"लोग टूट जाते हैं, एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते, बस्तियां गिराने में?"
महंत सरजू दास की अगुवाई में 26 फरवरी 2017 की रात के नीम अंधेरे में दलित बस्ती पर बुलडोजरों से हमला हुआ,उस वक़्त करेड़ा सो रहा था, लोग गहरी नींद में थे,तब बस्ती उजाड़ने की इस साज़िश को अंजाम दिया गया,यह भी चिंता नहीं की गई कि इन घर दुकानों में सोये लोगों की जान जा सकती है.
संपत्ति की ऐसी भी क्या लालसा कि इंसान की इंसानियत ही खो जाये,लेकिन उस रात करेड़ा में यही हुआ ! घनी रात में लगभग 2 बजे हमला हुआ,लोगों को इसकी कल्पना भी नहीं थी कि कभी इस तरह दुश्मन देश की तरह आक्रमण होगा,जिन्हें सदैव श्रद्धा से देखा हो उनके हाथों में तलवार,सरिये,लाठियां ! यह संतत्व का कैसा रूप था ? जो जमीन के लिये मरने मारने पर उतारू था.
रात की नीरवता दलित पिछड़े बच्चों, बुड्ढ़ों और स्त्रियों की चीखों से भंग हो गई थी,राम का प्रतिनिधि अन्यायकारी फ़ौज का सेनापति बना फुंकार रहा था और राज के प्रतिनिधि अपनी शाश्वत नपुंसकता के चलते थर थर कांप रहे थे, जिनके प्रति संवैधानिक जवाबदेही थी,उनके संरक्षण की जिम्मेदारी को निभाने की बजाय मंहतई के चरणों मे शासन और प्रशासन भूलुंठित था.
उस रात निरीह पीड़ितों का आर्तनाद जिन्होंने भी सुना,उनका हृदय फट गया,कईं लोगों ने उस तांडव को अपनी आंखों से देखा,धर्म और सत्ता की आम जनता के विरुद्ध रात के अंधेरे में जुगलबंदी जारी थी,जन साधारण ने कुछ नहीं बोला,मगर सुबह जिन्होंने भी बने बनाये घरों को घरौंदों में तब्दील देखा,आशियानों को मलबे में परिवर्तित देखा तो,सबकी जुबान पर एक ही आवाज थी - यह तो अन्याय है ! लोगों के घर तोड़ने की क्या जरूरत थी ? ये कैसे सन्त है ? ये कैसे महंत है ? ऐसा जुल्म क्यों किया ? यह तो ठीक नहीं हुआ !
उस रात 7 लोगों के घर और कुछ लोगों की दुकानें तोड़ दी गई,बमुश्किल एक आध घर बच पाया,बाकी सब घर जुल्म के ढेर में बदल गए थे,यह देखकर सबकी जुबान से धिक्कार का अल्फ़ाज़ निकला, अर्धरात्रि का यह अन्याय पुलिस और प्रशासन की मौजूदगी में हुआ,मानवता को शर्मसार करने वाला यह कृत्य जब किया गया तब थानेदार और तहसीलदार मौके पर सशरीर मौजूद थे, इस तांडव को जब वे ही नहीं रोकना चाहते थे तो फिर कौन रोकता ?
लोगों की ज़िंदगी भर की उम्मीदें ज़मीदोज़ की जा चुकी थी,घर,दुकान,मकान सब अब मिट्टी का ढेर थे,कोई सुननेवाला नहीं था, राज खामोश था,कानून के प्रहरी जालिमों के चरणों मे नतमस्तक थे और पीड़ित चीखने के अलावा कुछ भी करने की स्थिति में नहीं थे,जुल्म की ऐसी कहानी सिर्फ फिल्मी हो सकती है,पर करेड़ा में हकीकत में घट रही थी.
मगर उस रात के घटनाक्रम ने करेड़ा के अमन पसंद और न्यायप्रिय लोगों के जमीर को जगा दिया,ज्यादातर लोगों ने दलित पिछड़े व अन्य लोगों के घर उजाड़ने वाले धर्म पुरुष से किनारा कर लिया, कहा कुछ नहीं,मगर अपनी आस्था और आदर के भावों को तिरोहित हो जाने दिया,उन्हें धर्म,आस्था और आध्यात्मिकता के नाम पर किये जा रहे भावनात्मक भयादोहन से मुक्त होने का अवसर मिल गया,वे समझ पाये कि इस सारे प्रकरण का मकसद धर्म का उन्नयन नहीं था,बल्कि असली मकसद तो जमीन हड़पना था,लोगों के घर उजाड़ना था और जुल्म ढाना था.
फ़िज़ा बदलने लगी,बदलनी ही थी,जुल्म जब हद से ज्यादा बढ़ जाता है तो वह स्वयं ही मिट जाता है अथवा इंसाफ का औजार बन जाता है.
घटना की एफआईआर के मुताबिक 26 फरवरी 2017 की रात करेड़ा कस्बे के ऐतिहासिक हनुमान दरवाजे के पास स्थित ग्राम पंचायत की आबादी भूमि पर स्थित एक बस्ती को हथियारों से लैश साधु संतों ने बुलडोज़र की मदद से उजाड़ दिया,बचाने आये लोगों को मारा पीटा और सब कुछ ध्वस्त कर दिया.
एक साल पहले दर्ज मुकदमा संख्या 39/2017 में आज तक चुस्त पुलिस महकमा तफ्तीश कर रहा है,नामजद एफआईआर है,जेसीबी के नम्बर है,वीडियो है,घटना के फोटो है,गवाह है,पूरी घटना एकदम साफ है,मगर पुलिस अनुसंधान में लगी हुई है, दलित अत्याचार और भारतीय दंड विधान की विभिन्न गंभीर धाराओं में दर्ज मुकदमें में आज तक चार्जशीट पेश नहीं हुई है, न चालान ... न एफ आर ...जैर तफ्तीश है मामला,आला अफसर यही जवाब देते है.
दूसरी तरफ गिराए गए मकानों का मलबा इस लोकतंत्र,संविधान,कानून और व्यवस्था के मुंह को रोज चिढ़ाता है,जिनके घर उजाड़े गये,उनके लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की गई,विस्थापितों का न पुनर्वास हुआ,न मुआवजा मिला और न ही कार्यवाही हुई.
मानवाधिकार हनन की सबसे जीवन्त मिसाल और अन्याय का स्मारक बने उजड़े घर और उनका मलबा खुद में ही सवाल बन चुके है,यहां के जागरूक नागरिक,जनप्रतिनिधि और प्रशासनिक अधिकारी जब इधर से गुजरते हैं तो इन सवालों के प्रति आंखें मूंद लेते है,ताकि जवाबदेही से बचा जा सके ...लेकिन अब मानव अधिकार का यह सवाल अपनी पूरी ताकत से उठ खड़ा होने वाला है,तब जिम्मेदार लोग क्या जवाब देंगे ? इसका इंतज़ार है ......!
( जारी )
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और शून्यकाल मीडिया के संस्थापक हैं.)
तुम तरस नहीं खाते, बस्तियां गिराने में?"
महंत सरजू दास की अगुवाई में 26 फरवरी 2017 की रात के नीम अंधेरे में दलित बस्ती पर बुलडोजरों से हमला हुआ,उस वक़्त करेड़ा सो रहा था, लोग गहरी नींद में थे,तब बस्ती उजाड़ने की इस साज़िश को अंजाम दिया गया,यह भी चिंता नहीं की गई कि इन घर दुकानों में सोये लोगों की जान जा सकती है.
संपत्ति की ऐसी भी क्या लालसा कि इंसान की इंसानियत ही खो जाये,लेकिन उस रात करेड़ा में यही हुआ ! घनी रात में लगभग 2 बजे हमला हुआ,लोगों को इसकी कल्पना भी नहीं थी कि कभी इस तरह दुश्मन देश की तरह आक्रमण होगा,जिन्हें सदैव श्रद्धा से देखा हो उनके हाथों में तलवार,सरिये,लाठियां ! यह संतत्व का कैसा रूप था ? जो जमीन के लिये मरने मारने पर उतारू था.
रात की नीरवता दलित पिछड़े बच्चों, बुड्ढ़ों और स्त्रियों की चीखों से भंग हो गई थी,राम का प्रतिनिधि अन्यायकारी फ़ौज का सेनापति बना फुंकार रहा था और राज के प्रतिनिधि अपनी शाश्वत नपुंसकता के चलते थर थर कांप रहे थे, जिनके प्रति संवैधानिक जवाबदेही थी,उनके संरक्षण की जिम्मेदारी को निभाने की बजाय मंहतई के चरणों मे शासन और प्रशासन भूलुंठित था.
उस रात निरीह पीड़ितों का आर्तनाद जिन्होंने भी सुना,उनका हृदय फट गया,कईं लोगों ने उस तांडव को अपनी आंखों से देखा,धर्म और सत्ता की आम जनता के विरुद्ध रात के अंधेरे में जुगलबंदी जारी थी,जन साधारण ने कुछ नहीं बोला,मगर सुबह जिन्होंने भी बने बनाये घरों को घरौंदों में तब्दील देखा,आशियानों को मलबे में परिवर्तित देखा तो,सबकी जुबान पर एक ही आवाज थी - यह तो अन्याय है ! लोगों के घर तोड़ने की क्या जरूरत थी ? ये कैसे सन्त है ? ये कैसे महंत है ? ऐसा जुल्म क्यों किया ? यह तो ठीक नहीं हुआ !
उस रात 7 लोगों के घर और कुछ लोगों की दुकानें तोड़ दी गई,बमुश्किल एक आध घर बच पाया,बाकी सब घर जुल्म के ढेर में बदल गए थे,यह देखकर सबकी जुबान से धिक्कार का अल्फ़ाज़ निकला, अर्धरात्रि का यह अन्याय पुलिस और प्रशासन की मौजूदगी में हुआ,मानवता को शर्मसार करने वाला यह कृत्य जब किया गया तब थानेदार और तहसीलदार मौके पर सशरीर मौजूद थे, इस तांडव को जब वे ही नहीं रोकना चाहते थे तो फिर कौन रोकता ?
लोगों की ज़िंदगी भर की उम्मीदें ज़मीदोज़ की जा चुकी थी,घर,दुकान,मकान सब अब मिट्टी का ढेर थे,कोई सुननेवाला नहीं था, राज खामोश था,कानून के प्रहरी जालिमों के चरणों मे नतमस्तक थे और पीड़ित चीखने के अलावा कुछ भी करने की स्थिति में नहीं थे,जुल्म की ऐसी कहानी सिर्फ फिल्मी हो सकती है,पर करेड़ा में हकीकत में घट रही थी.
मगर उस रात के घटनाक्रम ने करेड़ा के अमन पसंद और न्यायप्रिय लोगों के जमीर को जगा दिया,ज्यादातर लोगों ने दलित पिछड़े व अन्य लोगों के घर उजाड़ने वाले धर्म पुरुष से किनारा कर लिया, कहा कुछ नहीं,मगर अपनी आस्था और आदर के भावों को तिरोहित हो जाने दिया,उन्हें धर्म,आस्था और आध्यात्मिकता के नाम पर किये जा रहे भावनात्मक भयादोहन से मुक्त होने का अवसर मिल गया,वे समझ पाये कि इस सारे प्रकरण का मकसद धर्म का उन्नयन नहीं था,बल्कि असली मकसद तो जमीन हड़पना था,लोगों के घर उजाड़ना था और जुल्म ढाना था.
फ़िज़ा बदलने लगी,बदलनी ही थी,जुल्म जब हद से ज्यादा बढ़ जाता है तो वह स्वयं ही मिट जाता है अथवा इंसाफ का औजार बन जाता है.
घटना की एफआईआर के मुताबिक 26 फरवरी 2017 की रात करेड़ा कस्बे के ऐतिहासिक हनुमान दरवाजे के पास स्थित ग्राम पंचायत की आबादी भूमि पर स्थित एक बस्ती को हथियारों से लैश साधु संतों ने बुलडोज़र की मदद से उजाड़ दिया,बचाने आये लोगों को मारा पीटा और सब कुछ ध्वस्त कर दिया.
एक साल पहले दर्ज मुकदमा संख्या 39/2017 में आज तक चुस्त पुलिस महकमा तफ्तीश कर रहा है,नामजद एफआईआर है,जेसीबी के नम्बर है,वीडियो है,घटना के फोटो है,गवाह है,पूरी घटना एकदम साफ है,मगर पुलिस अनुसंधान में लगी हुई है, दलित अत्याचार और भारतीय दंड विधान की विभिन्न गंभीर धाराओं में दर्ज मुकदमें में आज तक चार्जशीट पेश नहीं हुई है, न चालान ... न एफ आर ...जैर तफ्तीश है मामला,आला अफसर यही जवाब देते है.
दूसरी तरफ गिराए गए मकानों का मलबा इस लोकतंत्र,संविधान,कानून और व्यवस्था के मुंह को रोज चिढ़ाता है,जिनके घर उजाड़े गये,उनके लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की गई,विस्थापितों का न पुनर्वास हुआ,न मुआवजा मिला और न ही कार्यवाही हुई.
मानवाधिकार हनन की सबसे जीवन्त मिसाल और अन्याय का स्मारक बने उजड़े घर और उनका मलबा खुद में ही सवाल बन चुके है,यहां के जागरूक नागरिक,जनप्रतिनिधि और प्रशासनिक अधिकारी जब इधर से गुजरते हैं तो इन सवालों के प्रति आंखें मूंद लेते है,ताकि जवाबदेही से बचा जा सके ...लेकिन अब मानव अधिकार का यह सवाल अपनी पूरी ताकत से उठ खड़ा होने वाला है,तब जिम्मेदार लोग क्या जवाब देंगे ? इसका इंतज़ार है ......!
( जारी )
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और शून्यकाल मीडिया के संस्थापक हैं.)