महिलाओं को सब कुछ बदल देने की शुरुआत अब कर देनी चाहिए………….!

Written by Zulaikha Jabeen | Published on: October 16, 2019
पिछले महीने लखनऊ की एक ख़ातून रेशमा सिद्दीक़ी ने, प्रेस कॉन्फ्रेंस करके, अपनी शादीशुदा ज़िंदगी से ख़ुद को आज़ाद करने का ऐलान करते हुए, मीडिया के ज़रिए अपने शौहर को "ख़ुलानामा" भेज दिया.



रेशमा सिद्दीक़ी पिछले 13 बरस 7 महीने (24 फ़रवरी 2006 से सितम्बर 2019) से घरेलू हिंसा से पीड़ित थीं, अपने शौहर को समझाने की हर कोशिश करके देख लेने और उसमें नाकाम होने के बाद रेशमा ने शौहर के ज़ुल्मो-सितम को मानने से सिर्फ़ इंकार ही नहीं किया बल्कि इस्लाम में बीवी को दिए गए हक़ों में से एक "ख़ुला" का इस्तेमाल करते हुए शौहर (शारिक सिद्दीक़ी) के साथ अपने निकाह को ख़त्म करते हुए उसे अपनी ज़िन्दगी से बाहर कर दिया।   

रेशमा ने अपनी शादीशुदा ज़िंदगी को एक ज़ालिम मर्द के साथ रिश्ते में रहते हुए घुट-घुट कर गुज़ारने से बेहतर अपनी बेटी के साथ सुकून की ज़िन्दगी बसर करने का रास्ता चुना. रियल इस्लामी तरीक़े से रेशमा ने स्थापित, मौजूदा पारम्परिक समाज में जिस तरह ये पहल की है वो अपने आप में क्रन्तिकारी होने के साथ ही चुनौती भरा क़दम है.  

एक ऐसे वक़्त में जब एक वक़्त में ज़ुबानी तौर पर बोले गए (तीन) तलाक़ को अपराध मानते हुए बीवी की शिकायत भर से शौहर को जेल की सलाख़ों के पीछे पहुंचाया जा सकता है- उस वक़्त रेशमा सिद्दीक़ी का निकाह से आज़ाद होने के लिए अपने शरई "ख़ुला" हक़ का इस अंदाज़ में (पब्लिकली) इस्तेमाल- करना तो दूर, सोचना ही बहुत बड़ी बात है. रेशमा की हिम्मत को सलाम. उनके इस इंक़लाबी क़दम की “धमक” मौजूदा वक़्त से बहुत दूर तलक जाएगी.

ग़ौर करने लायक़ बात है कि जहाँ एक तरफ़ सामंती भारतीय मुसलमान और उनकी क़ायम की गई "मर्दाना अदालत" (क़ज़ियात) पर रेशमा का ये क़दम ज़बरदस्त चोट कर गया है वहीं दूसरी तरफ़ आम भारतीय मुसलमान औरतों के पैरों से समाज और झिझक, ख़ुद को असहाय समझने के एहसास की बेड़ियाँ काट कर, उसकी ख़ुद्दारी, ख़ुशियों और सुकून की आज़ादी का पैग़ाम भी देता है.  यही नहीं, रेशमा के क़दमों की “धमक” तमाम सोशल एक्टिविस्टों, महिला आंदोलनों के लिए एक हेल्दी, ईमानदार और सार्थक बहस के दरवाज़े भी खोलता है.  आंखों में नास्तिकता का चश्मा चढ़ाए, सिर्फ़ ख़ुद के प्रोग्रेसिव, समझदार होने का झूठा दम्भ पाले वे तमाम श्रेष्ठी वर्ग, जिनकी ज़हनियत (मानसिकता) में मुसलमान औरत बेचारी, प्रताड़ित, मज़हबी तौरपर लाचार, दबाई गई, कुचली गई रही है- रेशमा के फ़ैसले की गूँज उनके लिए भी ख़बरदार हो जाने की वजह बनेगी.

मर्दवादी भारतीय क़ज़ियात (शरई अदालत) और उसमें बिराजे मज़हबी "ठेकेदारों" को भी एक ख़ामोश मगर दहाड़ती चुनौती देता है रेशमा का ये क़दम.   

ये कहने में कुछ ग़लत नहीं कि आज भी ज़्यादातर भारतीय शरई अदालतें, दारुल क़ज़ा क़ुरआन के क़ायदे-क़ानून पर नहीं बल्कि मनुस्मृति आधारित पति-परमेशवर, बीवी-अर्धांगिनी और मालिक-दास के अमानवीय, ग़ैर इंसानी, अलिखित कान्सेप्ट को प्रैक्टिस करने के लिए मुस्लिम औरतों, उनके बेबस, ग़रीब रिश्तेदारों को मजबूर करती आ रही है.

हमारे मुल्क में जब जब दीने इस्लाम की सही (क़ुरआनिक) समझ रखने वाले (मर्द/औरतें) लोगों ने, औरतों के बराबर से इंसानी हुक़ूक़ (अधिकारों), उनकी वसीयतों और उनके रिश्ते के मर्दों की ज़िम्मेदारी के क़ुरआनी हुक्म पर समाज में चेतना जगाने या समझाईश देने की कोशिश की, विक्टिम औरतों के साथ, उनकी आवाज़ में ईमानदार, प्रोग्रेसिव आवाज़ें मिलाने की थोड़ी भी कोशिश की गयी, तब तब उन्हें ख़ामोश करने के लिए (ग़ैर क़ुरआनी) शरई अदालतों की तरफ़ से फ़तवों की दबंगई के हमले किये जाने लगते. शाहबानो से लेकर आज तक ये मर्दवादी अदालतें और स्वयंभू पर्सनल लॉ बोर्ड और सिर्फ़ परम्पराओं को इस्लाम मानने वाली इनकी जाहिल भीड़ ने ततैयों की तरह क़ुरआन के तौर तरीक़ों से हक़ का पैग़ाम देने वालों को दुश्मने इस्लाम की तरह ट्रीट किया है.  

वे तमाम लोग जो हिन्दू औरतों को धार्मिक तौर पर मुसलमान औरतों से ज़्यादा अधिकार संपन्न मानते हैं उन सभी के लिए रेशमा का ये क़दम आश्चर्य में डालने वाला है।

1500 बरस पुरानी किताब (क़ुरआन)/ बातों को न मानने की सलाह देने वाले और उसे छोड़कर आगे बढ़ने की (दबी ज़ुबान में धमकी देने वाले) बात कहने वाले हमारे कुछ अज्ञानी मित्रों को यहाँ ये बताना ज़रूरी हो जाता है के आज़ादी के 2 बरस पहले तक भी (1945 - 46) हमारे मुल्क में मुसलमान औरत क़ुरआन में दिए गए अपनी आज़ादी के हक़ "ख़ुला" हक़ का इस्तेमाल करती रही है. आज भी हमारे मुल्क के कुछ अमीर अशराफ (उच्च वर्णों) तबक़ों के मर्द अपनी बहन और बेटियों से "ख़ुला" का इस्तेमाल अपनी मर्ज़ी (ज़बरदस्ती) से शौहर या उसके ख़ानदान को सबक़ सिखाने के लिए करवाते हैं-जो निहायत शर्मनाक हरकत है. 

रेशमा का ये इंक़लाबी क़दम मर्दों की बनाई/ चुनी गई शरई अदालतों में बैठे मर्दों और मर्दानगी का दस्तख़त बनीं उन तमाम औरतों के लिए भी ये एलान करता है कि क़ुरआन में मौजूद ग़ौरो-फ़िक्र की हिदायत को अपनाते हुए औरतों और उनके बच्चों के हक़ में सच्चाई और इंसाफ़ के लिए मुंह खोलो वर्ना सात जन्मों वाली (ग़ैर इस्लामी) परम्पराओं से जूझ रही मुसलमान औरतें अपने इस्लामी हक़ों का इस्तेमाल करने लगेगी, फ़िर चाहे वो शौहर से अलग होने का मसला हो या बाप, भाई, शौहर या बेटों की बनायीं जायदाद में अपने अल्लाह द्वारा तय किये गए हिस्से का हक़ लेने का मसला हों आज की मुसलमान ख़ातून अपना हक़ छीन लेने में अब नहीं चूकेगी.  

कितनी अच्छी, मानवीय, क़ाबिले फ़ख्र और हम सभी के लिए ग़ौर करने वाली बात है के इस्लाम में क़ुरआन के ज़रिए अपनी औरतों को उसकी ज़िन्दगी में आने वाले हर रिश्ते (मां, बेटी, बहन, बीवी)में सम्मान, बराबरी (आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक तौर पर) से फ़ैसले लेने का सिर्फ़ हक़ ही नहीं दिया गया है बल्कि उसके रिश्ते के हर मर्दों पर औरतों के लिए गए फ़ैसलों (सामाजिक, सांस्कृतिक चलन/परंपरा के मुताबिक़) का सम्मान करते हुए उस पर अमल (यथासंभव) करने/ करवाने की ज़िम्मेदारी भी डालता है. यही नहीं लड़की की मर्ज़ी के बग़ैर ज़बरदस्ती कर दिए गए निकाह को अपनी तरफ़ से ख़ारिज करवाने का सीधा एकतरफ़ा हक़ भी उस औरत के पास है.

क़बीलाई समाजों में अक्सर कम उमरी में, ख़ानदानों की दोस्ती को रिश्तेदारी में बदलने के लिए निकाह कर दिए जाते हैं लेकिन होश की उम्र आने के बाद लड़की उस रिश्ते से इंकार करते हुए वो रिश्ता ख़तम कर सकती है, दूसरा निकाह कर सकती है.  (मौजूदा वक़्त में ऐसी कई घटनाओं को गूगल की  मदद से आसानी से देखा जा सकता हैं)   

ये कहने में कोई झिझक नहीं कि दुनिया का इकलौता मज़हब इस्लाम ही है जहां क़ुरआन के ज़रिये विधवा या तलाक़शुदा औरतों से निकाह करने वाले मर्दों को सम्मान दिया गया है. ऐसी औरतों के लिए बस यही शर्त है के वे अपने इद्दत (रोके जाने वाले दिन) पूरी करके दूसरा निकाह कर सकती हैं. (विधवा के लिए 4 माह 10 दिन, तलाक़शुदा के लिए 3 माह 10 दिन- वो भी इसलिए के अगर औरत प्रेग्नेंट है तो फिर आने वाले बच्चे की विरासत, आर्थिक प्रोटेक्शन और उसके चाइल्ड राईट का निर्धारण तय किया जा सके.    

अब ये रौशन हक़ीक़त (सच) है कि क़ुरआन में इंसानियत, जेंडर बराबरी के साथ ही बहोत सारे टॉपिक और मसलों पर बात की गयी है. फ़िलहाल हम यहां क़ुरआन में औरतों के हक़, औरतों तक पहुँचाने के लिए उनके रिश्तेदार मर्द को ज़िम्मेदार बनाए जाने को लेकर बात कर रहे हैं, जो दूसरी मज़हबी कहाँ जाने वाली किताबों में देखने को नहीं मिलता. लेकिन ज़मीनी कड़वी सचाई ये है कि हमारी सामाजिक प्रैक्टिस में ऐसा कुछ भी होता हुआ दिखलाई नहीं पड़ता. आमजन की नकारात्मक धारणा "जो दिखता है" उसी से क़ायम होती है. तो फ़िर भारतीय मुस्लिम औरतें मनुस्मृति आधारित चतुर्वर्णीय, सामाजिक, सांस्कृतिक मकड़जाल से कैसे आज़ादी हासिल करेंगी? इसका जवाब सीधी रेखा में नहीं बल्कि सिलसिलेवार पायदान (सीढ़ियों) की शक्ल में दिया जा सकता है. मुस्लिम ख़वातीन को सबसे पहले अपने घर में ढंक कर रखे गए क़ुरआन को समझकर पढ़ना, सीखना होगा. इसके साथ ही दुनिया के दूसरे इस्लामिक मुल्कों के पर्सनल लॉ में किये गए संशोधनों, बदलावों को जानना, समझना होगा, उसपर ग़ौरो फ़िक्र करते हुए अपने इल्म को समाज के अंतिम छोर में प्रताड़ित होती ख़ातूनों तक भी पहुँचाना होगा.  

यक़ीनन ये काम दो चार हफ़्तों, कुछ महीने, साल का नहीं है बल्कि बरसों बरस, पीढ़ियां सुधारने का ये काम बतौर एक तहरीक, मुहिम के तौर पर चलाई जानी होगी जिससे हमारी अगली पीढ़ी, पिछली ज़िन्दगी और उसके मायने बदले जा सकें. अपनी आने वाली पीढ़ियों को अमनों इन्साफ़ की रौशनी देने के लिए हम सभी बाशऊर मुसलमानों को कम से कम आज से ही "जलना" पड़ेगा. बक़ौल शायर –

 "ख़ुद बदल जायेगा सब ये सोचना बेकार है

सबकुछ बदल देने की अब शुरुआत करनी चाहिए…."

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