कामयाब नहीं दिख रहा नीति आयोग का विजन पनगढ़िया का मैदान छोड़ना है सबूत

Written by सबरंगइंडिया | Published on: August 4, 2017
नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया का आयोग से
जाना सरकार की विकास योजनाओं के लिए बड़ा झटका साबित
हो सकता है। दरअसल अरविंद पनगढ़िया, उनके मेंटर जगदीश
भगवती और विवेक देवराय जैसे इकोनॉमिस्ट ट्रिकल डाउन
थ्योरी की तुलना में जिस पुल-अप थ्योरी की पैरोकारी कर रहे
थे वह भारत में काम नहीं कर रहा है। चूंकि उनकी सलाह पर
मोदी सरकार ने स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया
जैसे कार्यक्रमों की शुरुआत की थी, वे सिरे नहीं चढ़ रहे हैं। यही
वजह है कि पनगढ़िया और उनके जैसे अर्थशास्त्री अपने बचाव
में मैदान छोड़ते नजर आ रहे हैं।



Image Courtesy: Economic Times
 

बहरहाल, पनगढ़िया के जाने से नीति आयोग में उनकी ओर से
शुरू की गई पहलकदमियां खटाई में पड़ गई हैं। इनमें सबसे

अहम देश के तटीय इलाकों को चीन की तर्ज पर मैन्यूफैक्चरिंग
जोन विकसित करने के लिए 15 साल का विजन डॉक्यूमेंट का
काम है। सरकारी सूत्रों का कहना है कि कुछ प्रोजेक्ट तो खुद
पनगढ़िया देख रहे थे। उनके जाने से ये धीमे पड़ जाएंगे। इन
प्रोजेक्ट्स की रफ्तार उनके उत्तराधिकारी पर निर्भर करेगी। भले
ही पनगढ़िया और उनके साथी अर्थशास्त्रियों की नीतियां देश में
काम नहीं कर रही हों लेकिन उन्होंने अपने तीन साल के
कार्यकाल में कई योजनाएं बनाई थीं, जो अब धीमी पड़ती नजर
आएंगी। इनमें मेडिकल एजुकेशन में सुधार, कृषि में लीज की
नीति, राज्यों के प्रदर्शन पर निगरानी, विनिवेश को बढ़ावा और
नेशनल इमजेंसी प्लान जैसी योजनाएं हैं।

शुरुआत में अरविंद पनगढ़िया को सरकार के अंदर भी असहयोग
झेलना पड़ा। लेकिन वे इसमें ऊपरी स्तर पर बैठे लोगों को
अपने तर्कों से सहमत करने में कामयाब होते दिख रहे थे।
लेकिन इस बीच उनका जाना यह साबित करता है कि उनकी
नीतियां कामयाब नहीं हो रही थीं। संघ का एक धड़ा उनसे
नाराज था। यही वजह है कि पनगढ़िया को सरकार को अलविदा
कहना पड़ा। पर दिक्कत यह है कि सरकार को अब यह तय

करना पड़ेगा कि वह किस राह चलेगी। क्या उसे पनगढ़िया जैसे
सुधार और बाजारवादी आर्थिक नजरिये पर चलना पड़ेगा या संघ
का दिशा-निर्देश सुनना पड़ेगा। कुल मिला कर यह सरकार के
अंदर ही असमंजस की स्थिति को जाहिर करता है।

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