बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने कहा है कि जब आदिवासी सीएम नहीं बनाना है तो झारखंड बना ही क्यों। नीतीश कुमार ने अपनी यह शिकायत रांची में सेंगेल अभियान से जुड़े समारोह में कार्यक्रम में दर्ज कराई। दरअसल राज्य में पहले से ही हाशिये पर रह रही आदिवासी आबादी के खिलाफ पिछले कुछ दिनों से जिस तेजी से अभियान चले हैं, उसने गैर भाजपाई नेताओं को इस पर बोलने को मजबूर कर दिया है।
झारखंड में आदिवासियों की समस्याएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। हाल में छोटानागपुर-संथालपरगना टेनेंसी एक्ट में संशोधन के जरिये जमीन से उनका मालिकाना खत्म करने की कोशिश हो रही है। बड़े उद्योगों और राज्य की मिलीभगत से आदिवासियों की जमीनें हड़पने की लंबी परंपरा रही है, इधर इसमें और तेजी आई है। रघुबर दास सरकार की ओर से पिछले एक साल से हजारीबाग में एनटीपीसी को जबरदस्ती कोल ब्लॉक दिलाने के खिलाफ अभियान चल रहा है। इसके खिलाफ विस्थापितों के संघर्ष के दौरान पुलिस की फायरिंग में कई लोगों की मौत हो गई। लेकिन राज्य का गैर आदिवासी नेतृत्व इस पर मौन रहा।
राज्य में गैर आदिवासी मुख्यमंत्री की इर्द-गिर्द खड़ी चौकड़ी वहां विकास के नाम पर उदयोगों को जमीन दिलाने और आदिवासियों को हाशिये पर धकेलने की कोशिश में लगी है। आदिवासी आबादी के पास रोजगार की भारी कमी है। घरेलू नौकरानी के तौर पर काम दिलाने के नाम पर राज्य से नाबालिग और बालिग लड़कियों की तस्करी हो रही है।
इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट की ओर से किए गए एक सर्वे के मुताबिक दिल्ली में घरेलू नौकरानियों के तौर पर काम करने वाली ज्यादातर आदिवासी लड़कियां झारखंड की हैं, जो रोजगार के नाम पर बहला-फुसला कर ले आई गई हैं। झारखंड से लाई गईं 14 लाख आदिवासी लड़कियां देश के अलग-अलग राज्यों में घरेलू नौकरानियों के तौर पर काम कर रही हैं। तस्करी के जरिये जिन लड़कियों को राज्य से बाहर ले जाया जाता है उनमें से 72.1 फीसदी बिन ब्याही रह जाती हैं। राज्य से बाहर काम करने के दौरान ये मां बना दी जाती हैं। इनमें से 70 फीसदी 18 साल से कम उम्र की होती हैं। गैर आदिवासी नेतृत्व इसे रोकने के लिए प्रभावी बिल पारित कराने में दिलचस्पी नहीं ले रहा है।
झारखंड में बिहार और पश्चिम बंगाल के मुकाबले ज्यादा औद्योगिक संसाधन हैं लेकिन यह दोनों राज्यों के मुकाबले आर्थिक विकास में पिछड़ता जा रहा है। सामाजिक विकास और प्रति व्यक्ति आय में यह दोनों से काफी पीछे है। बाल मृत्यु, मातृ मृत्यु के मामले में इसका रिकार्ड पड़ोसी राज्यों के मुकाबले खराब है। रोजगार सृजन में यह लगातार पिछड़ रहा है। इस वजह से पहले से ही हाशिये पर रह रहे आदिवासियों की स्थिति यहां और खराब होती जा रही है। पलायन की वजह से राज्य में आबादी का संतुलन गैर आदिवासियों के पक्ष में झुक गया है। अब राजनीतिक नेतृत्व भी आदिवासियों के हाथ से निकल चुका है। यही वजह है कि आदिवासी नेतृत्व वाले झारखंड का समर्थन करने वाले नेताओं को अब खुल कर सामने आने को मजबूर होना पड़ रहा है।
झारखंड में आदिवासियों की समस्याएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। हाल में छोटानागपुर-संथालपरगना टेनेंसी एक्ट में संशोधन के जरिये जमीन से उनका मालिकाना खत्म करने की कोशिश हो रही है। बड़े उद्योगों और राज्य की मिलीभगत से आदिवासियों की जमीनें हड़पने की लंबी परंपरा रही है, इधर इसमें और तेजी आई है। रघुबर दास सरकार की ओर से पिछले एक साल से हजारीबाग में एनटीपीसी को जबरदस्ती कोल ब्लॉक दिलाने के खिलाफ अभियान चल रहा है। इसके खिलाफ विस्थापितों के संघर्ष के दौरान पुलिस की फायरिंग में कई लोगों की मौत हो गई। लेकिन राज्य का गैर आदिवासी नेतृत्व इस पर मौन रहा।
राज्य में गैर आदिवासी मुख्यमंत्री की इर्द-गिर्द खड़ी चौकड़ी वहां विकास के नाम पर उदयोगों को जमीन दिलाने और आदिवासियों को हाशिये पर धकेलने की कोशिश में लगी है। आदिवासी आबादी के पास रोजगार की भारी कमी है। घरेलू नौकरानी के तौर पर काम दिलाने के नाम पर राज्य से नाबालिग और बालिग लड़कियों की तस्करी हो रही है।
इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट की ओर से किए गए एक सर्वे के मुताबिक दिल्ली में घरेलू नौकरानियों के तौर पर काम करने वाली ज्यादातर आदिवासी लड़कियां झारखंड की हैं, जो रोजगार के नाम पर बहला-फुसला कर ले आई गई हैं। झारखंड से लाई गईं 14 लाख आदिवासी लड़कियां देश के अलग-अलग राज्यों में घरेलू नौकरानियों के तौर पर काम कर रही हैं। तस्करी के जरिये जिन लड़कियों को राज्य से बाहर ले जाया जाता है उनमें से 72.1 फीसदी बिन ब्याही रह जाती हैं। राज्य से बाहर काम करने के दौरान ये मां बना दी जाती हैं। इनमें से 70 फीसदी 18 साल से कम उम्र की होती हैं। गैर आदिवासी नेतृत्व इसे रोकने के लिए प्रभावी बिल पारित कराने में दिलचस्पी नहीं ले रहा है।
झारखंड में बिहार और पश्चिम बंगाल के मुकाबले ज्यादा औद्योगिक संसाधन हैं लेकिन यह दोनों राज्यों के मुकाबले आर्थिक विकास में पिछड़ता जा रहा है। सामाजिक विकास और प्रति व्यक्ति आय में यह दोनों से काफी पीछे है। बाल मृत्यु, मातृ मृत्यु के मामले में इसका रिकार्ड पड़ोसी राज्यों के मुकाबले खराब है। रोजगार सृजन में यह लगातार पिछड़ रहा है। इस वजह से पहले से ही हाशिये पर रह रहे आदिवासियों की स्थिति यहां और खराब होती जा रही है। पलायन की वजह से राज्य में आबादी का संतुलन गैर आदिवासियों के पक्ष में झुक गया है। अब राजनीतिक नेतृत्व भी आदिवासियों के हाथ से निकल चुका है। यही वजह है कि आदिवासी नेतृत्व वाले झारखंड का समर्थन करने वाले नेताओं को अब खुल कर सामने आने को मजबूर होना पड़ रहा है।