मुंबई में रहते हुए रिटायर्ड जस्टिस अभय थिप्से ने जबरदस्त प्रतिष्ठा अर्जित की थी। किसी भी दबाव में न आने वाले जस्टिस थिप्से का रिटायरमेंट से ऐन पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट में तबादला कर दिया गया था। ज्योति पुनवानी ने उनसे उनके तबादले और अन्य मामलों में खुल कर बात की।

Image: Economic Times
जस्टिस थिप्से ने कई विवादास्पद हाई प्रोफाइल मामलों में जमानत दी है। इनमें सलमान खान से लेकर यूएपीए/मकोका के तहत हिरासत में लिए गए लोगों से लेकर संदिग्ध माओवादियों और आतंकवादियों के मामले रहे हैं। जस्टिस थिप्से पर 2002 के बेस्ट बेकरी मामले की सुनवाई का जिम्मा था। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को गुजरात हाई कोर्ट को भेज दिया था। उन्होंने इस मामले को 17 आरोपियों को दोषी करार दिया था। सभी को आजीवन कारावास की सजा मिली थी।
आपने इलाहाबाद जाने से इनकार किया था फिर भी आपका तबादला इलाहाबाद हाई कोर्ट क्यों किया गया?
मुझे इसकी वजहों का कभी पता नहीं चलेगा। वजह कभी नहीं बताई जाती। मेरे ट्रांसफर का मामला हैरान करने वाला है । मेरे लिए अलग से ट्रांसफर ऑर्डर निकाला गया। इससे पहले एक साथ 49 तबादले हो चुके थे।
कहा जा रहा था कि हिट एंड रन मामले में सलमान खान को जमानत देने की वजह से आपका ट्रांसफर किया गया?
मैंने कई विवादास्पद फैसले दिए हैं। लेकिन सलमान खान का मामला उनमें नहीं था। यह रूटीन ऑर्डर था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी समर्थन दिया था। मुझे लगता है कि इस पर जानबूझ कर विवाद पैदा किया। और विडंबना देखिये, जब सुप्रीम कोर्ट ने सलमान खान को जमानत दी तो कोई हल्ला-हंगामा नहीं हुआ।
क्या ट्रांसफर ऑर्डर आपके लिए झटका था?
मुझे इससे काफी तकलीफ हुई। क्योंकि यह मेरे कैरियर के आखिरी दौर में हुआ था। और ट्रांसफर की कोई ठोस वजह नहीं थी। हालांकि इलाहाबाद में भी मुंबई की तरह ही मुझे काफी अहम और संवेदनशील मामले सुनवाई के लिए मिलते रहे और मैंने वहां डिवीजन बेंच का नेतृत्व भी किया। इसलिए मेरा मानना है कि ट्रांसफर मेरी ईमानदारी पर सवाल नहीं था।
दरअसल, 2014 में मेरे खिलाफ एक सोशल मीडिया कैंपेन चलाया गया। मुझ पर भ्रष्ट होने के आरोप लगाए गए। मेरे खिलाफ यह कैंपेन इतना जोर-शोर से चलाया जा रहा था कि खुद पुलिस ने मुझे सूचित किया कि यह सब गुजरात से हो रहा है। एक ही दिन में मेरे खिलाफ एक पोस्ट पर 1000 बार क्लिक किया गया।
तब तक मेरे कुछ फैसलों को विवादास्पद कहा जाने लगा था। मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। मेरी ईमानदारी और नैतिकता पर कभी सवाल नहीं उठाए गए थे। इस तरह के आरोप से मैं हतोत्साहित हुआ था।
आपने जिस तरह कुछ संदिग्ध माओवादियों और आतंकवादियों को जमानत दी थी, उससे आप सरकार के प्रिय नहीं हो सकते थे। आखिर आपने इस तरह के साहसिक फैसले कैसे लिए। आपको तो बेल देने वाला जज कहा जाने लगा था?
मैंने हमेशा केस के मेरिट के आधार पर जमानत का फैसला दिया है। कानून के मुताबिक फैसला करने से मैं कभी नहीं हिचका। इसमें साहसिक फैसले की बात कहां से आई। कोर्ट में सबूतों के आधार पर एक ही निष्कर्ष निकाला जाता है। कई बार कोई अपराध बहुत बड़ा होता है। लेकिन आरोपियों के खिलाफ सबूत नहीं होते। कोर्ट से यह उम्मीद नहीं की जाती कि जो चीज न दिखे उसे देखने की कोशिश करे।
मैं ऐसा जज रहा हूं, जिसके सामने राज्य के सर्वोच्च विधि अधिकारी भी एक मामले में जमानत की अर्जी लेकर पेश हुआ है। ऐसा इसलिए हुआ कि राज्य को को लग रहा था कि उसका केस कमजोर है। लेकिन वरिष्ठ अधिकारियों की उपस्थिति के बावजूद मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ा।
जमानत याचिका खारिज करना बेहद आसान है। खास कर तब और भी आसान,जब मामले को मीडिया में काफी हाईप मिला हो। जज राजनीतिक नेताओं की तरह व्यवहार नहीं कर सकते। मैंने राष्ट्रीय हित या राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे तर्कों पर कभी समर्पण नहीं किया। आम तौर पर आरोपी को अभियुक्त साबित करने के लिए इस तरह के तर्क दिए जाते हैं।
मैं अक्सर सीनियर लॉ ऑफिसर्स से कहता हूं कि मुझे सबूत दिखाइए। वे कहते हैं कि आरोपी दोषी है लेकिन हमारे पास इसे साबित करने के लिए सबूत नहीं है। इसमें मैं क्या कर सकता हूं। मैं भगवान तो नहीं हूं। अगर अपराधी धारणाओं के आधार पर तय किए जाने लगे तो गिरफ्तार किया जाने वाला हर व्यक्ति अपराधी होगा। तो फिर अदालत की क्या जरूरत है। ऐसे हर मामले की ज्यूडीशियल स्क्रूटिनी होनी चाहिए। प्रथम दृष्टया मामला बनना चाहिए। अगर नहीं है तो जमानत देनी होगी।
आजकल युवाओं पर अक्सर माओवादी होने का आरोप लगा दिया जाता है। यह हास्यास्पद है। वे स्कूल-कॉलेजों में फीस बढ़ाने के खिलाफ और गरीबी के खिलाफ बोलते हैं । इससे वे माओवादी नहीं हो जाते?
जिग्नेश शाह को बेल देने के फैसले का सुप्रीम कोर्ट ने भी समर्थन किया। एक बार मैंने अभियुक्त को दो साल की सजा काटने के बावजूद बेल नहीं दी। क्यों। इसलिए कि वह आरोपी रंगे हाथ पकड़ा गया था। दिक्कत यह है कि हाई फ्रोफाइल केस में अगर जमानत दे दी जाती है तो यह मीडिया हाइप बन जाता है। आपने पचासों गैर महत्वपूर्ण मामलों में जमानत दी होगी। लेकिन किसी एक मामले में हंगामा मच जाता है।
क्या बेस्ट बेकरी कांड की सुनवाई के दौरान आप पर दबाव था?
मुझ पर कोई दबाव नहीं था। लेकिन मुझे बहुत सारे पत्र मिलते थे। जिनमें लिखा होता था कि आपको एक हिंदू की तरह काम करना चाहिए। मुझे देश के पिछले 800 साल के इतिहास की याद दिलाई जाती थी और कहा जाता था कि यह बदला लेने का वक्त है। कुछ लोग कहते थे कि अगर मैंने आरोपियों को छोड़ दिया तो पूरा हिंदू समाज मेरा समर्थन करेगा। दूसरे कहते थे भगवान आपको इसका पुण्य देगा।
आपने मकोका के कई मामलों की सुनवाई की है। क्या आपको लगता है कि यह कानून जरूरी है?
अंडरवर्ल्ड की समस्या तो है और इससे निपटा भी जाना चाहिए। लेकिन मकोका बेहद खराब ढंग से बनाया कानून है। इसके प्रावधान स्पष्ट नहीं हैं। प्रावधान बेहद लचर और पुराने हैं। जैसे – अगर पुलिस के सामने कबूलनामे को आरोपी के खिलाफ सबूत मान लिया गया है। यही वजह है यूएपीए के तहत कानून में इसका गलत तरह से इस्तेमाल होता है। अगर न्यायपालिका और अभियोजन पक्ष अपना काम पेशेवर तरीके से करे तो ऐसे कानूनों की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
कई बेकसूर मुस्लिमों को आतंक के मामले में फंसाया गया है। क्या पुलिस ऐसे मामले में पक्षपात करती है?
आम हिंदुओं की तुलना में तो ऐसे मुसलमान ज्यादा नहीं हैं। फिर भी मैंने अपने सहयोगियों में खास कर निचली अदालतों में मुसलमानों के प्रति भेदभाव की भावना देखी है।
क्या आपको गंभीर अपराधों में मुस्लिमों को फंसाने के मामले नहीं दिखे हैं। ऐसे मामले जिनमें उनके खिलाफ संतोषजनक सबूत भी नहीं थे?
हां, ऐसे मामले रहे हैं लेकिन उन्हें जमानत मिली है। आखिरकार वे छूट गए है। मैं यह नहीं कहूंगा की आम पुलिस मुसलमानों को जानबूझ कर फंसा रही है। दिक्कत एटीएस और स्पेशल ब्रांच के काम करने के तरीके में है। वे बेहद सेंट्रलाइज तरीके से काम करती हैं। जांच शीर्ष अधिकारियों द्वारा होती है और इसके लिए काफी बड़े अफसरों की इजाजत लेनी होती है। जब मामले की जांच में बड़े अफसर शामिल होते हैं तो इसकी प्रामाणिकता और तरीके की जांच भी बेमतलब हो जाती है। अक्सर वे दोषियों को पकड़ नहीं पाते हैं और न उसके खिलाफ सबूत जुटा पाते हैं।
साभार – मुंबई मिरर

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जस्टिस थिप्से ने कई विवादास्पद हाई प्रोफाइल मामलों में जमानत दी है। इनमें सलमान खान से लेकर यूएपीए/मकोका के तहत हिरासत में लिए गए लोगों से लेकर संदिग्ध माओवादियों और आतंकवादियों के मामले रहे हैं। जस्टिस थिप्से पर 2002 के बेस्ट बेकरी मामले की सुनवाई का जिम्मा था। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को गुजरात हाई कोर्ट को भेज दिया था। उन्होंने इस मामले को 17 आरोपियों को दोषी करार दिया था। सभी को आजीवन कारावास की सजा मिली थी।
आपने इलाहाबाद जाने से इनकार किया था फिर भी आपका तबादला इलाहाबाद हाई कोर्ट क्यों किया गया?
मुझे इसकी वजहों का कभी पता नहीं चलेगा। वजह कभी नहीं बताई जाती। मेरे ट्रांसफर का मामला हैरान करने वाला है । मेरे लिए अलग से ट्रांसफर ऑर्डर निकाला गया। इससे पहले एक साथ 49 तबादले हो चुके थे।
कहा जा रहा था कि हिट एंड रन मामले में सलमान खान को जमानत देने की वजह से आपका ट्रांसफर किया गया?
मैंने कई विवादास्पद फैसले दिए हैं। लेकिन सलमान खान का मामला उनमें नहीं था। यह रूटीन ऑर्डर था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी समर्थन दिया था। मुझे लगता है कि इस पर जानबूझ कर विवाद पैदा किया। और विडंबना देखिये, जब सुप्रीम कोर्ट ने सलमान खान को जमानत दी तो कोई हल्ला-हंगामा नहीं हुआ।
क्या ट्रांसफर ऑर्डर आपके लिए झटका था?
मुझे इससे काफी तकलीफ हुई। क्योंकि यह मेरे कैरियर के आखिरी दौर में हुआ था। और ट्रांसफर की कोई ठोस वजह नहीं थी। हालांकि इलाहाबाद में भी मुंबई की तरह ही मुझे काफी अहम और संवेदनशील मामले सुनवाई के लिए मिलते रहे और मैंने वहां डिवीजन बेंच का नेतृत्व भी किया। इसलिए मेरा मानना है कि ट्रांसफर मेरी ईमानदारी पर सवाल नहीं था।
दरअसल, 2014 में मेरे खिलाफ एक सोशल मीडिया कैंपेन चलाया गया। मुझ पर भ्रष्ट होने के आरोप लगाए गए। मेरे खिलाफ यह कैंपेन इतना जोर-शोर से चलाया जा रहा था कि खुद पुलिस ने मुझे सूचित किया कि यह सब गुजरात से हो रहा है। एक ही दिन में मेरे खिलाफ एक पोस्ट पर 1000 बार क्लिक किया गया।
तब तक मेरे कुछ फैसलों को विवादास्पद कहा जाने लगा था। मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। मेरी ईमानदारी और नैतिकता पर कभी सवाल नहीं उठाए गए थे। इस तरह के आरोप से मैं हतोत्साहित हुआ था।
आपने जिस तरह कुछ संदिग्ध माओवादियों और आतंकवादियों को जमानत दी थी, उससे आप सरकार के प्रिय नहीं हो सकते थे। आखिर आपने इस तरह के साहसिक फैसले कैसे लिए। आपको तो बेल देने वाला जज कहा जाने लगा था?
मैंने हमेशा केस के मेरिट के आधार पर जमानत का फैसला दिया है। कानून के मुताबिक फैसला करने से मैं कभी नहीं हिचका। इसमें साहसिक फैसले की बात कहां से आई। कोर्ट में सबूतों के आधार पर एक ही निष्कर्ष निकाला जाता है। कई बार कोई अपराध बहुत बड़ा होता है। लेकिन आरोपियों के खिलाफ सबूत नहीं होते। कोर्ट से यह उम्मीद नहीं की जाती कि जो चीज न दिखे उसे देखने की कोशिश करे।
मैं ऐसा जज रहा हूं, जिसके सामने राज्य के सर्वोच्च विधि अधिकारी भी एक मामले में जमानत की अर्जी लेकर पेश हुआ है। ऐसा इसलिए हुआ कि राज्य को को लग रहा था कि उसका केस कमजोर है। लेकिन वरिष्ठ अधिकारियों की उपस्थिति के बावजूद मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ा।
जमानत याचिका खारिज करना बेहद आसान है। खास कर तब और भी आसान,जब मामले को मीडिया में काफी हाईप मिला हो। जज राजनीतिक नेताओं की तरह व्यवहार नहीं कर सकते। मैंने राष्ट्रीय हित या राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे तर्कों पर कभी समर्पण नहीं किया। आम तौर पर आरोपी को अभियुक्त साबित करने के लिए इस तरह के तर्क दिए जाते हैं।
मैं अक्सर सीनियर लॉ ऑफिसर्स से कहता हूं कि मुझे सबूत दिखाइए। वे कहते हैं कि आरोपी दोषी है लेकिन हमारे पास इसे साबित करने के लिए सबूत नहीं है। इसमें मैं क्या कर सकता हूं। मैं भगवान तो नहीं हूं। अगर अपराधी धारणाओं के आधार पर तय किए जाने लगे तो गिरफ्तार किया जाने वाला हर व्यक्ति अपराधी होगा। तो फिर अदालत की क्या जरूरत है। ऐसे हर मामले की ज्यूडीशियल स्क्रूटिनी होनी चाहिए। प्रथम दृष्टया मामला बनना चाहिए। अगर नहीं है तो जमानत देनी होगी।
आजकल युवाओं पर अक्सर माओवादी होने का आरोप लगा दिया जाता है। यह हास्यास्पद है। वे स्कूल-कॉलेजों में फीस बढ़ाने के खिलाफ और गरीबी के खिलाफ बोलते हैं । इससे वे माओवादी नहीं हो जाते?
जिग्नेश शाह को बेल देने के फैसले का सुप्रीम कोर्ट ने भी समर्थन किया। एक बार मैंने अभियुक्त को दो साल की सजा काटने के बावजूद बेल नहीं दी। क्यों। इसलिए कि वह आरोपी रंगे हाथ पकड़ा गया था। दिक्कत यह है कि हाई फ्रोफाइल केस में अगर जमानत दे दी जाती है तो यह मीडिया हाइप बन जाता है। आपने पचासों गैर महत्वपूर्ण मामलों में जमानत दी होगी। लेकिन किसी एक मामले में हंगामा मच जाता है।
क्या बेस्ट बेकरी कांड की सुनवाई के दौरान आप पर दबाव था?
मुझ पर कोई दबाव नहीं था। लेकिन मुझे बहुत सारे पत्र मिलते थे। जिनमें लिखा होता था कि आपको एक हिंदू की तरह काम करना चाहिए। मुझे देश के पिछले 800 साल के इतिहास की याद दिलाई जाती थी और कहा जाता था कि यह बदला लेने का वक्त है। कुछ लोग कहते थे कि अगर मैंने आरोपियों को छोड़ दिया तो पूरा हिंदू समाज मेरा समर्थन करेगा। दूसरे कहते थे भगवान आपको इसका पुण्य देगा।
आपने मकोका के कई मामलों की सुनवाई की है। क्या आपको लगता है कि यह कानून जरूरी है?
अंडरवर्ल्ड की समस्या तो है और इससे निपटा भी जाना चाहिए। लेकिन मकोका बेहद खराब ढंग से बनाया कानून है। इसके प्रावधान स्पष्ट नहीं हैं। प्रावधान बेहद लचर और पुराने हैं। जैसे – अगर पुलिस के सामने कबूलनामे को आरोपी के खिलाफ सबूत मान लिया गया है। यही वजह है यूएपीए के तहत कानून में इसका गलत तरह से इस्तेमाल होता है। अगर न्यायपालिका और अभियोजन पक्ष अपना काम पेशेवर तरीके से करे तो ऐसे कानूनों की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
कई बेकसूर मुस्लिमों को आतंक के मामले में फंसाया गया है। क्या पुलिस ऐसे मामले में पक्षपात करती है?
आम हिंदुओं की तुलना में तो ऐसे मुसलमान ज्यादा नहीं हैं। फिर भी मैंने अपने सहयोगियों में खास कर निचली अदालतों में मुसलमानों के प्रति भेदभाव की भावना देखी है।
क्या आपको गंभीर अपराधों में मुस्लिमों को फंसाने के मामले नहीं दिखे हैं। ऐसे मामले जिनमें उनके खिलाफ संतोषजनक सबूत भी नहीं थे?
हां, ऐसे मामले रहे हैं लेकिन उन्हें जमानत मिली है। आखिरकार वे छूट गए है। मैं यह नहीं कहूंगा की आम पुलिस मुसलमानों को जानबूझ कर फंसा रही है। दिक्कत एटीएस और स्पेशल ब्रांच के काम करने के तरीके में है। वे बेहद सेंट्रलाइज तरीके से काम करती हैं। जांच शीर्ष अधिकारियों द्वारा होती है और इसके लिए काफी बड़े अफसरों की इजाजत लेनी होती है। जब मामले की जांच में बड़े अफसर शामिल होते हैं तो इसकी प्रामाणिकता और तरीके की जांच भी बेमतलब हो जाती है। अक्सर वे दोषियों को पकड़ नहीं पाते हैं और न उसके खिलाफ सबूत जुटा पाते हैं।
साभार – मुंबई मिरर