, पटना - ये सब 'गंवार-विज़नलेस' लालू-राबड़ी (5+1) ने ही खोलीं। अपने कार्यकाल में भागलपुर वि. वि. का नाम आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी तिलकामांझी के नाम पर किया। बिहार विश्वविद्यालय, मुज़फ्फरपुर का नाम बदलकर बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के नाम पर किया,जिसे बहुत लोग पचा नहीं पा रहे थे। वर्चस्वशाली लोग श्री कृष्ण सिंह के नाम पर कराना चाह रहे थे, जिस श्री कृष्ण सिंह ने इतना बड़ा मुंगेर ज़िला (उस समय बेगूसराय, खगड़िया, जमुई, लखीसराय,शेखपुरा - सब मुंगेर ज़िला में ही आता था) होने के बावजूद वहां कितने मेडिकल-इंजीनियरिंग कॉलिज खोले ? एक भी नहीं। कारण बताने की ज़रूरत नहीं। यह वही मुज़फ़्फ़रपुर था जहां भूमिहार-ब्राह्मण कॉलिज हुआ करता था, जिसका बाद में नाम बदलकर लंगट सिंह कॉलिज किया गया।

क्या बिहार, क्या यूपी, क्या तमिलनाडु, क्या कर्नाटक, हर जगह स्कूली शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालयी शिक्षा तक धांधली व्याप्त है। डोनेशन देकर-लेकर मड़ुआ का दोबर डॉक्टर-इंजीनियर-सीए बन और बनाए जा रहे हैं। कबाड़ा कर के रख दिया है। जगन्नाथ मिश्रा से लेकर वर्तमान मुखिया तक ने जो दुर्गति शिक्षा की की है पूरे सूबे में, उसके लिए आने वाली पीढ़ी उन्हें माफ़ नहीं करेगी। लालू प्रसाद के समय में एक बात हुई थी कि ट्रेनिंग कॉलिज से फ़र्ज़ीवाड़ा करके पास होने वाले जब बीपीएससी द्वारा आयोजित परीक्षा में फेल हुए, तो एक को भी बहाल नहीं किया, सारे योग्य लोग बहाल हुए, हालांकि संख्या नाकाफी थी, पर अब तक उन्हीं चंद शिक्षकों के भरोसे सरकारी स्कूल चल रहा था। जब कभी लालू प्रसाद ने बहाल भी करना चाहा, तो हाइ कोर्ट में अड़ंगा लगा। फिर, नीतीश जी ने "डिग्री लाओ, नौकरी पाओ" की नीति अपनाकर स्कूली शिक्षा की जड़ में मट्ठा डाल दिया। ऐड़े-गैरे, नत्थू-खैरे, सब बहाल हो गए। चुनाव जीतने के लिए ये सियासी लोग पूरी पीढ़ी बर्बाद कर देने से भी बाज नहीं आते। उस पर अधिकांश कॉलिज से इंटरमीडिएट की पढ़ाई बंद करा दी गई। न कॉलिज में प्रफेसर्स की बहाली हो रही है पर्याप्त संख्या में, और इस बार जहां कई जगह सेलेक्शन हुआ भी है लोगों का, तो उन्हें समय पर ज्वाइन नहीं कराया जा रहा था। बिहार में यूं ही विश्वविद्यालय नहीं ढहे हैं।

महिला आरक्षण बिल पर कोटे के अंदर कोटे की लड़ाई जिस तरह लालू प्रसाद ने शरद जी व मुलायम जी के साथ सदन के अंदर लड़ी, वो क़ाबिले-तारीफ़ है। आख़िर को वंचित-शोषित-पसमांदा समाज की महिलाएं भी क्यों नहीं सदन का मुंह देखें? इतना-सा बारीक फ़र्क अगर समझ में नहीं आता, और संपूर्ण आधी आबादी की नुमाइंदगी के लिए संज़ीदे सियासतदां की पहल व जिद को कोई महिला विरोधी रुख करार देता है, तो उनकी मंशा सहज समझ में आती है। वे बस विशेषाधिकार प्राप्त महिलाओं को सदन में देखना चाहते हैं, ग़रीब-गुरबे, हाशिये पर धकेली गई, दोहरे शोषण की मार झेल रही खवातीन उनकी चिंता, चिंतन व विमर्श के केंद्र में नहीं हैं। अगर अपने मूल रिग्रेसिव स्वरूप में महिला आरक्षण बिल पारित हो जाता, तो शोषित तबके की खवातीन टुकुर-टुकुर मुंह ताकती रह जातीं। हम चाहते हैं कि संसद की शोभा सिर्फ़ सुषमा स्वराज व स्मृति ईरानी जैसी महिलाएं ही न बढ़ाएं, बल्कि भगवतिया देवी, फूलन देवी व सकीना अंसारी भी सदन के अंदर सिंहगर्जन करें।

दो दिन पहले ही सत्येंद्र पीएस द्वारा मंडल कमीशन की रपट के हिंदी अनुवाद वाली किताब पर चर्चा के दौरान सुभाषिणी अली कह रही थीं, “शरद भाई ने सदन में कहा था कि यहां तमाम लोग हैं जो अभी दलितों पिछड़ों के लिए 15 मिनट के भाषण में खूब हाय तौबा मचाएंगे कि उन्हें सब कुछ दे देना चाहिए। फिर उसके बाद एक शब्द का इस्तेमाल करेंगे "लेकिन" । उसके बाद उनका वंचितों के लिए सारा प्रेम खत्म हो जाएगा और वे अपनी जाति के हित में लग जाएंगे”।

रमणिका गुप्ता कहती हैं कि “जेंडर के आधार पर मुझे गालियां कई बार खानी पडीं. एक बार मैं कोई मुद्दा उठाते हुए टेबल पर चढ़ गयी तो एक नेता चिल्लाये, ‘नाच नचनिया नाच.’ ऐसे कई अनुभव रमणिका अपने राजनीतिक जीवन के दौरान का बताती हैं. रमणिका यह भी जोड़ती हैं, 'मेरी सीट के तब पीछे ही बैठने वाले लालू प्रसाद ऐसी ओछी टिप्पणियों से दूर रहते थे”।

परिवार के आग्रह और पुत्रमोह व भ्रातृप्रेम में रामविलास पासवान अपना धड़ा बदलें, तो उसूल से भटका हुआ, पदलोलुप, अवसरवादी और न जाने क्या-क्या हो जाते हैं, वहीं कर्नाटक के मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र के राज्यपाल व देश के विदेश मंत्री रहे एस. एम. कृष्णा, दिग्गज कांग्रेसी नेता व युपी के मुख्यमंत्री रहे हेमवतीनंदन बहुगुणा की पुत्री व युपी कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं रीता बहुगुणा जोशी, और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे उनके पुत्र विजय बहुगुणा कांग्रेस से सीधे भाजपा की गोद में जाकर बैठ जाते हैं, तो उस पर कोई हंगामा नहीं बड़पता, कोई चर्चा नहीं होती, उन्हें मीडिया की मंडी में खलनायक सिद्ध करने के लिए सांध्यकालीन बहस में टीवी के पर्दे हिलने नहीं लगते; उल्टे वो महान बागी व दूरदर्शी नेता कहलाते हैं। हालांकि आज के दिनांक में नीतीश ने साबित कर दिया कि पासवान पूसा वाले मौसमवैज्ञानिक ही ठहरे, इसरो वाले एक्सपर्ट मौसमविज्ञानी तो नीतीश कुमार ही हैं।

खेल इतना भी आसान नहीं, बड़ी कमज़ोर नस दबी हुई है कहीं नीतीश कुमार की। बीजेपी के सामने घुटने टेकने का मतलब है कि केंद्रीय सत्ता द्वारा ब्लैकमेलिंग चल रही थी। आएंगे सभी ज़द में। नीतीश जी के पहले कार्यकाल में वित्तीय समंजन में 11412 करोड़ की अनियमितता की सीबीआई जांच का आदेश तो पटना हाइकोर्ट द्वारा 2010 में ही दे दिया गया था। वैसे, श्यामबिहारी सिन्हा सीबीआई के सामने गवाह गुजर चुके हैं कि चारा घोटाले में एक करोड़ समता पार्टी के किसी नीतीश कुमार को दिया गया था। ज़रा पता कीजिए कि वो नीतीश कुमार कौन हैं? मार्च 2012 में आयकर विभाग ने जदयू के कोषाध्यक्ष रहे विनय कुमार सिन्हा के यहां छापेमारी के दौरान 20 बोरों में कई करोड़ रुपए बरामद किए। ये वही विनय कुमार सिन्हा हैं, जिनके तथाकथित आवास में नीतीश कुमार का आशियाना हुआ करता था जब वे मुख्यमंत्री नहीं थे। यह मकान ए. एन. कॉलेज के पास विवेकानंद मार्ग में है। खैर बाद में जदयू के एक और नेता राजीव रंजन प्रसाद के यहां भी आयकर ने छापा मारा था। अकूत धन मिलने की बात हुई थी। मतलब, यहां कोई दूध का धुला नहीं है।

लोकशाही लोकलाज से चलती है, और राजनीति में मैत्री के भी कुछ उसूल होते हैं। पर, नीतीश कुमार मैत्री की मर्यादा तोड़ने के लिए आरंभ से ही कुख्यात रहे हैं। जीवन में कम ही दोस्त हों, पर भरोसेमंद हों! संकट के वक़्त डिच करने वाला न हो! ई.एम. फ़ास्टर ने "व्हाट आइ बिलीव" में कहा था, "दोस्त और देश में किसी एक को धोखा देना पड़े, तो मुझमें देश को धोखा देने का गट्स होना चाहिए"। ( "If I had to choose between betraying my country and betraying my friend, I hope I should have the guts to betray my country".) इसके पीछे यही तर्क था कि जो मैत्री-धर्म न निभा पाये, वो राष्ट्रधर्म व राजधर्म क्या खाक निभाएगा? पिताजी जब विपत्ति में पड़ते हैं, तो एक सूक्ति दुहराते हैं -

श्मशाने य: तिष्ठति स बांधव:। अर्थात्, जो आपके साथ श्मशान घाट में बैठा रहे, मुसीबत में मौजूद रहे, वही सुधीजन है, वही अपना है। मुझे अर्जुन और कृष्ण की नहीं, कर्ण और दुर्योधन की जोड़ी दोस्ती की आदर्श मिसाल लगती है। कर्ण ने कृष्ण को जो जवाब दिया, वह मुझे विह्वल कर देता है :

दें छोड़ भले कभी कृष्ण अर्जुन को
मैं नहीं छोड़ने वाला दुर्योधन को।

इसलिए, मित्रलाभ के सिद्धांत में यह मशवरा है कि जो सामने में मीठा बोले, नीतीश जी की तरह आधी बात मुंह में और आधी बात पेट (अतरी) में रखे, और पीठ पीछे सतुआ-सिदहा बांध के काम में विघ्न डाले; ऐसे मित्र ठीक उस घड़े की भांति होते हैं, जिसका मुंह अमृत से भरा हुआ होता है, पर पूरा पात्र विष से युक्त। ऐसे चिरकुट मित्रों का यथातिशीघ्र त्याग कर देना चाहिए। यही स्वहित, जनहित, समाजहित व देशहित में श्रेयस्कर माना गया है।

परोक्षे कार्यहंतारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनं।
वर्जयेतादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखं।।

आज परिवारवाद वैश्विक परिदृश्य में ही छाया हुआ है, चाहे जुल्फ़िकार अली भुट्टो की बिटिया बेनज़ीर भुट्टो हों, भंडारनायके की पुत्री चंद्रिका कुमारतुंग हों, शेख मुज़ीबुर्रहमान की बेटी शेख हसीना हों, सीनियर बुश के बेटे जॉर्ज बुश हों, फ़िदेल कास्त्रो के भाई राउल कास्त्रो हों, जियाउर्रहमान की बेटी बेगम ख़ालिदा जिया हों, बिल क्लिंटन की बीबी हिलेरी क्लिंटन हों, आदि-इत्यादि। मसला क़ाबिलियत व रुझान का है। हां, यह ज़रूर है कि सियासी परिवार में मौक़े ज़ल्दी मिल जाते हैं, पर राजनीतिक दृष्टि, कौशल व संघर्ष का जज़्बा न हो, तो जनता की अदालत में प्रतिकूल फ़ैसले भी देखने पड़ते हैं। तेजस्वी को इसलिए नहीं फंसाया गया कि वे राजनीतिक परिवार से आने वाले इकलौते व्यक्ति हैं, बल्कि इसलिए भी कि युवाओं के बीच बढ़ती  लोकप्रियता व महिलाओं-बुज़ुर्गों के बीच स्वीकार्यता व बनती साख से ख़ुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार घबरा उठे। सत्ता के गलियारे में यह भी चर्चा है कि बहुत-सा मसाला ख़ुद उन्होंने ही विपक्ष को मुहैया कराया था। बहरहाल, पिछले बरस बिहार विधानसभा में तेजस्वी के 41 मिनट के भाषण ने यह संकेत दे दिया कि एक मज़बूत समानांतर नेता का उदय हो चुका है, जिनकी 20 महीने के कार्यकाल में पाक-साफ़ छवि ने स्वाभाविक उम्मीदें जगाई हैं। हां, जब चहुंओर तारीफ़ होने लगे, तो थोड़ी देर ठहर कर मनन करना चाहिए ताकि और भी तार्किकता, पैनापन, निखार व वाग्विदग्धता आए।

बिहार के हालिया घटनाक्रम पर बी.एन. मंडल द्वारा राज्यसभा में 1969 में दिया गया भाषण बरबस याद आ गया -

"जनतंत्र में अगर कोई पार्टी या व्यक्ति यह समझे कि वह ही जबतक शासन में रहेगा, तब तक संसार में उजाला रहेगा, वह गया तो सारे संसार में अंधेरा हो जाएगा, इस ढंग की मनोवृत्ति रखने वाला, चाहे कोई व्यक्ति हो या पार्टी, वह देश को रसातल में पहुंचाएगा। ... हिंदुस्तान में (सत्ता से) चिपके रहने की एक आदत पड़ गयी है, मनोवृत्ति बन गई है। उसी ने देश के वातावरण को विषाक्त कर दिया है।"

दरअसल, नीतीश कुमार येन-केन-प्रकारेण सत्ता में रहने के लिए अपनी अगली  ईगो व अटैंशन सीकिंग सिंड्रोम के चलते किसी भी विचारधारा से हाथ मिलाने को तैयार रहते हैं और मौक़ापरस्ती का अश्लील मुजाहिरा पेश करते हुए विधानसभा के अंदर धर्मनिरपेक्षता शब्द की खिल्ली उड़ाते हैं। वो अपनी सुविधानुसार संघ की भाषा बोलने से बाज नहीं आते। बिहार में जो घिनौना खेल खेला गया, रातोंरात जनता के विश्वास को कुचला गया, वह दरअसल जनादेश का अपहरण मात्र नहीं, बल्कि जनादेश के साथ दुष्कर्म के बाद उसकी हत्या है। किसी पार्टी विशेष का प्रवक्ता किसी मामले में सफ़ाई किस संवैधानिक दायरे में मांग सकता है? तेजस्वी ने नीतीश कुमार से कहा कि क्या वे कोई ऐसा क़ानून बनाएंगे जिसमें एफआईआर के बाद ही इस्तीफ़ा देना पड़े? अगर ऐसा हुआ, तो सबसे पहले तो हत्या व हत्या के प्रयास के मामले में सबसे पहले नीतीश कुमार को ही त्यागपत्र देना पड़ेगा, और जिस छवि की दुहाई देकर वो हाय मोरल ग्राउंड लेते हैं, उस पर तो उन्हें कोई क़ानून बनने का इंतज़ार किए बगैर ख़ुद ही फ़ौरन इस्तीफ़ा दे देना चाहिए। छविप्रधान सुशासन बाबू सुनील पांडे, मुन्ना शुक्ला और अनंत सिंह के आगे करबद्ध खड़े रहें, तो बहुत अच्छा, तब इनकी छवि घास चरने चली जाती है! 

किसी मामले की उचित एजेंसी से जांच से किसी का विरोध नहीं हो सकता है, पर चयनात्मक व दुराग्रहग्रस्त कार्रवाई एवं मीडिया ट्रायल तो जम्हूरियत की सेहत के लिहाज़ से ठीक नहीं। ब्रह्ममीडिया की चयनित प्रश्नाकुलता तो देखते बनती है। यदि स्वच्छता अभियान ही चलाना है, तो हो जाए क़ायदे से सभी सांसदों, विधायकों, मंत्रियों व मुख्यमंत्रियों की यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरी जायदादों की जांच। दो दिन में लोकसभा गिर जाएगी, न जाने कितने सूबों की सरकारें हफ़्ते में चली जाएंगी। पर, सेलेक्टिव टारगेटिंग कर नैतिकता का ढोंग रचने वाले दोहरे क़िस्म के लोग इस पर कभी राज़ी नहीं होंगे। बिहार में महागठबंधन की जीत के बाद जेएनयू में लगातार गोष्ठियां हो रही थीं, हमलोग मार्च निकाल रहे थे। उसी दौरान एक परिचर्चा में प्रो. बद्रीनारायण ने जो कहा, उसे नीतीश के सलाहकारों ने भुला दिया, "जनता ने बड़ी उम्मीदों से यह मैंडेट गठबंधन को दिया है, और लालू-नीतीश दोनों के लिए इस विजय को संभाल के रखने की ज़रूरत है"।

कुछ साथी मुझसे सवाल करते हैं कि आप लालू के प्रति सॉफ्ट क्यूं रहते हैं, तो मेरा कहना है कि बात किसी के प्रति नरम रहने या किसी के प्रति भभकने की नहीं है। असल बात किसी बात को पूरे परिप्रेक्ष्य में एक नज़रिए के साथ देखने की है। जेएनयू के लोग तो इतने खोखले व तंगदिल नहीं हुआ करते। जब सारे देश में ही विपक्ष को शंट करने की कवायद चल रही है, तो हम हर उस निर्भीक व मुखर आवाज़ के साथ खड़े होंगे, जिन्हें दबोचने-दबाने की साज़िश चल रही है, जिनके साथ मीडिया चयनित प्रश्नाकुलता दिखाती है, सरकार द्वारा सेलेक्टिव टारगेटिंग के ख़िलाफ़ बोलना वक़्त की मांग है। मैं ऐसे हालात में घनघोर शुद्धतावादी रवैया अपनाने का हिमायती नहीं हूँ, किसी का मूल्यांकन भी निरपेक्ष नहीं हो सकता। किसी ने कोई विसंगति-अनियमितता की है, तो न्यायालय अपना काम करेगा। क़ानून अपना काम करे, इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। मगर क़ानून को गर्दनिया देकर उसके पीछे अपना काम कराने वाले शातिर दिमाग़ जब हरकत में आने लगे, तो समझिए कि क़ानून का चालचलन बिगाड़ा जा रहा है। लक्षण ठीक नहीं लग रहे। क़ानून के सेलेक्टिव इस्तेमाल पर जोनाथन स्विफ़्ट ने बड़ी सटीक टिप्पणी की थी : "Laws are like cobwebs, which may catch small flies, but let wasps and hornets break through.''

मैं कभी-कभी हैरान रह जाता हूँ कि लालू प्रसाद से लोगों को इतनी निजी खुंदक व ईर्ष्या है कि वे तेजस्वी की तारीफ़ करते हुए भी लालू जी को लपेटने का कोई मौक़ा नहीं जाने देते। प्रेम कुमार मणि नेता, प्रतिपक्ष के रूप में तेजस्वी के भाषण की "खुले हृदय उमगि अनुरागा" के सहज भाव से प्रशंसा करते हैं, पर लालू जी के प्रति उनकी आलोचना इस हद तक है कि वे उनके पहनने-ओढ़ने के ढंग पर भी तंज करने से नहीं चूकते। प्रेम जी के पोस्ट का एक अंश यहाँ रख रहा हूँ : "पिछले साल नवंबर में मैंने तेजस्वी को पहली दफा नजदीक से देखा था। मैं लालू जी के यहां एक समारोह का निमंत्रण देने गया था। रात के कोई आठ बज रहे होंगे। मैं बैठके में पहुंचा, तब लालूजी के साथ  राबड़ी जी सहित परिवार के कई सदस्य थे, तेजस्वी भी। लालूजी अस्वस्थ थे। लालूजी से आप शालीनता की उम्मीद कम ही कर सकते हैं। जैसे -तैसे बैठना, अविन्यस्त कपड़ों में रहना उनकी फ़ितरत में शामिल है। लेकिन, तेजस्वी मुझे दीगर दिखे। वह अभिवादन में खड़े हुए, विदा होते समय भी बाहर तक निकले। मुझे महसूस हुआ, यह बालक कुछ अलग है। वही मेरी संक्षिप्त मुलाकात थी, जिसमें मुझसे उनकी कोई बात नहीं हुई थी, लेकिन शालीनता ज़रूर दिखी थी ।"

अब कोई बताए कि अस्वस्थ हालत में कोई प्रैस से आए कपड़े पहनकर बिस्तर पर लेटकर स्वास्थ्य लाभ करता है? घर में लोग कैसे रहते हैं? और, लालू जी तो कम-से-कम इस मामले में किसी दिखावे-ढकोसले में कोई बहुत यक़ीन नहीं करते। उनका अपना शऊर है, अपना अंदाज़ है। वो तो लु़ंगी-बनियान में भी यूं ही सहज रहते हैं, इंटरव्यू भी ऐसे ही देते हैं, यही उनका याकि अधिकांश बिहारी परिवारों में पहनने-ओढ़ने का तौर-तरीक़ा है। गांधीजी को क्या कहिएगा कि आदमी नंगधडंग था, अशालीन था, अशिष्ट था! लालू जी ने तो एक सभा में कुर्ते को खोलकर, बनियान निकालकर कुर्ता पहना, फिर उसके ऊपर बनियान। और, कहा कि अब बिहार में यही होगा। जो नीचे थे, वो अब ऊपर आएंगे, वक़्त का चक्का अब घुमेगा। जब वो यह कहते थे, तो इस अपील का गज़ब का असर होता था।

 मुझे आज भी अलौली में  95 में लालू जी की चुनावी सभा में दिया गया नारा याद है - सुअर चराने वालो, गाय चरानो वालो...पढ़ना-लिखना सीखो! तब मैं दूसरी जमात में पढ़ता था, बस चुपचाप उनके पीछे पागल भीड़ में मां का हाथ थामे एकटक कभी उन्हें, तो कभी उनके लाल रंग के हैलिकॉप्टर को निहार रहा था। पिताजी सभा की सफलता के लिए कहीं जुटे हुए थे। एक वक़्त वो भी आया, जब राबड़ी जी विषम परिस्थिति में बिहार की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं, उन्हें दिखाने के लिए मेरे एक शिक्षक ने मुझे गोद में उठा लिया। वो 98 के लोकसभा चुनाव के प्रचार में रौन (अलौली) आई थीं। तब मैं पांचवीं कक्षा का विद्यार्थी था। स्कूल में भाषण देने का साहस नहीं होता था, राबड़ी जी का धीमे-धीमे स्वर में साहसिक भाषण मेरे अंदर के डर को भी कहीं दूर कर रहा था। बाद में जब भागलपुर युनिवर्सिटी आया, तो मैंने अच्छे-अच्छों के पैरों को लड़खड़ाते देखा, बड़े-बड़ों के होठों को थरथराते देखा। राबड़ी देवी की सरकार को कई बार अस्थिर करने की कोशिशें हुईं। पर, अपने कार्यकाल के 8 महीने के भीतर उन्होंने मौलाना मजहरुल हक़ अरबी-फ़ारसी विश्वविद्यालय खोला। इसमें कोई दो मत नहीं कि उस दौर में चंद लोगों की वजह से ज़्यादतियां भी बढ़ रही थीं। आज वो इन्हें छोड़कर जा चुके हैं। पहले कार्यकाल में जो उल्लेखनीय काम हुए, उन्हें और भी आगे और सही दिशा में बढ़ाया जा सकता था। पर, अब तमाम विचलनों-व्यतिक्रमों से सीख लेते हुए उजालों के एक नये सफ़र की ओर नवऊर्जा के साथ सामाजिक न्याय व सांप्रदायिक सौहार्द के स्पष्ट दर्शन में ठोस आर्थिक एजेंडे की रूपरेखा तैयार करते हुए नये नेतृत्व को अविरल-अविचल तीव्रतम गति से आगे बढ़ना होगा।

 लालू प्रसाद के साथ हो रहे क्रूर सुलूक को देश-दुनिया देख रही है। पिछले दिनों जिस कदर उन्हें एम्स से फिर रांची भेजा गया था, वह इस सरकार के महापतित होने का एक और सुबूत है। एक बात याद रखना चाहिए कि  उन्हें एम्स से हटा सकते हो, मगर ग़रीब-गुरबों, शोषितों-उपेक्षितों के दरवाज़े से नहीं। इस शख़्स को जितना करना था, कर चुके। इतिहास के पन्नों से उन्हें मिटाया नहीं जा सकता।

लालू प्रसाद के उद्भव के पीछे जो एक शख़्स अहम किरदार निभा रहे थे, उन्हीं भी आज याद करने का वक़्त है। चौधरी देवीलाल की तुनकमिजाजी के बावजूद बिहार उनका सदा ऋणी रहेगा कि उन्होंने 90 के दशक में बिहार को एक ऐसा मुख्यमंत्री दिया जिन्होंने वंचितों को उच्च शिक्षा से जोड़ने के लिए उतने विश्वविद्यालय खोले जितने उनसे पहले के सारे मुख्यमंत्रियों ने मिल कर भी नहीं। वे शरद जी को बहुत मानते थे और पहली बार केंद्र में कैबिनेट मंत्री (कपड़ा मंत्री) बनवाया और लालू प्रसाद के विधायक दल का नेता निर्वाचित हो जाने के बावजूद वीपी सिंह द्वारा अजित सिंह को भेजकर बखेड़ा खड़ा करने और तत्कालीन राज्यपाल युनुस सलीम द्वारा नये मुख्यमंत्री का शपथग्रहण न कराकर फ्लाइट से दिल्ली चले जाने पर उन्होंने गवर्नर को डांटते हुए फौरन दिल्ली से बिहार जाने को कहा। इसके पूर्व जब तक लालू प्रसाद राज्यपाल का पीछा करते हुए एयरपोर्ट पहुंचे थे, तब तक तो वो उड़ चुके थे। और, लालू जी ने जब उन्हें फोन धराया, "ताऊ आपके राजपाट में इ क्या हो रहा है? दिल्ली से जनादेश का अपमान करवाया जा रहा है, इ मंडवा के राजा वीपी सिंह हमको सीएम का ओथ नै लेने दे रहा", तो वे तुरंत गरमा गए, "हमारे सामने खेलने वाला इ चौधरी जी का छोरा नेता बन रहा है बिहार जाके। रुको अभी शरद-मुलायम को ठोक बजाके इसको सीधा करते हैं"।

इस साल 2 लाख तलवारों की ऑनलाइन ख़रीद हुई, बिहार सरकार हाथ पर हाथ धड़े रही। पहली बार पटना की सड़कों पर गोडसे ज़िंदाबाद के नारे लगे। बिहार को दंगों की लपट में झुलसाया गया। जिस बिहार में आडवाणी की गिरफ़्तारी पर चिड़िया ने चू़ं नहीं किया, बाबरी विध्वंस के बाद कहीं हिंसा नहीं भड़कने दी गई, उस बिहार को नीतीश मोदी ने कहां से कहां पहुंचा दिया। लालूप्रसाद ने 14 के आमचुनाव के वक़्त कहा था,"यह चुनाव तय करने जा रहा है कि इ देश रहेगा कि टूटेगा"। उस वक़्त किसी ने सोचा नहीं था कि आने वाला निजाम इस कदर ख़तरनाक साबित होगा कि मजहब के नाम पर उन्माद फैलाएगा, इलेक्शन कमीशन की ऐसी-तैसी करके रख देगा,  बैंक के बैंक लुटवा देगा और लुटेरों को विदेश भगा देगा और जनता बिचारी त्राहिमाम करेगी।

तेजस्वी यादव ने कहा कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चार सिपाही के साथ केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के दंगा आरोपी फ़रार बेटे को पकड़ने की मुझे प्रशासनिक अनुमति दें। एक घंटे में घसीटकर नीतीश कुमार के नकारा प्रशासन को सौंप दूँगा। मेरा दावा है। लटर-पटर से शासन नहीं चलता। दंगा रोकने के लिए कलेजा होना चाहिए।

लालू प्रसाद ने 90 की रैली में पटना के गांधी मैदान से क़ौमी एकता के लिए जो हुंकार भरा था, और कड़े शब्दों में संदेश दिया था, इतिहास उसे कभी भुला नहीं सकता। उनके शब्द थे:

मैं इस मंच के माध्यम से पुनः श्री आडवाणी जी से अपील करना चाहता हूँ कि अपनी यात्रा को स्थगित कर दें। स्थगित कर के वो दिल्ली वापस चले जायें, देशहित में। अगर इंसान ही नहीं रहेगा, इंसान नहीं रहेगा तो मंदिर में घंटी कौन बजाएगा? या कौन बजाएगा जब इंसानियत पर ख़तरा हो? इंसान ही नहीं रहेगा तो मस्जिद में इबादत कौन देने जाएगा? 24 घंटा मैं निगाह रखा हूँ, हमने अपने शासन के तरफ़ से अपने तरफ़ से पूरा उनकी सुरक्षा का भी व्यवस्था किया लेकिन दूसरे तरफ़ हमारे सामने सवाल है अगर एक नेता और एक प्रधानमंत्री का जितना जान का क़ीमत है उतना आम इंसान का जान का भी क़ीमत है! हम अपने राज में मतलब दंगा फ़साद को फैलने नहीं देंगे। जहाँ फैलाने का नाम लिया और जहाँ बवेला खड़ा करने का नाम लिया तब फिर हमारे साथ चाहे राज रहे या राज चला जाए, हम इसपर कोई समझौता करने वाले नहीं हैं!"

जिस बाबरी मस्जिद को ढहाने जा रहे आडवाणी को लालू प्रसाद ने अपने राजनीतिक मेंटर कर्पूरी ठाकुर के गृह ज़िले समस्तीपुर में 29 अक्टूबर 1990 को गिरफ़्तार किया था, उस मस्जिद को भाजपा के तीन धरोहर, अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर के साथ कल्याण सिंह, अशोक सिंघल, उमा भारती, आदि की अगलगुआ टोली ने 6 दिसंबर 1992 को गिरा दिया।

आडवाणी की गिरफ़्तारी की कहानी भी दिलचस्प है। इसके पहले लालू प्रसाद आडवाणी के दिल्ली आवास पर चलकर देशहित में रथयात्रा को स्थगित करने का आग्रह किया। पर वो नहीं माने। जब उनका रथ बिहार पहुंचा और झारखंड के इलाक़े में घुसा, तो लालू प्रसाद ने धनबाद के उपायुक्त अमानुल्लाह और एसपी रंजीत वर्मा को आडवाणी की गिरफ़्तारी के लिए कहा। पर, दोनों अधिकारियों ने कथित तौर पर सांप्रदायिक हिंसा के अंदेशे से हाथ खड़े कर दिए।

फिर जब आडवाणी वहां से 28 अक्टूबर को  देर रात पटना आए और फिर रथ लेके समस्तीपुर पहुंचे, तो लालू जी ने योजनाबद्ध तरीक़े से मुख्य सचिव कमला प्रसाद को भरोसे में लेकर सहकारिता सचिव आरके सिन्हा और डीआईजी रामेश्वर उरांव को टेलीफ़ोन कर 29 अक्टूबर की सुबह स्टेट गवर्नमेंट हेलीकॉप्टर से समस्तीपुर भेजकर सर्किट हाउस से आडवाणी को गिरफ़्तार कराया। दरभंगा के आईजी आर.आर. प्रसाद को मुख्यमंत्री ने रात में ही सारा प्लान समझा दिया, वो भी सीनियर अफ़सरान के साथ समस्तीपुर के डीएम-एसपी को तैयार रहने का संदेश देकर रात में ही चल पड़े थे। आडवाणी को अरेस्ट वारंट दिखाया गया, उन्होंने वहीं वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार से समर्थन वापसी का पत्र राष्ट्रपति के नाम लिखा। प्रमोद महाजन को  साथ ले जाने के आग्रह को मानते हुए लालू जी ने हेलीकॉप्टर में बिठा के आडवाणी जी को बिहार-बंगाल के बॉर्डर पर मसानजोड़ के रेस्ट हाउस में पहुंचा दिया। 

30 अक्टूबर 1990 को लालूजी ने सांप्रदायिक एकता के लिए 12 घंटे का उपवास रखा, और बड़ी सूझबूझ से बहुत कम बलप्रयोग के साथ बिना किसी फ़साद के सूबे के हालात को क़ाबू में रखा। आडवाणी की गिरफ़्तारी पर बिहार में एक चिड़िया को भी चूं नहीं करने दिया।

बाकी ख़बरें