देश की निर्वाचित, बहुमत प्राप्त लोकप्रिय सरकार ने नागरिकता संबधी कानून सीएए बनाया है। संसद में देश के गृहमंत्री ने क्रोनोलॉजी बताई है और फिर उसे झुठला दिया गया है। बेहद तेजी से बना कानून देश के बहुत सारे नागरिकों को गलत लगता है, संविधान की मूल भावना के खिलाफ लगता है। इसे वापस लेने की मांग पर धरना-प्रदर्शन चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट में याचिका पर सुनवाई होनी है। सुप्रीम कोर्ट में मामला होने के बावजूद रामजन्म भूमि का मामला वर्षों नहीं निपटा। ऐसे में कोई अनुमान नहीं लगा सकता है कि सीएए की संवैधानिकता पर फैसला कब तक हो जाएगा। मेरे ख्याल से मोटे तौर पर सारा विवाद इस कारण है कि इसे एक धर्म विशेष के खिलाफ माना माना जा रहा है। सभी धर्मों, धर्म के आधार पर भेदभाव के बिना लिखने की जगह धर्मों के नाम लिखे गए हैं। संविधान के बारे में आम लोगों की मोटी समझ यही है कि इसमें धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं है। इसीलिए इसके विरोध को इतना समर्थन मिल रहा है। लाठी-गोली खाकर, गालियां सुनकर और बिरयानी खाने-खिलाने के झूठे और फूहड़ आरोपों के बावजूद।
ऐसे में रास्ता क्या है? हम किससे शिकायत करें? कहां जाएं? हमारी चिन्ता किसे है? हमारे साथ कौन है? सामान्य स्थिति में भी धरना कोई शौक से नहीं देता है। धरना देना समय खराब करना है। उत्पादक काम करने की बजाय सरकार को कोसना है, जिसे हमने बनाया है, जो हमारे ही समर्थन से चलती है। पर उसके कुछ लोगों ने सीएए को नाक का सवाल बना लिया है। इसलिए नहीं कि उनकी नाक बहुंत ऊंची है। इसलिए कि इससे धार्मिक आधार पर लोगों को बांटा जा सकता है, ध्रुवीकरण हो सकता है और राजनीतिक लाभ मिल सकता है। कहा जाता रहा है, हमें पढ़ाया और बताया गया है कि हमारे संविधान में बहुत सारे चेक एंड बैलेंस हैं, कोई मनमानी नहीं कर सकता। पर हो क्या रहा है। जिन्हें संविधान पर भरोसा है, वो मान रहे हैं कि स्थिति सुधरेगी और विरोध के अहिसंक गांधीवादी तरीके पर अड़े हुए हैं। पर लोकतंत्र के चार स्तंभों की भूमिका क्या है?
आइए, आज इसे अखबारों के पहले पन्ने के शीर्षक से देखें और चूंकि शीर्षक में सुप्रीम कोर्ट की चिन्ता भी है इसलिए उसकी भी प्राथमिकताओं को समझने की कोशिश करें। क्या यह वाकई ऐसा है जैसा अखबारों में दिख रहा है। या सुप्रीम कोर्ट के मामले में भी अखबारों की खबरें राजनीतिक खबरों की तरह एकतरफा हैं। सबसे पहले सीएए के खिलाफ जामिया के छात्रों और आस-पास रहने वाले का मार्च। द टेलीग्राफ की पहले पन्ने की खबर के अनुसार, दिसंबर में सीएए कानून पास होने के बाद यह चौथी कोशिश थी। पिछली बार कई पुलिस वालों के सामने एक छात्र, शादाब फारूक को एक कट्टाधारी ने गोली मार दी जो खुद को रामभक्त कह रहा था। दिसंबर में यह कानून पास होने के बाद दिल्ली में चुनाव होने थे शुरू हुए तो सीएए के खिलाफ धरना राजनीतिक नफा-नुकसान का मामला लगने लगा। प्रधानमंत्री ने कहा कि यह संयोग नहीं प्रयोग है। शायद इसी कारण धरना चलने दिया गया या चल पा रहा है। वरना पुलिस देशभर में धरना देने वालों को कैसे खदेड़ती है वह किसी से छिपा नहीं है।
इसके अलावा सीएए के खिलाफ कोई विरोध टिक नहीं पा रहा है। सीएए चूंकि चुनावी मुद्दा बन गया इसलिए चुनाव आयोग ने इलाके के डीसीपी को हटा दिया। उनकी जगह आए डीसीपी आरपी मीना ने टेलीग्राफ की खबर के अनुसार कल यह सुनिश्चित करने की कोशिश की कि पुलिस वाले नियमों के अनुसार काम करें और खुद मेगा फोन पर पुलिस वालों को हिदायत देते रहे। पर मार्च नहीं निकल पाया। पुलिस वालों ने 30 लोगों को पीट-पाट कर अस्पताल पहुंचा दिया। लड़कियों को बेशर्मी से बेदर्दी के साथ पीटा गया उनके यौनांगों पर हमला किया गया। पर आज दिल्ली के अखबारों में पहले पन्ने पर खबर नहीं है। जहां है वहां पुलिस की हिंसा शीर्षक में नहीं है। दिल्ली की खबर कोलकाता के टेलीग्राफ ने पहले पन्ने पर छापी है लेकिन दिल्ली में प्रसार ज्यादा होने का दावा करने वाले अखबारों में ऐसी खबर छापने के मामले में कोई प्रतिद्वंद्विता नहीं दिख रही है। हिन्दुस्तान टाइम्स में आरक्षण को लेकर केंद्र और विपक्ष के टकराव की खबर लीड है।
टाइम्स ऑफ इंडिया की चिन्ता वही है जो सुप्रीम कोर्ट की है, “क्या प्रदर्शनकारी अनिश्चितकाल तक सड़क जाम रख सकते हैं?” नवोदय टाइम्स का शीर्षक है, विरोध लोगों का हक लेकिन सड़क नहीं रोक सकते। कहने की जरूरत नहीं है कि विरोध या धरना देने की जगह निर्धारित नहीं है। जो है वह व्यावहारिक नहीं है और उसके लिए पैसे लिए जाते हैं। कहने का मतलब है कि जिस धरने को आसानी से लाठी मार कर उठाया जा सकता है वह राजनीतिक कारणों से चल रहा है और उसपर तरह-तरह की चिन्ता जताई जा रही है पर वो चिन्ता नहीं जताई जा रही है जो धरने से संबंधित है या धरने के कारण है। सरकार यह कह चुकी है कि संसद में पास कानून के खिलाफ सड़क पर धरना देना ठीक नहीं है। पर यह धरना इसलिए चल रहा है कि यह असंवैधानिक माना जा रहा है और असंवैधानिक है कि नहीं इसे सुप्रीम कोर्ट में तय होना है और मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। मेरे ख्याल से सुप्रीम कोर्ट उस फैसले पर साफ आदेश दे सकती है और धरना की आवश्यकता या वैधता भी उसी से तय हो सकेगी।
आज केअखबारों की बात करूं तो दैनिक भास्कर की चिन्ता या प्रमुखता का सवाल यह भी है कि क्या प्रदर्शन करने चार महीने का बच्चा भी गया था। यह सवाल सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का है जिसे अखबार ने पूरी प्रमुखता से छापा है। दिल्ली की घटनाएं इस अखबार के लिए पहले पन्ने की खबर नहीं है उन्हें दिल्ली के खबरों के पन्ने पर ही छापा गया है। अखबार के अनुसार, शाहीनबाग में प्रदर्शन के दौरान मां के साथ लाए गए (जैसे मां के पास नहीं लाने का कोई विकल्प था और उसे जबरन गिनती बढ़ाने या धरना देना सिखाने के लिए लाया गया हो) चार माह के बच्चे की ठंड से मौत पर बहादुरी पुरस्कार से अलंकृत छात्रा ज़ेन गुणरत्न सदावर्ते की चिट्ठी पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया है। मेरा मानना है कि सीएए के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान उत्तर प्रदेश पुलिस ने बनारस में रवि शेखर और उनकी पत्नी एकता शेखर को भी गिरफ्तार किया था तो उनकी14 महीने की बच्ची चंपक (आर्या) माता-पिता को जमानत नहीं मिलने के कारण 14 दिन परेशान रही। यह इसमें छूट गया है।
आप जानते हैं कि प्रदर्शन करने गए दंपत्ति को कोई अनुमान नहीं था कि उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा और जमानत भी नहीं मिलेगी। अमूमन ऐसा नहीं होता है और यह एक अनूठा मामला था। 19 दिसंबर 2019 को गिरफ्तार दंपति को 14 दिन बाद जमानत मिली। पुलिस ने उनके खिलाफ संगीन धाराएं लगाई। अदालतों में छुट्टी रहने की वजह से जमानत पर सुनवाई देर से हुई। वेबदुनिया से बातचीत में रविशेखर के भाई शशिकांत ने कहा था कि उन्होंने चेतगंज के एसएचओ प्रवीण कुमार से बात की तो उन्होंने चंपक को जेल में शिफ्ट करने की बात कही थी। सुप्रीम कोर्ट जब ऐसे मामले देख ही रही है तो इसपर भी विचार होना चाहिए ताकि आगे के लिए कोई रास्ता निकल सके। मुझे याद है, कहीं पढ़ा था कि पहली तारीख पर जमानत इसलिए नहीं हुई कि पुलिस ने चार्जशीट दायर नहीं की थी। मेरा मानना है कि यह मामला भी उतना ही गंभीर है और बच्चों के संबंध में कोई दिशानिर्देश जारी हो तो इसका भी ख्याल रखा जाए।
हालात ऐसे हैं कि सीएए के विरोधियों को सिपाही भी आजादी देने लगे हैं (टेलीग्राफ का शीर्षक) और कोई अपने छोटे बच्चे के साथ ठंड में धरना देने को मजबूर हो तो भी माहौल उसी के खिलाफ। उत्तर प्रदेश में सीएए का विरोध करने वाले कई लोग पुलिस की गोली से मारे गए उसकी चिन्ता किसी को नहीं है। कहीं कोई चर्चा नहीं है। अमर उजाला के दिल्ली संस्करण में, "कोई हमेशा के लिए सड़ नहीं रोक सकता" और "क्या चार माह का बच्चे प्रदर्शन करने गया था" शीर्षक से दो खबरें चार-चाल कॉलम में टॉप पर हैं। लेकिन सीएए के खिलाफ प्रदर्शनकारी लड़कियों के जननांगों पर लाठी मारने की खबर पहले पन्ने पर नहीं है। दैनिक जागरण ने सड़क रोक कर लोगों को परेशान नहीं कर सकते सुप्रीम कोर्ट शीर्षक खबर सात कॉलम में टॉप पर लगाई है। जागरण की लीड भी सुप्रीम कोर्ट की खबर है, फैसला कोर्ट का, घमासान संसद में। लेकिन जामिया के छात्रों की पिटाई की खबर यहां भी पहले पन्ने पर नहीं है। यह छात्रों या सीएए विरोधियों को महत्व नहीं देने का मामला हो सकता है पर इसकी आड़ में दिल्ली पुलिस और उसके कारकुनों की उद्दंडता को प्रश्रय मिल रहा है।
नवभारत टाइम्स में, गार्गी में प्रदर्शन, संसद में गूंज, मंत्री बोले - बाहरी थे, एफआईआर दर्ज और जामिया से संसद मार्च के लिए निकले तो पुलिस से झड़प शीर्षक दो खबरें पहले पन्ने पर हैं। दोनों दो कॉलम में हैं, छोटी हैं पर फोटो के साथ हैंऔर पुरानी खबर बड़ी तो कल की खबर छोटी है, लेकिन है। हिन्दुस्तान में पहले पन्ने पर जामिया में पुलिस से झड़प, 30 घायल शीर्षक खबर तीन कॉलम में है जबकि गार्गी कॉलेज की खबर सिंगल कॉलम में है।
ऐसे में रास्ता क्या है? हम किससे शिकायत करें? कहां जाएं? हमारी चिन्ता किसे है? हमारे साथ कौन है? सामान्य स्थिति में भी धरना कोई शौक से नहीं देता है। धरना देना समय खराब करना है। उत्पादक काम करने की बजाय सरकार को कोसना है, जिसे हमने बनाया है, जो हमारे ही समर्थन से चलती है। पर उसके कुछ लोगों ने सीएए को नाक का सवाल बना लिया है। इसलिए नहीं कि उनकी नाक बहुंत ऊंची है। इसलिए कि इससे धार्मिक आधार पर लोगों को बांटा जा सकता है, ध्रुवीकरण हो सकता है और राजनीतिक लाभ मिल सकता है। कहा जाता रहा है, हमें पढ़ाया और बताया गया है कि हमारे संविधान में बहुत सारे चेक एंड बैलेंस हैं, कोई मनमानी नहीं कर सकता। पर हो क्या रहा है। जिन्हें संविधान पर भरोसा है, वो मान रहे हैं कि स्थिति सुधरेगी और विरोध के अहिसंक गांधीवादी तरीके पर अड़े हुए हैं। पर लोकतंत्र के चार स्तंभों की भूमिका क्या है?
आइए, आज इसे अखबारों के पहले पन्ने के शीर्षक से देखें और चूंकि शीर्षक में सुप्रीम कोर्ट की चिन्ता भी है इसलिए उसकी भी प्राथमिकताओं को समझने की कोशिश करें। क्या यह वाकई ऐसा है जैसा अखबारों में दिख रहा है। या सुप्रीम कोर्ट के मामले में भी अखबारों की खबरें राजनीतिक खबरों की तरह एकतरफा हैं। सबसे पहले सीएए के खिलाफ जामिया के छात्रों और आस-पास रहने वाले का मार्च। द टेलीग्राफ की पहले पन्ने की खबर के अनुसार, दिसंबर में सीएए कानून पास होने के बाद यह चौथी कोशिश थी। पिछली बार कई पुलिस वालों के सामने एक छात्र, शादाब फारूक को एक कट्टाधारी ने गोली मार दी जो खुद को रामभक्त कह रहा था। दिसंबर में यह कानून पास होने के बाद दिल्ली में चुनाव होने थे शुरू हुए तो सीएए के खिलाफ धरना राजनीतिक नफा-नुकसान का मामला लगने लगा। प्रधानमंत्री ने कहा कि यह संयोग नहीं प्रयोग है। शायद इसी कारण धरना चलने दिया गया या चल पा रहा है। वरना पुलिस देशभर में धरना देने वालों को कैसे खदेड़ती है वह किसी से छिपा नहीं है।
इसके अलावा सीएए के खिलाफ कोई विरोध टिक नहीं पा रहा है। सीएए चूंकि चुनावी मुद्दा बन गया इसलिए चुनाव आयोग ने इलाके के डीसीपी को हटा दिया। उनकी जगह आए डीसीपी आरपी मीना ने टेलीग्राफ की खबर के अनुसार कल यह सुनिश्चित करने की कोशिश की कि पुलिस वाले नियमों के अनुसार काम करें और खुद मेगा फोन पर पुलिस वालों को हिदायत देते रहे। पर मार्च नहीं निकल पाया। पुलिस वालों ने 30 लोगों को पीट-पाट कर अस्पताल पहुंचा दिया। लड़कियों को बेशर्मी से बेदर्दी के साथ पीटा गया उनके यौनांगों पर हमला किया गया। पर आज दिल्ली के अखबारों में पहले पन्ने पर खबर नहीं है। जहां है वहां पुलिस की हिंसा शीर्षक में नहीं है। दिल्ली की खबर कोलकाता के टेलीग्राफ ने पहले पन्ने पर छापी है लेकिन दिल्ली में प्रसार ज्यादा होने का दावा करने वाले अखबारों में ऐसी खबर छापने के मामले में कोई प्रतिद्वंद्विता नहीं दिख रही है। हिन्दुस्तान टाइम्स में आरक्षण को लेकर केंद्र और विपक्ष के टकराव की खबर लीड है।
टाइम्स ऑफ इंडिया की चिन्ता वही है जो सुप्रीम कोर्ट की है, “क्या प्रदर्शनकारी अनिश्चितकाल तक सड़क जाम रख सकते हैं?” नवोदय टाइम्स का शीर्षक है, विरोध लोगों का हक लेकिन सड़क नहीं रोक सकते। कहने की जरूरत नहीं है कि विरोध या धरना देने की जगह निर्धारित नहीं है। जो है वह व्यावहारिक नहीं है और उसके लिए पैसे लिए जाते हैं। कहने का मतलब है कि जिस धरने को आसानी से लाठी मार कर उठाया जा सकता है वह राजनीतिक कारणों से चल रहा है और उसपर तरह-तरह की चिन्ता जताई जा रही है पर वो चिन्ता नहीं जताई जा रही है जो धरने से संबंधित है या धरने के कारण है। सरकार यह कह चुकी है कि संसद में पास कानून के खिलाफ सड़क पर धरना देना ठीक नहीं है। पर यह धरना इसलिए चल रहा है कि यह असंवैधानिक माना जा रहा है और असंवैधानिक है कि नहीं इसे सुप्रीम कोर्ट में तय होना है और मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। मेरे ख्याल से सुप्रीम कोर्ट उस फैसले पर साफ आदेश दे सकती है और धरना की आवश्यकता या वैधता भी उसी से तय हो सकेगी।
आज केअखबारों की बात करूं तो दैनिक भास्कर की चिन्ता या प्रमुखता का सवाल यह भी है कि क्या प्रदर्शन करने चार महीने का बच्चा भी गया था। यह सवाल सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का है जिसे अखबार ने पूरी प्रमुखता से छापा है। दिल्ली की घटनाएं इस अखबार के लिए पहले पन्ने की खबर नहीं है उन्हें दिल्ली के खबरों के पन्ने पर ही छापा गया है। अखबार के अनुसार, शाहीनबाग में प्रदर्शन के दौरान मां के साथ लाए गए (जैसे मां के पास नहीं लाने का कोई विकल्प था और उसे जबरन गिनती बढ़ाने या धरना देना सिखाने के लिए लाया गया हो) चार माह के बच्चे की ठंड से मौत पर बहादुरी पुरस्कार से अलंकृत छात्रा ज़ेन गुणरत्न सदावर्ते की चिट्ठी पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया है। मेरा मानना है कि सीएए के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान उत्तर प्रदेश पुलिस ने बनारस में रवि शेखर और उनकी पत्नी एकता शेखर को भी गिरफ्तार किया था तो उनकी14 महीने की बच्ची चंपक (आर्या) माता-पिता को जमानत नहीं मिलने के कारण 14 दिन परेशान रही। यह इसमें छूट गया है।
आप जानते हैं कि प्रदर्शन करने गए दंपत्ति को कोई अनुमान नहीं था कि उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा और जमानत भी नहीं मिलेगी। अमूमन ऐसा नहीं होता है और यह एक अनूठा मामला था। 19 दिसंबर 2019 को गिरफ्तार दंपति को 14 दिन बाद जमानत मिली। पुलिस ने उनके खिलाफ संगीन धाराएं लगाई। अदालतों में छुट्टी रहने की वजह से जमानत पर सुनवाई देर से हुई। वेबदुनिया से बातचीत में रविशेखर के भाई शशिकांत ने कहा था कि उन्होंने चेतगंज के एसएचओ प्रवीण कुमार से बात की तो उन्होंने चंपक को जेल में शिफ्ट करने की बात कही थी। सुप्रीम कोर्ट जब ऐसे मामले देख ही रही है तो इसपर भी विचार होना चाहिए ताकि आगे के लिए कोई रास्ता निकल सके। मुझे याद है, कहीं पढ़ा था कि पहली तारीख पर जमानत इसलिए नहीं हुई कि पुलिस ने चार्जशीट दायर नहीं की थी। मेरा मानना है कि यह मामला भी उतना ही गंभीर है और बच्चों के संबंध में कोई दिशानिर्देश जारी हो तो इसका भी ख्याल रखा जाए।
हालात ऐसे हैं कि सीएए के विरोधियों को सिपाही भी आजादी देने लगे हैं (टेलीग्राफ का शीर्षक) और कोई अपने छोटे बच्चे के साथ ठंड में धरना देने को मजबूर हो तो भी माहौल उसी के खिलाफ। उत्तर प्रदेश में सीएए का विरोध करने वाले कई लोग पुलिस की गोली से मारे गए उसकी चिन्ता किसी को नहीं है। कहीं कोई चर्चा नहीं है। अमर उजाला के दिल्ली संस्करण में, "कोई हमेशा के लिए सड़ नहीं रोक सकता" और "क्या चार माह का बच्चे प्रदर्शन करने गया था" शीर्षक से दो खबरें चार-चाल कॉलम में टॉप पर हैं। लेकिन सीएए के खिलाफ प्रदर्शनकारी लड़कियों के जननांगों पर लाठी मारने की खबर पहले पन्ने पर नहीं है। दैनिक जागरण ने सड़क रोक कर लोगों को परेशान नहीं कर सकते सुप्रीम कोर्ट शीर्षक खबर सात कॉलम में टॉप पर लगाई है। जागरण की लीड भी सुप्रीम कोर्ट की खबर है, फैसला कोर्ट का, घमासान संसद में। लेकिन जामिया के छात्रों की पिटाई की खबर यहां भी पहले पन्ने पर नहीं है। यह छात्रों या सीएए विरोधियों को महत्व नहीं देने का मामला हो सकता है पर इसकी आड़ में दिल्ली पुलिस और उसके कारकुनों की उद्दंडता को प्रश्रय मिल रहा है।
नवभारत टाइम्स में, गार्गी में प्रदर्शन, संसद में गूंज, मंत्री बोले - बाहरी थे, एफआईआर दर्ज और जामिया से संसद मार्च के लिए निकले तो पुलिस से झड़प शीर्षक दो खबरें पहले पन्ने पर हैं। दोनों दो कॉलम में हैं, छोटी हैं पर फोटो के साथ हैंऔर पुरानी खबर बड़ी तो कल की खबर छोटी है, लेकिन है। हिन्दुस्तान में पहले पन्ने पर जामिया में पुलिस से झड़प, 30 घायल शीर्षक खबर तीन कॉलम में है जबकि गार्गी कॉलेज की खबर सिंगल कॉलम में है।