कुपोषण ले रहा है आदिवासी बच्चों की जान लेकिन ओडिशा सरकार बेपरवाह

Written by Golak Bihari Nath | Published on: February 15, 2017

खत्म होने की कगार पर पहुंच चुके ओडिशा के जुआंगा आदिवासियों के प्रति सरकार की घोर उपेक्षा पर आंख खोलने वाली रिपोर्ट

Odisha Tribals
 Tribal woman with child; all pics by GASS

उड़ीसा का जजपुर जिला। यहां सुखिंडा ब्लॉक के तहत आने वाली चिंगुड़ीपाला पंचायत का नागड़ा गांव। जुलाई से अगस्त, 2016 में यह गांव बच्चों की लगातार मौतों की वजह से राष्ट्रीय और राज्य के मीडिया में छाया रहा। इस मामले को पांच से छह महीने हो चुके हैं। गणतांत्रिक अधिकारी सुरक्षा संगठन ने 4 फरवरी, 2017 को इस गांव का दौरा किया। मकसद था नागड़ा गांव में कुपोषण की समस्या खत्म करने के लिए शुरू किए राज्य सरकार के मौजूदा कार्यक्रमों की खोज-खबर लेना।
 
इस टीम ने स्कीम के बारे में जानकारी के लिए चिंगुड़ीपाला के उपरा नागड़ा, माझी नागड़ा, ताला नागड़ा और नालियाडाबा गांवों का दौरा किया। दो महीने पहले हमारी टीम मलकानगिरी गांव गई थी, जहां पिछले कुछ महीनों के दौरान जापानी इंसेफलाइटिस के दौरान एक सौ से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई थी। जल्द ही हम ओडिशा में कुपोषण से बच्चों की मौतों के बारे में एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित करेंगे।

यहां हम नागड़ा गांव के दौरे के बाद जानी गई कुछ मोटी बातों के बारे में आपको जानकारी दे रहे हैं।
 
जुलाई, 2016 में ताला नागड़ा गांव के लक्ष्मी प्रधान के दो महीने के बेटे के पूरे शरीर में लाल फफोले उग आए। मुंह पर लाल चकते दिख रहे थे। खूब बुखार था। दस्त और उल्टी हो रही थी। बच्चे ने मां का दूध पीना छोड़ दिया था और इसके बाद 48 घंटे के अंदर उसकी मौत हो गई। ताला नागड़ा और माझी नागड़ा जैसे गांवों में दो महीने से लेकर चार साल के कई बच्चों में इसी तरह के लक्षण देखे गए।

कुछ ही सप्ताह के अंदर कई बच्चों को इस बीमारी ने दबोच लिया और इनमें से ज्यादातर दो से तीन दिन के अंदर मर गए। राज्य सरकार ने ऐसी 19 मौतों की पुष्टि कर दी थी। टीम ने  इस बात की पुष्टि की। बीमारी ने कुपोषण की वजह से बच्चों को घेरा और इस वजह से जापानी इंसेफलाइटिस के हमले में तुरंत उनकी मौत हो गई।

इन गांवों की महिलाओं से बातचीत के बाद पता चला कि 2016 तक इस गांव में भारत सरकार की पल्स पोलियो योजना नहीं पहुंच पाई थी। जब सरकार की उपेक्षा और लापरवाही की चारो ओर आलोचना होने लगी तो दो आंगनवाड़ी केंद्र खोले गए। अपने बच्चे को खो चुके नागड़ा गांव के लक्ष्मी प्रधान और उसकी पत्नी कमला प्रधान को आंगनवाड़ी केंद्र में भोजन बांटने का काम सौंपा गया। बगैर किसी औपचारिक ट्रेनिंग के। सरकार ने अब तक स्थायी आधार पर एक भी आंगनबाड़ी कार्यकर्ता की नियुक्ति नहीं की है।
 
ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने हालात संभालने के लिए एक टास्क फोर्स बनाई है, जिसमें कई नौकरशाह हैं। टास्क फोर्स में शामिल आईएएस अफसर महिला और बाल विकास विभाग के सचिव बिशाल कुमार देव ने कहा था कि नागड़ा गांव में स्थायी रूप से हेल्थ कैंप चलेगा। लेकिन जब हमारी टीम ने गांव का दौरा किया तो पाया कि महिलाएं और बच्चे बीमार हैं लेकिन उन्हें इलाज की सुविधा नहीं मिल रही है। सबसे नजदीक बिस्तरों वाला अस्पताल और कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर यहां से 50 किलोमीटर दूर सुखिंडा में है। एक मात्र पोषण केंद्र टाटा माइन्स नर्सिंग होम में खोला गया था। पिछले साल अगस्त में कालियापानी में खोला गया यह केंद्र अक्टूबर में बंद हो गया था।
 
कृषि और सहकारिता विभाग के प्रधान सचिव मनोज आहूजा ने कहा कि गांव वालों को चावल,केरोसिन और राशन का अन्य सामान दोगुनी मात्रा में मिलेगा। लेकिन यह सिलसिला दो महीने ही चला और अक्टूबर में बंद हो गया। गांव वालों ने बताया की नई खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के तहत उन्हें अब प्रति व्यक्ति पांच किलो चावल मिलता है।
 
इन हालातों पर गौर करने के बाद यह साफ हो गया है कि सरकार नागड़ा गांव के लोगों की समस्या नहीं सुलझाना चाहती। नागड़ा राजस्व गांव है और 1980 में इसका सर्वे और सेटलमेंट हुआ था। मालिकाना हक के रिकार्ड से पता चलता है कि 761.45 एकड़ के भौगोलिक इलाके में से सिर्फ 19.38 एकड़ जमीन निजी है। जबकि 681.6 एकड़ जमीन वन भूमि के तौर पर दिखलाई गई है।
 
यहां की आबादी जुआंगा आदिवासियों की है जिन्हें विशेष कमजोर आदिवासी समूह में रखा गया है। हाल की घटनाओं के बाद सरकार की ओर से वनाधिकार कानून 2006 को लागू करने में लापरवाही की बात सामने आने के बाद आनन-फानन में इस कानून के तहत जमीन के पट्टे बांटे जाने लगे।
 
हमारी टीम ने देखा कि कुछ ही परिवार को साल वनों में 8 डिस्मिल जगह मिली है। एक ही खाता संख्या और प्लॉट कई परिवारों को बांट दिए गए। टीम के सदस्यों के दौरे के दौरान पता चला कि इस कानून के तहत जमीन के हकदार परिवार अपनी जमीन की पहचान नहीं कर सके। इससे साफ हो गया कि राजस्व विभाग ने नियम-कानून और प्रक्रिया का ठीक से पालन नहीं किया। टीम के सदस्यों ने पाया कि इन लोगों एक ही खाता नंबर 6 और प्लॉट नंबर 174 में जमीन दी गई। जब हमारी टीम के लोगों ने इस बारे में पूछताछ की थी तो जिन लोगों को जमीन मिलनी थी, वे इसे पहचान भी नहीं पाए। इसका साफ मतलब था कि जमीन बांटने की प्रक्रिया का ठीक से पालन नहीं हुआ।


 
हालांकि सरकार का दावा है कि वह जुआंगा आदिवासियों को खेती करने के लिए प्रेरित कर रही है। इसे आजीविका का मुख्य साधन बनाने को कह रही है। लेकिन इसने अब तक उन्हें जमीन का सही पट्टा नहीं दिया है।

वनाधिकार कानून के तहत ये परिवार आठ से दस एकड़ खेती की जमीन के अधिकारी हैं। गांव वालों का कहना है कि वे आठ से नौ महीने की आजीविका का लिए जंगल पर निर्भर हैं। ये आदिवासी जंगल से कंद-मूल, फल और पत्ते इकट्ठा करते हैं। उन्होंने हमारी टीम को यह सब दिखाया। लेकिन सरकार ने आदिवासियों के पास उनकी ही जमीन का कोई सामुदायिक अधिकार नहीं है।

जुआंगा आदिवासी भले ही खतरे में पड़े आदिवासी समुदाय के तहत आते हैं लेकिन सरकार की ओर से उनके सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को संरक्षित करने की बहुत कम कोशिश की गई  है। इसके बजाय केंद्र और राज्य सरकारों ने आदिवासियों की जिंदगी से खिलवाड़ करना शुरू कर दिया है। हालांकि ये जुंआगा आदिवासियों के कल्याण के लिए कदम उठाने के दावे करती रही है। सरकार की ओर से अब तक उन्हें ठीक तरह से चिकित्सा सुविधा भी मुहैया नहीं कराई गई है। हालांकि सरकारी अमला लगातार जुआंगा आदिवासियों की कुपोषण की समस्या सुलझाने की कोशिश का दावा करता आ रहा है। लेकिन सरकार ने अभी भी उन्हें ठीक से मेडिकल सुविधा तक नहीं मुहैया कराया है।
 
इस बीच ग्रामीण विकास मंत्रालय हरिचानपुर तेलेकोई रिजर्व फॉरेस्ट इलाके से होकर 10 से 14 मीटर चौड़ी सड़क बनाने की बड़ी योजना लेकर सामने आया है। सड़क की ठेकेदार कंपिनयों ने काम शुरू भी कर दिया है और इस प्रक्रिया में हैवी मशीनरी से सैकड़ों पेड़ों को उखाड़ दिया है। यह सड़क नागड़ा गांव से होकर गुजरेगी। गांव वालों को साल भर चलने वाली सड़क चाहिए। इसके बदले उन्हें मिलेगी ऐसी चौड़ी सड़क जो कामखाप्रसाद से गुजरते हुए कालियापानी क्रोमाइट माइन्स को नालको एल्यूमीनियम शहर आंगुल से जोड़ेगी। सड़क के लिए काम करने वाले श्रमिकों के मुताबिक इस योजना पर भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय और उड़ीसा सरकार कई सौ करोड़ रुपये का निवेश कर रही है।
 
सरकारी अधिकारियों ने कई मौकों पर जुआंगा आदिवासियों से सरकार की नीतियों पर भरोस करने और जंगल छोड़ने के लिए कहा है। वे लगातार इस बात पर जोर देते रहे हैं कि आदिवासी खदान क्षेत्र के पास मैदानी इलाकों में आकर बस जाएं।


 
एक टीवी इंटरव्यू में प्रफुल्ल घड़ेई ने कहा कि जो हालात हैं उसके लिए जुआंगा आदिवासी भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं। हमने उन्हें मैदान में बस जाने के लिए प्रेरित किया। उन्हें मकान और जमीन देने का वादा किया गया। लेकिन उन्होंने मैदान में बसने से इनकार कर दिया।

सवाल यह है कि क्या सरकार ने हीराकुड डैम समेत तमाम बड़ी परियोजनाओं से विस्थापित हुए चार लाख आदिवासियों का पुनर्वास किया। जजपुर जिले में ही कलिंगनगर औद्योगिक क्षेत्र के आदिवासी आज भी न्याय पाने के लिए दर-दर भटक रहे हैं। ऐसे में जुआंगा अपनी जंगल की जमीन क्यों छोड दें। उनके जंगल छोड़ कर मैदान में बस जाने से किसे फायदा होगा।
 
हमारी टीम के सदस्यों को सरकार की ओर से रिजर्व फॉरेस्ट के अंदर सड़क बनाने के सरकार के इरादे पर संदेह है। नागड़ा गांव की 15-20 किलोमीटर की परिधि में 12 कंपनियों की 13 क्रोमाइट खदानें हैं। इनमें टाटा की सुखिंडा क्रोमाइट खदान, जिंदल की क्रोमाइट खदानें, बिड़ला की बालासोर एलॉयज लिमिटेड, आईएमएफ, सुखिंडा माइन्स, कालियापानी माइन्स, ओडिशा माइन्स कॉरपोरेशन की धनेश्वर माइन्स ( उड़ीसा सरकार का उपक्रम), इडकोल, मिश्रिनाल क्रोमाइट माइन्स और बीसी मोहंती एंड सन्स क्रोमाइट माइन्स शामिल हैं।
 
इन कंपनियों ने इस पूरे इलाके के विकास के लिए कुछ नहीं किया है। यहां तक कि वनारोपण भी नहीं किया है और न ही कोई हेल्थ केयर सेंटर खोला है। लेकिन अब सरकार ‘कुपोषण की समस्या सुलझाने’ के लिए सरकार इस औद्योगक क्षेत्र में एक चौड़ी सड़क बनाना चाहती है। अगर ऐसा होता है तो जुआंगा आदिवासी इस इलाके से पूरी तरह उखाड़ दिए जाएंगे।
 
यह बेहद त्रासदी भरा है कि सरकार ने नागड़ा ने एक आंगनवाड़ी केंद्र, प्राइमरी स्कूल और हेल्थ सेंटर तक नहीं खोला है।  लेकिन करोड़ों रुपये खर्च कर सड़क बनवा रही है। इस सड़क के बनने से हजारों पेड़ कट जाएंगे। ये जंगल ही जुआंगा आदिवासियों की जीविका के आधार हैं।
 
इन हालातों को देखते हुए हमारी टीम ने ये मांगें रखी हैं
 
  1. पर्याप्त पेयजल, सह स्वास्थ्य सुविधा और शिक्षा हर व्यक्ति का अधिकार है। नागड़ा गांव के हर शख्स को ये चीजें मुहैया कराई जाएं। 
  2. सड़क का निर्माण तुरंत रोका जाए। गांव की सड़क तुरंत बनाई जाए। 
  3. रिजर्व फॉरेस्ट के अंदर ज्यादा फलदार पेड़ लगाए जाएं जो जुआंगा आदिवासियों के काम आ सकें।
  4. सरकार को पल्ली सभा का आयोजन कर जंगल की जमीन के पट्टे बांटने चाहिए। साथ आदिवासियों को इन जमीन पर सामुदायिक अधिकार दिए जाएं।
  5. सरकार नए खनन पट्टे जारी करना तुरंत बंद करे। साथ ही मौजूदा खदानों का काम की समीक्षा करे। इस सिलसिले में वह औद्योगिक प्रदूषण और मौजूदा जुआंगा आदिवासियों की जीवनशैली का भी ध्यान रखे।
 
हमें उम्मीद है कि सरकार संविधान की पांचवीं अनुसूची का आदर करेगी और अपने रवैये में सुधार करेगी।
 
( यह रिपोर्ट, गणतांत्रिक अधिकार सुरक्षा संगठन, ओडिशा-भुवनेश्वर, के कार्यकारी अध्यक्ष डॉ. गोलक बिहारी नाथ ने तैयार की है।)

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