अब मोटरसाइकिल मुख्य सड़क को छोड़कर छोटी सड़क की तरफ मुड़ गयी। दृश्य देखकर ऐसा लगा जैसे आधुनिक काल से उठाकर सीधे पाषाणकाल में फेंक दिए गए हों। हम सड़कनुमा चीज पर चल रहे थे।
उसे देखकर तय कर पाना मुश्किल था कि सड़क में गड्ढे हो गए हैं या गड्ढों में कहीं कहीं सड़क बना दी गयी है। मित्र जो कि मोटरसाइकिल चला रहे थे, बड़ी मुश्किल से हैंडिल कंट्रोल कर पा रहे थे। सड़क के अगल-बगल गेंहू के खेत थे जिनमें उगे गेंहू के कमजोर पौधों को देखकर कोई भी आम आदमी यही कहता- इन्हें पोलियो हो गया है। भारतीय कृषि विभाग चाहे तो उनके दो साल के शोध के लिए ये गेंहू के पौधे कच्चा मटेरियल साबित हो सकते हैं। थोड़ी दूर चलने पर सरसों के खेत दिखे जिनमें कुछ सांड पत्तियों को खाने में व्यस्त थे और कुछ खा पीकर मस्त धूप सेंक रहे थे। इन सांडों की खबर या तो उस खेत के मालिक को नहीं थी या फिर वह तंग आकर इन्हें हांकना छोड़ चुका था।
उसे देखकर तय कर पाना मुश्किल था कि सड़क में गड्ढे हो गए हैं या गड्ढों में कहीं कहीं सड़क बना दी गयी है। मित्र जो कि मोटरसाइकिल चला रहे थे, बड़ी मुश्किल से हैंडिल कंट्रोल कर पा रहे थे। सड़क के अगल-बगल गेंहू के खेत थे जिनमें उगे गेंहू के कमजोर पौधों को देखकर कोई भी आम आदमी यही कहता- इन्हें पोलियो हो गया है। भारतीय कृषि विभाग चाहे तो उनके दो साल के शोध के लिए ये गेंहू के पौधे कच्चा मटेरियल साबित हो सकते हैं। थोड़ी दूर चलने पर सरसों के खेत दिखे जिनमें कुछ सांड पत्तियों को खाने में व्यस्त थे और कुछ खा पीकर मस्त धूप सेंक रहे थे। इन सांडों की खबर या तो उस खेत के मालिक को नहीं थी या फिर वह तंग आकर इन्हें हांकना छोड़ चुका था।
आगे मंदिर दिखा। हमें मंदिर से तीन किलोमीटर और आगे जाना था, जैसा कि रास्ता बताने वाले ने बताया था। भारत में मंदिर का सही उपयोग रास्ता बताने में ही होता है। या फिर किसी गरीब की शादी मंदिर में होते देखता हूँ तो मंदिर काम का लगने लगता है। करीब तीन किलोमीटर चलने के बाद हमने एक बार फिर से 'अम्बेडकर गांव' का रास्ता पूछ लेना उचित समझा। आगे सड़क किनारे बने खपरैल वाले घर के सामने एक बच्चा नंगा बैठा भात खा रहा था। उसके कटोरे के अगल-बगल भिनभिना रही मक्खियों को गिनकर कटोरे में पड़े चावल से तुलना की जाती तो शायद मक्खियों की संख्या अधिक होती। मेरे दोस्त ने गाड़ी रोकी । अगल बगल कोई नहीं था। हमनें अपनी बोली में मिठास लाते हुए पूछा- बेटा, ये अम्बेडकर गांव किधर पड़ेगा ?
वह पहले तो आश्चर्य भरी निगाहों से देखता रहा फिर अचानक उठकर उस खपरैल वाले घर मे भाग गया। हम थोड़ी देर तक उसके निकलने का इंतज़ार करते रहे पर निराश हुए।
हम आगे बढ़े। कुछ देर चलने पर चौराहा मिला और चौराहे पर लोग दिखे। बगल में एक कोने पर फूस का छप्पर था जो कई बरसात का पानी झेल लेने के बाद अपनी अंतिम अवस्था मे पहुंचा मालूम पड़ता था। उसके नीचे रखे तख्ते पर कुछ लोग बैठे थे जो गंभीर मुद्रा में बात कर रहे थे। तख्ते के बगल में चाय की भट्ठी बनी थी और उसपर एक काली केतली रख दी गयी थी। भट्ठी के नीचे एक बूढ़ा लकड़ी लगा रहा था। बूढ़े ने अपनी लाल दिख रही दाढ़ी में यदि मेहंदी न लगा रखी होती तो शायद वह सफेद दिखाई पड़ती। वहीं बगल में एक बड़ी सी थाली में कुछ जलेबियाँ बेचने के उद्देश्य से रख दी गयी थीं जो घेरी हुई मधुमक्खियों के कभी-कभी उड़ जाने से दिख जाती थीं। मधुमक्खियां जलेबी से चासनी ऐसे चूस रही थीं जैसे नेता जनता का खून चूसते हैं। एक बूढ़ा उस दुकान के सामने कुल्हाड़ी से लकड़ी चीर रहा था। वह कुल्हाड़ी अपने बूते से ज्यादा जोर से चला रहा था किंतु लकड़ी पर फर्क नहीं पड़ रहा था। हांड कंपा देने वाली ठंड थी फिर भी बूढ़ा पसीने से डूबा हुआ था जो यह बताने के लिए पर्याप्त है कि वह अपनी उम्र से कहीं अधिक जिम्मेदारी लिए हुए संघर्ष कर रहा है। मेरे मन मे खयाल आया , यह उम्र तो सन्यास लेने की है पर दूसरे ही क्षण खयाल आता है कि सन्यास तो वो ले सकते हैं जिनका घर, पेट भरा हो। वह बूढ़ा कुल्हाड़ी छोड़ बाल्टी के पास रखे मग की तरफ बढ़ा। उसने तख्ते पर बैठे एक व्यक्ति को इशारा किया जो आकर उसे मग से ऊपर से पानी पिलाने लगा । यह देखकर एक आम आदमी भी समझ सकता है कि वह बूढ़ा किसी छोटी जाति का है जिसे बड़े लोगों के बर्तन छूने तक का अधिकार समाज नहीं देता। वो बात अलग है कि उसके द्वारा फाड़ी गयी लकड़ी से बने भोज्य पदार्थ बड़ी जाति के लोग खा सकते हैं।
हम अम्बेडकर गांव का पता पूछने के उद्देश्य से उस छप्पर के नीचे चल रही दुकान पर रखे तख्ते के करीब गए। वहां बैठे लोगों ने मोटरसाइकिल को कुछ देर तक इस तरह घूरा जैसे उन्होंने कोई नई चीज देख ली हो पर दूसरे ही क्षण उन्हें लगा कि यह कोई नई चीज नहीं है। फिर वे मोटरसाइकिल घूरने से भी ज्यादा जरूरी काम अपने बात में व्यस्त हो गए। उन्होंने हमारी तरह देखना फ़िजूल समझा। मैं मोटरसाइकिल से उतरा और उनके करीब गया। तख्ते पर एक मोटा व्यक्ति जो सच में गोरा था सफेद धोती पहने तोंद को सहलाते हुए और लोगों से बात करने में व्यस्त था। माथे पर लाल लंबा तिलक और गोल मटोल लाल गाल उसके बड़े संपन्न घर से होने का आभाष करा रहे थे। वह वहां बैठे और लोगों को संबोधित करते हुए कह रहा था- तब जब धनुष का प्रत्यंचा किसी से नहीं चढ़ा तो श्री राम खड़े हुए और एक झटके में धनुष को उठा लिया और प्रत्यंचा चढ़ा दिया। इतने में धनुष खंड-खंड हो गया। सब ने तालियां बजाई। राम की जय जयकार होने लगी।
उन व्यक्तियों में से एक ने उत्सुकता वश पूछा- पर बलशाली तो रावण भी था। वह प्रत्यंचा क्यों नहीं चढ़ा पाया पंडित जी ?
तिलक वाला व्यक्ति तोंद पर फिर से हाथ फेरने लगा और बोला- सब प्रभु की माया है।
तख्ते के बगल में नीचे बैठा एक व्यक्ति जो कि बहुत ही गंदा दिख रहा था, बड़ी गंभीरता से मटमैले बालों को खुजाते हुए बोला- पर पंडी जी, एक बात है, वहिं जमाने में भी औरतन के दसा बड़ी खराब रही। 'सीता' राजा के बेटी रहीं, पर उनका इतना अधिकार न रहा कि अपनी पसंद के सादी कर लेती।
तिलक वाला व्यक्ति थोड़ा गुस्से में पूछ बैठा- का मतलब है तोर ?
वह बोला- मतलब इहे की सीता की सादी नहीं होइ रही थी, नीलामी होइ रही थी। जवन के पास जादा ताकत हौ उ सीता क लई जाए।
तिलकधारी भड़क गया। गुर्राता हुआ बोला- तुम सारे चमारन के जात, धरम करम के का पता!! बताओ सीता मइया के बारे में ऐसे कोई बकता है !!
तख्ते पर एक लड़का बैठा था जो बहुत देर से अखबार पढ़ रहा अब अखबार को बगल कर महत्वपूर्ण बहस में हिस्सा लेने के उद्देश्य से बोला पड़ा- पर पंडी जी ई बात तो सही कह रहा।
पंडी जी जल गए, और तख्ते से उठते हुए बोले- हम कहाँ विधर्मिन के बीच मे फंस गया हूँ। कभी धरम करम करो, रमायन पढ़ो तो समझ आये।
मैंने अब पता पूछने के उद्देश्य से कहा- ये अम्बेडकर गांव कौन सी तरफ पड़ेगा ?
पहले से झल्लाये तिलकधारी पंडित जी बिफर पड़े - अम्बेडकर नहीं उ चमरौटी कहा जाता है। अम्बेडकर गांव इंहा कोई नहीं जानता। आगे जाओ बाएं मुड़ जाना।
हम थोड़ा डरे सहमे मोटरसाइकिल से आगे बढ़े और यही सोच के परेशान थे कि लोग क्यों पूछते हैं जातिवाद कहाँ है ?
आगे कुछ पिल्ले एक झंडानुमा कपड़े को खींचकर फाड़ रहे थे जो सत्ताधारी पार्टी का था।
मुझे गांधी याद आ रहे थे, जो कहते थे- असली भारत को देखना है तो किसी पिछड़े गांव में चले जाओ।